महाभारतम्-12-शांतिपर्व-307
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति साङ्ख्यनिरूपणम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-307-1x |
सम्पक्त्वयाऽयं नृपते वर्णितः शिष्टसंमतः। योगमार्गो यथान्यायं शिष्यायेह हितैषिणा।। | 12-307-1a 12-307-1b |
साङ्ख्ये त्विदानीं कार्त्स्न्येन विधिं प्रब्रूहि पृच्छते। त्रिषु लोकेषु यज्ज्ञानं सर्वं तद्विदितं हि ते।। | 12-307-2a 12-307-2b |
भीष्म उवाच। | 12-307-3x |
शृणु मे त्वमिदं कृत्स्नं साङ्ख्यानां विदितात्मनाम्। विदितं यतिभिः सर्वैः कपिलादिभिरीश्वरैः।। | 12-307-3a 12-307-3b |
यस्मिन्नविभ्रमाः केचिद्दृश्यन्ते मनुजर्षभ। गुणाश्च यस्मिन्बहवो दोषहानिश्च केवला।। | 12-307-4a 12-307-4b |
ज्ञानेन परिसङ्ख्याय सदोषान्विषयान्नृप। मानुषान्दुर्जयान्कृत्स्नान्पैशाचान्विषयांस्तथा।। | 12-307-5a 12-307-5b |
राक्षसान्विषयाञ्ज्ञात्वा यक्षाणां विषयांस्तथा। विषयानौरगाञ्ज्ञात्वा गान्धर्वविषयांस्तथा।। | 12-307-6a 12-307-6b |
पितृणां विषयाञ्ज्ञात्वा तिर्यक्षु चरतां नृप। सुपर्णविषयाञ्ज्ञात्वा मरुतां विषयांस्तथा।। | 12-307-7a 12-307-7b |
राजर्षिविषयाञ्ज्ञात्वा ब्रह्मर्षिविषयांस्तथा। आसुरान्विषयाञ्ज्ञात्वा वैश्वदेवांस्तथैव च।। | 12-307-8a 12-307-8b |
देवर्षिविषयाञ्ज्ञात्वा योगानामपि चेश्वरान्। प्रजापतीनां विषयान्ब्रह्मणो विषयांस्तथा।। | 12-307-9a 12-307-9b |
आयुषश्च परं कालं लोके विज्ञाय तत्त्वतः। सुखस्य च परं तत्त्वं विज्ञाय वदतां वर।। | 12-307-10a 12-307-10b |
प्राप्ते काले च यद्दुःखं सततं विषयैषिणाम्। तिर्यक्षु पततां दुःखं पततां नरके च यत्।। | 12-307-11a 12-307-11b |
स्वर्गस्य च गुणान्कृत्स्नान्दोषान्सर्वांश्च भारत। `परिसंख्यानसंख्यानं सत्वं सांख्यगुणात्मकम्।' वेदवादे येऽपि दोषा गुणा ये चापि वैदिकाः।। | 12-307-12a 12-307-12b 12-307-12c |
ज्ञानयोगे च ये दोषा गुणा योगे च ये नृप। साङ्ख्यज्ञाने च ये दोषास्तथैव च गुणा नृप। `इतरेषु च ये दोषा गुणास्तेषु च भारत।।' | 12-307-13a 12-307-13b 12-307-13c |
सत्वं दशगुणं ज्ञात्वा रजो नवगुणं तथा। तमश्चाष्टगुणं ज्ञात्वा वृद्धिं सप्तगुणां तथा।। | 12-307-14a 12-307-14b |
षङ्गुणं च मनो ज्ञात्वा नभः पञ्चगुणं तथा। बुद्धिं चतुर्गुणां ज्ञात्वा तमश्च त्रिगुणं तथा।। | 12-307-15a 12-307-15b |
द्विगुणं च रजो ज्ञात्वा सत्वमेकगुणं पुनः। सर्गं विज्ञाय तत्त्वेन प्रलये प्रेक्ष्य चात्मनः।। | 12-307-16a 12-307-16b |
ज्ञानविज्ञानसंपन्नाः कारणैर्भाविताः शुभाः। प्राप्नुवन्ति शुभं मोक्षं सूक्ष्मा इव नभः परम्।। | 12-307-17a 12-307-17b |
रूपेण दृष्टिं संयुक्तां घ्राणं गन्धगुणेन च। शब्दे सक्तं तथा श्रोत्रं जिह्वा रसगुणेषु च।। | 12-307-18a 12-307-18b |
त्वचं स्पर्शे तथा सक्तां वायुं नभसि चाश्रितम्। मोहं तमसि संयुक्तं लोभमर्थेषु संश्रितम्।। | 12-307-19a 12-307-19b |
विष्णौ क्रान्तं बलं शक्रे कोष्ठे सक्तं तथाऽनलम्। अप्सु देवीं समासक्तामपस्तेजसि संश्रिताः।। | 12-307-20a 12-307-20b |
तेजः सूक्ष्मे च संयुक्तं वायुं नभसि चाश्रितम्। नभो महति संयुक्तं महद्बुद्धौ च संश्रितम्।। | 12-307-21a 12-307-21b |
बुद्धिं तमसि संसक्तां तमो रजसि संश्रितम्। रजः सत्वे तथा सक्तं सत्वं सक्तं तथाऽऽत्मनि।। | 12-307-22a 12-307-22b |
सक्तमात्मानमीशे च देवे नारायणे तथा। देवं मोक्षे च संसक्तं मोक्षं सक्तं तु न क्वचित्।। | 12-307-23a 12-307-23b |
ज्ञात्वा सत्वयुतं देहं वृतं षोडशभिर्गुणैः। स्वभावं चेतनां चैव ज्ञात्वा देहसमाश्रिते।। | 12-307-24a 12-307-24b |
मध्यस्थमेकमात्मानं पापं यस्मिन्न विद्यते। द्वितीयं कर्म विज्ञाय नृपते विषयैषिणाम्।। | 12-307-25a 12-307-25b |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च सर्वानात्मनि संश्रितान्। दुर्लभत्वं च मोक्षस्य विज्ञाय श्रुतिपूर्वकम्।। | 12-307-26a 12-307-26b |
प्राणापानौ समानं च व्यानोदानौ च तत्त्वतः। आवहं चानिलं ज्ञात्वा प्रवहं चानिलं पुनः।। | 12-307-27a 12-307-27b |
सप्तवातांस्तथा शेषान्सप्तधा विहितान्पुनः। प्रजापतीनृषींश्चैव मार्गांश्चैव बहून्वरान्।। | 12-307-28a 12-307-28b |
सप्तर्षीश्च बहूञ्ज्ञात्वा राजर्षीश्च परंतप। सुरर्षीन्महतश्चान्यान्ब्रह्मर्षीन्सूर्यसन्निभान्।। | 12-307-29a 12-307-29b |
ऐश्वर्याच्च्यावितान्दृष्ट्वा कालेन महता नृप। महतां भूतसङ्घानां श्रुत्वा नाशं च पार्थिव।। | 12-307-30a 12-307-30b |
गतिं चाप्यशुभां ज्ञात्वा नृपते पापकर्मिणाम्। वैतरण्यां च यद्दुःखं पतितानां यमक्षये।। | 12-307-31a 12-307-31b |
योनीषु च विचित्रासु संसारानशुभांस्तथा। जठरे चाशुभे वासं शोणितोदकभाजने।। | 12-307-32a 12-307-32b |
श्लेष्ममूत्रपुरीषे च तीव्रगन्धसमन्विते। शुक्रशोणितसंघाते मज्जास्नायुपरिग्रहे।। | 12-307-33a 12-307-33b |
सिराशतसमाकीर्णे नवद्वारे पुरेऽशुचौ। विज्ञायाहितमात्मानं योगांश्च विविधान्नृप।। | 12-307-34a 12-307-34b |
तामसानां च जन्तूनां रमणीयावृतात्मनाम्। सात्विकानां च जन्तूनां कुत्सितं भरतर्षभ।। | 12-307-35a 12-307-35b |
गर्हितं महतामर्थे साङ्ख्यानां विदितात्मनाम्। उपप्लवांस्तथा घोराञ्शशिनस्तेजसस्तथा।। | 12-307-36a 12-307-36b |
ताराणां पतनं दृष्ट्वा नक्षत्राणां च पर्ययम्। द्वन्द्वानां विप्रयोगं च विज्ञाय कृपण नृप।। | 12-307-37a 12-307-37b |
अन्योन्यभक्षणं दृष्ट्वा भूतानामपि चाशुभम्। बाल्ये मोहं च विज्ञाय क्षयं देहस्य चाशुभम्।। | 12-307-38a 12-307-38b |
रागे मोहे च संप्राप्ते क्वचित्सत्वं समाश्रितम्। सहस्रेषु नरः कश्चिन्मोक्षबुद्धिं समाश्रितः।। | 12-307-39a 12-307-39b |
दुर्लभत्वं च मोक्षस्य विज्ञाय श्रुतिपूर्वकम्। बहुमानमलब्धेषु लब्धे मध्यस्थतां पुनः।। | 12-307-40a 12-307-40b |
विषयाणां च दौरात्म्यं विज्ञाय नृपते पुनः। गतासूनां च कौन्तेय देहान्दृष्ट्वा तथाऽशुभान्।। | 12-307-41a 12-307-41b |
वासं कुलेषु जन्तूनां दुःखं विज्ञाय भारत। ब्रह्मघ्नानां गतिं ज्ञात्वा पतितानां सुदारुणाम्।। | 12-307-42a 12-307-42b |
सुरापाने च सक्तानां ब्राह्मणानां दुरात्मनाम्। गुरूदारप्रसक्तानां गतिं विज्ञाय चाशुभाम्।। | 12-307-43a 12-307-43b |
जननीषु च वर्तन्ते येन सम्यग्युधिष्ठिर। सदेवकेषु लोकेषु येन वर्तन्ति मानवाः।। | 12-307-44a 12-307-44b |
तेन ज्ञानेन विज्ञाय गतिं चाशुभकर्मणाम् तिर्यग्योनिगतानां च विज्ञाय च गतिं पृथक्।। | 12-307-45a 12-307-45b |
वेदवादांस्तथा चित्रानृतूनां पर्ययांस्तथा। क्षयं संवत्सराणां च मासानां च क्षयं तथा।। | 12-307-46a 12-307-46b |
पक्षक्षयं तथा दृष्ट्वा दिवसानां च संक्षयम्। क्षयं वृद्धिं च चन्द्रस्य दृष्ट्वा प्रत्यक्षतस्तथा।। | 12-307-47a 12-307-47b |
वृद्धिं दृष्ट्वा समुद्राणां क्षयं तेषां तथा पुनः। क्षयं धनानां दृष्ट्वा च पुनर्वृद्धिं तथैव च।। | 12-307-48a 12-307-48b |
संयोगानां क्षयं दृष्ट्वा युगानां च विशेषतः। क्षयं च दृष्ट्वा शैलानां क्षयं च सरितां तथा।। | 12-307-49a 12-307-49b |
वर्णानां च क्षयं दृष्ट्वा क्षयान्तं च पुनः पुनः। जरा मृत्युस्तथा जन्म दृष्ट्वा दुःखानि चैव ह।। | 12-307-50a 12-307-50b |
देहदोषांस्तथा ज्ञात्वा तेषां दुःखं च तत्त्वतः। देहविक्लवतां चैव सम्यग्विज्ञाय तत्त्वतः।। | 12-307-51a 12-307-51b |
आत्मदोषांश्च विज्ञाय सर्वानात्मनि संश्रितान्। स्वदेहादुत्थितान्गब्धांस्तथा विज्ञाय चाशुभान्। `मूत्रश्लेष्मपुरीषादीन्स्वेदजांश्च सुकुत्सितान्।।' | 12-307-52a 12-307-52b 12-307-52c |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-307-53x |
कान्स्वगात्रोद्भवान्दोषान्पश्यस्यमितविक्रम। एतन्मे संशयं कृत्स्नं वक्तुमर्हसि तत्त्वतः।। | 12-307-53a 12-307-53b |
भीष्म उवाच। | 12-307-54x |
पञ्च दोषान्प्रभो देहे प्रवदन्ति मनीषिणः। मार्गज्ञाः कापिलाः साङ्ख्याः शृणु तानरिसूदन।। | 12-307-54a 12-307-54b |
कामक्रोधौ भयं निद्रा पञ्चमः श्वास उच्यते।। | 12-307-55a |
एते दोषाः शरीरेषु दृश्यन्ते सर्वदेहिनाम्। छिन्दन्ति क्षमया क्रोधं कामं संकल्पवर्जनात्।। | 12-307-56a 12-307-56b |
सत्वसंसेवनान्निद्रामप्रमादाद्भयं तथा। छिन्दन्ति पञ्चमं श्वासमल्पाहारतया नृप।। | 12-307-57a 12-307-57b |
गुणान्गुणशतैर्ज्ञात्वा दोषान्दोषशतैरपि। हेतून्हेतुशतैश्चित्रैश्चित्रान्विज्ञाय तत्त्वतः।। | 12-307-58a 12-307-58b |
अपां फेनोपमं लोकं विष्णोर्मायाशतैश्वितम्। चित्रभित्तिप्रतीकाशं नलसारमनर्थकम्।। | 12-307-59a 12-307-59b |
तमः श्वभ्रनिभं दृष्ट्वा वर्षबुद्बुदसंनिभम्। क्लेशप्रायं सुखाद्धीनं नाशोत्तरमिहावशम्।। | 12-307-60a 12-307-60b |
रजस्तमसि संमग्नं पङ्के द्वीपमिवावशम्। साङ्ख्या राजन्महाप्राज्ञास्त्यक्त्वा देहं प्रजाकृतं।। | 12-307-61a 12-307-61b |
ज्ञानयोगेन साङ्ख्येन व्यापिना महता नृप। राजसानशुभान्गन्धांस्तांमसांश्च तथाविधान्।। | 12-307-62a 12-307-62b |
पुण्यांश्च सात्विकान्गन्धान्स्पर्शजान्देहसंश्रितान्। छित्त्वाऽऽशु ज्ञानशस्त्रेण तपो दण्डेन भारत।। | 12-307-63a 12-307-63b |
ततो दुःखोदधिं घोरं चिन्ताशोकमहाह्रदम्। व्याधिमृत्युमहाग्राहं महाभयमहोरगम्।। | 12-307-64a 12-307-64b |
तमःकूर्मं रजोमीनं प्रज्ञया संतरन्त्युत। स्नेहपङ्कं जरादुर्गं ज्ञानदीपमरिंदम्।। | 12-307-65a 12-307-65b |
कर्मागाधं सत्यतीरं स्थितव्रतमरिंदम्। हिंसाशीघ्रमहावेगं नानारससमाकरम्।। | 12-307-66a 12-307-66b |
नानाप्रीतिमहारत्नं दुःखज्वरसमीरणम्। शोकतृष्णामहावर्तं तीक्ष्णव्याधिमहागजम्।। | 12-307-67a 12-307-67b |
अस्थिसंघातसंघट्टं श्लेष्मफेनमरिंदम्। दानमुक्ताकरं घोरं शोणितह्रदविद्रुमम्।। | 12-307-68a 12-307-68b |
हसितोत्क्रुष्टनिर्घोषं नानाज्ञानसुदुस्तरम्। रोदनाश्रुमलक्षारं सङ्गत्यागपरायणम्। | 12-307-69a 12-307-69b |
पुत्रदारजलौकौघं मत्रिबान्धवपत्तनम्। अहिंसासत्यमर्यादं प्राणत्यागमहोर्मिणम्।। | 12-307-70a 12-307-70b |
वेदान्तगमनद्वीपं सर्वभूतदयोदकम्। मोक्षदुर्लाभविषयं व़डवामुखसागरम्।। | 12-307-71a 12-307-71b |
तरन्ति मुनयः सिद्धा ज्ञानयानेन भारत। तीर्त्वाऽतिदुस्तरं जन्म विशन्ति विमलं नभः।। | 12-307-72a 12-307-72b |
तत्र तान्सुकृतीन्साङ्ख्यान्सूर्यो वहति रश्मिभिः। पद्मतन्तुवदाविश्य प्रसह्य विषयान्नृप।। | 12-307-73a 12-307-73b |
तत्र तान्प्रवहो वायुः प्रतिगृह्णाति भारत। वीतरागान्यतीन्सिद्धान्वीर्ययुक्तांस्तपोधनान्।। | 12-307-74a 12-307-74b |
सूक्ष्मः शीतः सुगन्धी च सुखस्पर्शश्च भारत। सप्तानां मरुतां श्रेष्ठो लोकान्गच्छति यः शुभान्। स तान्वहति कौन्तेय नभसः परमां गतिम्।। | 12-307-75a 12-307-75b 12-307-75c |
नभो वहति लोकेश रजसः परमां गतिम्। `तमो वहति लोकेश रजसः परमां गतिम्।' रजो वहति राजेन्द्र सत्वस्य परमां गतिम्।। | 12-307-76a 12-307-76b 12-307-76c |
सत्वं वहति राजेन्द्र परं नारायणं प्रभुम्। प्रभुर्वहति शुद्धात्मा परमात्मानमात्मना।। | 12-307-77a 12-307-77b |
परमात्मानमासाद्य तद्भूता यतयोऽमलाः। अमृतत्वाय कल्पन्ते न निवर्तन्ति वा विभो।। | 12-307-78a 12-307-78b |
परमा सा गतिः पार्थ निर्द्वन्द्वानां महात्मनाम्। सत्यार्जवरतानां वै सर्वभूतदयावताम्।। | 12-307-79a 12-307-79b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-307-80x |
स्थानमुत्तममासाद्य भगवन्तं स्थिरव्रताः। आजन्ममरणं वा ते स्मरन्त्युत न वाऽनघ।। | 12-307-80a 12-307-80b |
यदत्र तथ्यं तन्मे त्वं यथावद्वक्तुमर्हसि। त्वदृते पुरुषं नान्यं प्रष्टुमर्हामि कौरव।। | 12-307-81a 12-307-81b |
मोक्षे दोषो महानेष प्राप्य सिद्धिगतानृषीन्। यदि तत्रैव विज्ञाने वर्तन्ते यतयः परे।। | 12-307-82a 12-307-82b |
प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं पश्यामि परमं नृप। मग्नस्य हि परे ज्ञाने किं न दुःखतरं भवेत्। | 12-307-83a 12-307-83b |
भीष्म उवाच। | 12-307-84x |
यथान्यायं त्वया तात प्रश्नः पृष्टः सुसंकटः। बुधानामपि संमोहः प्रश्नेऽस्मिन्भरतर्षभ।। | 12-307-84a 12-307-84b |
अत्रापि तत्त्वं परमं शृणु सम्यङ्भयेरितम्। बुद्धिश्च परमा यत्र कापिलानां महात्मनाम्।। | 12-307-85a 12-307-85b |
इन्द्रियाण्येव बुध्यन्ते स्वदेहे देहिनां नृप। कारणान्यात्मनस्तानि सूक्ष्मः पश्यति तैस्तु सः।। | 12-307-86a 12-307-86b |
आत्मना विप्रहीणानि काष्ठकुड्यसमानि तु। विनश्यन्ति न संदेहः फेना इव महार्णवे।। | 12-307-87a 12-307-87b |
इन्द्रियैः सह सुप्तस्य देहिनः शत्रुतापन। सूक्ष्मश्चरति सर्वत्र नभसीव समीरणः।। | 12-307-88a 12-307-88b |
स पश्यति यथान्यायं स्पर्शान्स्पृशति वा विभो। बुध्यमानो यथापूर्वमखिलेनेह भारत।। | 12-307-89a 12-307-89b |
इन्द्रियाणीह सर्वाणि स्वे स्वे स्थाने यथाविधि। अनीशत्वात्प्रलीयन्ते सर्पा हतविषा इव।। | 12-307-90a 12-307-90b |
इन्द्रियाणां तु सर्वेषां स्वस्थानेष्वेव सर्वशः। आक्रम्य गतयः सूक्ष्माश्चरत्यात्मा न संशयः।। | 12-307-91a 12-307-91b |
सत्वस्य च गुणान्कृत्स्नान्नजसश्च गुणान्पुनः। गुणांश्च तमसः सर्वान्गुणान्बुद्धेश्च भारत।। | 12-307-92a 12-307-92b |
गुणांश्च मनसश्चापि नभसश्च गुणांश्च सः। गुणान्वायोश्च धर्मात्मंस्तेजसां च गुणान्पुनः।। | 12-307-93a 12-307-93b |
अपां गुणांस्तथा पार्थ पार्थिंवांश्च गुणानपि। सर्वात्मना गुणैर्व्याप्तः क्षेत्रज्ञेषु युधिष्ठिर।। | 12-307-94a 12-307-94b |
आत्मा च याति क्षेत्रज्ञं कर्मणी च शुभाशुभे। शिष्या इव महात्मानमिन्द्रियाणि च तं प्रभो।। | 12-307-95a 12-307-95b |
प्रकृतिं चाप्यतिक्रम्य गच्छत्यात्मानमव्ययम्। परं नारायणं देवं निर्द्वन्द्वं प्रकृतेः परम्।। | 12-307-96a 12-307-96b |
विमुक्तः सर्वपापेभ्यः प्रविष्टस्तमनामयम्। परमात्मानमगुणं न निवर्तति भारत।। | 12-307-97a 12-307-97b |
शिष्टं तत्र मनस्तात इन्द्रियाणि च भारत। आगच्छन्ति यथाकालं गुरोः संदेशकारिणः।। | 12-307-98a 12-307-98b |
शक्यं चाल्पेन कालेन शान्तिं प्राप्तुं गुणार्थिना। एवमुक्तेन कौन्तेय युक्तज्ञानेन मोक्षिणा।। | 12-307-99a 12-307-99b |
साङ्ख्या राजन्महाप्राज्ञा गच्छन्ति परमां गतिम्। ज्ञानेनानेन कौन्तेय तुल्यं ज्ञानं न विद्यते।। | 12-307-100a 12-307-100b |
अत्र ते संशयो मा भूज्ज्ञानं सांख्यं परं मतम्। अक्षरं ध्रुवमव्यक्तं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्।। | 12-307-101a 12-307-101b |
अनादिमध्यनिधनं निर्द्वन्द्वं कर्तृ शाश्वतम्। कूटस्थं चैव नित्यं च यद्वदन्ति शमात्मकाः।। | 12-307-102a 12-307-102b |
यतः सर्वाः प्रवर्तन्ते सर्गप्रलयविक्रियाः। यच्च शंसन्ति शास्त्रेषु वदन्ति परमर्षयः।। | 12-307-103a 12-307-103b |
सर्वे विप्राश्च देवाश्च तथा शमविदो जनाः। ब्रह्मण्यं परमं देवमनन्तं परमच्युतम्।। | 12-307-104a 12-307-104b |
प्रार्थयन्तश्च तं विप्रा वदन्ति गुणबुद्धयः। सम्यग्युक्तास्तथा योगाः साङ्ख्याश्चामितदर्शनाः।। | 12-307-105a 12-307-105b |
अमूर्तेस्तस्य कौन्तेय साङ्ख्यं मूर्तिरिति श्रुतिः। अभिज्ञानानि तस्याहुर्मतं हि भरतर्षभ।। | 12-307-106a 12-307-106b |
द्विविधानीह भूतानि पृथिव्यां पृथिवीपते। जङ्गमाजङ्गमाख्यानि जङ्गमं तु विशिष्यते।। | 12-307-107a 12-307-107b |
ज्ञानं महद्यद्धि महत्सु राज न्वेदेषु साङ्ख्येषु तथैव योगे। यच्चापि दृष्टं विविधं पुराणे साङ्ख्यागतं तन्निखिलं नरेन्द्र।। | 12-307-108a 12-307-108b 12-307-108c 12-307-108d |
यच्चेतिहासेषु महत्सु दृष्टं यच्चार्थशास्त्रे नृप शिष्टजुष्टे। ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किंचि त्साङ्ख्यागतं तच्च महन्महात्मन्।। | 12-307-109a 12-307-109b 12-307-109c 12-307-109d |
शमश्च दृष्टः परमं बलं च ज्ञानं च साङ्ख्यं च यथावदुक्तम्। तपांसि सूक्ष्माणि सुखानि चैव साङ्ख्ये यथावद्विहितानि राजन्।। | 12-307-110a 12-307-110b 12-307-110c 12-307-110d |
विपर्यये तस्य हि पार्थ देवा न्गच्छन्ति साङ्ख्याः सततं सुखेन। तांश्चानुसंचार्य ततः कृतार्थाः पतन्ति विप्रेषु यतेषु भूयः।। | 12-307-111a 12-307-111b 12-307-111c 12-307-111d |
हित्वा च देहं प्रविशन्ति मोक्षं दिवौकसो द्यामिव पार्थ साङ्ख्याः। अतोऽधिकं तेऽभिरता महार्थे साङ्ख्ये द्विजाः पार्थिव शिष्टजुष्टे।। | 12-307-112a 12-307-112b 12-307-112c 12-307-112d |
तेषां न तिर्यग्गमनं हि दृष्टं नार्वाग्गतिः पापकृताधिवासः। च चाबुधानामपि ते द्विजातयो ये ज्ञानमेतन्नृपतेऽनुरक्ताः।। | 12-307-113a 12-307-113b 12-307-113c 12-307-113d |
साङ्ख्यं विशालं परमं पुराणं महार्णवं विमलमुदाहरन्ति कृत्स्नं च साङ्ख्यं नृपते महात्मा नारायणो धारयतेऽप्रमेयम्।। | 12-307-114a 12-307-114b 12-307-114c 12-307-114d |
एतन्मयोक्तं नरदेव तत्त्वं नारायणो विश्वमिदं पुराणम्। स सर्गकाले च करोति सर्गं संहारकाले च तदत्ति भूयः।। | 12-307-115a 12-307-115b 12-307-115c 12-307-115d |
संहृत्य सर्वं निजदेहसंस्थं कृत्वाऽप्सु शेते जगदन्तरात्मा।। | 12-307-116a 12-307-116b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्ताधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 307।। |
12-307-1 सम्यक्त्वया यज्ञपते इति थ. पाठः।। 12-307-4 यस्मिन्न विश्रमाः इति थ. पाठः।। 12-307-5 दोषान्विषयजान्नृपेति थ. पाठः।। 12-307-9 विषयांश्च प्रणाशान्तान्ब्रह्मणो विषयांस्तथेति ध. पाठः।। 12-307-19 तनुं स्पर्शो इति झ. पाठः।। 12-307-20 कोष्ठे उदरे। देवीं पृथ्वीम्।। 12-307-24 सत्वगुणं देहमिति झ. पाठः।। 12-307-36 उपप्लवान् उपरागान्। तेजसः सूर्यस्य।। 12-307-37 नराणां पतनं दृष्ट्वेति थ. पाठः। बन्धूनां विप्रयोगं चेति ट. पाठः। द्वन्द्वानां दम्पतीनाम्।। 12-307-39 क्वचित्पुंसि।। 12-307-40 बहुमानं अत्यादरम्। मध्यस्थतां औदासीन्यम्।। 12-307-41 दौरात्म्यं बन्धहेतुताम्।। 12-307-42 कुलेषु गृहेषु।। 12-307-45 विज्ञाय गतयः पृथगिति थ. पाठः।। 12-307-48 क्षयं वनानामिति थ. पाठः।। 12-307-59 नलसारं नलतृणवदन्तःसारद्दीनम्।। 12-307-60 क्लेशप्रायं क्लेशबहुलम्।। 12-307-65 स्पर्शद्विपमरिंदमेति ट. थ. पाठः।। 12-307-67 व्याधिमहारुजमिति थ. पाठः।। 12-307-76 तमसः परमां गतिमिति थ. पाठः।। 12-307-83 मग्नस्य हि परं ज्ञानमिति झ. पाठः।। 12-307-85 तथापि परमं तत्वमिति ट. थ. पाठः।। 12-307-104 सर्वे देवाश्च वेदाश्चेति ट. पाठः।।
शांतिपर्व-306 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-308 |