महाभारतम्-12-शांतिपर्व-284
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति मोक्षसाधनप्रतिपादकहारीतगीतानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-284-1x |
किंशीलः किंसमाचारः किंविद्यः किंपरायणः। प्राप्नोति ब्रह्मणः स्थानं यत्परं प्रकृतेर्ध्रुवम्।। | 12-284-1a 12-284-1b |
भीष्म उवाच। | 12-284-2x |
मोक्षधर्मेषु निरतो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः। प्राप्नोति परमं स्थानं यत्परं प्रकृतेर्ध्रुवम्।। | 12-284-2a 12-284-2b |
`अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। हारीतेन पुरा गीतं तं निबोध युधिष्ठिर।। | 12-284-3a 12-284-3b |
स्वगृहादभिनिःसृत्य लाभेऽलाभे समो मुनिः। समुपोढेषु कामेषु निरपेक्षः परिव्रजेत्।। | 12-284-4a 12-284-4b |
न चक्षुषा न मनसा न वाचा दूषयेत्परम्। न प्रत्यक्षं परोक्षं वा दूषणं व्याहरेत्क्वचित्।। | 12-284-5a 12-284-5b |
न हिंस्यात्सर्वभूतानि मैत्रायणगतिश्चरेत्। नेदं जीवितमासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित्।। | 12-284-6a 12-284-6b |
अतिवादांस्तितिक्षेत नाभिमन्येत कंचन। क्रोध्यमानः प्रियं ब्रूयादाक्रुष्टः कुशलं वदेत्।। | 12-284-7a 12-284-7b |
प्रदक्षिणं च सव्यं च ग्राममध्ये च नाचरेत्। भैक्षचर्यामनापन्नो न गच्छेत्पूर्वकेतनम्।। | 12-284-8a 12-284-8b |
अवकीर्णः सुगुप्तश्च न वाचाऽप्यप्रियं चरेत्। मृदुः स्यादप्रतीकारो विस्रब्धः स्यादरोषणः।। | 12-284-9a 12-284-9b |
विधूमे न्यस्तमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने। अतीते पात्रसंचारे भिक्षां लिप्सेत वै मुनिः।। | 12-284-10a 12-284-10b |
प्राणयात्रिकमात्रः स्यान्मात्रालाभेष्वनादृतः। अलाभे न विहन्येत लाभश्चैनं न हर्षयेत्।। | 12-284-11a 12-284-11b |
लाभं साधारणां नेच्छेन्न भुञ्जीताभिपूजितः। अभिपूजितलाभं हि जुगुप्सेतैव तादृशः।। | 12-284-12a 12-284-12b |
न चान्नदोषान्निन्देत न गुणानभिपूजयेत्। शय्यासने विविक्ते च नित्यमेवाभिपूजयेत्।। | 12-284-13a 12-284-13b |
शून्यागारं वृक्षमूलमरण्यमथवा गुहाम्। अज्ञातचर्यां गत्वाऽन्यां ततोऽन्यत्रैव संविशेत्।। | 12-284-14a 12-284-14b |
अनुरोधविरोधाभ्यां समः स्यादचलो ध्रुवः। सुकृतं दुष्कृतं चोभे नानुरुध्येत कर्मणि।। | 12-284-15a 12-284-15b |
नित्यतृप्तः सुसंतृष्टः प्रसन्नवदनेन्द्रियः। विभीर्जप्यपरो मौनी वैराग्यं समुपाश्रितः।। | 12-284-16a 12-284-16b |
अभ्यस्तं भौतिकं पश्यन्भूतानामागतिं गतिम्। विस्मितः सर्वदर्शी च पक्वापक्वेन वर्तयन्। आत्मारामः प्रशान्तात्मा लघ्वाहारो जितेन्द्रियः।। | 12-284-17a 12-284-17b 12-284-17c |
वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं हिंसावेगमुदरोपस्थवेगम्। एतान्वेगान्विनयेद्वै तपस्वी निन्दा चास्य हृदयं नोपहन्यात्।। | 12-284-18a 12-284-18b 12-284-18c 12-284-18d |
मध्यस्थ एव तिष्ठेत प्रशंसानिन्दयोः समः। एतत्पवित्रं परमं परिव्राजक आश्रयेत्।। | 12-284-19a 12-284-19b |
महात्मा सर्वतो दान्तः सर्वत्रैवानपाश्रितः। अपूर्वचारकः सौम्यो ह्यनिकेतः समाहितः।। | 12-284-20a 12-284-20b |
वानप्रस्थगृहस्थाभ्यां न संसृज्येत कर्हिचित्। अज्ञातलिप्सं लिप्सेत न चैनं हर्ष आविशेत्।। | 12-284-21a 12-284-21b |
विजानतां मोक्ष एष श्रमः स्यादविजानताम्। मोक्षयानमिदं कृत्स्नं विदुषां हारितोऽब्रवीत्।। | 12-284-22a 12-284-22b |
अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा यः प्रव्रजेद्गृहात्। लोकास्तेजोमयास्तस्य तथाऽनन्त्याय कल्पते।। | 12-284-23a 12-284-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुरशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 284।। |
12-284-2 प्राप्नोति ब्रह्मणः स्थानमिति झ. थ. पाठः।। 12-284-4 समुषोढेषूपस्थितेष्वपि। संमुखेषु च कामेषु इति ट. ध. पाठः। समो दुःखेषु कामेषु इति थ. पाठः।। 12-284-6 मैत्रायणगतो मित्रः सूर्यस्तस्येदं मैत्रं तदयनं गमनं तच्च मैत्रायणं तत्र गतः। सूर्यवत्प्रत्यहं विभिन्नमार्गः। ग्रामैकरात्रविधिना चरेदित्यर्थः मैत्रायणगतिं चरेदिति ट. ड. पाठः।। 12-284-7 नातिमन्येत्कथंचनेति ट. ड. पाठः।। 12-284-8 ग्राममध्ये जनसमाजे प्रदक्षिणमनुकूलं सव्यं प्रतिकूलं वा नाचरेत्।। 12-284-9 अवतीर्णः सुगुप्तश्चेति ट. ध. पाठः। अप्रियं वददिति झ. पाठः। अवकीर्णो मूढैः पांसुभिश्छन्नः। धिक्कृत इत्यर्थः। तथापि सुगुप्तोऽचपलः स्वधर्मे निष्ठावान्।। 12-284-11 अनुयात्रिकमर्थी स्यादिति ड. पाठः।। 12-284-12 साधारणं सर्वंयोग्यं स्रक्बुन्दनादिलाभम्।। 12-284-16 ध्यानजल्पपरो मौनीति ट. ड. पाठः।। 12-284-17 सव्यक्तं भौतिकं स्वर्ग्यं इति ड. ध. पाठः। निःस्पृहः समदर्शी चेति झ. पाठः। सुव्रतो दान्त इति ट. ड. पाठः।। 12-284-20 अज्ञातनिष्ठां लिप्सेतेति ध. पाठः।।
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