महाभारतम्-12-शांतिपर्व-334
दिखावट
← शांतिपर्व-333 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-334 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-335 → |
जनकेन शुकंप्रति मोक्षसाधनीभूताश्रमधर्मकथनपूर्वकं शुकप्रशंसनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-334-1x |
ततः स राजा जनको मन्त्रिभिः सह भारत। पुरोहितं पुरस्कृत्य सर्वाण्यन्तः पुराणि च।। | 12-334-1a 12-334-1b |
आसनं च पुरस्कृत्य रत्नानि विविधानि च। शिरसा चार्ध्यमादाय गुरुपुत्रं समभ्यगात्।। | 12-334-2a 12-334-2b |
स तदासनमादाय बहुरत्नविभूषितम्। स्पर्ध्यास्तरणसंस्तीर्णं सर्वतोभद्रमृद्धिमत्।। | 12-334-3a 12-334-3b |
पुरोधसा संगृहीतं हस्तेनालभ्य पार्थिवः। प्रददौ गुरुपुत्राय शुकाय परमार्चितम्।। | 12-334-4a 12-334-4b |
तत्रोपविष्टं तं कार्ष्णि शास्त्रतः प्रतिपूज्य च। पाद्यं निवेद्य प्रथममर्ध्यं गां च न्यवेदयत्।। | 12-334-5a 12-334-5b |
स च तां मन्त्रवत्पूजां प्रत्यगृह्णाद्यथाविधि। प्रतिगृह्य तु तां पूजां जनकाद्द्विजसत्तमः।। | 12-334-6a 12-334-6b |
गां चैव समनुज्ञाय राजानमनुमान्य च। पर्यपृच्छन्महातेजा राज्ञः कुशलमव्ययम्।। | 12-334-7a 12-334-7b |
अनामयं च राजेन्द्र शुकः सानुचरस्य ह। अनुज्ञातः स तेनाथ निषसाद सहानुगः।। | 12-334-8a 12-334-8b |
कुशलं चाव्ययं चैव पृष्ट्वा वैयासकिं नृपः। किमागमनमित्येवं पर्यपृच्छत पार्थिवः।। | 12-334-9a 12-334-9b |
शुक उवाच। | 12-334-10x |
पित्राऽहमुक्तो भद्रं ते मोक्षधर्मार्थकोविदः। विदेहराजो याज्यो मे जनको नाम विश्रुतः।। | 12-334-10a 12-334-10b |
तत्र गच्छस्व वै तूर्णं यदि ते हृदि संशयः। प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा स ते च्छेत्स्यति संशयं।। | 12-334-11a 12-334-11b |
सोहं पितुर्नियोगात्त्वामुपप्रष्टुमिहागतः। तन्मे धर्मभृतां श्रेष्ठ यथावद्वक्तुमर्हसि।। | 12-334-12a 12-334-12b |
किं कार्यं ब्राह्मणेनेह मोक्षार्थश्च किमात्मकः। कथं च मोक्षः प्राप्तव्यो ज्ञानेन तपसाऽथवा।। | 12-334-13a 12-334-13b |
जनक उवाच। | 12-334-14x |
यत्कार्यं ब्राह्मणेनेह जन्मप्रभृति तच्छृणु। कृतोपनयनस्तात भवेद्वेदपरायणः।। | 12-334-14a 12-334-14b |
तपसा गुरुवृत्त्या च ब्रह्मचर्येण चाभिभो। देवतानामृषीणां चाप्यनृणो ह्यनसूयकः।। | 12-334-15a 12-334-15b |
वेदानधीत्य नियतो दक्षिणामपवर्ज्य च। अभ्यनुज्ञामथ प्राप्य समावर्तेत वै द्विजः।। | 12-334-16a 12-334-16b |
समावृत्तश्च गार्हस्थ्ये स्वदारनिरतो वसेत्। अनसूयुर्यथान्यायमाहिताग्निरनावृतः।। | 12-334-17a 12-334-17b |
उत्पाद्य पुत्रं पौत्रं तु वन्याश्रमपदे वसेत्। तानेवाग्नीन्यथाशास्त्रमर्चयन्नतिथिप्रियः।। | 12-334-18a 12-334-18b |
स वनेऽग्नीन्यथान्यायमात्मन्यारोप्य धर्मवित्। निर्द्वन्द्वो बीतरागात्मा ब्रह्माश्रमपदे वसेत्।। | 12-334-19a 12-334-19b |
शुक उवाच। | 12-334-20x |
उत्पन्ने ज्ञानविज्ञाने प्रत्यक्षे हृदि शाश्वते। किमवश्यं निवस्तव्यमाश्रमेषु वनेषु वा।। | 12-334-20a 12-334-20b |
एतद्भवन्तं पृच्छामि तद्भवान्वक्तुमर्हति। यथा वेदार्थतत्त्वेन ब्रूहि मे त्वं जनाधिप।। | 12-334-21a 12-334-21b |
जनक उवाच। | 12-334-22x |
न विना ज्ञानविज्ञाने मोक्षस्याधिगमो भवेत्। न विना गुरुसंबन्धं ज्ञानस्याधिगमः स्मृतः।। | 12-334-22a 12-334-22b |
गुरुः प्लावयिता तस्य ज्ञानं प्लव इहोच्यते। विज्ञाय कृतकृत्यस्तु तीर्णस्तदुभयं त्यजेत्।। | 12-334-23a 12-334-23b |
अनुच्छेदाय लोकानामनुच्छेदाय कर्मणाम्। पूर्वैराचरितो धर्मश्चातुराश्रम्यसंश्रितः।। | 12-334-24a 12-334-24b |
अनेन क्रमयोगेन बहुजातिषु कर्मणाम्। कृत्वा शुभाशुभं कर्म मोक्षो नामेह लभ्यते।। | 12-334-25a 12-334-25b |
भावितैः करणैश्चायं बहुसंसारयोनिषु। आसादयति शुद्धात्मा मोक्षं वै प्रथमाश्रमे।। | 12-334-26a 12-334-26b |
तमासाद्य तु मुक्तस्य दृष्टार्थस्य विपश्चितः। त्रिष्वाश्रमेषु कोऽन्वर्थो भवेत्परमभीप्सतः।। | 12-334-27a 12-334-27b |
राजसांस्तामसांश्चैव नित्यं दोषान्विवर्जयेत्। सात्विकं मार्गमास्थाय पश्येदात्मानमात्मना।। | 12-334-28a 12-334-28b |
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। संपश्यन्नोपलिप्येत जले वारिचरो यथा।। | 12-334-29a 12-334-29b |
पक्षिवत्प्रायणादूर्ध्वममुत्रानन्त्यमश्नुते। विहाय देहान्निर्मुक्तो निर्द्वन्द्वः प्रशमं गतः।। | 12-334-30a 12-334-30b |
अत्र गाथाः पुरा गीताः शृणु राज्ञा ययातिना। धार्यन्तो या द्विजैस्तात मोक्षशास्त्रविशारदैः।। | 12-334-31a 12-334-31b |
ज्योतिरात्मनि नान्यत्र सर्वजन्तुषु तत्समम्। स्वयं च शक्यते द्रष्टुं सुसमाहितचेतसा।। | 12-334-32a 12-334-32b |
न बिभेति परो यस्मान्न बिभेति पराच्च यः। यश्च नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म संपद्यते तु सः।। | 12-334-33a 12-334-33b |
यदा भावं न कुरुते सर्वभूतेषु पापकम्। कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा।। | 12-334-34a 12-334-34b |
संयोज्य मनसाऽऽत्मानमीर्ष्यामुत्सृज्य मोहनीम्। त्यक्त्वा कामं च मोहं च ततो ब्रह्मत्वमश्नुते।। | 12-334-35a 12-334-35b |
यदा श्राव्ये च दृश्ये च सर्वभूतेषु चाप्ययम्। समो भवति निर्द्वन्द्वो ब्रह्म संपद्यते तदा।। | 12-334-36a 12-334-36b |
यदा स्तुतिं च निन्दां च समत्वेनैव पश्यति। काञ्चनं चायसं चैव सुखं दुःखं तथैव च।। | 12-334-37a 12-334-37b |
शीतमुष्णं तथैवार्थमनर्थं प्रियमप्रियम्। जीवितं मरणं चैव ब्रह्म संपद्यते तदा।। | 12-334-38a 12-334-38b |
प्रसार्येह यथाङ्गानि कूर्मः संहरते पुनः। तथेन्द्रियाणि मनसा संयन्तव्यानि भिक्षुणा।। | 12-334-39a 12-334-39b |
तमः परिगतं वेश्म यथा दीपेन दृश्यते। तथा बुद्धिप्रदीपेन शक्य आत्मा निरीक्षितुम्।। | 12-334-40a 12-334-40b |
एतत्सर्वं च पश्यामि त्वयि बुद्धिमतां वर। यच्चान्यदपि नोक्तं मे तत्त्वतो वेद तद्भवान्।। | 12-334-41a 12-334-41b |
ब्रह्मर्षे विदितश्चासि विषयान्तमुपागतः। गुरोस्तव प्रसादेन तव चैवोपशिक्षया।। | 12-334-42a 12-334-42b |
तस्यैव च प्रसादेन प्रादुर्भूतं महात्मनः। ज्ञानं दिव्यं ममापीदं तेनासि विदितो मम।। | 12-334-43a 12-334-43b |
अधिकं तव विज्ञानमधिका च गतिस्तव। अधिकं तव चैश्वर्यं तच्च त्वं नावबुध्यसे।। | 12-334-44a 12-334-44b |
बाल्याद्वा संशयाद्वापि भयाद्वाऽप्यविमोक्षणात्। उत्पन्ने चापि विज्ञाने नाधिगच्छति तां गतिं।। | 12-334-45a 12-334-45b |
व्यवसायेन शुद्धेन मद्विधैश्छिन्नसंशयः। विमुच्य हृदयग्रन्थीनासादयति तां गतिम्।। | 12-334-46a 12-334-46b |
भवांश्चोत्पन्नविज्ञानः स्थिरबुद्धिरलोलुपः। व्यवसायादृते ब्रह्मन्नासादयति तत्परम्।। | 12-334-47a 12-334-47b |
नास्ति ते सुखदुःखेषु विशेषो नास्ति लोलुपः। नौत्सुक्यं नृत्यगीतेषु न राग उपजायते।। | 12-334-48a 12-334-48b |
न बन्धुष्वनुबन्धस्ते न भयेष्वस्ति ते भयम्। पश्यामि त्वां महाभाग तुल्यलोष्टाश्मकाञ्चनम्।। | 12-334-49a 12-334-49b |
अहं त्वामनुपश्यामि ये चाप्यन्ते मनीषिणः। आस्थितं परमं मार्गमक्षयं तमनामयम्।। | 12-334-50a 12-334-50b |
यत्फलं ब्राह्मणस्येह मोक्षार्थश्च यदात्मकः। तस्मिन्वै वर्तसे विप्र किमन्यत्परिपृच्छसि।। | 12-334-51a 12-334-51b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुस्त्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 334।। |
12-334-7 राज्ये कुशलमव्ययमिति ध. पाठः।। 12-334-12 मोक्षः कर्तव्य इति ट. ड.थ. पाठः।। 12-334-23 आचार्यः प्रापिता तस्येति ध. पाठः।। 12-334-32 नान्यत्र रतं तत्रैव चैव तत् इति ध. पाठः।। 12-334-41 चच्चान्यदपि वेत्तव्यमिति झ. पाठः।। 12-334-44 अधिकं भवति ज्ञानमिति ड. थ. पाठः।। 12-334-46 तद्विधश्छिन्नसंशय इति ध. पाठः।। 12-334-48 नास्ति लोलुप इति ध. पाठः।।
शांतिपर्व-333 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-335 |