महाभारतम्-12-शांतिपर्व-358
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वैशंपायनेन जनमेजयाय एकान्तिधर्मनिरूपणपूर्वकं लोके तत्प्रचारप्रकारप्रतिपादनम्।। 1।।
जनमेजय उवाच। | 12-358-1x |
अहो ह्येकान्तिनः सर्वान्प्रीणाति भगवान्हरिः। विधिप्रयुक्तां पूजां च गृह्णाति शिरसा स्वयम्।। | 12-358-1a 12-358-1b |
ये तु दग्धेन्धना लोके पुण्यपापविवर्जिताः। तेषां च या हि निर्दिष्टा पारम्पर्यागता गतिः।। | 12-358-2a 12-358-2b |
चतुर्थ्यां चैव ते गत्यां गच्छन्ति पुरुषोत्तमम्। एकान्तिनस्तु पुरुषा गच्छन्ति परमं पदम्।। | 12-358-3a 12-358-3b |
नूनमेकान्तधर्मोऽयं श्रेष्ठो नारायणप्रियः। अगत्वा गतयतिस्रो यद्गच्छत्यव्ययं हरिम्।। | 12-358-4a 12-358-4b |
सहोपनिषदान्वेदान्ये विप्राः सम्यगास्थिताः। पठन्ति विधिमास्थाय ये चापि यतिधर्मिणः।। | 12-358-5a 12-358-5b |
तेभ्यो विशिष्टां जानामि गतिमेकान्तिनां नृणाम्। केनैष धर्मः कथितो देवेन ऋषिणाऽपि वा।। | 12-358-6a 12-358-6b |
एकान्तिनां च का चर्या कदा चोत्पादिता विभो। एतन्मे संशयं छिन्धि परं कौतूहलं हि मे।। | 12-358-7a 12-358-7b |
वैशंपायन उवाच। | 12-358-8x |
समुपोढेष्वनीकेषु कुरुपाण्डवयोर्मृधे। अर्जुने विमनस्के च गीता भगवता स्वयम्।। | 12-358-8a 12-358-8b |
आगतिश्च गतिश्चैव पूर्वं ते कथिता मया। गहनो ह्येष धर्मो वै दुर्विज्ञेयोऽकृतात्मभिः।। | 12-358-9a 12-358-9b |
संमितः सामवेदेन पुरैवादियुगे कृतः। धार्यते स्वयमीशेन राजन्नारायणेन ह।। | 12-358-10a 12-358-10b |
एतदर्थं महाराज पृष्टः पार्थेन नारदः। ऋषिमध्ये महाभागः शृण्वतोः कृष्णभीष्मयोः।। | 12-358-11a 12-358-11b |
गुरुणा च मयाऽप्येव कथितो नृपसत्तम। यथा तत्कथितं तत्र नारदेन तथा शृणु।। | 12-358-12a 12-358-12b |
यदाऽऽसीन्मानजं जन्म नारायणमुखोद्गतम्। ब्रह्मणः पृथिवीपाल तदा नारायणः स्वयम्।। | 12-358-13a 12-358-13b |
तेन धर्मेण कृतवान्दैवं पित्र्यं च भारत। फेनपा ऋषयश्चैव तं धर्मं प्रतिपेदिरे।। | 12-358-14a 12-358-14b |
वैखानसाः फेनपेभ्यो धर्मं तं प्रतिपदिरे। वैखानसेभ्यः सोपस्तु ततः सोऽन्तर्दधे पुनः।। | 12-358-15a 12-358-15b |
यदाऽऽसीच्चाक्षुषं जन्म द्वितीयं ब्रह्मणो नृप। यदा पितामहेनैव सोमाद्धर्मः परिश्रुतः।। | 12-358-16a 12-358-16b |
नारायणात्मको राजन्रुद्राय प्रददौ च तम्। ततो योगस्थितो रुद्रः पुरा कृतयुगे नृप।। | 12-358-17a 12-358-17b |
वालखिल्यानृषीन्सर्वान्धर्ममेनमपाठयत्। अन्तर्दधे ततो भूयस्तस्य देवस्य मायया।। | 12-358-18a 12-358-18b |
तृतीयं ब्रह्मणो जन्म यदासीद्वाचिकं महत्। तत्रैष धर्मः संभूतः स्वयं नारायणान्नृप।। | 12-358-19a 12-358-19b |
सुपर्णो नाम तमृषिः प्राप्तवान्पुरुषोत्तमात्। तपसा वै सुतप्तेन दमेन नियमेन च।। | 12-358-20a 12-358-20b |
त्रिः परिक्रान्तवानेतत्सुपर्णो धर्मसुत्तमम्। यस्मात्तस्माद्व्रतं ह्येतत्रिसौपर्णमिहोच्येत।। | 12-358-21a 12-358-21b |
ऋग्वेदपाठपठितं व्रतमेतद्धि दुश्चरम्। सुपर्णाच्चाप्यधिगतो धर्म एष सनातनः।। | 12-358-22a 12-358-22b |
वायुना द्विपदश्रिष्ठे प्रथितो जगदायुषा। वायोः सकाशात्प्राप्तश्च ऋषिभिर्विघसाशिभिः।। | 12-358-23a 12-358-23b |
तेभ्यो महोदधिश्चैव प्राप्तवान्धर्ममुत्तमम्। अन्तर्दधे ततो भूयो नारायणसमाहृतः।। | 12-358-24a 12-358-24b |
यदा भूयः श्रवणजा सृष्टिरासीन्महात्मनः। ब्रह्मणः पुरुषव्याघ्र तत्र कीर्तयतः शृणु।। | 12-358-25a 12-358-25b |
जगत्स्रष्टुमना देवो हरिर्नारायणः स्वयम्। चिन्तयामास पुरुषं जगत्सर्गकरं प्रभुम्।। | 12-358-26a 12-358-26b |
अथ चिन्तयतस्तस्य कर्णाभ्यां पुरुषः स्मृतः। प्रजासर्गकरो ब्रह्मा तमुवाच जगत्पतिः।। | 12-358-27a 12-358-27b |
सृज प्रजाः पुत्र सर्वा मुखतः पादतस्तथा। श्रेयस्तव विधास्यामि बलं तेजश्च सुव्रत।। | 12-358-28a 12-358-28b |
धर्मं च मत्तो गृह्णीष्व सात्वतं नाम नामतः। तेन सृष्टं कृतयुगं स्थापयस्व यथाविधि।। | 12-358-29a 12-358-29b |
ततो ब्रह्मा नमश्चक्रे देवाय हरिमेधसे। धर्मं चाग्र्यं स जग्राह सरहस्यं ससंग्रहम्।। | 12-358-30a 12-358-30b |
आरण्यकेन सहितं नारायणमुखोद्गतम्। उपदिश्य ततो धर्मं ब्रह्मणेऽमिततेजसे।। | 12-358-31a 12-358-31b |
तं कार्तयुगधर्माणं निराशीः कर्मसंज्ञितम्। जगाम तमसः पारं यत्राव्यक्तं व्यवस्थितम्।। | 12-358-32a 12-358-32b |
ततोऽथ वरदो देवो ब्रह्मा लोकपितामहः। असृजत्स ततो लोकान्कृत्स्नान्स्थावरजङ्गमान्।। | 12-358-33a 12-358-33b |
ततः प्रावर्तत तदा आदौ कृतयुगं शुभम्। ततो हि सात्वतो धर्मो व्याप्य लोकानवस्थितः।। | 12-358-34a 12-358-34b |
तेनैवाद्येन धर्मेण ब्रह्मा लोकविसर्गकृत्। पूजयामास देवेशं हरिं नारायणं प्रभुम्।। | 12-358-35a 12-358-35b |
धर्मप्रतिष्ठाहेतोश्च मनुं स्वारोचिषं ततः। अध्यापयामास तदा लोकानां हितकाम्यया।। | 12-358-36a 12-358-36b |
ततः स्वारोचिषः पुत्रं स्वयं शङ्खपदं नृप। अध्यापयत्पुराऽव्यग्रः सर्वलोकपतिर्विभुः।। | 12-358-37a 12-358-37b |
ततः शङ्खपदश्चापि पुत्रमात्मजमौरसम्। दिशापालं सुधर्माणमध्यापयत भारत। सोऽन्तर्दधे ततो भूयः प्राप्ते त्रेतायुगे पुनः।। | 12-358-38a 12-358-38b 12-358-38c |
नासत्ये जन्मनि पुरा ब्रह्मणः पार्थिवोत्तम। धर्ममेतं स्वयं देवो हरिर्नारायणः प्रभुः।। | 12-358-39a 12-358-39b |
तज्जगादारविन्दाक्षो ब्रह्मणः पश्यतस्तदा। सनत्कुमारो भगवांस्ततः प्राधीतवान्नृप।। | 12-358-40a 12-358-40b |
सनत्कुमारादपि च वीरणो वै प्रजापतिः। कृतादौ कुरुशार्दूल धर्ममेतदधीतवान्।। | 12-358-41a 12-358-41b |
वीरणश्चाप्यधीत्यैनं रैभ्याय मुनये ददौ। रैभ्यः पुत्राय शुद्धाय सुव्रताय सुमेधसे।। | 12-358-42a 12-358-42b |
कुक्षिपालाय च ददौ विशालाय च धर्मिणे। ततोऽप्यन्तर्दधे भूयो नारायणमुखोद्गतः।। | 12-358-43a 12-358-43b |
अण्डजे जन्मनि पुनर्ब्रह्मणे हरियोनये। एष धर्मः समुद्भूतो नारायणमुखात्पुनः।। | 12-358-44a 12-358-44b |
गृहीतो ब्रह्मणा राजन्प्रयुक्तश्च यथाविधि। अध्यापिताश्च मुनयो नाम्ना बर्हिपदो नृप।। | 12-358-45a 12-358-45b |
बर्हिषद्भ्यश्च संप्राप्तः सामवेदान्तगं द्विजम्। ज्येष्ठं नामाभिविख्यातं ज्येष्ठसामव्रतो हरिः।। | 12-358-46a 12-358-46b |
ज्येष्ठाच्चाप्यनुसंक्रान्तो राजानमविकम्पनम्। अन्तर्दधे ततो राजन्नेष दर्मः प्रभो हरेः।। | 12-358-47a 12-358-47b |
यदिदं सप्तमं जन्म पद्मजं ब्रह्मणो नृप। तत्रैष धर्मः कथितः स्वयं नारायणेन ह।। | 12-358-48a 12-358-48b |
पितामहाय शुद्धाय युगादौ लोकधारिणे। पितामहश्च दक्षाय धर्ममेतं पुरा ददौ।। | 12-358-49a 12-358-49b |
ततो ज्येष्ठे तु दौहित्रे प्रादाद्दक्षो नृपोत्तम। आदित्ये सवितुर्ज्येष्ठे विवस्वाञ्जगृहे ततः।। | 12-358-50a 12-358-50b |
त्रेतायुगादौ च ततो विवस्वान्ममवे ददौ। मनुश्च लोकभूत्यर्थं सुतायेक्ष्वाकवे ददौ।। | 12-358-51a 12-358-51b |
इक्ष्वाकुणा च कथितो व्याप्य लोकानवस्थितः। गमिष्यति क्षयान्ते च पुनर्नारायणं नृप।। | 12-358-52a 12-358-52b |
यतीनां चापि यो धर्मः स ते पूर्वं नृपोत्तम। कथितो हरिगीतासु समासविधिकल्पितः।। | 12-358-53a 12-358-53b |
नारदेन सुसंप्राप्तः सरहस्यः ससंग्रहः। एष धर्मो जगन्नाथात्साक्षान्नारायणान्नृप।। | 12-358-54a 12-358-54b |
एवमेव महान्धर्मे आद्यो राजन्सनातनः। दुर्विज्ञेयो दुष्करश्च सात्वतैर्धार्यते सदा।। | 12-358-55a 12-358-55b |
धर्मज्ञानेन चैतेन सुप्रयुक्तेन कर्मणा। अहिंसाधर्मयुक्तेन प्रीयते हरिरीश्वरः।। | 12-358-56a 12-358-56b |
एकव्यूहविभागो वा क्वचिद्द्विव्यूहसंज्ञितः। त्रिव्यूहश्चापि संख्यातश्चतुर्व्यूहश्च दृश्यते।। | 12-358-57a 12-358-57b |
हरिरेव हि क्षेत्रज्ञो निर्ममो निष्कलस्तथा। जीवश्च सर्वभूतेषु पञ्चभूतगुणातिगः।। | 12-358-58a 12-358-58b |
मनश्च प्रथितं राजन्पञ्चन्द्रियसमीरणम्। एष लोकनिधिः श्रीमानेषु लोकविसर्गकृत्।। | 12-358-59a 12-358-59b |
अकर्ता चैव कर्ता च कार्यं कारणमेव च। यथेच्छति तथा राजन्क्रीडते पुरुषोऽव्ययः।। | 12-358-60a 12-358-60b |
एष एकान्तिधर्मस्ते कीर्तितो नृपसत्तम। मया गुरुप्रसादेन दुर्विज्ञेयोऽकृतात्मभिः।। | 12-358-61a 12-358-61b |
एकान्तिनो हि पुरुषा दुर्लभा बहवो नृप। यद्येकान्तिभिराकीर्णं जगत्स्यात्कुरुनन्दनः।। | 12-358-62a 12-358-62b |
अहिंसकैरात्मविद्भिः सर्वभूतहिते रतैः। भवेत्कृतयुगप्राप्तिराशीः कर्मविवर्जिता।। | 12-358-63a 12-358-63b |
एवं स भगवान्व्यासो गुरुर्मम विशांपते। कथयामास धर्मज्ञो धर्मराजे द्विजोत्तमः।। | 12-358-64a 12-358-64b |
ऋषीणां संनिधौ राजञ्शृण्वतोः कृष्णभीष्मयोः। तस्याप्यकथयत्पूर्वं नारदः सुमहातपाः।। | 12-358-65a 12-358-65b |
देवं परमकं ब्रह्म श्वेतं चन्द्राभमच्युतम्। यत्र चैकान्तिनो यान्ति नारायणपरायणाः। `तदेव परमं स्थानं मुक्तानां केवलं भवेत्।।' | 12-358-66a 12-358-66b 12-358-66c |
जनमेजय उवाच। | 12-358-67x |
एवं बहुविधं धर्मं प्रविबुद्धैर्निषेवितम्। न कुर्वन्ति कथं विप्रा अन्ये नानाव्रते स्थिताः।। | 12-358-67a 12-358-67b |
वैशंपायन उवाच। | 12-358-68x |
तिस्रः प्रकृतयो राजन्देहबन्धेषु निर्मिताः। सात्विकी राजसी चैव तामसी चैव भारत।। | 12-358-68a 12-358-68b |
देहबन्धेषु पुरुषः श्रेष्ठः कुरुकुलोद्वह। सात्विकः पुरुषव्याघ्र भवेन्मोक्षाय निश्चितः।। | 12-358-69a 12-358-69b |
अत्रापि स विजानाति पुरुषं ब्रह्मवित्तमम्। नारायणां परं मोक्षे ततो वै सात्विकः स्मृतः।। | 12-358-70a 12-358-70b |
मनीषितं च प्राप्नोति चिन्तयन्पुरुषोत्तमम्। एकान्तभक्तः सततं नारायणपरायणः।। | 12-358-71a 12-358-71b |
मनीषिणो हि ये केचिद्यतयो मोक्षधर्मिणः। तेषां विच्छिन्नतृष्णानां योगक्षेमवहो हरिः।। | 12-358-72a 12-358-72b |
जायमानं हि पुरुषं यं पश्येन्मधुसूदनः। सात्विकस्तु स विज्ञेयो भवेन्मोक्षे च निश्चितः।। | 12-358-73a 12-358-73b |
साङ्ख्ययोगेन तुल्यो हि धर्म एकान्तिसेवितः। नारायणात्मके मोक्षे ततो यान्ति परां गतिं।। | 12-358-74a 12-358-74b |
नारायणेन दृष्टस्तचु प्रतिबुद्धो भवेत्पुमान्। एवमात्मेच्छया राजन्प्रतिबुद्धो न जायते।। | 12-358-75a 12-358-75b |
राजसी तामसी चैव व्यामिश्रे प्रकृती स्मृते। तदात्मकं हि पुरुषं जायमानं विशांपते। प्रवृत्तिलक्षणैर्युक्तं नावेक्षति हरिः स्वयम्।। | 12-358-76a 12-358-76b 12-358-76c |
पश्यत्येनं जायमानं ब्रह्मा लोकपितामहः। रजसा तपसा चैव मानसं समभिप्लुतम्।। | 12-358-77a 12-358-77b |
कामं देवाश्च ऋषयः सत्वस्था नृपसत्तम। हीनाः सत्वेन सूक्ष्मेण ततो वैकारिकाः स्मृताः।। | 12-358-78a 12-358-78b |
जनमेजय उवाच। | 12-358-79x |
कथं वैकारिको गच्छेत्पुरुषः पुरुषोत्तमम्। वद सर्वं यथादृष्टं प्रवृत्तिं च यथाक्रमम्।। | 12-358-79a 12-358-79b |
वैशंपायन उवाच। | 12-358-80x |
सुसूक्ष्मं तत्त्वसंयुक्तं संयुक्तं त्रिभिरक्षरैः। पुरुषः पुरुषं गच्छेन्निष्क्रियं पञ्चविंशकम्।। | 12-358-80a 12-358-80b |
एवमेकं साङ्ख्ययोगं वेदारण्यकमेव च। परस्पराङ्गान्येतानि पाञ्चरात्रं च कथ्यते।। | 12-358-81a 12-358-81b |
एष एकान्तिनां धर्मो नारायणपरात्मकः।। | 12-358-82a |
यथा समुद्रात्प्रसृता जलौघा स्तमेव राजन्पुनराविशन्ति। इमे तथा ज्ञानमहाजलौघा नारायणं वै पुनराविशन्ति।। | 12-358-83a 12-358-83b 12-358-83c 12-358-83d |
एष ते कथितो धर्मः सात्वतो यदुबान्धव। कुरुष्वैनं यथान्यायं यदि शक्तोसि भारत।। | 12-358-84a 12-358-84b |
एवं हि स महाभागो नारदो गुरवे मम। श्वेतानां यतिनां चाह एकान्तगतिमख्याम्।। | 12-358-85a 12-358-85b |
व्यासश्चाकथयत्प्रीत्या धर्मपुत्राय धीमते। स एवायं मया तुभ्यमाख्यातः प्रसृतो गुरोः।। | 12-358-86a 12-358-86b |
इत्थं हि दुश्चरो धर्म एष पार्थिवसत्तम। यथैव त्वं तथैवान्ये न भजन्ति च मोहिताः।। | 12-358-87a 12-358-87b |
कृष्ण एव हि लोकानां भावनो मोहनस्तथा। संहारकारकश्चैव कारणं च विशांपते।। | 12-358-88a 12-358-88b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारायणीये अष्टपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 358।। |
12-358-2 दग्धेन्धनाः नष्टवासनाः। पारम्पर्यागता गुरुसंप्रदायागतागतिर्ज्ञानम्।। 12-358-23 प्रथितो गदता पुरेति थ. पाठः।। 12-358-25 यदा भूयस्तमश्चास्य बुद्धिरासीन्महात्मनः इति ट. पाठः।। 12-358-26 जगत्सर्गकरः प्रभुरिति थ. ध. पाठः।। 12-358-31 नासिक्ये जन्मनीति थ.ध. पाठः।। 12-358-42 रौत्र्याय मनवे ददाविति ध. ध. पाठः। सुव्रताय सुधन्वत इति ट. ध. पाठः।। 12-358-44 ब्रह्मणो हरिमेधस इति ट. ध. पाठः।। 12-358-49 युगादौ लोकसाक्षिणे इति ट. पाठः।। 12-358-58 निर्मलो निष्कलस्तथेति ट. पाठः।। 12-358-59 अतश्च प्रथितो राजन्पञ्चेन्द्रियसमीरिति इति थ. ध. पाठः।। 12-358-63 कृतयुगप्राप्तिरीदृशैः कर्मवर्जितैरिति ट. ध. पाठः। आशीः कर्म काम्यंकर्म।। 12-358-70 नारायणपरो मोक्ष इति झ. ट. पाठः।। 12-358-72 यतयो मोक्षकाङ्क्षिण इति ट. ध. पाठः।। 12-358-77 एनं राजसं ब्रह्मा पश्यति प्रवृत्तिमर्गि नियोजयतीत्यर्थः। ब्रह्मा रुद्रोऽथवा पुनरिति थ.ध. पाठः।। 12-358-81 परस्परान्यान्येतानीति ट. पाठः।। 12-358-87 धर्मः पुण्यः पार्थिवसत्तमेति थ. पाठः।। 12-358-88 संसारकारकश्चैवेति ध. पाठः।।
शांतिपर्व-357 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-359 |