महाभारतम्-12-शांतिपर्व-224
दिखावट
← शांतिपर्व-223 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-224 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-225 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति गार्हस्थ्ये स्थितस्यापि भगवदुपासकस्य ज्ञानिनः पुरुषार्थसिद्धौ दृष्टान्ततया सुवर्चलाश्वेतकेतूपाख्यानकथनम्।। 1।।
`युधिष्ठिर उवाच। | 12-224-1x |
अस्ति कश्चिद्यदि विभो सदारो नियतो गृहे। अतीतसर्वसंसारः सर्वद्वन्द्वविवर्जितः। तं मे ब्रूहि महाप्राज्ञ दुर्लभः पुरुषो महान्।। | 12-224-1a 12-224-1b 12-224-1c |
भीष्म उवाच। | 12-224-2x |
शृणु राजन्यथावृत्तं यन्मां त्वं पृष्टवानसि। इतिहासमिमं शुद्धं संसारभयभेषजम्।। | 12-224-2a 12-224-2b |
देवलो नाम विप्रर्षिः सर्वशास्त्रार्थकोविदः। क्रियावान्धार्मिको नित्यं देवब्राह्मणपूजकः।। | 12-224-3a 12-224-3b |
सुता सुवर्चला नाम तस्य कल्याणलक्षणा। नातिह्रस्वा नातिकृशा नातिदीर्घा यशस्विनी। प्रदानसमयं प्राप्ता पिता तस्य ह्यचिन्तयत्।। | 12-224-4a 12-224-4b 12-224-4c |
अस्याः पतिः कुतो वेति ब्राह्मणः श्रोत्रियः परः। विद्वान्विप्रो ह्यकुटुम्बः प्रियवादी महातपाः।। | 12-224-5a 12-224-5b |
इत्येवं चिन्तयानं तं रहस्याह सुवर्चला।। | 12-224-6a |
अन्धाय मां महाप्राज्ञ देह्यनन्धाय वै पितः। एवं स्मर सदा विद्वन्ममेदं प्रार्थितं मुने।। | 12-224-7a 12-224-7b |
पितोवाच। | 12-224-8x |
न शक्यं प्रार्थितं वत्से त्वयाऽद्य प्रतिभाति मे। अन्धतानन्धता चेति विकारो मम जायते।। | 12-224-8a 12-224-8b |
उन्मत्तेवाशुभं वाक्यं भाषसे शुभलोचने।। | 12-224-9a |
सुवर्चलोवाच। | 12-224-10x |
नाहमुन्मत्तभूताऽद्य बुद्धिपूर्वं ब्रवीमि ते। विद्यते चेत्पतिस्तादृक्स मां भरति वेदवित्।। | 12-224-10a 12-224-10b |
येभ्यस्त्वं मन्यसे दातुं मामिहानय तान्द्विजान्। तादृशं तं पतिं तेषु वरयिष्ये यथातथम्।। | 12-224-11a 12-224-11b |
भीष्म उवाच। | 12-224-12x |
तथेति चोक्त्वा तां कन्यामृषिः शिष्यानुवाच ह। ब्राह्मणान्वेदसंपन्नान्योनिगोत्रविशोधितान्।। | 12-224-12a 12-224-12b |
मातृतः पितृतः शुद्धाञ्शुद्धानाचारतः शुभान्। अरोगान्बुद्धिसंपन्नाञ्शीलसत्वगुणान्वितान्।। | 12-224-13a 12-224-13b |
असंकीर्णांश्च गोत्रेषु वेदव्रतसमन्वितान्। ब्राह्मणान्स्नातकाञ्शीघ्रं मातापितृसमन्वितान्। निवेष्टुकामान्कन्यां मे दृष्ट्वाऽऽनयत शिष्यकाः।। | 12-224-14a 12-224-14b 12-224-14c |
तच्छ्रुत्वा त्वरिताः शिष्या ह्याश्रमेषु ततस्ततः। ग्रामेषु च ततो गत्वा ब्राह्मणेभ्यो न्यवेदयन्।। | 12-224-15a 12-224-15b |
ऋषेः प्रभावं मत्वा ते कन्यायाश्च द्विजोत्तमाः। अनेकमुनयो राजन्संप्राप्ता देवलाश्रमम्।। | 12-224-16a 12-224-16b |
अनुमान्य यथान्यायं मुनीन्मुनिकुमारकान्। अभ्यर्च्य विधिवत्तत्र कन्यामाह पिता महान्।। | 12-224-17a 12-224-17b |
एतेऽपि मुनयो वत्से स्वपुत्रैकमता इह। वेदवेदाङ्गसंपन्नाः कुलीनाः शीलसंमताः।। | 12-224-18a 12-224-18b |
येऽमी तेषु वरं भद्रे त्वमिच्छसि महाव्रतम्। तं कुमारं वृणीष्वाद्य तस्मै दास्याम्यहं शुभे।। | 12-224-19a 12-224-19b |
तथेति चोक्त्वा कल्याणी तप्तहेमनिभा तदा। सर्वलक्षणसंपन्ना वाक्यमाह यशस्विनी।। | 12-224-20a 12-224-20b |
विप्राणां समितीर्दृष्ट्वा प्रणिपत्य तपोधनान्। यद्यस्ति समितौ विप्रो ह्यन्धोऽनन्धः स मे वरः।। | 12-224-21a 12-224-21b |
तच्छ्रुत्वा मुनयस्तत्र वीक्षमाणाः परस्परम्। नोचुर्विप्रा महाभागाः कन्यां मत्वा ह्यवेदिकां।। | 12-224-22a 12-224-22b |
कुत्सयित्वा मुनिं तत्र मनसा मुनिसत्तमाः। यथागतं ययुः क्रुद्धा नानादेशनिवासिनः।। | 12-224-23a 12-224-23b |
कन्या च संस्थिता तत्र पितृवेश्मनि भामिनी।। | 12-224-24a |
ततः कदाचिद्ब्रह्मण्यो विद्वान्न्यायविशारदः। ऊहापोहविधानज्ञो ब्रह्मचर्यसमन्वितः।। | 12-224-25a 12-224-25b |
वेदविद्वेदतत्वज्ञः क्रियाकल्पविशारदः। आत्मतत्वविभागज्ञः पितृमान्गुणसागरः।। | 12-224-26a 12-224-26b |
श्वेतकेतुरिति ख्यातः श्रुत्वा वृत्तान्तमादरात्। कन्यार्थं देवलं चापि शीघ्रं तत्रागतोऽभवत्।। | 12-224-27a 12-224-27b |
उद्दालकसुतं दृष्ट्वा श्वेतकेतुं महाव्रतम्। यथान्यायं च संपूज्य देवलः प्रत्यभाषत।। | 12-224-28a 12-224-28b |
कन्ये एष महाभागे प्राप्तो ऋषिकुमारकः। वरयैनं महाप्राज्ञं वेदवेदाङ्गपारगम्।। | 12-224-29a 12-224-29b |
तच्छ्रुत्वा कुपिता कन्या ऋषिपुत्रमुदैक्षत। तां कन्यामाह विप्रर्षिः सोऽहं भद्रे समागतः।। | 12-224-30a 12-224-30b |
अन्धोऽहमत्र तत्वं हि तथा मन्ये च सर्वदा। विशालनयनं विद्धि तथा मां हीनसंशयम्। वृणीष्व मां वरारोहे भजे च त्वामनिन्दिते।। | 12-224-31a 12-224-31b 12-224-31c |
येनेदं वीक्षते नित्यं वृणोति स्पृशतेऽथवा। घ्रायते वक्ति सततं येनेदं सार्यते पुनः।। | 12-224-32a 12-224-32b |
येनेदं मन्यते तत्वं येन बुध्यति वा पुनः। न चक्षुर्विद्यते ह्येतत्स वै भूतान्ध उच्यते।। | 12-224-33a 12-224-33b |
यस्मिन्प्रवर्तते चेदं पश्यञ्छृण्वन्स्पृशन्नपि। जिघ्रंश्च रसयंस्तद्वद्वर्तते येन चक्षुषा।। | 12-224-34a 12-224-34b |
तन्मे नास्ति ततो ह्यन्धो वृणु भद्रेऽद्य मामतः। लोकदृष्ट्या करोमीह नित्यनैमित्तिकादिकम्।। | 12-224-35a 12-224-35b |
आत्मदृष्ट्या च तत्सर्वं विलिप्यासि च नित्यशः। स्थितोऽहं निर्भरः शान्तः कार्यकारणभावनः।। | 12-224-36a 12-224-36b |
अविद्यया तरन्मृत्युं विद्यया तं तथाऽमृतम्। यथाप्राप्तं तु संदृश्य वसामीह विमत्सरः। क्रीते व्यवसितं भद्रे भर्ताऽहं ते वृणीष्व माम्।। | 12-224-37a 12-224-37b 12-224-37c |
भीष्म उवाच। | 12-224-38x |
ततः सुवर्चला दृष्ट्वा प्राह तं द्विजसत्तमम्। मनसाऽसि वृतो विद्वञ्शेषकर्ता पिता मम। वृणीष्व पितरं मह्यमेष वेदविधिक्रमः।। | 12-224-38a 12-224-38b 12-224-38c |
तद्विज्ञाय पिता तस्या देवलो मुनिसत्तमः। श्वेतकेतुं च संपूज्य तथैवोद्दालकेन तम्।। | 12-224-39a 12-224-39b |
मुनीनामग्रतः कन्यां प्रददौ जलपूर्वकम्। उदाहरन्ति वै तत्र श्वेतकेतुं निरीक्ष्य तम्।। | 12-224-40a 12-224-40b |
हृत्पुण्डरीकनिलयः सर्वभूतात्मको हरिः। श्वेतकेतुस्वरूपेण स्थितोऽसौ मधुसूदनः।। | 12-224-41a 12-224-41b |
प्रीयतां माधवो देवः पत्नी चेयं सुता मम। प्रतिपादयामि ते कन्यां सहधर्मचरीं शुभाम्। इत्युक्त्वा प्रददौ तस्मै देवलो मुनिपुङ्गवः।। | 12-224-42a 12-224-42b 12-224-42c |
प्रतिगृह्य च तां कन्यां श्वेतकेतुर्महायशाः। उपयम्य यथान्यायमत्र कृत्वा यथाविधि।। | 12-224-43a 12-224-43b |
समाप्य तन्त्रं मुनिभिर्वैवाहिकमनुत्तमम्। स गार्हस्थ्ये वसन्धीमान्भार्यां तामिदमब्रवीत्।। | 12-224-44a 12-224-44b |
यानि चोक्तानि वेदेषु तत्सर्वं कुरु शोभने। मया सह यथान्यायं सहधर्मचरी मम्।। | 12-224-45a 12-224-45b |
अहमित्येव भावेन स्थितोऽहं त्वं तथैव च। तस्मात्कर्माणि कुर्वीथाः कुर्यां ते च ततः परम्।। | 12-224-46a 12-224-46b |
न ममेति च भावेन ज्ञानाग्निनिलयेन च। अनन्तरं तथा कुर्यास्तानि कर्माणि भस्मसात्।। | 12-224-47a 12-224-47b |
एवं त्वया च कर्तव्यं सर्वदा दुर्भगा मया। यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। तस्माल्लोकस्य सिद्ध्यर्थं कर्तव्यं चात्मसिद्धये।। | 12-224-48a 12-224-48b 12-224-48c |
उक्त्वैवं स महाप्राज्ञः सर्वज्ञानैकभाजनः। पुत्रानुत्पाद्य तस्यां च यज्ञैः संतर्प्य देवताः।। | 12-224-49a 12-224-49b |
आत्मयोगपरो नित्यं निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः। भार्यां तां सदृशीं प्राप्य बुद्धिं क्षेत्रज्ञयोरिव।। | 12-224-50a 12-224-50b |
लोकमन्यमनुप्राप्तौ भार्या भर्ता तथैव च। साक्षिभूतौ जगत्यस्मिंश्चरमाणौ मुदाऽन्वितौ।। | 12-224-51a 12-224-51b |
ततः कदाचिद्भर्तारं श्वेतकेतुं सुवर्चला। पप्रच्छ को भवानत्र ब्रूहि मे तद्द्विजोत्तम।। | 12-224-52a 12-224-52b |
तामाह भगवान्वाग्मी तया ज्ञातो न संशयः। द्विजोत्तमेति मामुक्त्वा पुनः कमनुपृच्छसि।। | 12-224-53a 12-224-53b |
सा तमाह महात्मानं पृच्छामि हृदि शायिनम्। तच्छ्रुत्वा प्रत्युवाचैनां स न वक्ष्यति भामिनि।। | 12-224-54a 12-224-54b |
नामगोत्रसमायुक्तमात्मानं मन्यसे यदि। तन्मिथ्यागोत्रसद्भावे वर्तते देहबन्धनम्।। | 12-224-55a 12-224-55b |
अहमित्येष भावोऽत्र त्वयि चापि समाहितः। त्वमप्यहमहं सर्वमहमित्येव वर्तते। नात्र तत्परमार्थं वै किमर्थमनुपृच्छसि।। | 12-224-56a 12-224-56b 12-224-56c |
ततः प्रहस्य सा हृष्टा भर्तारं धर्मचारिणी। उवाच वचनं काले स्मयमाना तदा नृप।। | 12-224-57a 12-224-57b |
किमनेकप्रकारेण विरोधेन प्रयोजनम्। क्रियाकलापैर्ब्रह्मर्षे ज्ञाननष्टोऽसि सर्वदा। तन्मे ब्रूहि महाप्राज्ञ यथाऽहं त्वामनुव्रता।। | 12-224-58a 12-224-58b 12-224-58c |
श्वेतकेतुरुवाच। | 12-224-59x |
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। वर्तते तेन लोकोऽयं संकीर्णश्च भविष्यति।। | 12-224-59a 12-224-59b |
संकीर्णे च तथा धर्मे वर्णः संकरमेति च। संकरे च प्रवृत्ते तु मात्स्यो न्यायः प्रवर्तते।। | 12-224-60a 12-224-60b |
तदनिष्टं हरेर्भद्रे धातुरस्य महात्मनः। परमेश्वरसंक्रीडा लोकसृष्टिरियं शुभे।। | 12-224-61a 12-224-61b |
यावत्पासव उद्दिष्टास्तावत्योऽस्य विभूतयः। तावत्यश्चैव मायास्तु तावत्योऽस्याश्च शक्तयः।। | 12-224-62a 12-224-62b |
एवं सुगह्वरे युक्तो यत्र मे तद्भवाभवम्। छित्त्वा ज्ञानासिना गच्छेत्स विद्वान्स च मे प्रियः। सोऽहमेव न सन्देहः प्रतिज्ञा इति तस्य वै।। | 12-224-63a 12-224-63b 12-224-63c |
ये मूढास्ते दुरात्मानो धर्मसंकरकारकाः। मर्यादाभेदका नीचा नरके यान्ति जन्तवः।। | 12-224-64a 12-224-64b |
आसुरीं योनिमापन्ना इति देवानुशासनम्।। | 12-224-65a |
भगवत्या तथा लोके रक्षितव्यं न संशयः। मर्यादालोकरक्षार्थमेवमस्ति तथा स्थितः।। | 12-224-66a 12-224-66b |
सुवर्चलोवाच। | 12-224-67x |
शब्दः कोत्र इति ख्यातस्तथाऽर्थं च महामुने। आकृत्या पतयो ब्रूहि लक्षणेन पृथक्पृथक्।। | 12-224-67a 12-224-67b |
श्वेतकेतुरुवाच। | 12-224-68x |
व्यत्ययेन च वर्णानां परिवादकृतो हि यः। स शब्द इति विज्ञेयस्तन्निपातोऽर्थ उच्यते।। | 12-224-68a 12-224-68b |
सुवर्चलोवाच। | 12-224-69x |
शब्दार्थयोर्हि संबन्धस्त्वनयोरस्ति वा न वा। तन्मे ब्रूहि यथातत्वं शब्दस्यानेऽर्थ एव चेत्।। | 12-224-69a 12-224-69b |
श्वेतकेतुरुवाच। | 12-224-70x |
शब्दार्थयोर्न चैवास्ति संबन्धोऽत्यन्त एव हि। पुष्करे च यथा तोयं तथाऽस्मीति च वेत्थ तत्।। | 12-224-70a 12-224-70b |
सुवर्चलोवाच। | 12-224-71x |
अर्थे स्थितिर्हि शब्दस्य नान्यथा च स्थितिर्भवेत्। विद्यते चेन्महाप्राज्ञ विनाऽर्थं ब्रूहि सत्तम।। | 12-224-71a 12-224-71b |
श्वेतकेतुरुवाच। | 12-224-72x |
ससंसर्गोऽतिमात्रस्तु वाचकत्वेन वर्तते। अस्ति चेद्वर्तते नित्यं विकारोच्चारणेन वै।। | 12-224-72a 12-224-72b |
सुवर्चलोवाच। | 12-224-73x |
शब्दस्थानोत्र इत्युक्तस्तथाऽर्थ इति मे कृतः। अर्थः स्थितो न तिष्ठेच्च विरूढमिह भाषितम्।। | 12-224-73a 12-224-73b |
श्वेतकेतुरुवाच। | 12-224-74x |
न विकूलोऽत्र कथितो नाकाशं हि विना जगत्। संबन्धस्तत्र नास्त्येव तद्वदित्येष मन्यताम्।। | 12-224-74a 12-224-74b |
सुवर्चलोवाच। | 12-224-75x |
सदाऽहंकारशब्दोऽयं व्यक्तमात्मनि संश्रितः। न वाचस्तत्र वर्तन्ते इति मिथ्या भविष्यति।। | 12-224-75a 12-224-75b |
श्वेतकेतुरुवाच। | 12-224-76x |
अहंशब्दो ह्यहंभावो नात्मभावे शुभव्रते। न वर्तन्ते परेऽचिन्त्ये वाचः सगुणलक्षणाः।। | 12-224-76a 12-224-76b |
सुवर्चलोवाच। | 12-224-77x |
अहं गात्रैकतः श्यामा भावनपि तथैव च। तन्मे ब्रूहि यथान्यायमेवं चेन्मुनिसत्तम।। | 12-224-77a 12-224-77b |
श्वेतकेतुरुवाच। | 12-224-78x |
मृण्मये हि घटे भावस्तादृग्भाव इहेष्यते। अयं भावः परेऽचिन्त्ये ह्यात्मभावो यथाच तत्।। | 12-224-78a 12-224-78b |
अहं त्वमेतदित्येव परे संकल्पना मया। तस्माद्वाचो न वर्तन्त इति नैव विरुध्यते।। | 12-224-79a 12-224-79b |
तस्माद्वामेन वर्तन्ते मनसा भीरु सर्वशः। यथाऽऽकाशगतं विश्वं संसक्तमिव लक्ष्यते।। | 12-224-80a 12-224-80b |
संसर्गे सति संबन्धात्तद्विकारं भविष्यति। अनाकाशगतं सर्वं विकारे च सदा गतम्।। | 12-224-81a 12-224-81b |
तद्ब्रह्म परमं शुद्धमनौषम्यं न शक्यते। न दृश्यते तथा तच्च दृश्यते च मतिर्मम।। | 12-224-82a 12-224-82b |
सुवर्चलोवाच। | 12-224-83x |
निर्विकारं ह्यमूर्ति च निरयं सर्वगं तथा। दृश्यते च वियन्नित्यं दृगात्मा तेन दृश्यते।। | 12-224-83a 12-224-83b |
श्वेतकेतुरुवाच। | 12-224-84x |
त्वचा स्पृशति वै वायुमाकाशस्थं पुनः पुनः। तत्स्थं गन्धं तथाघ्राति ज्योतिः पश्यति चक्षुषा।। | 12-224-84a 12-224-84b |
तमोरश्मिगणश्चैव मेघजालं तथैव च। वर्षं तारागणं चैव नाकाशं दृश्यते पुनः।। | 12-224-85a 12-224-85b |
आकाशस्याप्यथाकाशं सद्रूपमिति निश्चितम्। तदर्थे कल्पिता ह्येते तत्सत्यो विष्णुरेव च। यानि नामानि गौणानि ह्युपचारात्परात्मनि।। | 12-224-86a 12-224-86b 12-224-86c |
न चक्षुषा न मनसा न चान्येन परो विभुः। चिन्त्यते सूक्ष्मया बुद्ध्या वाचा वक्तुं न शक्यते।। | 12-224-87a 12-224-87b |
एतत्प्रपञ्चमखिलं तस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम्। महाघटोऽल्पकश्चैव यथा मह्यां प्रतिष्ठितौ।। | 12-224-88a 12-224-88b |
न च स्त्री न पुमांश्चैव यथैव न नपुंसकः। केवलज्ञानमात्रं तत्तस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम्।। | 12-224-89a 12-224-89b |
भूमिसंस्थानयोगेन वस्तुसंस्थानयोगतः। रसभेदा यथा तोये प्रकृत्यामात्मनस्तथा।। | 12-224-90a 12-224-90b |
तद्वाक्यस्मरणान्नित्यं तृप्तिं वारि पिबन्निव। प्राप्नोति ज्ञानमखिलं तेन तत्सुखमेधते।। | 12-224-91a 12-224-91b |
सुवर्चलोवाच। | 12-224-92x |
अनेन साध्यं किं स्याद्वै शब्देनेति मतिर्मम। वेदगम्यः परोऽचिन्त्य इति पौराणिका विदुः।। | 12-224-92a 12-224-92b |
निरर्थको यथा लोके तद्वत्स्यादिति मे मतिः। निरीक्ष्यैवं यथान्यायं वक्तुमर्हसि मेऽनघ।। | 12-224-93a 12-224-93b |
श्वेतकेतुरुवाच। | 12-224-94x |
वेदगम्यं परं शुद्धमिति सत्या परा श्रुतिः। व्याहत्या नैतदित्याह व्युपलिङ्गे च वर्तते।। | 12-224-94a 12-224-94b |
निरर्थको न चैवास्ति शब्दो लौकिक उत्तमे। अनन्वयास्तथा शब्दा निरर्था इति लौकिकैः।। | 12-224-95a 12-224-95b |
गृह्यन्ते तद्वदित्येव न वर्तन्ते परात्मनि। अगोचरत्वं वचसां युक्तमेवं तथा शुभे।। | 12-224-96a 12-224-96b |
साधनस्योपदेशाच्च ह्युपायस्य च सूचनात्। उपलक्षणयोगेन व्यावृत्त्या च प्रदर्शनात्। वेदगम्यः परः शुद्ध इति मे धीयते मतिः।। | 12-224-97a 12-224-97b 12-224-97c |
अध्यात्मध्यानसंभूतमभूतं----- वत्स्फुटम्। ज्ञानं विद्धि शुभाचारे तेन यान्ति परां गतिम्।। | 12-224-98a 12-224-98b |
यदि मे व्याहृतं गुह्यं श्रुतं न तु त्वया शुभे। तथ्यमित्येव वा शुद्धे ज्ञानं ज्ञानविलोचने।। | 12-224-99a 12-224-99b |
नानारूपवदस्यैवमैश्वर्यं दृश्यते शुभे। न वायुस्तं न सूर्यस्तं नाग्निस्तत्तत्परं पदम्।। | 12-224-100a 12-224-100b |
अनेन पूर्णमेतद्धि हृदि भूतमिहेष्यते। एतावदात्मविज्ञानमेतावद्यदहं स्मृतम्। आवयोर्न च सत्वे वै तस्मादज्ञानबन्धनम्।। | 12-224-101a 12-224-101b 12-224-101c |
भीष्म उवाच। | 12-224-102x |
एवं सुवर्चला हृष्टा प्रोक्ता भर्त्रा यथार्थवत्। परिचर्यमाणा ह्यनिशं तत्वबुद्धिसमन्विता।। | 12-224-102a 12-224-102b |
भर्ता च तामनुप्रेक्ष्य नित्यनैमित्तिकान्वितः। परमात्मनि गोविन्दे वासुदेवे महात्मनि।। | 12-224-103a 12-224-103b |
समाधाय च कर्माणि तन्मयत्वेन भावितः। कालेन महता राजन्प्राप्नोति परमां गतिम्।। | 12-224-104a 12-224-104b |
एतत्ते कथितं राजन्यस्मात्त्वं परिपृच्छसि। गार्हस्थ्यं च समास्थाय गतौ जायापती परम्' | 12-224-105a 12-224-105b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुर्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 224।। |
शांतिपर्व-223 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-225 |