महाभारतम्-12-शांतिपर्व-344
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बृहस्पतिना उपरिचरवसोर्याजनम्।। 1।।
तत्र श्रीहरिणा परोक्षतया भागग्रहणात्क्रुद्धं बृहस्पतिंप्रति एकतादिभिः श्वेतद्वीपवर्णनपूर्वकं भगवन्महिमोक्त्या परिसान्त्वनम्।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-344-1x |
ततोऽतीते महाकल्पे उत्पन्नेऽङ्गिरसः सुते। बभूवुर्निर्वृता देवा जाते देवपुरोहिते।। | 12-344-1a 12-344-1b |
बृहद्ब्रह्म महच्चेति शब्दाः पर्यायवाचकाः। एभिः समन्वितो राजन्गुणैर्विद्वान्बृहस्पतिः।। | 12-344-2a 12-344-2b |
तस्य शिष्यो बभूवाग्र्यो राजोपरिचरो वसुः। अधीतवांस्तदा शास्त्रं सम्यक्चित्रशिखण्डिजं।। | 12-344-3a 12-344-3b |
स राजा भावितः पूर्वं दैवेन विधिना वसुः। पालयामास पृथिवीं दिवमाखण्डलो यथा।। | 12-344-4a 12-344-4b |
तस्य यज्ञो महानासीदश्वमेधो महात्मनः। बृहस्पतिरुपाध्यायस्तत्र होता बभूव ह।। | 12-344-5a 12-344-5b |
प्रजापतिसुताश्चात्र सदस्याश्चाभवंस्त्रयः। एकतश्च द्वितश्चैव त्रितश्चैव मर्हषयः।। | 12-344-6a 12-344-6b |
धनुषाख्योऽथ रैभ्यश्च अर्वावसुपरावसू। ऋषिर्मोधातिथिश्चैव ताण्ड्यश्चैव महानृषिः।। | 12-344-7a 12-344-7b |
ऋषिः शान्तिर्महाभागस्तथा वेदशिराश्च यः। ऋषिश्रेष्ठश्च कपिलः शालिहोत्रपिता स्मृतः।। | 12-344-8a 12-344-8b |
आद्यः कठस्तैत्तिरिश्च वैशंपायनपूर्वजः। कण्वोऽथ देवहोत्रश्च एते षोडश कीर्तिताः।। | 12-344-9a 12-344-9b |
संभूताः सर्वसंभारास्तस्मिन्राजन्महाक्रतौ। न तत्र पशुघातोऽभूत्स राजैवं स्थितोऽभवत्।। | 12-344-10a 12-344-10b |
अहिंस्रः शुचिरक्षुद्रो निराशीः कर्मसंस्तुतः। आरण्यकपदोद्भूता भागास्तत्रोपकल्पिताः।। | 12-344-11a 12-344-11b |
प्रीतस्ततोऽस्य भगवान्देवदेवः पुरातनः। साक्षात्तं दर्शयामास सोदृश्योऽन्येन केनचित्।। | 12-344-12a 12-344-12b |
स्वयं भागमुपाघ्राय पुरोडाशं गृहीतवान्। अदृश्येन हृतो भागो देवेन हरिमेधसा।। | 12-344-13a 12-344-13b |
बृहस्पतिस्ततः क्रुद्धः स्रुचमुद्यम्य वेगितः। आकाशं घ्नन्स्रुचः पातै रोषादश्रूण्यवर्तयत्।। | 12-344-14a 12-344-14b |
उवाच चोपरिचरं मया भागोऽयमुद्यतः। ग्राह्यः स्वयं हि देवेन मत्प्रत्यक्षं न संशयः।। | 12-344-15a 12-344-15b |
उद्यता यज्ञभागा हि साक्षात्प्राप्ताः सुरैरिह। किमर्थमिह न प्राप्तो दर्शनं मे हरिर्नृप।। | 12-344-16a 12-344-16b |
भीष्म उवाच। | 12-344-17x |
ततः स तं समुद्भूतं भूमिपालो महान्वसुः। प्रसादयामास मुनिं सदस्यास्ते च सर्वशः।। | 12-344-17a 12-344-17b |
`हुतस्त्वया वदानीह पुरोडाशस्य यावती। गृहीता देवदेवेन मत्प्रत्यक्षं न संशयः।। | 12-344-18a 12-344-18b |
इत्येवमुक्ते वसुना सरोषश्चाब्रवीद्गुरुः। न यजेयमहं चात्र परिभूतस्त्वया नृप।। | 12-344-19a 12-344-19b |
त्वया पशुर्वारितश्च कृतः पिष्टमयः पशुः। त्वं देवं पश्यसे नित्यं न पश्येयमहं कथम्।। | 12-344-20a 12-344-20b |
वसुरुवाच। | 12-344-21x |
पशुहिंसा वारिता च यजुर्वेदादिमन्त्रतः। अहं न वारये हिंसां द्रक्ष्याम्येकान्तिको हरिम्। तस्मात्कोपो न कर्तव्यो भवता गुरुणा मयि।। | 12-344-21a 12-344-21b 12-344-21c |
वसुमेवं ब्रुवाणं तु क्रुद्ध एव बृहस्पतिः। उवाच ऋत्विजश्चैव किं नः कर्मेति वारयन्।। | 12-344-22a 12-344-22b |
अथैकतो द्वितश्चैव त्रितश्चैव महर्षयः।' ऊचुश्चैनमसंभ्रान्ता न रोषं कर्तुमर्हसि।। | 12-344-23a 12-344-23b |
`शृणु त्वं वचनं पुत्र अस्माभिः समुदाहृतम्।' नैष धर्मः कृतयुगे यत्त्वं रोषमिहाहिथाः।। | 12-344-24a 12-344-24b |
अरोषणो ह्यसौ देवो यस्य भागोऽयमुद्यतः। न शक्यः स त्वया द्रष्टुमस्माभिर्वा बृहस्पते। यस्य प्रसादं कुरुते स वै तं द्रष्टुमर्हति।। | 12-344-25a 12-344-25b 12-344-25c |
वयं हि ब्रह्मणः पुत्रा मानसाः परिकीर्तिताः। गता निःश्रेयसार्थं हि कदाचिद्दिशमुत्तराम्।। | 12-344-26a 12-344-26b |
तप्त्वा वर्षसहस्राणि चत्वारि तप उत्तमम्। एकपादा स्थिताः सम्यक्काष्ठभूताः समाहिताः।। | 12-344-27a 12-344-27b |
मेरोरुत्तरभागे तु क्षीरोदस्यानुकूलतः। स देशो यत्र नस्तप्तं तपः परमदारुणम्।। | 12-344-28a 12-344-28b |
वरेण्यं वरदं तं वै देवदेवं सनातनम्। कथं पश्येमहि वयं देवं नारायणं त्विति।। | 12-344-29a 12-344-29b |
अथ व्रतस्यावभृथे वागुवाचाशरीरिणी। स्निग्धगम्भीरया वाचा प्रहर्षणकरी विभो।। | 12-344-30a 12-344-30b |
सुतप्तं वस्तपो विप्राः प्रसन्नेनान्तरात्मना। यूयं जिज्ञासवो भक्ताः कथं द्रक्ष्यथ तं विभुम्।। | 12-344-31a 12-344-31b |
क्षीरोदधेरुत्तरतः श्वेतद्वीपो महाप्रभः। तत्र नारायणपरा मानवाश्चन्द्रवर्चसः।। | 12-344-32a 12-344-32b |
एकान्तभावोपगतास्ते भक्ताः पुरुषोत्तमम्। ते सहस्रार्चिषं देवं प्रविशन्ति सनातनम्।। | 12-344-33a 12-344-33b |
अनिन्द्रिया निराहारा अनिष्पन्दाः सुगन्धिनः। एकान्तिनस्ते पुरुषाः श्वेतद्वीपनिवासिनः। a गच्छध्वं तत्र मुनयस्तत्रात्मा मे प्रकाशितः।। | 12-344-34a 12-344-34b 12-344-34c |
अथ श्रुत्वा वयं सर्वे वाचं तामशरीरिणीम्। यथाख्यातेन मार्गेण तं देशं प्रविशेमहि।। | 12-344-35a 12-344-35b |
प्राप्य श्वेतं महाद्वीपं तच्चित्तास्तद्दिदृक्षवः। `सहसा हि गताः सर्वे तेजसा तस्य मोहिताः।।' | 12-344-36a 12-344-36b |
ततोऽस्मद्दृष्टिविषयस्तदा प्रतिहतोऽभवत्। न च पश्याम पुरुषं तत्तेजोहतदर्शनाः।। | 12-344-37a 12-344-37b |
ततो नः प्रादुरभवद्विज्ञानं देवयोगजम्। न किलातप्ततपसा शक्यते द्रष्टमञ्जसा।। | 12-344-38a 12-344-38b |
ततः पुनर्वर्षशतं तप्त्वा तात्कालिकं महत्। व्रतावसाने च शुभान्नरान्ददृशिमो वमय्।। | 12-344-39a 12-344-39b |
श्वेतांश्चन्द्रप्रतीकाशान्सर्वलक्षणलक्षितान्। नित्याञ्जलिकृतान्ब्रह्म जपतः प्रागुदङ्भुखान्।। | 12-344-40a 12-344-40b |
मानसो नाम स जपो जप्यते तैर्महात्मभिः। तेनैकाग्रमनस्त्वेन प्रीतो भवति वै हरिः।। | 12-344-41a 12-344-41b |
याऽभवन्मुनिशार्दूल भाः सूर्यस्य युगक्षये। एकैकस्य प्रभा तादृक्साऽभवन्मानवस्य ह।। | 12-344-42a 12-344-42b |
तेजोनिवासः स द्वीप इति वै मेनिरे वयम्। न तत्राभ्यधिकः कश्चित्सर्वे ते समतेजसः।। | 12-344-43a 12-344-43b |
अथ सूर्यसहस्रस्य प्रभां युगपदुत्थिताम्। सहसा दृष्टवन्तः स्म पुनरेव बृहस्पते।। | 12-344-44a 12-344-44b |
सहिताश्चाभ्यधावन्त ततस्ते मानवा द्रुतम्। कृताञ्जलिपुष्टा हृष्टा नम इत्येव वादिनः।। | 12-344-45a 12-344-45b |
ततो हि वदतां तेषामश्रौष्म विपुलं ध्वनिम्। बलिः किलोपह्रियते तस्य देवस्य तैर्नरैः।। | 12-344-46a 12-344-46b |
वयं तु तेजसा तस्य सहसा हृतचेतसः। न किंचिदपि पश्यामो हतचक्षुर्बलेन्द्रियाः।। | 12-344-47a 12-344-47b |
एकस्तु शब्दो विततः श्रुतोऽस्माभिरुदीरितः। `आकाशं पूरयन्सर्वं शिक्षाक्षरसमन्वितः।। | 12-344-48a 12-344-48b |
जितं ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते विश्वभावन। नमस्तेऽस्तु हृषीकेश महापुरुष पूर्वज। इति शब्दः श्रुतोऽस्माभिः शिक्षाक्षरसमन्वितः।। | 12-344-49a 12-344-49b 12-344-49c |
एतस्मिन्नन्तरे वायुः सर्वगन्धवहः शुचिः। दिव्यान्युवाह पुष्पाणि कर्मण्याश्चौषधीस्तथा।। | 12-344-50a 12-344-50b |
तैरिष्टः पञ्चकालज्ञैर्हरिरेकान्तिभिर्नरैः। भक्त्या परमया युक्तैर्मनोवाक्कर्मभिस्तदा।। | 12-344-51a 12-344-51b |
नूनं तत्रागतो देवो यथा तैर्वागुदीरिता। वयं त्वेनं न पश्यामो मोहितास्तस्य मायया।। | 12-344-52a 12-344-52b |
मारुते सन्निवृत्ते च बलौ च प्रतिपादिते। चिन्ताव्याकुलितात्मानो जाताः स्मोङ्गिसांवर।। | 12-344-53a 12-344-53b |
मानवानां सहस्रेषु तेषु वै शुद्धयोनिषु। अस्मान्न कश्चिन्मनसा चक्षुषा वाऽप्यपूजयत्।। | 12-344-54a 12-344-54b |
तेऽपि स्वस्था मुनिगणा एक भावमनुव्रताः। नास्मासु दधिरे भावं ब्रह्मभावमनुष्ठिताः।। | 12-344-55a 12-344-55b |
ततोऽस्मान्सुपरिश्रान्तांस्तपसा चातिकर्शितान्। उवाच स्वस्थं किमपि भूतं तत्राशरीरकम्।। | 12-344-56a 12-344-56b |
देव उवाच। | 12-344-57x |
दृष्टा वः पुरुषाः श्वेताः सर्वेन्द्रियविवर्जिताः। दृष्टो भवति देवेश एभिर्दृष्टैर्द्विजोत्तमैः।। | 12-344-57a 12-344-57b |
गच्छध्वं मुनयः सर्वे यथागतमितोऽचिरात्। न स शक्यस्त्वभक्तेन द्रष्टुं देवः कथंचन।। | 12-344-58a 12-344-58b |
कामं कालेन महता एकान्तित्वमुपागतैः। शक्यो द्रष्टुं स भगवान्प्रभामण्डलदुर्दृशः।। | 12-344-59a 12-344-59b |
महत्कार्यं च कर्तव्यं युष्माभिर्द्विजसत्तमाः। इतः कृतयुगेऽतीते विपर्यासं गतेऽपि च।। | 12-344-60a 12-344-60b |
वैवस्वतेऽन्तरे विप्राः प्राप्ते त्रेतायुगे पुनः। सुराणां कार्यसिद्ध्यर्थं सहाया वै भविष्यथ।। | 12-344-61a 12-344-61b |
ततस्तदद्भुतं वाक्यं निशम्यैवामृतोपमम्। तस्य प्रसादात्प्राप्ताः स्मो देशमीप्सिंतमञ्जसा।। | 12-344-62a 12-344-62b |
एवं सुतपसा चैव हव्यकव्यस्तैथैव च। देवोऽस्माभिर्न दृष्टः स कथं त्वं द्रष्टुमर्हसि।। | 12-344-63a 12-344-63b |
नारायणो महद्भूतं विश्वसृग्घव्यकव्यभुक्। अनादिनिधनोऽव्यक्तो देवदानवपूजितः।। | 12-344-64a 12-344-64b |
एवमेकतवाक्येन द्वितत्रितमतेन च। अनुनीतः सदस्यैश्च बृहस्पतिरुदारधीः। समापयत्ततो यज्ञं दैवतं समपूजयत्।। | 12-344-65a 12-344-65b 12-344-65c |
समाप्तयज्ञो राजाऽपि प्रजां पालितवान्वसुः। ब्रह्मशापाद्दिवो भ्रष्टः प्रविवेश महीं ततः।। | 12-344-66a 12-344-66b |
स राजा राजशार्दूल सत्यधर्मपरायणः। अन्तर्भूमिगतश्चैव सततं धर्मवत्सलः।। | 12-344-67a 12-344-67b |
नारायणपरो भूत्वा नारायणजपं जपन्। तस्यैव च प्रसादेन पुनरेवोत्थितस्तु सः।। | 12-344-68a 12-344-68b |
महीतलाद्गतः स्थानं ब्रह्मणः समनन्तरम्। परां गतिमनुप्राप्त इति नैष्ठिकमञ्जसा।। | 12-344-69a 12-344-69b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारायणीये चतुश्चत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 344।। |
12-344-31 क्रुद्धं द्रक्ष्यथ तं प्रभुमिति ध. पाठः।। 12-344-34 अतीन्द्रिया निराहारा इति ध. पाठः।। 12-344-43 पुरुषव्यत्यय आर्षः।।
शांतिपर्व-343 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-345 |