महाभारतम्-12-शांतिपर्व-364
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श्रेयःसाधनं पृष्टेनातिथिना ब्राह्मणंप्रति नानामार्गप्रदर्शनपूर्वकं स्वस्यापि संशयोत्कीर्तनम्।। 1।।
ब्राह्मण उवाच। | 12-364-1x |
समुत्पन्ने विधानेऽस्मिन्वाङ्भाधुर्येण तेऽनघ। मित्रत्वमभिसंपन्नः किंचिद्वक्ष्यामि तच्छृणु।। | 12-364-1a 12-364-1b |
गृहस्थधर्मं विप्रेन्द्र श्रुत्वा धर्मगतं त्वहम्। धर्मं परमकं कुर्यां को हि मार्गो भवेद्द्विज।। | 12-364-2a 12-364-2b |
अहमात्मानमास्थाय एक एवात्मनि स्थितम्। द्रष्टुमिच्छन्न पश्यामि बद्धः साधारणैर्गुणैः।। | 12-364-3a 12-364-3b |
यावदेतदतीतं मे वयः पुत्रफलाश्रितम्। तावदिच्छामि पाथेयमादातुं पारलौकिकम्।। | 12-364-4a 12-364-4b |
अस्मिन्हि लोकसंभारे परं पारमभीप्सतः। उत्पन्ना मे मतिरियं कुतो धर्ममयः प्लवः।। | 12-364-5a 12-364-5b |
संयुज्यमानानि निशाम्य लोके निर्यात्यमानानि च सात्विकानि। दृष्ट्वा तु धर्मध्वजकेतुमालां प्रकीर्यमाणामुपरि प्रजानाम्।। | 12-364-6a 12-364-6b 12-364-6c 12-364-6d |
न मे मनो रज्यति भोगरागै र्दृष्ट्वा गतिं प्रार्थयतः परत्र। तेनातिथे बुद्धिबलाश्रयेण धर्मेण धर्मे विनियुङ्क्ष्व मां त्वम्।। | 12-364-7a 12-364-7b 12-364-7c 12-364-7d |
सोऽतिथिर्वचनं तस्य श्रुत्वा धर्माभिभाषिणः। प्रोवाच वचनं श्लक्षणं प्राज्ञो मधुरया गिरा।। | 12-364-8a 12-364-8b |
अहमप्यत्र मुह्यामि ममाप्येष मनोरथः। न च संनिश्चयं चामि बहुद्वारे त्रिविष्टये।। | 12-364-9a 12-364-9b |
केचिन्मोक्षं प्रशंसन्ति केचिद्यज्ञफलं द्विजाः। वानप्रस्थाश्रयाः केचिद्गार्हस्थ्यं केचिदाश्रिताः।। | 12-364-10a 12-364-10b |
राजधर्माश्रयाः केचित्केचिदात्मफलाश्रयाः। गुरुधर्माश्रयाः केचित्केचिद्वाक्संयमाश्रयाः।। | 12-364-11a 12-364-11b |
मातरं पितरं केचिच्छुश्रूषन्तो दिवं गताः। अहिंसया परे स्वर्गं सत्येन च तथाऽपरे।। | 12-364-12a 12-364-12b |
आहवेऽभिमुखः केचिन्निहतास्त्रिदिवं गताः। केचिदुञ्छव्रतैः सिद्धाः स्वर्गमार्गं समाश्रिताः।। | 12-364-13a 12-364-13b |
केचिदध्ययने युक्ता वेदव्रतपराः शुभाः। बुद्धिमन्तो गताः स्वर्गं तुष्टात्मानो जितेन्द्रियाः।। | 12-364-14a 12-364-14b |
आर्जवेनापरे युक्ता निहतानार्जवैर्जनैः। ऋजवो नाकपृष्ठे वै शुद्धात्मानः प्रतिष्ठिताः।। | 12-364-15a 12-364-15b |
एवं बहुविधैर्लोकैर्धर्मद्वारैरनावृतैः। ममापि मतिराविद्धा मेघलेखेव वायुना।। | 12-364-16a 12-364-16b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुःषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 364।। |
12-364-1 समुत्पन्नाभिधानोस्मीति झ. पाठः। तत्र आभिधानी बन्धनरज्जुः। अश्वाभिधानीमादत्त इति ब्राह्मणात्। तेनाभिधानशब्दोपि बन्धनवाची। जातबन्धन इत्यर्थः।। 12-364-2 कृत्वा पुत्रगतं त्वहमिति झ. पाठः।। 12-364-5 कुतः कृत्राश्रमे। प्लवः संसाराब्धितरणसाधनम्।। 12-364-6 निशाम्य आलोच्य। निर्गात्यमानानि निपीड्यमानाति। सात्विकानि देवादीनि। धर्मस्य यमस्य ध्वजाः पताका दण्डोपमा रोगादयस्तेषां माला संततिस्तां दृष्ट्वा मे मनो न रज्यतीत्युत्तरेण संबन्धः। समूह्यमानानि यथा हि लोके निहन्यमानानि तथाहि तानि इति।प्रकीर्यमाणानीति च. ट. पाठः।।
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