महाभारतम्-12-शांतिपर्व-267
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति जाजलिचरित्रकथनारम्भः।। 1।। धार्मिकंमन्येन जाजलिना खेचरकृतावज्ञया तुलाधारसमीपगमनम्।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-267-1x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। तुलाधारस्य वाक्यानि धर्मे जाजलिना सह।। | 12-267-1a 12-267-1b |
वने वनचरः कश्चिज्जाजलिर्नाम वै द्विजः। सागरोद्देशमागम्य तपस्तेपे महातपाः।। | 12-267-2a 12-267-2b |
नियतो नियताहारश्चीराजिनजटाधरः। मलपङ्कधरो धीमान्बहून्वर्षगणान्मुनिः।। | 12-267-3a 12-267-3b |
स कदाचिन्महातेजा जलवासो महीपते। चचार लोकान्विप्रर्षिः प्रेक्षमाणो मनोजवः।। | 12-267-4a 12-267-4b |
स चिन्तयामास मुनिर्जलमध्ये कदाचन। विप्रेक्ष्य सागरान्तां वै महीं सवनकाननाम्।। | 12-267-5a 12-267-5b |
न मया सदृशोऽस्तीह लोके स्थावरजङ्गमे। अप्सु वैहायसं गच्छेन्मया योऽन्यः सहेति वै।। | 12-267-6a 12-267-6b |
स दृश्यमानो रक्षोभिर्जलमध्ये च भारत। आस्फोटयत्तदाऽऽकाशे धर्मः प्राप्तो मयेति वै।। | 12-267-7a 12-267-7b |
अब्रुवंश्च पिशाचास्तं नैवं त्वं वक्तुमर्हसि। तुलाधारो वणिग्धर्मा वाराणस्यां महायशाः। सोऽप्येवं नार्हते वक्तुं यथा त्वं द्विजसत्तम।। | 12-267-8a 12-267-8b 12-267-8c |
इत्युक्तो जाजलिर्भूतैः प्रत्युवाच महातपाः। पश्येयं तमहं प्राज्ञं तुलाधारं यशस्विनम्।। | 12-267-9a 12-267-9b |
इति ब्रुवाणं तमृषिं रक्षांस्युत्थाय सागरात्। अब्रुवन्गच्छ पन्थानमास्थायेमं द्विजोत्तम्।। | 12-267-10a 12-267-10b |
इत्युक्तो जाजलिर्भूतैर्जगाम विमनास्तदा। वाराणस्यां तुलाधारं समासाद्याब्रवीदिदम्।। | 12-267-11a 12-267-11b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-267-12x |
किं कृतं दुष्करं तात कर्म जाजलिना पुरा। येन सिद्धिं परां प्राप्तस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 12-267-12a 12-267-12b |
भीष्म उवाच। | 12-267-13x |
अतीव तपसा युक्तो घोरेण स बभूव ह। नद्युपस्पर्शनपरः सायंप्रातर्महातपाः।। | 12-267-13a 12-267-13b |
अग्नीन्परिचरन्सम्यक्स्वाध्यायपरमो द्विजः। वानप्रस्थ विधानज्ञो जाजलिर्ज्वलितः श्रिया।। | 12-267-14a 12-267-14b |
वने तपस्यतिष्ठत्स न चाधर्ममवैक्षत। वर्षास्वाकाशशायी च हेमन्ते जलसंश्रयः।। | 12-267-15a 12-267-15b |
वातातपसहो ग्रीष्मे न चाधर्ममविन्दत। दुःखशय्याश्च विविधा भूमौ च परिवर्तनम्।। | 12-267-16a 12-267-16b |
ततः कदाचित्स मुनिर्वर्षास्वाकाशमास्थितः। अन्तरिक्षाज्जलं मूर्ध्नां प्रत्यगृह्णान्मुहुर्मुहुः।। | 12-267-17a 12-267-17b |
आप्लुतस्य जटाः क्लिन्ना बभूवुर्ग्रथिताः प्रभो। अरण्यगमनान्नित्यं मलिनोऽमलसंयुतः।। | 12-267-18a 12-267-18b |
स कदाचिन्निराहारो वायुभक्षो महातपाः। तस्थौ काष्ठवदव्यग्रो न चचाल च कर्हिचित्।। | 12-267-19a 12-267-19b |
तस्य स्म स्थाणुभूतस्य निर्विचेष्टस्य भारत। कुलिङ्गशकुनौ राजन्नीडं शिरसि चक्रतुः।। | 12-267-20a 12-267-20b |
स तौ दयावान्ब्रह्मर्षिरुपप्रैक्षत दंपती। कुर्वाणौ नीडकं तत्र जटासु तृणतन्तुभिः।। | 12-267-21a 12-267-21b |
यदा न स चलत्येव स्थाणुभूतो महातपाः। ततस्तौ सुखविश्वस्तौ सुखं तत्रोषतुस्तदा।। | 12-267-22a 12-267-22b |
अतीतास्वथ वर्षासु शरत्काल उपस्थिते। प्राजापत्येन विधिना विश्वासात्काममोहितौ।। | 12-267-23a 12-267-23b |
तत्रोत्पादयतां राजञ्शिरस्यण्डानि खेचरौ। तान्यबुध्यत तेजस्वी स विप्रः संशितव्रतः।। | 12-267-24a 12-267-24b |
बुद्ध्वा च स महातेजा न चचाल च जाजलिः। धर्मे कृतमना नित्यं नाधर्मं स त्वरोचयत्।। | 12-267-25a 12-267-25b |
अहन्यहनि चागत्य ततस्तौ तस्य मूर्धनि। आश्वासितौ निवसतः संप्रहृष्टौ तदा विभौ।। | 12-267-26a 12-267-26b |
अण्डेभ्यस्त्वथ पुष्टेभ्यः प्राजायन्त शकुन्तकाः। व्यवर्धन्त च तत्रैव न चाकम्पत जाजलिः।। | 12-267-27a 12-267-27b |
स रक्षमाणस्त्वण्डानि कुलिङ्गानां धृतव्रतः। तथैव तस्थौ धर्मात्मा निर्विचेष्टः समाहितः।। | 12-267-28a 12-267-28b |
ततस्तु काले राजेन्द्र बभूवुस्तेऽथ पक्षिणः। बुबुधे तांस्तु स मुनिर्जातपक्षान्कुलिङ्गकान्।। | 12-267-29a 12-267-29b |
ततः कदाचित्तांस्तत्र पश्यन्पक्षीन्यतव्रतः। बभूव परमप्रीतस्तदा मतिमतां वरः।। | 12-267-30a 12-267-30b |
तथा तानभिसंवृद्धान्दृष्ट्वा चैवाप्तवान्मुदम्। शकुनौ निर्भयौ तत्र ऊषतुश्चात्मजैः सह।। | 12-267-31a 12-267-31b |
जातपक्षांश्च सोऽपश्यदुड्डीनान्पुनरागतान्। सायंसायं द्विजान्विप्रो न चाकम्पत जाजलिः।। | 12-267-32a 12-267-32b |
कदाचित्पुनरभ्येत्य पुनर्गच्छन्ति संततम्। त्यक्ता मातापितृभ्यां ते नचाकम्पत जाजलिः।। | 12-267-33a 12-267-33b |
तथा ते दिवसं चापि गत्वा सायं पुनर्नृप। उपावर्तन्त तत्रैव निवासार्थं शकुन्तकाः।। | 12-267-34a 12-267-34b |
कदाचिद्दिवसान्पञ्च समुत्पत्य विहगमाः। षष्ठेऽहनि समाजग्मुर्न चाकम्पत जाजलिः।। | 12-267-35a 12-267-35b |
क्रमेण च पुनः सर्वे दिवसान्सुबहूनथ। नोपावर्तन्त शकुना जातपक्षाश्च ते यदा।। | 12-267-36a 12-267-36b |
कदाचिन्मासमात्रेण समुत्पत्य विहंगमाः। नैवागच्छंस्ततो राजन्प्रातिष्ठत स जाजलिः।। | 12-267-37a 12-267-37b |
ततस्तेषु प्रलीनेषु जाजलिर्जातविस्मयः। सिद्धोस्मीति मतिं चक्रे ततस्तं मान आविशत्।। | 12-267-38a 12-267-38b |
स तथा निर्गतान्दृष्ट्वा शकुन्तान्नियतव्रतः। संभावितात्मा संभाव्य भृशं प्रीतस्तदाऽभवत्।। | 12-267-39a 12-267-39b |
स नद्यां समुपस्पृश्य तर्पयित्वा हुताशनम्। उदयन्तमथादित्यमभ्यागच्छन्महातपाः।। | 12-267-40a 12-267-40b |
संभाव्य चटकान्मूर्ध्नि जाजलिर्जपतांवरः। आस्फोटयत्तथाऽऽकाशे धर्मः प्राप्तो मयेति वै।। | 12-267-41a 12-267-41b |
अथान्तरिक्षे वागासीत्तां च शुश्राव जाजलिः। धर्मेण न समस्त्वं वै तुलाधारस्य जाजले।। | 12-267-42a 12-267-42b |
वाराणस्यां महाप्राज्ञस्तुलाधारः प्रतिष्ठितः। सोऽप्येवं नार्हते वक्तुं यथा त्वं भाषसे द्विज।। | 12-267-43a 12-267-43b |
सोमर्षवशमापन्नस्तुलाधारदिदृक्षया। पृथिवीमचरद्राजन्यत्रसायंगृहो मुनिः।। | 12-267-44a 12-267-44b |
कालेन महताऽगच्छत्स तु वाराणसीं पुरीम्। विक्रीणन्तं च पण्यानि तुलाधारं ददर्श सः।। | 12-267-45a 12-267-45b |
सोऽपि दृष्ट्वैव तं विप्रमायान्तं भाण्डजीवनः। समुत्थाय सुसंहृष्टः स्वागतेनाभ्यपूजयत्।। | 12-267-46a 12-267-46b |
तुलाधार उवाच। | 12-267-47x |
आयानेवासि विदितो मम ब्रह्मन्न संशयः। ब्रवीमि यत्तु वचनं तच्छृणुष्व द्विजोत्तम।। | 12-267-47a 12-267-47b |
सागरानूपमाश्रित्य तपस्तप्तं त्वया महत्। न च धर्मस्य संज्ञां त्वं पुरा वेत्थ कथंचन।। | 12-267-48a 12-267-48b |
ततः सिद्धस्य तपसा तव विप्र शकुन्तकाः। क्षिप्रं शिरस्यजायन्त ते च संभावितास्त्वया।। | 12-267-49a 12-267-49b |
जातपक्षा यदा ते च गता संचरितुं ततः। मन्यमानस्ततो धर्मं चटकप्रभवं द्विज। खे वाचां त्वमथाश्रौषीर्मां प्रति द्विजसत्तम।। | 12-267-50a 12-267-50b 12-267-50c |
अमर्षवशमापन्नस्ततः प्राप्तो भवानिह। करवाणि प्रियं किं ते तद्ब्रूहि द्विजसत्तम।। | 12-267-51a 12-267-51b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्तषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 267।। |
12-267-1 जांजलिना सहेति ड. थ. पाठः। तुलाधारवाक्यानि धर्मे प्रमाणत्वेनोदाहरन्तीत्यर्थः।। 12-267-4 प्रेक्षमाणो महाजलमिति ध. पाठः।। 12-267-5 जलध्ये महीं विप्रेक्ष्य तपोबलाद्दूरदर्शनादिसिद्धिं प्राप्येत्यर्थः।। 12-267-6 वैहायसमाकाशमतं ग्रहनक्षत्रादि गच्छेत् अवगच्छेत्। मया सह गच्छेशः सोऽन्यः कोस्तति योज्यम्।। 12-267-13 उपस्पशंनरतः स्रामाचमनरतः।। 12-267-14 स्त्रिया वेदविद्यया।। 12-267-18 अमलसंयुतः निष्पापः।। 12-267-21 उपप्रैक्षतोपेक्षांचक्रे। न वारितवानित्यर्थः।। 12-267-23 प्राजापत्येन गर्भाधानविधिना।। 12-267-29 ते शकुन्तकाः पक्षिणः पक्षवन्तो बभूवुः।। 12-267-30 पक्षीन्। आर्षो मत्वर्थीय इः।। 12-267-32 द्विजान् शकुन्तान्।। 12-267-38 प्रलीनेषु प्रडीनेषु। मानो गर्वः।। 12-267-41 संभाव्य वर्धयित्वा। आस्फोटयद्वाहुशब्दमकरोत्।। 12-267-46 भाण्डं मूलवणिग्धनं तेन जीवनं यस्य।। 12-267-47 आयानागच्छन्। आगतेनासि विदित इति थ. पाठः।। 12-267-48 सागरानूपं सागरसमीपस्थं सजलं प्रदेशम्।।
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