महाभारतम्-12-शांतिपर्व-298
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति यथाविभवशक्तिधर्माचरणस्य श्रेयःसाधनताप्रतिपादकपराशरगीतानुवादः।। 1।।
पराशर उवाच। | 12-298-1x |
कः कस्य चोपकुरुते कश्च कस्मै प्रयच्छति। प्राणी करोत्ययं कर्म सर्वमात्मार्थमात्मना।। | 12-298-1a 12-298-1b |
गौरवेण परित्यक्तं निःस्नेहं परिवर्जयेत्। सोदर्यं भ्रातरमपि किमुतान्यं पृथग्जनम्।। | 12-298-2a 12-298-2b |
विशिष्टस्य विशिष्टाच्च तुल्यौ दानप्रतिग्रहौ। तयोः पुण्यतरं दानं तद्द्विजस्य प्रयच्छतः।। | 12-298-3a 12-298-3b |
न्यायागतं धनं वर्णैर्न्यायेनैव विवर्धितम्। संरक्ष्यं यत्नमास्थाय धर्मार्थमिति निश्चयः।। | 12-298-4a 12-298-4b |
न धर्मार्थी नृशंसेन कर्मणा धनमार्जयेत्। शक्तितः सर्वकार्याणि कुर्यान्नर्द्धिमनुस्मरन्।। | 12-298-5a 12-298-5b |
अपो हि प्रयताः शीतास्तापिता ज्वलनेन वा। शक्तितोऽतिथये दत्त्वा क्षुधार्तायाऽश्नुते फलम्।। | 12-298-6a 12-298-6b |
रन्तिदेवेन लोकेष्टा सिद्धिः प्राप्ता महात्मना। फलपत्रैरथो मूलैर्मुनीनचिंतवांश्च सः।। | 12-298-7a 12-298-7b |
तैरेव फलपत्रैश्च स माठरमतोषयत्। तस्माल्लेभे परं स्थानं शैब्योऽपि पृथिवीपतिः।। | 12-298-8a 12-298-8b |
देवतातिथिभृत्येभ्यः पितृभ्यश्चात्मनस्तथा। ऋणवाञ्जायते मर्त्यस्तस्मादनृणतां व्रजेत्।। | 12-298-9a 12-298-9b |
स्वाध्यायेन महर्षिभ्यो देवेभ्यो यज्ञकर्मणा। पितृभ्यः श्राद्धदानेन नृणामभ्यर्चनेन च।। | 12-298-10a 12-298-10b |
पाकशेपावहार्येण पालनेनात्मनोऽपि च। यथावद्भृत्यवर्गस्य चिकीर्षेत्कर्म आदितः।। | 12-298-11a 12-298-11b |
प्रयत्नेन च संसिद्धा धनैरपि विवर्जिताः। सम्यग्घृत्वा हुतवहं मुनयः सिद्धिमागताः।। | 12-298-12a 12-298-12b |
विश्वामित्रस्य पुत्रत्वमृचीकतनयोऽगमत्। ऋग्भिः स्तुत्वा महाबाहो देवान्वै यज्ञभागिनः।। | 12-298-13a 12-298-13b |
गतः शुक्रत्वमुशना देवदेवप्रसादनात्। देवीं स्तुत्वा तु गगने मोदते तेजसा वृतः।। | 12-298-14a 12-298-14b |
असितो देवलश्चैव तथा नारदपर्वतौ। कक्षीवाञ्जामदग्न्यश्च रामस्ताण्ड्यस्तथाऽऽत्मवान्।। | 12-298-15a 12-298-15b |
वसिष्ठो जमदग्निश्च विश्वामित्रोऽत्रिरेव च। भरद्वाजो हरिश्मश्रुः कुण्डधारः श्रुतश्रवाः।। | 12-298-16a 12-298-16b |
एते महर्षयः स्तुत्वा विष्णुमृग्भिः समाहिताः। लेभिरे तपसा सिद्धिं प्रसादात्तस्य धीमतः।। | 12-298-17a 12-298-17b |
अनर्हाश्चार्हतां प्राप्ताः सन्तः स्तुत्वा तमेव ह। न तु वृद्धिमिहान्विच्छेत्कर्म कृत्वा जुगुप्सितम्।। | 12-298-18a 12-298-18b |
येऽर्था धर्मेण ते सत्या येऽधर्मेण धिगस्तु तान्। धर्मं वै शाश्वतं लोके न जह्याद्धनकाङ्क्षया।। | 12-298-19a 12-298-19b |
आहिताग्निर्हि धर्मात्मा यः स पुण्यकृदुत्तमः। वेदा हि सर्वे राजेन्द्र स्थितास्त्रिष्वग्निषु प्रभो।। | 12-298-20a 12-298-20b |
च चाप्यग्न्याहितो विप्रः क्रिया यस्य न हीयते। श्रेयो ह्यनाहिताग्नित्वमग्निहोत्रं न निष्क्रियम्।। | 12-298-21a 12-298-21b |
अग्निरात्मा च माता च पिता जनयिता तथा। गुरुश्च नरशार्दूल परिचर्या यथातथम्।। | 12-298-22a 12-298-22b |
मानं त्यक्त्वा यो नरो वृद्धसेवी विद्वान्क्लीबः पश्यति प्रीतियोगात्। दाक्ष्येण हीनो धर्मयुक्तो न दान्तो लोकेऽस्मिन्वै पूज्यते सद्भिरार्यः।। | 12-298-23a 12-298-23b 12-298-23c 12-298-23d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 298।। |
12-298-2 सोदर्यं वा सुतमपीति थ. ध. पाठः।। 12-298-8 स मातुरमतोषयदिति थ. ध।। 12-298-9 देवर्ष्यतिथिभृत्येभ्य इति थ. ध. पाठः।। 12-298-11 वाचा शेषावहार्येणेति झ. पाठः। चिकीर्षेद्धर्ममाश्रित इति ध. पाठः।। 12-298-14 मोदते यशसा वृत इति झ. पाठः।।
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