महाभारतम्-12-शांतिपर्व-294
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति मुक्तिसाधनप्रतिपादकसगरारिष्टनेमिसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-294-1x |
कथं नु युक्तः पृथिवीं चरेदस्मद्विधो नृपः। नित्यं कैश्च गुणैर्युक्तः सङ्गपाशाद्विमुच्यते।। | 12-294-1a 12-294-1b |
भीष्म उवाच। | 12-294-2x |
अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम्। अरिष्टनेमिना प्रोक्तं सगरायानुपृच्छते।। | 12-294-2a 12-294-2b |
सगर उवाच। | 12-294-3x |
किं श्रेयः परमं ब्रह्मन्कृत्वेह सुखमश्नुते। कथं न शोचेन्न क्षुभ्येदेतदिच्छामि वेदितुम्।। | 12-294-3a 12-294-3b |
भीष्म उवाच। | 12-294-4x |
एवमुक्तस्तदा तार्क्ष्यः सर्वशास्त्रविदां वरः। विबुध्य संपदं चाग्र्यां सद्वाक्यमिदमब्रवीत्।। | 12-294-4a 12-294-4b |
सुखं मोक्षसुखं लोके न च मूढोऽवगच्छति। प्रसक्तः पुत्रपशुषु धनधान्यसमाकुलः।। | 12-294-5a 12-294-5b |
सक्तबुद्धिरशान्तात्मा स न शक्यश्चिकित्सितुम्। स्नेहपाशसितो मूढो न स मोक्षाय कल्पते।। | 12-294-6a 12-294-6b |
स्नेहजानिह ते पाशान्वक्ष्यामि शृणु तान्मम। सकर्णकेन शिरसा शक्याश्छेत्तुं विजानता।। | 12-294-7a 12-294-7b |
संभाव्य पुत्रान्कालेन यौवनस्थान्निवेश्य च। समर्थाज्जीवने ज्ञात्वा मुक्तश्चर यथासुखम्।। | 12-294-8a 12-294-8b |
भार्यां पुत्रवतीं वृद्धां लालितां पुत्रवत्सलाम्। ज्ञात्वा प्रजहि कालेन परार्थमनुदृश्य च।। | 12-294-9a 12-294-9b |
सापत्यो निरपत्यो वा मुक्तश्चर यथासुखम्। इन्द्रियैरिन्द्रियार्थांस्त्वमनुभूय यथाविधि।। | 12-294-10a 12-294-10b |
कृतकौन्तूहलस्तेषु मुक्तश्चर यथासुखम्। उपपत्त्योपलब्धेषु लोकेषु च समो भव।। | 12-294-11a 12-294-11b |
एष तावत्समासेन तव संकीर्तितो मया। मोक्षार्थो विस्तरेणाथ भूयो वक्ष्यामि तच्छृणु।। | 12-294-12a 12-294-12b |
मुक्ता वीतभया लोके चरन्ति सुखिनो नराः। सक्तभावा विनश्यन्ति नरास्तत्र न संशयः।। | 12-294-13a 12-294-13b |
आहारसंचये सक्ता यथा कीटपिपीलिकाः। असक्ताः सुखिनो लोके सक्ताश्चैव विनाशिनः।। | 12-294-14a 12-294-14b |
स्वजने न च ते चिन्ता कर्तव्या मोक्षबुद्धिना। इमे मया विनाभूता भविष्यन्ति कथं त्विति।। | 12-294-15a 12-294-15b |
स्वयमुत्पद्यते जन्तुः स्वयमेव विवर्धते। सुखदुःखे तथा मृत्युं स्वयमेवाधिगच्छति।। | 12-294-16a 12-294-16b |
भोजनाच्छादने चैव मात्रा पित्रा च संग्रहम्। स्वकृते नाधिगच्छन्ति लोके नास्त्यकृतं पुरा।। | 12-294-17a 12-294-17b |
धात्रा विहितभक्ष्याणि सर्वभूतानि मेदिनीम्। लोके विपरिधावन्ति रक्षितानि स्वकर्मभिः।। | 12-294-18a 12-294-18b |
स्वयं मृत्पिण्डभूतस्य परतन्त्रस्य सर्वदा। को हेतुः स्वजनं द्वेष्टुं रक्षितं वाऽदृढात्मनः।। | 12-294-19a 12-294-19b |
स्वजनं हि यदा मृत्युर्हन्त्येव भुवि पश्यतः। कृतेऽपि यत्ने महति तत्र बोद्धव्यमात्मना।। | 12-294-20a 12-294-20b |
जीवन्तमपि चैवैनं भरणे रक्षणे तथा। असमाप्ते परित्यज्य पश्चादपि मरिष्यसि।। | 12-294-21a 12-294-21b |
यदा मृतं च स्वजनं न ज्ञास्यसि कथंचन। सुखितं दुःखितं वाऽपि ननु बोद्धव्यमात्मना।। | 12-294-22a 12-294-22b |
मृते वा त्वयि जीवे वा यदा भोक्ष्यति वै जनः। स्वकृतं ननु बुद्ध्वैवं कर्तव्यं हितमात्मनः।। | 12-294-23a 12-294-23b |
एवं विजानँल्लोकेऽस्मिन्कः कस्येत्यभिनिश्चितः। मोक्षे निवेशय मनो भूयश्चाप्युपधारय।। | 12-294-24a 12-294-24b |
क्षुत्पिपासादयो भावा जिता यस्येह देहिनः। क्रोधो लोभस्तथा मोहः सत्ववान्मुक्त एव सः।। | 12-294-25a 12-294-25b |
द्यूते पाने तथा स्त्रीषु मृगयायां च यो नरः। न प्रमाद्यति संमोहात्सततं मुक्त एव सः।। | 12-294-26a 12-294-26b |
दिवसेदिवसे नाम रात्रौरात्रौ पुमान्सदा। भोक्तव्यमिति यः स्विन्नो दोषबुद्धिः स उच्यते।। | 12-294-27a 12-294-27b |
आत्मभावं तथा स्त्रीषु सक्तमेव पुनः पुनः। यः पश्यति सदा युक्तो यथावन्मुक्त एव सः।। | 12-294-28a 12-294-28b |
संभवं च विनाशं च भूतानां चेष्टितं तथा। यस्तत्त्वतो विजानाति लोकेऽस्मिन्मुक्त एव सः।। | 12-294-29a 12-294-29b |
प्रस्थं वाहसहस्रेषु यात्रार्थं चैव कोटिषु। प्रासादे मञ्चकं स्थानं यः पश्यति स मुच्यते।। | 12-294-30a 12-294-30b |
मृत्युनाऽभ्याहतं लोकं व्याधिभिश्चोपपीडितम्। अवृत्तिकर्शितं चैव यः पश्यति स मुच्यते।। | 12-294-31a 12-294-31b |
यः पश्यति स संतुष्टो नपश्यंश्च विहन्यते। यश्चाप्यल्पेन संतुष्टो लोकेऽस्मिन्मुक्त एव सः।। | 12-294-32a 12-294-32b |
अग्नीषोमाविदं सर्वमिति यश्चानुपश्यति। न च संस्पृश्यते भावैरद्भुतैर्मुक्त एव सः।। | 12-294-33a 12-294-33b |
पर्यङ्कशय्या भूमिश्च सामने यस्य देहिनः। शाल्यन्नं च कदन्नं च यस्य स्यान्मुक्त एव सः।। | 12-294-34a 12-294-34b |
क्षौमं च कुशचीरं च कौशेयं वल्कलानि च। आविकं चर्म च समं यस्य स्यान्मुक्त एव सः।। | 12-294-35a 12-294-35b |
पञ्चभूतसमुद्भूतं लोकं यश्चानुपश्यति। तथाच वर्तते दृष्ट्वा लोकेऽस्मिन्मुक्त एव सः।। | 12-294-36a 12-294-36b |
सुखदुःखे समे यस्य लाभालाभौ जयाजयौ। इच्छाद्वेषौ भयोद्वेगौ सर्वथा मुक्त एव सः।। | 12-294-37a 12-294-37b |
रक्तमूत्रपुरीषाणां दोषाणां संचयांस्तथा। शरीरं दोषबहुलं दृष्ट्वा चैव विमुच्यते।। | 12-294-38a 12-294-38b |
वलीपलितसंयोगं कार्श्यं वैवर्ण्यमेव च। कुजभावं च जरयाः यः पश्यति स मुच्यतेत।। | 12-294-39a 12-294-39b |
पुंस्त्वोपघातं कालेन दर्शनोपरमं तथा। बाधिर्यं प्राणमन्दत्वं यः पश्यति स मुच्यते।। | 12-294-40a 12-294-40b |
गतानृषींस्तथा देवानसुरांश्च तथा गतान्। लोकादस्मात्परं लोकं यः पश्यति स मुच्यते।। | 12-294-41a 12-294-41b |
प्रभावैरन्वितास्तैस्तैः पार्थिवेन्द्राः सहस्रशः। ये गताः पृथिवीं त्यक्त्वा इति ज्ञात्वा विमुच्यते।। | 12-294-42a 12-294-42b |
अर्थांश्च दुर्लभाँल्लोके क्लेशांश्च सुलभांस्तथा। दुःखं चैव कुटुम्बार्थे यः पश्यति स मुच्यते।। | 12-294-43a 12-294-43b |
अपत्यानां च वैगुण्यं जनं विगुणमेव च। पश्यन्भूयिष्ठशो लोके को मोक्षं नाभिपूजयेत्।। | 12-294-44a 12-294-44b |
शास्त्राल्लोकाच्च यो बुद्धः सर्वं पश्यति मानवः। असारमिव मानुष्यं सर्वथा मुक्ता एव सः।। | 12-294-45a 12-294-45b |
एतच्छ्रुत्वा मम वचो भवांश्चरतु मुक्तवत्। गार्हस्थ्याद्यदि ते मोक्षे कृता बुद्धिरविक्लवा।। | 12-294-46a 12-294-46b |
तत्तस्य वचनं श्रुत्वा सम्यक्स पृथिवीपतिः। मोक्षजैश्च गुणैर्युक्तः पालयामास च प्रजाः।। | 12-294-47a 12-294-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुर्नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 294।। |
12-294-1 कथं विमुक्तः पृथिवीमिति थ. पाठः।। 12-294-5 नच लोकोऽवगच्छतीति थ. ध. पाठः।। 12-294-8 निवेश्य दारैः संयोज्य।। 12-294-9 परार्थमन्तिमं पुरुषार्थं मोक्षम्। प्रजहि त्यज।। 12-294-11 कृतकौतूहलः छिन्नौत्सुक्यः। लाभेषु च समो भवेति थ.ध. पाठः।। 12-294-12 मोक्षार्थो मोक्षप्रयोजनः।। 12-294-13 मुक्ताश्छिन्नस्नेहपाशाः। सक्तभावाः विषयासक्तवित्ताः।। 12-294-30 वाहः धान्यपूर्णं शकटम्। सहस्रेषु कोटिष्विति समानाधिकरणम्। प्रस्थं पुरुषाहारपरिमितं धान्यम्। यात्रार्थं देहव्यवहारार्थम्। अधिकसंग्रहो व्यर्थं इति यः पश्यति।। 12-294-31 अवृत्तिर्जीविकाया अभावः।। 12-294-32 नपश्यन्नित्येकं पदम्। मृत्युनाभ्याहतं लोकमित्यनुकृष्यते।। 12-294-33 अग्निर्जाठरो भोक्ता। सोमोऽन्नं भोज्यम्।। 12-294-34 शालयश्च कदग्नं चेति झ. ध. पाठः।। 12-294-38 श्लेष्ममूत्रपुरीषाणामिति ध. पाठः। छर्दिमूत्रेति थ. पाठः।। 12-294-40 बाधिर्यं घ्राणमन्दत्वमिति ध. पाठः।। 12-294-42 प्रतापैरन्विता इति थ. पाठः।।
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