महाभारतम्-12-शांतिपर्व-355
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नारदंप्रति नरनारायणाभ्यां पित्र्ये कर्मणि विशेषनिरूपणम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-355-1x |
कस्यचित्त्वथ कालस्य नारदः परमेष्ठिजः। दैवं कृत्वा यथान्यायं पित्र्यं चक्रे ततः परम्।। | 12-355-1a 12-355-1b |
ततस्तं वचनं प्राह ज्येष्ठो धर्मात्मजः प्रभुः। क इज्यते द्विजश्रेष्ठ दैवे पित्र्ये च कल्पिते।। | 12-355-2a 12-355-2b |
त्वया मतिमतां श्रेष्ठ तन्मे शंस यथातथम्। किमेतत्क्रियते कर्म फलं वाऽस्य किमिष्यते।। | 12-355-3a 12-355-3b |
नारद उवाच। | 12-355-4x |
त्वयैतत्कथितं पूर्वं दैवं कर्तव्यमित्यपि। दैवतं च परो ज्ञेयः परमात्मा सनातनः।। | 12-355-4a 12-355-4b |
ततस्तद्भावितो नित्यं यजे वैकुण्ठमव्ययम्। तस्माच्च प्रसृतः पूर्वं ब्रह्मा लोकपितामहः।। | 12-355-5a 12-355-5b |
मम वै पितरं प्रीतः परमेष्ठ्यप्यजीजनत्। अहं संकल्पजस्तस्य पुत्रः प्रथमकल्पितः।। | 12-355-6a 12-355-6b |
यजामि वै पितॄन्साधो नारायणविधौ कृते। एवं स एव भगवान्पिता माता पितामहः।। | 12-355-7a 12-355-7b |
इज्यते पितृयज्ञेषु मया नित्यं जगत्पतिः। श्रुतिश्चाप्यपरा देवाः पुत्रान्हि पितरोऽयजन्।। | 12-355-8a 12-355-8b |
वेदश्रुतिः प्रनष्टा च पुनरध्यापिता सुतैः। ततस्ते मन्त्रदाः पुत्राः पितॄणामिति वैदिकम्।। | 12-355-9a 12-355-9b |
नूनं सुरैस्तद्विदितं युवयोर्भावितात्मनोः। पुत्राश्च पितरश्चैव परस्परमपूजयन्।। | 12-355-10a 12-355-10b |
त्रीन्पिण्डान्न्यस्य वै पित्र्यान्पूर्वं दत्त्वा कुशानिति। कथं तु पिण्डसंज्ञां ते पितरो लेभिरे पुरा।। | 12-355-11a 12-355-11b |
नरनारायणावूचतुः। | 12-355-12x |
इमां हि धरणीं पूर्वं नष्टां सागरमेखलाम्। गोविन्द उज्जहाराशु वाराहं रूपमास्थितः।। | 12-355-12a 12-355-12b |
स्थापयित्वा तु धरणीं स्वे स्थाने पुरुषोत्तमः। जलकर्दमलिप्ताङ्गो लोककार्यार्थमुद्यतः।। | 12-355-13a 12-355-13b |
प्राप्ते चाह्निककाले तु मध्यदेशगते रवौ। दंष्ट्राविलग्नांस्त्रीन्पिण्डान्विधूय सहसा प्रभुः।। | 12-355-14a 12-355-14b |
स्थापयामास वै पृथ्व्यां कुशानास्तीर्य नारद। स तेष्वात्मानमुद्दिश्य पित्र्यं चक्रे यथाविधि।। | 12-355-15a 12-355-15b |
संकल्पयित्वा त्रीन्पिण्डान्स्वेनैव विधिना प्रभुः। आत्मगात्रोष्मसंभूतैः स्नेहगर्भैस्तिलैरपि।। | 12-355-16a 12-355-16b |
प्रोक्ष्यापसव्यं देवेशः प्राङ्भुखः कृतवान्स्वयम्। मर्यादास्थापनार्थं च ततो वचनमुक्तवान्।। | 12-355-17a 12-355-17b |
वृषाकपिरुवाच। | 12-355-18x |
अहं हि पितरः स्रष्टुमुद्यतो लोककृत्स्वयम्। तस्य चिन्तयतः सद्यः पितृकार्यविधीन्परान्।। | 12-355-18a 12-355-18b |
दंष्ट्राभ्यां प्रविनिर्धूता ममैते दक्षिणां दिशम्। आश्रिता धरणीं पीड्य तस्मात्पितर एव ते।। | 12-355-19a 12-355-19b |
त्रयो मूर्तिविहीना वै पिण्डमूर्तिधरास्त्विमे। भवन्तु पितरो लोके मया सृष्टाः सनातनाः।। | 12-355-20a 12-355-20b |
पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः। अहमेवात्र विज्ञेयस्त्रिषु पिण्डेषु संस्थितः। नास्ति मत्तोऽधिकः कश्चित्को वान्योर्च्यो मया स्वयं | 12-355-21a 12-355-21b 12-355-21c |
अहमेव पिता लोके अहमेव पितामहः। पितामहपिता चैव अहमेवात्र कारणम्।। | 12-355-22a 12-355-22b |
इत्येतदुक्त्वा वचनं देवदेवो वृषाकपिः। वराहपर्वते विप्र दत्त्वा पिण्डान्सविस्तरान्। आत्मानं पूजयित्वैव तत्रैवादर्शनं गतः।। | 12-355-23a 12-355-23b 12-355-23c |
एतदर्थं सुभमते पितरः पिण्डसंज्ञिताः। लभन्ते सततं पूजां वृषाकपिवचो यथा।। | 12-355-24a 12-355-24b |
ये यजन्ति पितॄन्देवान्गुरूंश्चैवातिर्थीस्तथा। गाश्चैव द्विजमुख्यांश्च पितरं मातरं तथा।। | 12-355-25a 12-355-25b |
कर्मणा मनसा वाचा विष्णुमेव यजन्ति ते। अन्तर्गतः स भगवान्सर्वसत्वशरीरगः।। | 12-355-26a 12-355-26b |
समः सर्वेषु भूतेषु ईश्वरः सुखदुःखयोः। महान्महात्मा सर्वात्मा नारायण इति श्रुतिः।। | 12-355-27a 12-355-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारायणीये पञ्चपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 355।। |
12-355-2 क इज्यते द्विजवरैर्दैवे पित्र्ये च कर्मणीति ध. पाठः।। 12-355-4 परो यज्ञ इति झ. पाठः।। 12-355-6 मम पितरं प्रजापतिम्। ब्रह्मा परमेष्ठीति संबन्धः। नारदो दक्षशापात्प्रजापतेः सकाज्ञात्पुनर्जन्म प्रापेति हरिवंशेऽस्ति। तस्य ब्रह्मणः।। 12-355-7 नारायणविधौ तान्त्रिके पूजादौ।। 12-355-8 अग्निष्वात्तादीन्पुत्रान् पितरो देवा अध्याप्यासुरैः सह युद्धार्थं गतास्ततश्चिरोपिताना तेषां श्रुतिः नष्टा न प्रतिभाति। ततस्ते पुत्रेभ्य एव वेदमधीतयन्त इत्याख्यायिका पुराणान्तरप्रसिद्धा सूचिता।। 12-355-9 पुत्राः पितृत्वमुपपेदिर इति झ. ध. पाठः।। 12-355-11 न्यस्य वै पृथ्व्यामिति ध. थ. पाठः। पूर्वं पृथ्व्यां कुशान्दत्वा तत्र पित्राद्युद्देशेन पिण्डान्न्यस्यापूजयमिति संबन्धः।। 12-355-14 मध्यंदिनगते रवाविति थ. ध. पाठः। दंष्ट्राविलग्नान्मृत्पिण्डानिति ट. थ. पाठः।। 12-355-16 तिलैरप इति थ. ध. पाठः।। 12-355-18 पितरः पितॄन्।। 12-355-19 विष्णोः शालग्रामइव पितॄणां मूर्तयः पिण्डा एवेत्याह। दंष्ट्राभ्यामिति। दंष्ट्राभ्यां प्रविनिर्धूता मृत्पिण्डा दक्षिणां दिशमिति ध. थ. पाठः। दंष्ट्राभ्यां विनिधूतांस्त्रीन्पिण्डानां दक्षिणां दिशमिति ठ. पाठः। आश्रिता शरणीं पिण्डा इति झ. पाठः।। 12-355-21 पित्तामहश्चेत्यादिना श्राद्धं सर्वं विष्णुदैवत्यमेवेति पित्र्यप्रकारो दर्शितः।। 12-355-22 न को मम पिता लोक इति ध. पाठः। को वा मम पिता लोके इति झ. पाठः। मातामहः पिता चैवेति ध. पाठः।। 12-355-24 एषा तस्य स्थितिर्विप्रेति झ. पाठः।। 12-355-25 पितॄन्भक्त्येति थ. ध. पाठः।।
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