महाभारतम्-12-शांतिपर्व-269
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तुलाधारेण जाजलये धर्मरहस्योपदेशः।। 1।।
जाजलिरुवाच। | 12-269-1x |
यथा प्रवर्तितो धर्मस्तुलां धारयता त्वया। स्वर्गद्वारं च वत्तिं च भूतानामवरोत्स्यते।। | 12-269-1a 12-269-1b |
कृष्या ह्यन्नं प्रभवति ततस्त्वमपि जिवसि। पशुभिश्चौषधीभिश्च मर्त्या जीवन्ति वाणिज।। | 12-269-2a 12-269-2b |
ततो यज्ञः प्रभवति नास्तिक्यमपि जल्पसि। न हि वर्तेदयं लोको वार्तामुत्सृज्य केवलाम्।। | 12-269-3a 12-269-3b |
तुलाधार उवाच। | 12-269-4x |
वक्ष्यामि जाजले वृत्तिं नास्मि ब्राह्मण नास्तिकः। न यज्ञं च विनिन्दामि यज्ञवित्तु सुदुर्लभः।। | 12-269-4a 12-269-4b |
नमो ब्राह्मण यज्ञाय ये च यज्ञविदो जनाः। स्वयज्ञं ब्राह्मणा हित्वा क्षत्रयज्ञमनुष्ठिताः।। | 12-269-5a 12-269-5b |
लुब्धैर्वित्तपरैर्ब्रह्मन्नास्तिकैः संप्रवर्तितम्। वेदवादानभिज्ञानां सत्याभासमिवानृतम्।। | 12-269-6a 12-269-6b |
इदं देयमिदं देयमिति नान्यच्चिकीर्षति। अतः स्तैन्यं प्रभवति विकर्माणि च जाजले।। | 12-269-7a 12-269-7b |
यदेव सुकृतं हव्यं तेन तुष्यन्ति देवताः। नमस्कारेण हविषा स्वाध्यायैरौषधैस्तथा। पूजा स्याद्देवतानां हि यथाशास्त्रनिदर्शनम्।। | 12-269-8a 12-269-8b 12-269-8c |
इष्टापूर्तादसाधूनां विदुषां जायते प्रजा। लुब्धेभ्यो जायते लुब्धः समेभ्यो जायते समः।। | 12-269-9a 12-269-9b |
यजमाना यथाऽऽत्मानमृत्विजश्च तथा प्रजाः। यज्ञात्प्रजा प्रभवति नभसोऽम्भ इवामलम्।। | 12-269-10a 12-269-10b |
अग्नौ प्रास्ताहुतिर्ब्रह्मन्नादित्यमुपगच्छति। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः।। | 12-269-11a 12-269-11b |
तस्मात्सुनिष्ठिताः पूर्वे सर्वान्कामांश्च लेभिरे। अकृष्टपच्या पृथिवी आशीर्भिर्वीररुधोऽभवन्।। | 12-269-12a 12-269-12b |
न ते यज्ञेष्वात्मसु वा फलं पश्यन्ति किंचन। शङ्कमानाः फलं यज्ञे ये यजेरन्कथंचन।। | 12-269-13a 12-269-13b |
जानन्तः सर्वथा साधु लुब्धा वित्तप्रयोजनाः। स स्म पापकृतां लोकान्गुच्छेदशुभकर्मणा।। | 12-269-14a 12-269-14b |
प्रमाणमप्रमाणेन यः कुर्यादशुभं नरः। पापात्मा सोऽकृतप्रज्ञः सदैवेह द्विजोत्तम।। | 12-269-15a 12-269-15b |
कर्तव्यमिति कर्तव्यं वेत्ति वै ब्राह्मणो भयम्। ब्रह्मैव वर्तते लोके नैव कर्तव्यतां पुनः।। | 12-269-16a 12-269-16b |
विगुणं च पुनः कर्म ज्याय इत्यनुशुश्रुम्। सर्वभूतोपकारश्च फलभावे च संयमः।। | 12-269-17a 12-269-17b |
सत्ययज्ञा दमयज्ञा अलुब्धाश्चात्मवृत्तयः। उत्पन्नत्यागिनः सर्वे जना आसन्नमत्सराः।। | 12-269-18a 12-269-18b |
क्षेत्रक्षेत्रज्ञतत्त्वज्ञाः स्वयज्ञपरिनिष्ठिताः। ब्राह्मं वेदमधीयन्तस्तोषयन्त्यपरानपि।। | 12-269-19a 12-269-19b |
अखिलं दैवतं सर्वं ब्रह्म ब्रह्मणि संश्रितम्। तृप्यन्ति तृप्यतो देवास्तृप्ताऽतृप्तस्य जाजले।। | 12-269-20a 12-269-20b |
यथा सर्वरसैस्तृप्तो नाभिनन्दति किंचन। तथा प्रज्ञानतृप्तस्य नित्यतृप्तिः सुखोदया।। | 12-269-21a 12-269-21b |
धर्माधारा धर्मसुखाः कृत्स्नव्यवसितास्तथा। अस्ति नस्तत्त्वतो भूय इति प्राज्ञस्त्ववेक्षते।। | 12-269-22a 12-269-22b |
ज्ञानविज्ञानिनः केचित्परं पारं तितीर्षवः। अतीव पुण्यदं पुण्यं पुण्याभिजनसंहितम्।। | 12-269-23a 12-269-23b |
यत्र गत्वा न शोचन्ति च च्यवन्ति व्यथन्ति च। ते तु तद्ब्रह्मणः स्थानं प्राप्नुवन्तीह सात्विकाः।। | 12-269-24a 12-269-24b |
नैव ते स्वर्गमिच्छन्ति न यजन्ति यशोधनाः। सतां वर्त्मानुवर्तन्ते यथाबलमहिंसया।। | 12-269-25a 12-269-25b |
वनस्पतीनोषधीश्च फलमूलानि ते विदुः। न चैतानृत्विजो लुब्धा याजयन्ति फलार्थिनः।। | 12-269-26a 12-269-26b |
स्वमेव चार्थं कुर्वाणा यज्ञं चक्रुः पुनर्द्विजाः। परिनिष्ठितकर्माणाः प्रजानुग्रहकाम्यया।। | 12-269-27a 12-269-27b |
तस्मात्तानृत्विजो लुब्धा याजयन्त्यशुभान्नरान्। प्रापयेयुः प्रजाः स्वर्गे स्वधर्माचरणेन वै। इति मे वर्तते बुद्धिः समा सर्वत्र जाजले।। | 12-269-28a 12-269-28b 12-269-28c |
प्रयुञ्जते येन यज्ञे सदा प्राज्ञा द्विजर्षभाः। तेन ते देवयानेन पथा यान्ति महामुने।। | 12-269-29a 12-269-29b |
आवृत्तिस्तस्य चैकस्य नास्त्यावृत्तिर्मनीषिणाः। उभौ तौ देवयानेन गच्छतो जाजले यथा।। | 12-269-30a 12-269-30b |
स्वयं चैषामनडुहो युञ्जन्ति च वहन्ति च। स्वयमुस्राश्च दुह्यन्ते मनःसंकल्पसिद्धिभिः।। | 12-269-31a 12-269-31b |
स्वयं यूपानुपादाय यजन्ते स्वाप्तदक्षिणाः। यस्तथा भावितात्मा स्यात्स गामालब्धुमर्हति।। | 12-269-32a 12-269-32b |
ओषधीभिस्तथा ब्रह्मन्यजेरंस्ते न तादृशाः। श्रद्धया गां पुरस्कृत्य तदृतं प्रब्रवीमि ते।। | 12-269-33a 12-269-33b |
निराशिषमनारम्भं निर्नमस्कारमस्तुतिम्। अक्षीणं क्षीणकर्माणं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-269-34a 12-269-34b |
न श्रावयन्न च यजन्न ददद्ब्राह्मणेषु च। काम्यां वृत्तिं लिप्समानः कां गतिं याति जाजले। इदं तु दैवतं कृत्वा यथा यज्ञमवाप्नुयात्।। | 12-269-35a 12-269-35b 12-269-35c |
जाजलिरुवाच। | 12-269-36x |
[न वै मुनीनां शृणुमः स्म तत्त्वं पृच्छामि ते वाणिज कष्टमेतत्। पूर्वेपूर्वे चास्य नावेक्षमाणा नातः परं तमृषयः स्थापयन्ति।। | 12-269-36a 12-269-36b 12-269-36c 12-269-36d |
यस्मिन्नेवात्मतीर्थेन पशवः प्राप्नुयुर्मखम्।] अथ स्म कर्मणा केन वाणिज प्राप्नुयात्सुखम्। शंस मे तन्महाप्राज्ञ भृशं वै श्रद्दधामि ते।। | 12-269-37a 12-269-37b 12-269-37c |
तुलाधार उवाच। | 12-269-38x |
उत यज्ञा उतायज्ञा मस्वं नार्हन्ति ते क्वचित्। आज्येन पयसा दध्ना सत्कृत्यामिक्षया त्वचा। बालैः शृङ्गेण पादेन संभरत्येव गौर्मखम्।। | 12-269-38a 12-269-38b 12-269-38c |
पत्नीव्रतेन विधिना प्रकरोति नियोजयन्। इष्टं तु दैवतं कृत्वा यथा यज्ञमवाप्नुयात्।। | 12-269-39a 12-269-39b |
पुरोडाशो हि सर्वेषां पशूनां मेध्य उच्यते। सर्वा नद्यः सरस्वत्यः सर्वे पुण्याः शिलोच्चयाः। जाजले तीर्थमात्मेव मा स्म देशातिथिर्भव।। | 12-269-40a 12-269-40b 12-269-40c |
एतानीदृशकान्धर्मानाचरन्निह जाजले। कारणैर्धर्ममन्विच्छन्स लोकानाप्नुते शुभान्।। | 12-269-41a 12-269-41b |
भीष्म उवाच। | 12-269-42x |
एतानीदृशकान्धर्मांस्तुलाधारः प्रशंसति। उपपत्त्याऽभिसंपन्नान्नित्यं सद्भिर्निषेवितान्।। | 12-269-42a 12-269-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकोनसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 269।। |
12-269-3 नास्तिक्यं हिंसात्मकत्वेन यज्ञनिन्दा।। 12-269-9 विगुणा जायते प्रजेति झ. पाठः।। 12-269-25 यजन्ते चाविहिंसयेति झ. पाठः।। 12-269-38 अशक्तानां तु बालैर्गोपुच्छे पितृतर्पणादिना। शृङ्गेण गोशृङ्गेणाभिषेकादिना। पाद्देनेति पादरजसेत्यर्थः। एतेषां गोस्पर्शनादीनां च सद्यः पापनाशकत्वं परलोकप्रदत्वं च स्मृत्युक्तं दर्शितम्।। 12-269-41 ईदृशकानहिंस्रान्। कारणैरर्थित्वसमर्थत्वविद्वत्त्वतारतम्यैः।। 12-269-42 उपपत्त्या युत्तया।।
शांतिपर्व-268 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-270 |