महाभारतम्-12-शांतिपर्व-278
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति हिंसाहेतुतया यज्ञस्याप्यप्राशस्त्यप्रतिपादकनारदवचनानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-278-1x |
बहूनां यज्ञतपसामेकार्थानां पितामह। धर्मार्थं न सुखार्थार्थं कथं यज्ञः समाहितः।। | 12-278-1a 12-278-1b |
भीष्म उवाच। | 12-278-2x |
अत्र ते वर्तयिष्यामि नारदेनानुकीर्तितम्। उञ्छवृत्तेः पुरावृत्तं यज्ञार्थे ब्राह्मणस्य च।। | 12-278-2a 12-278-2b |
नारद उवाच। | 12-278-3x |
राष्ट्रे धर्मोत्तरे श्रेष्ठे विदर्भेष्वभवद्द्विजः। उञ्छवृत्तिर्ऋषिः कश्चिद्यज्ञं यष्टुं समादधे।। | 12-278-3a 12-278-3b |
श्यामाकमशनं तत्र सूर्यपर्णी सुवर्चला। तिक्तं च विरसं शाकं तपसा स्वादुतां गतम्।। | 12-278-4a 12-278-4b |
उपगम्य वने पृथ्वीं सर्वभूताविहिंसया। अपि मूलफलैरिष्टो यज्ञः स्वर्ग्यः परंतप।। | 12-278-5a 12-278-5b |
तस्य भार्या व्रतकृशा शुचिः पुष्करमालिनी। यज्ञपत्नी समानीता सत्येनानुविधीयते।। | 12-278-6a 12-278-6b |
सा तु शापपरित्रस्ता तत्स्वभावानुर्तिनी। मायूरजीर्णपर्णानां वस्त्रं तस्याश्च वर्णितम्।। | 12-278-7a 12-278-7b |
अकामया कृतस्तत्र यज्ञो होत्रनुमार्गतः। शुकस्य पुनराजातिरवध्यानादधर्मवत्।। | 12-278-8a 12-278-8b |
तस्मिन्वने समीपस्थो मृगोऽभूत्सहचारिकः। वचोभिरब्रवीत्सत्यं त्वयेदं दुष्कृतं कृतम्।। | 12-278-9a 12-278-9b |
यदि मन्त्राङ्गहीनोऽयं यज्ञो भवति वैकृतः। मा भोःप्रक्षिप होत्रे त्वं गच्छ स्वर्गमतन्द्रितः।। | 12-278-10a 12-278-10b |
ततस्तु यज्ञे सावित्री साक्षात्तं संन्यमन्त्रयत्। निमन्त्रयन्ती प्रत्युक्ता न हन्यां सहवासिनम्।। | 12-278-11a 12-278-11b |
एवमुक्त्वा निवृत्ता सा प्रवृत्ता यज्ञपावकात्। किंनु दुश्चरितं यज्ञे दिदृक्षुः सा रसातलम्।। | 12-278-12a 12-278-12b |
स तु बद्धाञ्जलिं सत्यमयाचद्धरिणः पुनः। सत्येन स परिष्वज्य संदिष्टो गम्यतामिति।। | 12-278-13a 12-278-13b |
ततः स हरिणो गत्वा पदान्यष्टौ न्यवर्तत। साधु हिंसय मां सत्य हतो यास्यामि सद्गदितम्।। | 12-278-14a 12-278-14b |
पश्य ह्यप्सरसो दिव्या मया दत्तेन चक्षुषा। विमानानि विचित्राणि गन्धर्वाणां महात्मनाम्।। | 12-278-15a 12-278-15b |
ततः स सुचिरं दृष्ट्वा स्पृहालग्नेन चक्षुषा। मृगमालोक्य हिंसायां स्वर्गवासं समर्थयत्।। | 12-278-16a 12-278-16b |
स तु धर्मो मृगो भूत्वा बहुवर्षोषितो वने। तस्य निष्कृतिमाधत्त न त्वसौ यज्ञसंविधिः।। | 12-278-17a 12-278-17b |
तस्य तेनानुभावेन मृगहिंसात्मनस्तदा। तपो महत्समुच्छिन्नं तस्माद्धिंसा न यज्ञिया।। | 12-278-18a 12-278-18b |
ततस्तं भगवान्धर्मो यज्ञं याजयत स्वयम्। समाधानं च भार्याया लेभे स तपसा परम्।। | 12-278-19a 12-278-19b |
अहिंसा परो धर्मो हिंसाधर्मस्तथा हितः। सत्यं तेऽहं प्रवक्ष्यामि नो धर्मः सत्यवादिनाम्।। | 12-278-20a 12-278-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अष्टसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 278।। |
12-278-3 कश्चित्स च यज्ञं समादध इति ट. थ. पाठः।। 12-278-4 श्यामाकमशनमदनीय। सूर्यपर्णी सुवर्चलेति शाकविशेषौ। त्रयमेतद्वन्यं यज्ञियद्रव्यम्। सूर्यपत्री सुवर्चलेति ट. थ. ध. पाठः।। 12-278-6 पुष्करमालिनी नामतः। सत्ये सत्यसंज्ञे भर्तरि नानुविधीयते हिंसा यज्ञमश्रेयस्त्वेन मन्यमाना अनुविधानमानुकूल्यं न करोति।। 12-278-7 तथापि शापाद्भीता सती भर्तुः स्वभावमनुरुध्यास्ते इत्यर्थः। मयूरपञ्छैः सन्निवेशविशेषेण गुम्फितैस्तस्या वस्त्रं वर्णितं विस्तारितम्।। 12-278-8 शुक्रस्य पुनराज्ञाभिः पर्णादो नाम धर्मविदिति झ. पाठः।। 12-278-9 सहचारिको यजमानस्य सत्यसंज्ञस्य प्रतिवेशी स मृगोऽभून्मृगो भूत्वा च सत्यं मुनिमव्रवीत्। दुष्कृतमिति। सतिसामर्थ्ये मन्त्राङ्गहीनं यज्ञं कुर्वतां दुष्कृतं भवतीत्यर्थः।। 12-278-10 ननु दरिद्रेण मयानुकल्पेनैव श्यामाकचरुणा पशुकार्यं क्रियत इत्याशङ्क्याह यदीति। होत्रे हूयतेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्या अग्नौ। मां पर्णादं मृगभूतम्।। 12-278-11 सावित्री सवितृमण्डलाधिष्ठात्री देवता प्रत्यक्षमेत्य संन्यमन्त्रयत् मदर्तेऽयं पशुरग्नौ होतव्य इत्युक्तवती। प्रत्युक्ता प्रत्याख्याता। तत्र हेतुः न हन्यामिति।। 12-278-12 रसातलं दिदृक्षुः प्रवृत्ता तिरोभूदित्यर्थः।। 12-278-13 सत्यं सत्यसंज्ञम्। अयाचत मामग्नौ प्रक्षिपेति प्रार्थितवान्। ततो हिंसायां दोषं पश्यता संदिष्ट आज्ञप्तः।। 12-278-16 हिंसायां कृतायामेव स्वर्गवासं प्राप्नोतीति समर्थयत् समर्थितवानिति संबन्धः।। 12-278-17 केनचिन्निमित्तेन मृगतां प्राप्तो धर्मस्तस्य निमित्तस्य निष्कृतिं प्रतीकारमाधत्त स्वात्मानं मोचितवान्नत्वसौ यज्ञस्य समीचीनो विधिहिसामयत्वात्।।। 12-278-18 अनुभावेन पशुं हत्वा स्वर्गं प्राप्स्यामीत्यभिप्रायेण। यज्ञिया यज्ञाय हिता।। 12-278-19 याजयत अडभाव आर्षः। याजितवान्। भार्यायाः पुष्करमालिन्याः हिंसामययज्ञमनिच्छन्त्याः।। 12-278-20 तथा तेन स्वर्गप्रदत्वेन रूपेण हितः। सत्यवादिनां ब्रह्मवादिनां त्वसौ नो धर्मः अहिंसा सकलो धर्म इति झ. पाठः।।
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