महाभारतम्-12-शांतिपर्व-270
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति जाजलितुलाधारसंवादानुवादः।। 1।।
तुलाधार उवाच। | 12-270-1x |
सद्भिर्वा यदि वाऽसद्भिः पन्थानमिममाश्रितः। प्रत्यक्षं क्रियतां साधु ततो ज्ञास्यसि तद्यथा।। | 12-270-1a 12-270-1b |
एते शकुन्ता बहवः समन्ताद्विचरन्ति ह। तवोत्तमाङ्गे संभूताः श्येनाश्चान्याश्च जातयः।। | 12-270-2a 12-270-2b |
आहूयैनान्महाब्रह्मन्विशमानांस्ततस्ततः। पश्येमान्हस्तपादैश्च श्लिष्टान्देहेषु सर्वशः।। | 12-270-3a 12-270-3b |
संभावयन्ति पितरं त्वया संभाविताः स्वगाः। असंशयं पिता वै त्वं पुत्रानाह्वय जाजले।। | 12-270-4a 12-270-4b |
भीष्म उवाच। | 12-270-5x |
ततो जाजलिना तेन समाहूताः पतत्रिणः। वाचमुच्चारयन्ति स्म धर्मस्य वचनात्किल।। | 12-270-5a 12-270-5b |
तुलाधार उवाच। | 12-270-6x |
अहिंसादि कृतं कर्म इह चैव परत्र च। श्रद्धां निहन्ति वै ब्रह्मन्सा हता हन्ति तं नरम्।। | 12-270-6a 12-270-6b |
समानां श्रद्दधानानां संयतानां सुचेतसाम्। कुर्वतां यज्ञ इत्येव न यज्ञो जातु नेष्यते।। | 12-270-7a 12-270-7b |
श्रद्धा वै सात्विकी देवी सूर्यस्य दुहिता द्विज। सावित्री प्रसवित्री च हविर्वाङ्भनसी ततः।। | 12-270-8a 12-270-8b |
वाग्वृद्धं त्रायते श्रद्धा मनोवृद्धं च जाजले। श्रद्धावृद्धं वाङ्भनसी न यज्ञस्त्रातुमर्हति।। | 12-270-9a 12-270-9b |
अत्र गाथा ब्रह्मगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः। शुचेरश्रद्दधानस्य श्रद्दधानस्यर चाशुचेः।। | 12-270-10a 12-270-10b |
देवा वित्तममन्यन्त सदृशं यज्ञकर्मणि। श्रोत्रियस्य कदर्यस्य वदान्यस्य च वार्धुषेः।। | 12-270-11a 12-270-11b |
मीमांसित्वोभयं देवाः सममन्नमकल्पयन्। प्रजापतिस्तानुवाच विषमं कृतमित्युत।। | 12-270-12a 12-270-12b |
श्रद्धापूतं वदान्यस्य हतमश्रद्धयेतरत्। भोज्यमन्नं वदान्यस्य कदर्यस्य न वार्धुषेः।। | 12-270-13a 12-270-13b |
अश्रद्दधान एवैको देवानां नार्हते हविः। तस्यैवान्नं न भोक्तव्यमिति धर्मविदो विदुः।। | 12-270-14a 12-270-14b |
अश्रद्धा परमं पापं श्रद्धा पापप्रमोचनी। जहाति पापं श्रद्धावान्सर्पो जीर्णामिव त्वचम्।। | 12-270-15a 12-270-15b |
ज्यायसी या पवित्राणां निवृत्तिः श्रद्धया सह। निवृत्तशीलदोषो यः श्रद्धावान्पूत एव सः।। | 12-270-16a 12-270-16b |
किं तस्य तपसा कार्यं किं वृत्तेन किमात्मना। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।। | 12-270-17a 12-270-17b |
इति धर्मः समाख्यातः सद्भिर्धर्मार्थदर्शिभिः। वयं जिज्ञासमानास्तु संप्राप्ता धर्मदर्शनात्।। | 12-270-18a 12-270-18b |
श्रद्धां कुरु महाप्राज्ञ ततः प्राप्स्यसि यत्परम्।। | 12-270-19a |
`जाजलिरुवाच। | 12-270-20x |
न वै मुनीनां शृणुमश्च तत्वं पृच्छामि ते वाणिज तत्वमेतत्। पूर्वे हि पूर्वेऽप्यनवेक्षमाणा नातः परं ते ऋषयः स्थापयन्ति।। | 12-270-20a 12-270-20b 12-270-20c 12-270-20d |
यस्मिन्नेवानुतीर्थेन पशवः प्राप्नुयुः सुखम्। पत्नीव्रतेन विधिना प्रकरोति नियोजयन्।' श्रद्धावाञ्श्रद्दधानश्च धर्मश्चैव हि वाणिज।। | 12-270-21a 12-270-21b 12-270-21c |
तुलाधार उवाच। | 12-270-22x |
स्ववर्त्मनि स्थितश्चैव गरीयानेव जाजले।। | 12-270-22a |
भीष्म उवाच। | 12-270-23x |
ततोऽचिरेण कालेन तुलाधारः स एव च। दिवं गत्वा महाप्राज्ञौ विहरेतां यथासुखम्। स्वंस्वं स्थानमुपागम्य स्वकर्मफलनिर्मितम्।। | 12-270-23a 12-270-23b 12-270-23c |
एवं बहुविधार्थं च तुलाधारेण भापितम्। सम्यक्चैवमुपालब्धो धर्मश्चोक्तः सनातनः।। | 12-270-24a 12-270-24b |
तस्य विख्यातवीर्यस्य श्रुत्वा वाक्यानि जाजलिः। तुलाधारस्य कौन्तेय शान्तिमेवान्वपद्यत।। | 12-270-25a 12-270-25b |
`समानां श्रद्दधानानां युक्तानां च यथाबलम्। कुर्वतां यज्ञ इत्येव नायज्ञो जातु नेष्यते।।' | 12-270-26a 12-270-26b |
एवं बहुमतार्थं च तुलाधारेण भाषितम्। यथौपम्योपदेशेन किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 12-270-27a 12-270-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 270।। |
12-270-1 अयं पन्थाः समाश्रित इति ट. थ. पाठः।। 12-270-3 ततस्ततः तेषु तेषु नीडेषु प्रवेशाय श्लिष्टान् संकुचितहस्तपादान्।। 12-270-5 वाचमुच्चारयन्ति। निःशङ्कं प्रत्युत्तरं प्रयच्छन्तीत्यर्थः। तत्र हेतुः धर्मस्याऽहिंसात्मकस्य संबन्धिनो वचनात्प्रियवचनादित्यर्थः।। 12-270-6 हिंसा आदिपदार्थः। इह परत्र च प्रत्यक्षफलमिति शेषः। तत्र हिंसाफलमाह श्रद्धामिति। हिंसा श्रद्धां विश्वासं निहन्तीत्यध्याहृत्य योज्यम्। तं विश्वासघातिनम्। स्पर्धानिहन्ति तं धर्मं स हतो हन्तीति ध. पाठः। हिंसा निहन्ति वै धर्मसंहतो हन्तीति थ. पाठः।। 12-270-7 समानां लाभालाभयोः यज्ञः कर्तव्य इत्येवाभिसंधाय कुर्वतां फलं चाभिसंधायेति एवार्थः। तेषां यज्ञो नेष्वत इति न। संगतानां सुचेतसामिति ध. पाठः।। 12-270-9 वाचा स्वरवर्णविपर्यासेन यद्वृद्धं छिन्नं नष्टं मन्त्राद्युच्चारणे तच्छ्रद्धा त्रायते समाधत्ते। मनसा व्यग्रेण यन्नष्टं देवताध्यानादि।। 12-270-12 मीमांसित्वा विचार्य।। 12-270-14 हविर्दातुमिति शेषः।। 12-270-17 यत् या सात्विकी राजसी तामसी वा श्रद्धा यस्य स यच्छ्रद्धः। स एव स सात्विको राजसस्तामसो वा।। 12-270-18 धर्मदर्शनाख्यान्मुनेधैर्मं वयं प्राप्तवन्तः।। 12-270-19 स्पर्धां जहि महाप्राज्ञेति ध. पाठः।। 12-270-21 श्रद्धावान्वेदवाक्ये। श्रद्दधानस्तदर्थमनुष्ठातुं ममेदं श्रेय इति निश्चयवान्। धर्मो धर्मात्मा।। 12-270-22 गरीयानेव भूतले इति ट. थ. पाठः।। 12-270-27 यर्थापम्योपदेशेन यथायद्दष्टान्तकीर्तनेन।।
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