महाभारतम्-12-शांतिपर्व-312
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति विद्याऽविद्यादिप्रतिपादकवसिष्ठकरालजनकसंवादानुवादः।। 1।।
वसिष्ठ उवाच। | 12-312-1x |
साङ्ख्यदर्शनमेतावदुक्तं ते नृपसत्तम्। विद्याविद्ये त्विदानीं मे त्वं निबोधानुपूर्वशः।। | 12-312-1a 12-312-1b |
अविद्यामाहुरव्यक्तं सर्गप्रलयधर्मिणीम्। सर्गप्रलयनिर्मुक्तो विद्यो वै पञ्चविंशकः।। | 12-312-2a 12-312-2b |
`एकत्वं च बहुत्वं च प्रकृतेरनु तत्त्ववित्।' परस्परं तु विद्यां वै त्वं निबोधानुपूर्वशः। यथोक्तमृषिभिस्तात साङ्ख्यस्यास्य निदर्शनम्।। | 12-312-3a 12-312-3b 12-312-3c |
कर्मेन्द्रियाणां सर्वेषां विद्या बुद्धीन्द्रियं स्मृतम्। बुद्धीन्द्रियाणां च तथा विशेषा इति नः श्रुतम्।। | 12-312-4a 12-312-4b |
विशेषाणां मनस्तेषां विद्यामाहुर्मनीषिणः। मनसः पञ्चभूतानि विद्या इत्यभिचक्षते।। | 12-312-5a 12-312-5b |
अहंकारस्तु भूतानां पञ्चानां नात्र संशयः। अहंकारस्य च तथा बुद्धिर्विद्या नरेश्वर।। | 12-312-6a 12-312-6b |
बुद्धेः प्रकृतिरव्यक्तं तत्त्वानां परमेश्वरम्। विद्या ज्ञेया नरश्रेष्ठ विधिश्च परमः स्मृतः।। | 12-312-7a 12-312-7b |
अव्यक्तस्य परं प्राहुर्विद्यां वै पञ्चविंशकम्। सर्वस्य सर्वमित्युक्तं ज्ञेयं ज्ञानस्य पार्थिव।। | 12-312-8a 12-312-8b |
ज्ञानमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञेयो वै पञ्चविंशकः। तथैव ज्ञानमव्यक्तं विज्ञाता पञ्चविंशक।। | 12-312-9a 12-312-9b |
विद्याविद्यार्थितत्त्वेन मयोक्ता ते विशेषतः। अक्षरं च क्षरं चैव यदुक्तं तन्निबोध मे।। | 12-312-10a 12-312-10b |
उभावेतौ क्षरावुक्तावुभावेतौ क्षराक्षरौ। कारणं तु प्रवक्ष्यामि यथाख्यातो न जानतः।। | 12-312-11a 12-312-11b |
अनादिनिधनावेतावुभावेवेश्वरौ मतौ। तत्त्वसंज्ञावुभावेतौ प्रोच्यते ज्ञानचिन्तकैः।। | 12-312-12a 12-312-12b |
सर्गप्रलयधर्मत्वादव्यक्तं प्राहुरक्षरम्। तदेतद्गुणसर्गाय विकुर्वाणं पुनःपुनः।। | 12-312-13a 12-312-13b |
गुणानां महदादीनामुत्पद्यन्ते परम्पराः। अधिष्ठानं क्षेत्रमाहुरेतत्तत्पञ्चविंशकम्।। | 12-312-14a 12-312-14b |
यदा तु गुणजालं तदव्यक्तात्मनि संक्षिपेत्। तदा सह गुणैस्तैस्तु पञ्चविंशो विलीयते।। | 12-312-15a 12-312-15b |
गुणा गुणेषु लीयन्ते तदैका प्रकृतिर्भवेत्। क्षेत्रज्ञोऽपि यदा तात तत्क्षेत्रे संप्रलीयते।। | 12-312-16a 12-312-16b |
तदाऽक्षरत्वं प्रकृतिर्गच्छते गुणसंज्ञिता। निर्गुणत्वं च वैदेह गुणेष्वप्रतिवर्तनात्।। | 12-312-17a 12-312-17b |
एवमेव च क्षेत्रज्ञः क्षेत्रज्ञानपरिक्षयात्। प्रकृत्या निर्गुणस्त्वेष इत्येवमनुशुश्रुम।। | 12-312-18a 12-312-18b |
क्षरो भवत्येष यदा तदा गुणवती मिथः। प्रकृतिं त्विभजानाति निर्गुणत्वं तथाऽऽत्मनः।। | 12-312-19a 12-312-19b |
तदा विशुद्धो भवति प्रकृतेः परिवर्जनात्। अन्योऽहमन्येयमिति यदा बुध्यति बुद्धिमान्।। | 12-312-20a 12-312-20b |
तदैषा त्वन्यतामेति न च मिश्रत्वतां व्रजेत्। प्रकृत्या चैव राजेन्द्र मिश्रोऽनन्यश्च दृश्यते।। | 12-312-21a 12-312-21b |
यदा तु गुणजालं तत्प्राकृतं विजुगुप्सते। पश्यते चापरं पश्यं तदा पश्यन्न संस्वजेत्।। | 12-312-22a 12-312-22b |
किमहं कृतवानेवं योहं कालमिमं जनम्। `यदा मत्स्योदकं ज्ञानमनुवर्तितवांस्तदा।' मत्स्यो जालं ह्यविज्ञानादनुवर्तितवानिह।। | 12-312-23a 12-312-23b 12-312-23c |
अहमेव हि संमोहादन्यमन्यं जनाज्जनम्। मत्स्यो यथोदकज्ञानादनुवर्तितवानहम्।। | 12-312-24a 12-312-24b |
मत्स्योऽन्यत्वं यथा ज्ञानादुदकान्नाभिमन्यते। आत्मानं तद्वदज्ञानादन्यत्वं चैव वेदयहम्।। | 12-312-25a 12-312-25b |
ममास्तु धिगबुद्धस्य योऽहमज्ञ इमं पुनः। अनुवर्तितवान्मोहादन्यमन्यं जनाज्जनम्।। | 12-312-26a 12-312-26b |
अयमत्र भेवद्बन्धुरनेन सह मे क्षमम्। साम्यमेकत्वतां यास्ये यादृशस्तादृशस्त्वहम्।। | 12-312-27a 12-312-27b |
तुल्यतामिह पश्यामि सदृशोऽहमनेन वै। अयं हि विमलोऽव्यक्तमहमीदृशकस्तथा।। | 12-312-28a 12-312-28b |
योऽहमज्ञानसंमोहादज्ञया संप्रवृत्तवान्। ससङ्गयाऽहं निःसङ्गः स्थितः कालमिमं त्वहम्।। | 12-312-29a 12-312-29b |
अनयाऽहं वशीभूतः कालमेतं न बुद्धवान्। उच्चमध्यमनीचानां तामहं कथमावसे।। | 12-312-30a 12-312-30b |
समानया न याचेह सहवासमहं कथम्। गच्छाम्यबुद्धभावत्वादेषेदानीं स्थिरो भवे।। | 12-312-31a 12-312-31b |
सहवासं न यास्यामि कालमेतद्धि वञ्चनात्। वञ्चितोस्म्यनया यद्धि निर्विकारो विकारया।। | 12-312-32a 12-312-32b |
न चायमपराधोऽस्या ह्यपराधो ह्ययं मम। योऽहमत्राभवं सक्तः पराङ्भुखमुपस्थितः।। | 12-312-33a 12-312-33b |
ततोस्मि बहुरूपासु स्थितो मूर्तिष्वमूर्तिमान्। अमूर्तश्चापि मूर्तात्मा ममत्वेन प्रधर्षितः।। | 12-312-34a 12-312-34b |
प्रकृतेरनयत्वेन तासु तास्विह योनिषु। निर्ममस्य ममत्वेन किं कृतं तासु तासु च।। | 12-312-35a 12-312-35b |
योनीषु वर्तमानेन नष्टसंज्ञेन चेतसा। न ममात्रानया कार्यमहंकारकृतात्मना।। | 12-312-36a 12-312-36b |
आत्मानं बहुधा कृत्वा येयं भूयो युनक्ति माम्। इदानीमेष बुद्धोस्मि निर्ममो निरहंकृतः।। | 12-312-37a 12-312-37b |
ममत्वमनया नित्यमहंकारकृतात्मकम्। अपेत्याहमिमां हित्वा संश्रयिष्ये निरामयम्।। | 12-312-38a 12-312-38b |
अनेन साम्यं यास्यामि नानयाऽहमचेतसा। क्षणं मम सहानेन नैकत्वमनया सह।। | 12-312-39a 12-312-39b |
एवं परमसंबोधात्पञ्चविंशोऽनुबुद्धवान्। अक्षरत्वं नियच्छेत त्यक्त्वा क्षरमनामयम्।। | 12-312-40a 12-312-40b |
अव्यक्तं व्यक्तकर्माणं सगुणं निर्गुणं तथा। निर्गुणं परमं दृष्ट्वा तादृग्भवति मैथिल।। | 12-312-41a 12-312-41b |
अक्षरक्षरयोरेतदुक्तं तत्वनिदर्शनम्। मयेह ज्ञानसंपन्नं यथाश्रूतिनिदर्शनात्।। | 12-312-42a 12-312-42b |
निःसंदिग्धं च सूक्ष्मं च विबुद्धं विमलं यथा। प्रवक्ष्यामि तुते भूयस्तन्निबोध यथाश्रुतम्।। | 12-312-43a 12-312-43b |
साङ्ख्ययोगौ मया प्रोक्तौ शास्त्रद्वयनिदर्शनात्। यदेव शास्त्रं साङ्ख्योक्तं योगदर्शनमेव तत्।। | 12-312-44a 12-312-44b |
प्रबोधनकरं ज्ञानं साङ्ख्यानामवनीपते। विस्पष्टं प्रोच्यते तत्र शिष्याणां हितकाम्यया।। | 12-312-45a 12-312-45b |
पृथक्चैवमिदं शास्त्रमित्याहुः कुशला जनाः। अस्मिंश्च शास्त्रे योगानां पुनर्दधि पुनः शरः।। | 12-312-46a 12-312-46b |
पञ्चविंशात्परं तत्त्वं न पश्यति नराधिप। साङ्ख्यानां तु परं तत्त्वं यथावदनुवर्णितम्।। | 12-312-47a 12-312-47b |
बुद्धमप्रतिबुद्धं च बुध्यमानं च तत्त्वतः। बुध्यमानं च बुद्धं च प्राहुर्योगनिदर्शनम्।। | 12-312-48a 12-312-48b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्वादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 312।। |
12-312-10 विद्याविद्यार्थतत्वेनेति ट. पाठः।। 12-312-14 अधिष्ठानं क्षेममाहुरिति ड. थ. पाठः।। 12-312-22 न संसृजेदिति ध. पाठः।। 12-312-25 उदकादभिमन्यत इति ट. ध. पाठः।। 12-312-35 प्राकृतेन ममत्वेनेति झ. पाठः।। 12-312-37 श्रेयो भूयो युनक्तिमामिति ध.पाठः।। 12-312-41 अव्यक्तं व्यक्तधर्माणमिति झ. पाठः।। 12-312-46 पुनर्वेदे पुरःसर इति झ. पाठः।। 12-312-47 पठ्यते न नराधिपेति झ. पाठः।।
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