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महाभारतम्-12-शांतिपर्व-343

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महाभारतम्/शांतिपर्व
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बदरीनारायणाभ्यनुज्ञातेन नारदेन श्वेतद्वीपंप्रति गमनम्॥ 1॥
श्वेतद्वीपवर्णनम्॥ 2॥
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति नारदोदितोपरिचरवसुचरितानुवादारम्भः॥ 3॥
मरीच्यादिचित्रशिखण्डिभिर्नारायणानुग्रहेण स्वकृतधर्मशास्त्रस्य बृहस्पतौ स्थापनम्॥ 4॥

भीष्म उवाच।
स एवमुक्तो द्विपदां वरिष्ठो
नारायणेनोत्तमपूरुषेण।
जगाद वाक्यं द्विपदां वरिष्ठं
नारायणं लोकहिताधिवासम्॥ 12-343-1a
नारद उवाच।
यदर्थमात्मप्रभवेह जन्म
त्वयोत्तमं धर्मगृहे चतुर्धा।
तत्साध्यतां लोकहितार्थमद्य
गच्छामि द्रष्टुं प्रकृतिं तवाद्याम्॥ 12-343-2a
वेदाः स्वधीता मम लोकनाथ
तप्तं तपो नानृतमुक्तपूर्वम्।
पूजां गुरूणां सततं करोमि
परस्य गुह्यं न तु भिन्नपूर्वम्॥ 12-343-3a
गुप्तानि चत्वारि यथागमं मे
शत्रौ च मित्रे च समोस्मि नित्यम्।
तं चादिदेवं सततं प्रपन्न
एकान्तभावेन वृणोभ्यजस्रम्॥ 12-343-4a
एभिर्विशेषैः परिशृद्धसत्वः
कस्मान्न पश्येयमनन्तमीशम्।
तत्पारमेष्ठ्यस्य वचो निशम्य
नारायणः शाश्वतधर्मगोप्ता॥ 12-343-5a
गच्छेति तं नारदमुक्तबान्स
संपूजयित्वा विधिवत्क्रियाभिः।
ततो विसृष्टः परमेष्ठिपुत्रः
सोऽभ्यर्चयित्वा तमृषिं पुराणम्॥ 12-343-6a
खमुत्पपातोत्तमयोगयुक्त
स्ततोऽधिमेरौ सहसा निलिल्ये।
तत्रावतस्थे च मुनिर्मुर्हुत
मेकान्तमासाद्य गिरेः स शृङ्क्ते॥ 12-343-7a
आलोकयन्नुत्तरपश्चिमेन
ददर्श चाप्यद्भुतमुक्तरूपम्।
क्षीरोदधेर्योत्तरतो हि द्वीपः
श्वेतः स नाम्ना प्रथितो विशालः॥ 12-343-8a
मेरोः सहस्रैः स हि योजनानां
द्वात्रिंशतोर्ध्वं कविभिर्निरुक्तः।
अनिन्द्रियाश्चानशनाश्च तत्र
निष्पन्दहीनाः सुसुगन्धिनस्ते॥ 12-343-9a
श्वेताः पुमांसो गतसर्वपापा
श्चक्षुर्मुषः पापकृतां नराणाम्।
वज्रास्थिकायाः सममानोन्माना
दिव्यावयवरूपाः शुभसारोपेताः॥ 12-343-10a
छत्राकृतिशीर्षा मेघौघनिनादाः
सममुष्कचतुष्का राजीवच्छदपादाः।
षष्ठ्या दन्तैर्युक्ताः शुक्लैरष्टाभिर्दंष्ट्राभिर्ये
जिह्वाभिर्ये विश्ववक्रंलेलिह्यन्ते सूर्यप्रख्यम्॥ 12-343-11a
सर्वे तस्य निसर्ग इति॥
युधिष्ठिर उवाच।
अनिन्द्रिया निराहारा अनिष्पन्दाः सुगन्धिनः।
कथं ते पुरुषा जाताः का तेषां गतिरुत्तमा॥ 12-343-13a
ये च मुक्ता भवन्तीह नरा भरतसत्तम।
तेषां लक्षणमेतद्धि तच्छ्वेतद्द्वीपवासिनाम्॥ 12-343-14a
तस्मान्मे संशयं छिन्धि परं कौतूहलं हि मे।
त्वं हि सर्वकथारामस्त्वां चैवोपाश्रिता वयम्॥ 12-343-15a
भीष्म उवाच।
विस्तीर्णैषा कथा राजञ्श्रुता मे पितृसन्निधौ।
यैषा तव हि वक्तव्या कथासारो हि सा मता॥ 12-343-16a
शन्तनोः कथयामास नारदो मुनिसत्तमः।
राज्ञा पृष्टः पुरा प्राह तत्राहं श्रुतवान्पुरा॥' 12-343-17a
राजोपरिचरो नाम बभूवाधिपतिर्भुवः।
आखण्‍डलसखः ख्यातो भक्तो नारायणं हरिं॥ 12-343-18a
धार्मिको नित्यभक्तश्च पितुर्नित्यमतन्द्रितः।
साम्राज्यं तेन संप्राप्तं नारायणवरात्पुरा॥ 12-343-19a
सात्वतं विधिमास्थाय प्राक्सूर्यमुखनिःसृतम्।
पूजयामास देवेशं तच्छेषेण पितामहान्॥ 12-343-20a
पितृशेषेण विप्रांश्च संविभज्याश्रितांश्च सः।
शेषान्नभुक्सत्यपरः सर्वभूतेष्वहिंसकः॥ 12-343-21a
सर्वभावेन भक्तः स देवदेवं जनार्दनम्।
अनादिमध्यनिधनं लोककर्तारमव्ययम्॥ 12-343-22a
तस्य नारायणे भक्तिं वहतोऽमित्रकर्शिनः।
एकशय्यासनं देवो दत्तवान्देवराट् स्वयम्॥ 12-343-23a
आत्मराज्यं धनं चैव कलत्रं वाहनं तथा।
यत्तद्भागवतं सर्वमिति तत्प्रेषितं सदा॥ 12-343-24a
काम्यनैमित्तिका राजन्यज्ञियाः परमक्रियाः।
सर्वाः सात्वतमास्थाय विधिं चक्रे समाहितः॥ 12-343-25a
पाञ्चरात्रविदो मुख्यास्तस्य गेहे महात्मनः।
वरान्नं भगवत्प्रोक्तं भुञ्जते वाऽग्रभोजनम्॥ 12-343-26a
तस्य प्रशासतो राज्यं धर्मेणामित्रघातिनः।
नानृता वाक्समभवन्मनो दुष्टं न चाभवत्।
न च कायेन कृतवान्स पापं परमण्वपि॥ 12-343-27a
ये हि ते ऋषयः ख्याताः सप्त चित्रशिखण्डिनः।
तैरेकमतिभिर्भूत्वा यत्प्रोक्तं शास्त्रमुत्तमम्॥ 12-343-28a
वेदैश्चतुर्भिः समितं कृतं मेरौ महागिरौ।
आस्यैः सप्तभिरुद्गीर्णं लोकधर्ममनुत्तमम्॥ 12-343-29a
मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।
वसिष्ठश्च महातेजास्ते हि चित्रशिखण्डिनः॥ 12-343-30a
सप्त प्रकृतयो ह्येतास्तथा स्वायंभुवोऽष्टमः।
एताभिर्धार्यते लोकस्ताभ्याः शास्त्रं विनिःसृतं॥ 12-343-31a
एकाग्रमनसो दान्ता मुनयः संयमे रताः।
भूतभव्यभविष्यज्ञाः सत्यधर्मपरायणाः॥ 12-343-32a
इदं श्रेय इदं ब्रह्म इदं हितमनुत्तमम्।
लोकान्संचिन्त्य मनसा ततः शास्त्रं प्रचक्रिरे॥ 12-343-33a
तत्र धर्मार्थकामा हि मोक्षः पश्चाच्च कीर्तितः।
मर्यादा विविधाश्चैव दिवि भूमौ च संस्थिताः॥ 12-343-34a
आराध्य तपसा देवं हरिं नारायणं प्रभुम्।
दिव्यं वर्षसहस्रं वै सर्वे ते ऋषिभिः सह॥ 12-343-35a
नारायणानुशिष्टा हि तदा देवी सरस्वती।
विवेश तानृषीन्सर्वाल्लोँकानां हितकाम्यया॥ 12-343-36a
ततः प्रवर्तिता सम्यक्तपोविद्भिर्द्विजातिभिः।
शब्दे चार्थे च हेतौ च एषा प्रथमसर्गजा॥ 12-343-37a
आदावेव हि तच्छास्त्रमोंकारस्वरपूजितम्।
ऋषिभिः श्रावितं तत्र यत्र कारुणिकोह्यसौ॥ 12-343-38a
ततः प्रसन्नो भगवाननिर्दिष्टशरीरगः।
ऋषीनुवाच तान्सर्वानदृश्यः पुरुषोत्तमः॥ 12-343-39a
कृतं शतसहस्रं हि श्लोकानां हितमुत्तमम्।
लोकतन्त्रस्य कृत्स्नस्य यस्माद्धर्मः प्रवर्तते॥ 12-343-40a
प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च यस्मादेतद्भविष्यति।
यजुर्ऋक्सामभिर्जुष्टमथर्वाङ्गिरसैस्तथा॥ 12-343-41a
यथाप्रमाणं हिं मया कृतो ब्रह्म प्रसादतः।
रुद्रश्च क्रोधजो विप्रा यूयं प्रकृतयस्तथा। 12-343-42a
सूर्याचन्द्रमसौ वायुर्भूमिरापोऽग्निरेव च।
सर्वे च नक्षत्रगणा यच्च भूताभिशब्दितम्॥ 12-343-43a
अधिकारेषु वर्तन्ते यथास्वं ब्रह्मवादिनः।
सर्वे प्रमाणं हि यथा तथा तच्छास्त्रमुत्तमम्॥ 12-343-44a
भविष्यति प्रमाणं वै एतन्मदनुशासनम्।
तस्मात्प्रवक्ष्यते धर्मान्मनुः स्वायंभुवः स्वयम्॥ 12-343-45a
उशना बृहस्पतिश्चैव यदोत्पन्नौ भविष्यतः।
तदा प्रवक्ष्यतः शास्त्रं युष्मन्मतिभिरुद्धृतम्॥ 12-343-46a
स्वायंभुवेषु धर्मेषु शास्त्रे चोशनसा कृते।
बृहस्पतिमते चैव लोकेषु प्रतिचारिते॥ 12-343-47a
युष्मत्कृतमिदं शास्त्रं प्रजापालो वसुस्ततः।
बृहस्पतिसकाशाद्वै प्राप्स्यते द्विजसत्तमाः॥ 12-343-48a
स हि मद्भावनिरतो मद्भक्तश्च भविष्यति।
तेन शास्त्रेण लोकेषु क्रियाः सर्वाः करिष्यति॥ 12-343-49a
एतद्धि युष्मच्छास्त्राणां शास्त्रमुत्तमसंज्ञितम्।
एतदर्थ्यं च धर्म्यं च रहस्यं चैतदुत्तमम्॥ 12-343-50a
अस्य प्रवर्तनाच्चैव प्रजावन्तो भविष्यथ।
स च राजश्रिया युक्तो भविष्यति महान्वसुः॥ 12-343-51a
संस्थिते तु नृपे तस्मिञ्शास्त्रमेतत्सनातनम्।
अन्तर्धास्यति तत्सर्वमेतद्वः कथितं मया॥ 12-343-52a
एतावदुक्त्वा वचनमदृश्यः पुरुषोत्तमः।
विसृज्य तानृषीन्सर्वान्कामपि प्रसृतो दिशम्॥ 12-343-53a
ततस्ते लोकपितरः सर्वलोकार्थचिन्तकाः।
प्रावर्तयन्त तच्छास्त्रं धर्मयोनिं सनातनम्॥ 12-343-54a
उत्पन्नेऽङ्गिरसे चैव युगे प्रथमकल्पिते।
साङ्गोपनिषदं शास्त्रं स्थापयित्वा बृहस्पतौ॥ 12-343-55a
जग्मुर्यथेप्सितं सर्वलोकानां सर्वधर्मप्रवर्तकाः॥ 12-343-56a
॥ इति श्रीमन्महाभारते
शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि
त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥ 343॥


12-343-2 जन्म अवतारः। आद्यां मूर्ति श्वेतद्वीपस्थाम्॥ 12-343-4 चत्वारि पाणिपादोदरोपस्थानि॥ 12-343-6 संपूजयित्वात्मविधिकियाभिरिति झ. पाठः॥ 12-343-8 उत्तरपश्चिमेन वायव्यकोणतः। योत्तरतः यः उत्तरतः॥ 12-343-9 मेरुमूलाद्वत्रिशत्सहस्रयोजनार्दूर्ध्वम्। सुगन्धिः परमात्मा। सुगन्धिं पुष्टिवर्धनमिति मन्त्रलिङ्गात्। शोभनः सोऽस्त्येषां ध्यानगोचर इति सुसुगन्धिनः॥ 12-343-10 श्वेताः शुद्धसत्वप्रधानाः॥ 12-343-11 छत्राकृतिशीर्षा निर्मांसग्रीवत्वात्। समं पीनत्वरहितं मुष्कौ वृषणौ चतुषअकमंसयोः कठ्योश्चान्तरालं च मुष्कचतुष्कं बाहुचतुष्कं वा। षष्ट्या षष्टिसंख्यैर्दन्तैरिव जगच्चणकचर्वणक्षमैः संवत्सरैर्युक्ताः। अष्टौ दिशः सर्वेपामाश्रयभूतास्ताभिश्च युक्ताः। देशकालौ येषां मुखमध्ये प्रविष्टावित्यर्थः। सूर्येण प्रख्यायते स्फुटीक्रियते दिनमासर्तुसंवत्सरात्मा महाकालस्तम्। विश्ववक्रं विश्वं वक्रे यस्य तादृशम्। जिह्नाभिरिव स्वाङ्गभूताभी रसनाशक्तिभिर्लेलिह्यन्ते पायसमिव लिहन्ति। छत्राकृतिशीर्षाणो मेघौघस्तनितसमनिनादाः सममुष्का रुचिरतराश्चतुर्मुष्कावर्जितरक्ततलपादाः इति ध. पाठः॥ 12-343-12 विश्वोत्पन्नं विश्वमुत्पन्नं यस्मात्। वेदादयस्तस्य निसर्गः अयत्नरचिताः॥ 12-343-16 कथासारो हि स स्मृत इति थ. पाठः॥ 12-343-18 आखण्डलसम इति ध. पाठः॥ 12-343-19 सात्वतं सात्वतानां पाञ्चरात्राणां हितं। तच्छेषेण विष्णुशेषेण॥ 12-343-21 पितॄनृषींश्च विप्रांश्चेति ध. पाठः॥ 12-343-26 प्रायणं भगवत्प्रोक्तमिति झ. पाठः॥ 12-343-29 वेदैश्चतुर्भिः सहितमिति ध. पाठः॥ 12-343-34 मोक्षपन्थाश्च कीर्तित इति ध. पाठः॥ 12-343-54 धर्मकामार्थचिन्तका इति ध. पाठः॥

शांतिपर्व-342 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शांतिपर्व-344