महाभारतम्-12-शांतिपर्व-256
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ज्ञानोपायादिप्रतिपादकव्यासवाक्यानुवादः।। 1।।
शुक उवाच। | 12-256-1x |
यस्माद्धर्मात्परो धर्मो विद्यदे नेह कश्चन। यो वि----- न्प्रब्रवीतु मे।। | 12-256-1a 12-256-1b |
व्यास उवाच। | 12-256-2x |
धर्मं ति संप्रवक्ष्यामि पुराणमृषिसंस्तुतम्। विशिष्टं सर्वधर्मेभ्यस्तमिहैकमनाः शृणु।। | 12-256-2a 12-256-2b |
इन्द्रिया-----प्रमाथीनि बुद्ध्या संयम्य यत्नतः। सर्वतो--------------------।। | 12-256-3a 12-256-3b |
मनसश्चेन्द्रियाणा चाप्यकाग्र्य परमं तप। तज्ज्यायः सर्वधर्मेभ्यः स धर्मः पर उच्य।। | 12-256-4a 12-256-4b |
तानि सर्वाणि संधाय मनःषष्ठानि मेधया। आत्मतृप्त इवासीत बहुचिन्त्यमचिन्तयन्।। | 12-256-5a 12-256-5b |
गोचरेभ्यो निवृत्तानि यदा स्थास्यन्ति वेश्मनि। तदा त्वमात्मनाऽऽत्मानं परं द्रक्ष्यसि शाश्वतम्।। | 12-256-6a 12-256-6b |
सर्वात्मानं महात्मानं विधूममिव पावकम्। तं पश्यन्ति महात्मानो ब्राह्मणा ये मनीषिणः।। | 12-256-7a 12-256-7b |
यथा पुष्पफलोपेतो बहुशाखो महाद्रुमः। आत्मनो नाभिजानीते क्व मे पुष्पं क्व मे फलम्।। | 12-256-8a 12-256-8b |
एवमात्मा न जानीते क्व गभिष्ये कुतस्त्वहम्। अन्यो ह्यत्रान्तरात्माऽस्ति यः सर्वमनुपश्यति।। | 12-256-9a 12-256-9b |
ज्ञानदीपेन दीप्तेन पश्यत्यात्मानमात्मना। दृष्ट्वा त्वमात्मनाऽऽत्मानं निरात्मा भव सर्ववित्।। | 12-256-10a 12-256-10b |
विमुक्तः सर्वपापेभ्यो विमुक्तत्वगिवोरगः। परां बुद्धिमवाप्येह विपाप्मा विगतज्वरः।। | 12-256-11a 12-256-11b |
सर्वतः प्रवहां घोरां नदीं लोकप्रवाहिनीम्। पञ्चेन्द्रियग्राहवतीं मनःसंकल्परोधसम्।। | 12-256-12a 12-256-12b |
लोभमोहतृणच्छन्नां कामक्रोधसरीसृपाम्। सत्यतीर्थानृतक्षोभां क्रोधपङ्कां सरिद्वराम्।। | 12-256-13a 12-256-13b |
अव्यक्तप्रभवां शीघ्रां दुस्तरामकृतात्मभिः। प्रतरस्व नदीं बुद्ध्या कामग्राहसमाकुलाम्।। | 12-256-14a 12-256-14b |
------------ तालद्स्तराम्। आत्मकमा---------जिह्वावर्तां दुरासदाम्।। | 12-256-15a 12-256-15b |
यां तरन्ति कृतप्रज्ञा धृतिमन्तो मनीषिणः। तां तीर्णः सर्वतोमुक्तो विधूतात्माऽऽत्मविच्छुचिः।। | 12-256-16a 12-256-16b |
उत्तमां बुद्धिमास्थाय ब्रह्मभूयं भविष्यसि। संतीर्णः सर्वसंक्लेशान्प्रसन्नात्मा विकल्मषः।। | 12-256-17a 12-256-17b |
भूमिष्ठानीव भूतानि पर्वतस्थो निशामय। अक्रुध्यन्नप्रहृष्यंश्च अनृशंसमतिस्तथा।। | 12-256-18a 12-256-18b |
ततो द्रक्ष्यसि सर्वेषां भूतानां प्रभवाप्ययौ। एनं वै सर्वभूतेभ्यो विशिष्टं मेनिरे बुधाः। धर्मं धर्मभृतां श्रेष्ठा मुनयस्तत्त्वदर्शिनः।। | 12-256-19a 12-256-19b 12-256-19c |
आत्मनो व्यापिनो ज्ञानमिदं पुत्रानुशासनम्। प्रयताय प्रवक्तव्यं हितायानुगताय च।। | 12-256-20a 12-256-20b |
आत्मज्ञानमिदं गुह्यं सर्वगुह्यतमं महत्। अब्रुवं यदहं तात आत्मसाक्षिकमञ्जसा।। | 12-256-21a 12-256-21b |
नैव स्त्री न पुमानेतन्नैव वेद नपुंसकम्। अदुःखमसुखं ब्रह्म भूतभव्यभवात्मकम्।। | 12-256-22a 12-256-22b |
नैतज्ज्ञात्वा पुमान्स्त्री वा पुनर्भवमवाप्नुते। स्वभावप्रतिपत्त्यर्थमेतद्धर्मं विधीयते।। | 12-256-23a 12-256-23b |
यथा मतानि सर्वाणि तथैतानि यथातथा। कथितानि मया पुत्र भवन्ति न भवन्ति च।। | 12-256-24a 12-256-24b |
तत्प्रीतियुक्तेन गुणान्वितेन पुत्रेण सत्पुत्र दमान्वितेन। पृष्टो हि संप्रीतिमना यथार्थं ब्रूयात्सुतस्येह यदुक्तमेतत्।। | 12-256-25a 12-256-25b 12-256-25c 12-256-25d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि षट्पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 256।। |
12-256-3 निष्यतिष्णूनि निष्यतनशीलानि संनियम्यैकाग्र्यं संबन्धः।। 12-256-15—त्मजन्मोद्भवामिति ट. ध. पाठः।।
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