महाभारतम्-12-शांतिपर्व-279
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति धर्माचरणस्य श्रेयस्साधनत्वप्रतिपादनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-279-1x |
कथं भवति पापात्मा कथं धर्मं करोति वा। केन निर्वेदमादत्ते मोक्षं वा केन गच्छति।। | 12-279-1a 12-279-1b |
भीष्म उवाच। | 12-279-2x |
विदिताः सर्वधर्मास्ते स्थित्यर्थमनुपृच्छसि। शृणु मोक्षं सनिर्वेदं पापं धर्मं च मूलतः।। | 12-279-2a 12-279-2b |
विज्ञानार्थं हि पञ्चानामिच्छापूर्वं प्रवर्तते। प्राप्यतां वर्तते कामो द्वेषो वा भरतर्षभ।। | 12-279-3a 12-279-3b |
ततस्तदर्थं यतते कर्म चारभते महत्। इष्टानां रूपगन्धानामभ्यासं च चिकीर्षति।। | 12-279-4a 12-279-4b |
ततो रागः प्रभवति द्वेषश्च तदनन्तरम्। ततो लोभः प्रभवति मोहश्च तदनन्तरम्।। | 12-279-5a 12-279-5b |
लोभमोहाभिभूतस्य रागद्वेषान्वितस्य च। न धर्मे जायते बुद्धिर्व्याजाद्धर्मं करोति च।। | 12-279-6a 12-279-6b |
व्याजेन चरते धर्ममर्थं व्याजेन रोचते। व्याजेन सिद्ध्यमानेषु धर्मेषु कुरुनन्दन।। | 12-279-7a 12-279-7b |
तत्रैव कुरुते बुद्धिं ततः पापं चिकीर्षति। सुहृद्भिर्वार्यमाणोऽपि पण्डितैश्चापि भारत।। | 12-279-8a 12-279-8b |
उत्तरं न्यायसंबद्धं ब्रवीति विधिचोदितम्। अधर्मस्त्रिविधस्तस्य वर्धते रागमोहजः।। | 12-279-9a 12-279-9b |
पापं चिन्तयते कर्म प्रब्रवीति करोति च। तस्याधर्मप्रवृत्तस्य दोषान्पश्यन्ति साधवः।। | 12-279-10a 12-279-10b |
एकशीलाश्च मित्रत्वं भजन्ते पापकर्मिणः। स नेह सुखमाप्नोति कुत एव परत्र वै।। | 12-279-11a 12-279-11b |
एवं भवति पापात्मा धर्मात्मानं तु मे शृणु। यथा कुशलधर्मा स कुशलं प्रतिपद्यते।। | 12-279-12a 12-279-12b |
कुशलेनैव धर्मेण गतिमिष्टां प्रपद्यते। य एतान्प्रज्ञया दोषान्पूर्वमेवानुपश्यति।। | 12-279-13a 12-279-13b |
कुशलस्तु सुखार्थाय साधूंश्चाप्युपसेवते। तस्य साधुसमाचारादभ्यासाच्चैव वर्धते।। | 12-279-14a 12-279-14b |
प्राज्ञो धर्मे च रमते धर्मं चैवोपजीवति। सोऽथ धर्मादवाप्तेषु धनेषु कुरुनन्दन।। | 12-279-15a 12-279-15b |
तस्यैव सिञ्चते मूलं गुणान्पश्यति यत्र वै। धर्मात्मा भवति ह्येवं मित्रं च लभते शुभम्।। | 12-279-16a 12-279-16b |
स मित्रधनलाभात्तु प्रेत्य चेह च नन्दति। शब्दे स्पर्शे रसे रूपे तथा गन्धे च भारत।। | 12-279-17a 12-279-17b |
प्रभुत्वं लभते जन्तुर्धर्मस्यैतत्फलं विदुः। स तु धर्मफलं लब्ध्वा न तृष्यति युधिष्ठिर।। | 12-279-18a 12-279-18b |
धर्मे स्थितानां कौन्तेय सर्वभोगक्रियासु च। अतृप्यमाणो निर्वेदमादत्ते ज्ञानचक्षुषा। प्रज्ञाचक्षुर्यदा कामे दोषमेवानुपश्यति।। | 12-279-19a 12-279-19b 12-279-19c |
शब्दे स्पर्शे तथा रूपे न च भावयते मनः। विमुच्यते तदा कामान्न च धर्मं विमुञ्चति।। | 12-279-20a 12-279-20b |
सर्वत्यागे च यतते दृष्ट्वा लोकं क्षयात्मकम्। ततो मोक्षाय यतते नानुपायादुपायतः।। | 12-279-21a 12-279-21b |
शनैर्निर्वेदमादत्ते पापं कर्म जहाति च। धर्मात्मा चैव भवति मोक्षं च लभते परम्।। | 12-279-22a 12-279-22b |
एतत्ते कथितं तात यन्मां त्वं परिपृच्छसि। पापं धर्मस्तथा मोक्षो निर्वेदश्चैव भारत।। | 12-279-23a 12-279-23b |
तस्माद्धर्मे प्रवर्तेथाः सर्वावस्थं युधिष्ठिर। धर्मे स्थितानां कौन्तेय सिद्धिर्भवति शाश्वती।। | 12-279-24a 12-279-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकोनाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 279।। |
12-279-7 व्याजेन कपटेन। अर्थमर्थजातम्।। 12-279-9 न्यायसंबद्धमाहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेदित्यादि। त्रिविधः कायिको वाचिको मानसश्च।। 12-279-10 पापं परानिष्टम्।। 12-279-12 कुशलं कल्याणं परहितमित्यर्थः।। 12-279-19 निर्वेदं वैराग्यम्।। 12-279-20 भावयते चिन्तावशं करोति। विरज्यति तदा कामे इति ड. थ. पाठः।।
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