महाभारतम्-12-शांतिपर्व-305
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति मोक्षसाधनप्रतिपादकहंससाध्यसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-305-1x |
सत्यं दमं क्षमां प्रज्ञां प्रशंसन्ति पितामह। विद्वांसो मनुजा लोके कथमेतन्मतं तव।। | 12-305-1a 12-305-1b |
भीष्म उवाच। | 12-305-2x |
अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम्। साध्यानामिह संवादं हंसस्य च युधिष्ठिर।। | 12-305-2a 12-305-2b |
हंसो भूत्वाऽथ सौवर्णस्त्वजो नित्यः प्रजापतिः। स वै पर्येति लोकांस्त्रीनथ साध्यानुपागमत्।। | 12-305-3a 12-305-3b |
साध्या ऊचुः। | 12-305-4x |
शकुने वयं स्म देवा वै साध्यास्त्वामनुयुङ्क्ष्महे। पृच्छामस्त्वां मोक्षधर्मं भवांश्च किल मोक्षवित्।। | 12-305-4a 12-305-4b |
श्रुतोसि नः पण्डितो धीरवादी साधुः शब्दश्चरते ते पतत्रिन्। किं मन्यसे श्रेष्ठतमं द्विज त्वं कस्मिन्मनस्ते रमते महात्मन्।। | 12-305-5a 12-305-5b 12-305-5c 12-305-5d |
तन्नः कार्यं पक्षिवर प्रशाधि यत्कार्याणां मन्यसे श्रेष्ठमेकम्। यत्कृत्वा वै पुरुषः सर्वबन्धै र्विमुच्यते विहगेन्द्रेह शीघ्रम्।। | 12-305-6a 12-305-6b 12-305-6c 12-305-6d |
हंस उवाच। | 12-305-7x |
इदं कार्यममृताशाः शृणुध्वं तपो दमः सत्यमात्माभिगुप्तिः। ग्रन्थीन्विमुच्य हृदयस्य सर्वा न्प्रियाप्रिये स्वं वशमानयीत।। | 12-305-7a 12-305-7b 12-305-7c 12-305-7d |
नारुतुदः स्यान्न नृशंसवादी न हीनतः परमभ्याददीत। ययाऽस्य वाचा पर उद्विजेत न तां वदेदुशतिं पापलोक्याम्।। | 12-305-8a 12-305-8b 12-305-8c 12-305-8d |
वाक्सायका वदनान्निष्यतन्ति यैराहतः शोचति रात्र्यहानि। परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान्पण्डितो नावसृजेत्परेषु।। | 12-305-9a 12-305-9b 12-305-9c 12-305-9d |
परश्चेदेनमतिवादवाणै र्भृशं विध्येच्छम एवेह कार्यः। संरोष्यमाणः प्रतिहृष्यते यः स आदत्ते सुकृतं वै परस्य।। | 12-305-10a 12-305-10b 12-305-10c 12-305-10d |
क्षेपायमाणमभिषङ्गव्यलीकं निगृह्णाति ज्वलितं यश्च मन्युम्। अदुष्टचेता मुदितोऽनसूयुः स आदत्ते सुकृतं वै परेषाम्।। | 12-305-11a 12-305-11b 12-305-11c 12-305-11d |
आक्रुश्यमानो न वदामि किंचि त्क्षमाम्यहं ताड्यमानश्च नित्यम्। श्रेष्ठं ह्येतद्यत्क्षमामाहुरार्याः सत्यं तथैवार्जवमानृशंस्यम्।। | 12-305-12a 12-305-12b 12-305-12c 12-305-12d |
वेदस्योपनिषत्सत्यं सत्यस्योपनिषद्दमः। दमस्योपनिषन्मोक्ष एतत्सर्वानुशासनम्।। | 12-305-13a 12-305-13b |
वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं विधित्सावेगमुदरोपस्थवेगम्। एतान्वेगान्यो विषहेदुदीर्णां स्तं मन्येऽहं ब्राह्मणं वै मुनिं च।। | 12-305-14a 12-305-14b 12-305-14c 12-305-14d |
अक्रोधनः क्रुध्यतां वै विशिष्ट स्तथा तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्टः। अमानुषान्मानुषो वै विशिष्ट स्तथाऽज्ञानाज्ज्ञानवान्वै विशिष्टः।। | 12-305-15a 12-305-15b 12-305-15c 12-305-15d |
आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेवं तितिक्षतः। आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति।। | 12-305-16a 12-305-16b |
यो नायुक्तः प्राह रूक्षं प्रियं वा यो वा हतो न प्रतिहन्ति धैर्यात्। पापं च यो नेच्छति तस्य हन्तु स्तस्येह देवाः स्पृहयन्ति नित्यम्।। | 12-305-17a 12-305-17b 12-305-17c 12-305-17d |
पापीयसः क्षमेतैव श्रेयसः सदृशस्य च। विमानितो हतोक्रुष्ट एवं सिद्धिं गमिष्यति।। | 12-305-18a 12-305-18b |
सदाऽहमार्यान्निभृतोप्युपासे न मे विधित्सोत्सहते न रोषः। न चाप्यहं लिप्समानः परैमि न चैव किंचिद्विषमेण यामि।। | 12-305-19a 12-305-19b 12-305-19c 12-305-19d |
नाहं शप्तः प्रतिशपामि कंचि द्दमं द्वारं ह्यमृतस्येह वेद्मि। गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि न मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किंचित्।। | 12-305-20a 12-305-20b 12-305-20c 12-305-20d |
निर्मुच्यमानः पापेभ्यो घनेभ्य इव चन्द्रमाः। विरजाः कालमाकाङ्क्षन्धीरो धैर्येण सिध्यति।। | 12-305-21a 12-305-21b |
यः सर्वेषां भवति ह्यर्चनीय उत्सेचने स्तम्भ इवाभिजातः। यस्मै वाचं सुप्रसन्नां वदन्ति स वै देवान्गच्छति संयतात्मा।। | 12-305-22a 12-305-22b 12-305-22c 12-305-22d |
न तथा वक्तुमिच्छन्ति कल्याणान्पुरुषे गुणान्। यथैषां वक्तुमिच्छन्ति नैर्गुण्यमनुयुञ्जकाः।। | 12-305-23a 12-305-23b |
यस्य वाङ्भनसी गुप्ते सम्यक्प्रणिहिते सदा। वेदास्तपश्च त्यागश्च स इदं सर्वमाप्नुयात्।। | 12-305-24a 12-305-24b |
आक्रोशनविमानाभ्यां नाबुधान्बोधयेद्बुधः। तस्मान्न वर्धयेदन्यं न चात्मानं विहिंसयेंत्।। | 12-305-25a 12-305-25b |
अमृतस्येव संतृप्येदवमानस्य पण्डितः। सुखं ह्यवमतः शेते योऽवमन्ता स नश्यति।। | 12-305-26a 12-305-26b |
यत्क्रोधनो यजति यद्ददाति यद्वा तपस्तप्यति यज्जुहोति। वैवस्वतस्तद्धरतेऽस्य सर्वं मोघः श्रमो भवति हि क्रोधनस्य।। | 12-305-27a 12-305-27b 12-305-27c 12-305-27d |
चत्वारि यस्य द्वाराणि सुगुप्तान्यमरोत्तमाः। उपस्थमुदरं हस्तौ वाक्चतुर्थी स धर्मवित्।। | 12-305-28a 12-305-28b |
सत्यं दमं ह्यार्जवमानृशंस्यं धृतिं तितिक्षामभिसेवमानः। स्वाध्यायनित्योऽस्पृहयन्यरेषा मेकान्तशील्यूर्ध्वगतिर्भवेत्सः।। | 12-305-29a 12-305-29b 12-305-29c 12-305-29d |
सर्वान्देदाननुचरन्वत्सवच्चतुरः स्तनान्। न पावनतमं किंचित्सत्याद्गध्यगमं क्वचित्।। | 12-305-30a 12-305-30b |
आचक्षेऽहं मनुष्येभ्यो देवेभ्यः प्रतिसंचरन्। सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव।। | 12-305-31a 12-305-31b |
यादृशैः संविवदते यादृशांश्चोपसेवते। यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति पूरुषः।। | 12-305-32a 12-305-32b |
यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव। वासो यथा रागवशं प्रयाति तथा स तेषां वशमभ्युपैति।। | 12-305-33a 12-305-33b 12-305-33c 12-305-33d |
सदा देवाः साधुभिः संवदन्ते न मानुषं विषयं यान्ति द्रष्टुम्। नेन्दुः समः स्यादसमो हि वायु रुच्चावचं विषयं यः स वेद।। | 12-305-34a 12-305-34b 12-305-34c 12-305-34d |
अदुष्टं वर्तमाने तु हृदयान्तरपूरुषे। तेनैव देवाः प्रीयन्ते सतां मार्गस्थितेन वै।। | 12-305-35a 12-305-35b |
विश्नोदरे ये निरताः सदैव स्तेना नरा वाक्यरुषाश्च नित्यम्। अपेतधर्मानिति तान्विदित्वा दूराद्देवः संपरिवर्जयन्ति।। | 12-305-36a 12-305-36b 12-305-36c 12-305-36d |
न वै देवा हीनसत्वेन तोष्याः सर्वाशिना दुष्कृतकर्मणा वा। सत्यव्रता ये तु नराः कृतज्ञा धर्मे रतास्तैः सह संभजन्ते।। | 12-305-37a 12-305-37b 12-305-37c 12-305-37d |
अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः सत्यं वदेद्व्याहृतं तद्द्वितीयम्। धर्म्यं वदेद्व्याहृतं तत्तृतीयं प्रियं वदेद्व्याहृतं तच्चतुर्थम्।। | 12-305-38a 12-305-38b 12-305-38c 12-305-38d |
साध्या ऊचुः। | 12-305-39x |
केनायमावृतो लोकः केन वा न प्रकाशते। केन त्यजति मित्राणि केन स्वर्गं न गच्छति।। | 12-305-39a 12-305-39b |
हंस उवाच। | 12-305-40x |
अज्ञानेनावृतो लोको मात्सर्यान्न प्रकाशते। लोभात्त्यजति मित्राणि सङ्गात्स्वर्गं न गच्छति।। | 12-305-40a 12-305-40b |
साध्या ऊचः। | 12-305-41x |
कः स्विदेको रमते ब्राह्मणानां कः स्विदेको बहुभिर्जोषमास्ते। कः स्विदेको बलवान्दुर्बलोपि कः स्विदेषां कलहं नान्ववैति।। | 12-305-41a 12-305-41b 12-305-41c 12-305-41d |
हंस उवाच। | 12-305-42x |
प्राज्ञ एको रमते ब्राह्मणानां प्राज्ञश्चैको बहुभिर्जोषमास्ते प्राज्ञ एको बलवान्दुर्बलोऽपि प्राज्ञ एषां कलहं नान्वबैति।। | 12-305-42a 12-305-42b 12-305-42c 12-305-42d |
साध्या ऊचुः। | 12-305-43x |
किं ब्राह्मणानां देवत्वं किंच साधुत्वमुच्यते। असाधुत्वे च किं तेषां किमेषां मानुषं मतम्।। | 12-305-43a 12-305-43b |
हंस उवाच। | 12-305-44x |
स्वाध्याय एषां देवत्वं व्रतं साधुत्वमुच्यते। असाधुत्वं परीवादो मृत्युर्मानुष्यमुच्यते।। | 12-305-44a 12-305-44b |
भीष्म उवाच। | 12-305-45x |
` इत्युक्त्वा परमो देवो भगवान्नित्य अव्ययः। साध्यैर्देवगणैः सार्धं दिवमेवारुरोह सः।। | 12-305-45a 12-305-45b |
एतद्यशस्यमायुष्यं पुण्यं स्वर्गाय च ध्रुवम्। दर्शितं देवदेवेन परमेणाव्ययेन च।।' | 12-305-46a 12-305-46b |
संवाद इत्ययं श्रेष्ठः साध्यानां परिकीर्तितः। क्षेत्रं वै कर्मणां योनिः सद्भावः सत्यमुच्यते।। | 12-305-47a 12-305-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चाधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 305।। |
12-305-5 हे द्विज पक्षिन्।। 12-305-7 भो अमृताशा अमृतभुजो देवाः तपः स्वधर्माचरणम्। प्रन्थीन् रागादीन्।। 12-305-8 अंरुतुदो मर्मच्छित्।। 12-305-11 क्षेपायमाणमधिक्षेपकारिणम्। अभिषङ्गव्यलीकमभिनिवेशवशादप्रियम्।। 12-305-13 उपनिषद्रहस्यं वेदाधिगमस्य फलं सत्यवचनमित्यर्थः। दमस्योपनिषत्त्याग इति ध. पाठः।। 12-305-14 विधित्सा विशिष्टा पिपासा। धेट् पानेऽस्य रूपम्। तृष्णावेगमित्यर्थः। ब्राह्मणं ब्रह्मिष्टम्। मुनिं ध्यायिनम्।। 12-305-15 अज्ञानाज्ज्ञानहीनान्मूढात्।। 12-305-17 अत्युक्तोऽत्यन्तं निन्दितः।। 12-305-19 निभृतोऽपि पूर्णोऽपि। विधित्सा तृष्णा। उत्सहते उल्लसति। परैमि धर्मादपगच्छामि।। 12-305-20 ब्रह्म महत्।। 12-305-23 नैर्गुण्यं दोषम्। अनुयुञ्जकाः स्पर्धावन्तः।। 12-305-25 अबुधान् आक्रोष्टॄन् शुनकानिवन बोधयेत्। न वर्धयेत् न हिंसयेत्। मबुध्वा वर्धते बुध इति ड. पाठः।। 12-305-29 अस्पृहयन्परेषां आशां जितवान्।। 12-305-31 आचक्षे कथयामि। पारावारस्य समुद्रस्य।। 12-305-34 इन्दुरमृतमयोऽपि न समः किंतूपचयापचयधर्मा। तथा वायुरप्यसम एव। मन्दमध्यमतीव्रभेदात्। एवं सर्वं विषयमुच्चावयमुपचयापचयवन्तं यो वेद स एव वेद नान्य इत्यर्थः।। 12-305-37 हीनसत्वेन नीचबुद्धिना। संभजन्ते सुखं विभज्य सेवन्ते।। 12-305-38 अव्याहृतं मौनम्।।
शांतिपर्व-304 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-306 |