महाभारतम्-12-शांतिपर्व-234
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति विपदि धैर्यालम्बनस्य सुखसाधनताप्रतिपादकबलिशक्नसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-234-1x |
मग्नस्य व्यसने कृच्छ्रे किं श्रेयः पुरुषस्य हि। बन्धुनाशे महीपाल राज्यनाशेऽथवा पुनः।। | 12-234-1a 12-234-1b |
त्वं हि नः परमो वक्ता लोकेऽस्मिन्भरतर्षभ। एतद्भवन्तं पृच्छामि तन्मे त्वं वक्तुमर्हसि।। | 12-234-2a 12-234-2b |
भीष्म उवाच। | 12-234-3x |
पुत्रदारैः सुखैश्चैव वियक्तस्य धनेन च। मग्नस्य व्यसने कृच्छ्रे धृतिः श्रेयस्करी नृप। धैर्येण युक्तस्य सतः शरीरं न विशीर्यते।। | 12-234-3a 12-234-3b 12-234-3c |
[विशोकता सुखं धत्ते धत्ते चारोग्यमुत्तमम्।] आरोग्याच्च शरीरस्य स पुनर्विन्दते श्रियम्।। | 12-234-4a 12-234-4b |
यश्च प्राज्ञो नरस्तात सात्विकीं वृत्तिमास्थितः। तस्यैश्वर्यं च धैर्यं च व्यवसायश्च कर्मसु।। | 12-234-5a 12-234-5b |
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। बलिवासवसंवादं पुनरेव युधिष्ठिर।। | 12-234-6a 12-234-6b |
वृत्ते देवासुरे युद्धे दैत्यदानवसंक्षये। विष्णुक्रान्तेषु लोकेषु देवराजे शतक्रतौ।। | 12-234-7a 12-234-7b |
इज्यमानेषु देवेषु चातुर्वर्ण्ये व्यवस्थिते। समृध्यमाने त्रैलोक्ये प्रीतियुक्ते स्वयंभुवि।। | 12-234-8a 12-234-8b |
रुद्रैर्वसुभिरादित्यैरश्विभ्यामपि चर्षिभिः। गन्धर्वैर्भुजगेन्द्रैश्च सिद्धैश्चान्यैर्वृतः प्रभुः।। | 12-234-9a 12-234-9b |
चतुर्दन्तं सुदान्तं च वारणेन्द्रं श्रिया वृतम्। आरुह्यैरावणं शक्रस्त्रैलोक्यमनुसंययौ।। | 12-234-10a 12-234-10b |
स कदाचित्समुद्रान्ते कस्मिंश्चिद्गिरिगह्वरे। बलिं वैरोचनिं वज्री ददर्शोपससर्प च।। | 12-234-11a 12-234-11b |
तमैरावतमूर्धस्थं प्रेक्ष्य देवगणैर्वृतम्। सुरेन्द्रमिन्द्रं दैत्येन्द्रो न शुशोच न विव्यथे।। | 12-234-12a 12-234-12b |
दृष्ट्वा तमविकारस्थं तिष्ठन्तं निर्भयं बलिम्। अधिरूढो द्विपश्रेष्ठमित्युवाच शतक्रतुः।। | 12-234-13a 12-234-13b |
दैत्य न व्यथसे शौर्यादथवा वृद्धसेवया। तपसा भावितत्वाद्वा सर्वथैतत्सुदुष्करम्।। | 12-234-14a 12-234-14b |
शत्रुभिर्वशमानीतो हीनः स्थानादनुत्तमात्। वैरोचने किमाश्रित्य शोचितव्ये न शोचसि।। | 12-234-15a 12-234-15b |
श्रैष्ट्यं प्राप्य स्वजातीनां भुक्त्वा भोगाननुत्तमान्। हृतस्वरत्नराज्यस्त्वं ब्रूहि कस्मान्न शोचसि।। | 12-234-16a 12-234-16b |
ईश्वरो हि पुरा भूत्वा पितृपैतामहे पदे। तत्त्वमद्य हृतं दृष्ट्वा सपत्नैः किं न शोचसि।। | 12-234-17a 12-234-17b |
बद्धश्च वारुणैः पाशैर्वज्रेण च समाहतः। हृतदारो हृतधनो ब्रूहि कस्मान्न शोचसि।। | 12-234-18a 12-234-18b |
नष्टश्रीर्विभवभ्रष्टो यन्न शोचसि दुष्करम्। त्रैलोक्यराज्यनाशे हि कोऽन्यो जीवितुमुत्सहेत्।। | 12-234-19a 12-234-19b |
एतच्चान्यच्च परुषं ब्रुवन्तं परिभूय तम्। श्रुत्वा दुःखमसंभ्रान्तो बलिर्वैरोचनोऽब्रवीत्।। | 12-234-20a 12-234-20b |
निगृहीते मयि भृशं शक्र किं कत्थितेन ते। वज्रमुद्यम्य तिष्ठन्तं पश्यामि त्वां पुरंदर।। | 12-234-21a 12-234-21b |
अशक्तः पूर्वमासीस्त्वं कथंचिच्छक्ततां गतः। कस्त्वदन्य इमां वाचं सुक्रूरां वक्तुमर्हति।। | 12-234-22a 12-234-22b |
यस्तु शत्रोर्वशस्थस्य शक्तोऽपि कुरुते दयाम्। हस्तप्राप्तस्य वीरस्य तं चैव पुरुषं विदुः।। | 12-234-23a 12-234-23b |
अनिश्चयो हि युद्धेषु द्वयोर्विवदमानयोः। एकः प्राप्नोति विजयमेकश्चैव पराजयम्।। | 12-234-24a 12-234-24b |
मा च ते भूत्स्वभावोऽयं मयि दानवपुङ्गवे। ईश्वरः सर्वभूतानां विक्रमेण जितो बलात्।। | 12-234-25a 12-234-25b |
नैतदस्मत्कृतं शक्र नैतच्छक्र कृतं त्वया। यत्त्वमेवं गतो वज्रिन्यद्वाऽऽप्येवं गता वयम्।। | 12-234-26a 12-234-26b |
अहमासं यथाऽद्य त्वं भविता त्वं यथा वयम्। मावमंस्था मया कर्म दुष्कृतं कृतमित्युत।। | 12-234-27a 12-234-27b |
सुखदुःखे हि पुरुषः पर्यायेणाधिगच्छति। पर्यायेणासि शक्रत्वं प्राप्तः शक्र न कर्मणा।। | 12-234-28a 12-234-28b |
कालः काले नयति मां त्वां च कालो नयत्ययम्। तेनाहं त्वं यथा नाद्य त्वं चापि न यथा वयम्।। | 12-234-29a 12-234-29b |
न मातृपितृशुश्रूषा न च दैवतपूजनम्। नान्यो गुणसमाचारः पुरुषस्य सुखावहः।। | 12-234-30a 12-234-30b |
न विद्या न तपो दानं न मित्राणि न बान्धवाः। शक्नुवन्ति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम्।। | 12-234-31a 12-234-31b |
नागामिनमनर्थं हि प्रतिघातशतैरपि। शक्नुवन्ति प्रतिव्योढुमृते बुद्धिबलान्नराः।। | 12-234-32a 12-234-32b |
पर्यायैर्हन्यमानानां परित्राता न विद्यते। इदं तु दुःखं यच्छक्र कर्ताऽहमिति मन्यसे।। | 12-234-33a 12-234-33b |
यदि कर्ता भवेत्कर्ता न क्रियेत कदाचन। यस्मात्तु क्रियते कर्ता तस्मात्कर्ताऽप्यनीश्वरः।। | 12-234-34a 12-234-34b |
कालेन त्वाऽहमजयं कालेनाहं जितस्त्वया। गन्ता गतिमतां कालः कालः कलयति प्रजाः।। | 12-234-35a 12-234-35b |
इन्द्र प्राकृतया बुद्ध्या प्रलपन्नावबुद्ध्यसे। केचित्त्वां बहुमन्यन्ते श्रैष्ठ्यं प्राप्तं स्वकर्मणा।। | 12-234-36a 12-234-36b |
कथमस्मद्विधो नाम जानँल्लोकप्रवृत्तयः। कालेनाभ्याहतः शोचेन्मुह्येद्वाऽप्यथविभ्रमेत्।। | 12-234-37a 12-234-37b |
कथं कालपरीतस्य मम वा मद्विधस्य वा। बुद्धिर्व्यसनमासाद्य भिन्ना नौरिव सीदति।। | 12-234-38a 12-234-38b |
अहं च त्वं च ये चान्ये भविष्यन्ति सुराधिपाः। ते सर्वे शक्र यास्यन्ति मार्गमिन्द्रशतैर्गतम्।। | 12-234-39a 12-234-39b |
त्वामप्येवं सुदुर्धर्षं ज्वलन्तं परया श्रिया। काले परिणते कालः कलयिष्यति मामिव।। | 12-234-40a 12-234-40b |
बहूनीन्द्रसहस्राणि दैवतानां युगे युगे। अभ्यतीतानि कालेन कालो हि दुरतिक्रमः।। | 12-234-41a 12-234-41b |
इदं तु लब्ध्वा संस्थानमात्मानं बहु मन्यसे। सर्वभूतभवं देवं ब्रह्माणमिव शाश्वतम्।। | 12-234-42a 12-234-42b |
न चेदमचलं स्थानमनन्तं वाऽपि कस्यचित्। त्वं तु बालिशया बुद्ध्या ममेदमिति मन्यसे।। | 12-234-43a 12-234-43b |
अविश्वस्ते विश्वसिषि मन्यसे वाऽध्रुवे ध्रुवम्। नित्यं कालपरीतात्मा भवत्येवं सुरेश्वर।। | 12-234-44a 12-234-44b |
ममेयमिति मोहात्त्वं राजश्रियमभीप्ससि। नेयं तव न चास्माकं न चान्येषां स्थिरा मता।। | 12-234-45a 12-234-45b |
अतिक्रम्य बहूनन्यांस्त्वयि तावदियं गता। कंचित्कालमियं स्थित्वा त्वयि वासव चञ्चला।। | 12-234-46a 12-234-46b |
गौर्निवासमिवोत्सृज्य पुनरन्यं गमिष्यति। सुरेशा ये ह्यतिक्रान्तास्तान्न संख्यातुमुत्सहे।। | 12-234-47a 12-234-47b |
त्वत्तो बहुतराश्चान्ये भविष्यन्ति पुरंदर। सवृक्षौषधिगुल्मेयं ससरित्पर्वताकरा।। | 12-234-48a 12-234-48b |
तानिदानीं न पश्यामि यैर्भुक्तेयं पुरा मही। पृथुरैलो मयो भीमो नरकः शम्बरस्तथा।। | 12-234-49a 12-234-49b |
अश्वग्रीवः पुलोमा च स्वर्भानुरमितप्रभः] प्रह्लादो नमुचिर्दक्षो विप्रचित्तिर्विरोचनः।। | 12-234-50a 12-234-50b |
ह्रीनिषेवः सुहोत्रश्च भूरिहा पुष्पवान्वृषः। सत्येषुर्ऋषभो बाहुः कपिलाश्वो निरूपकः।। | 12-234-51a 12-234-51b |
बाणः कार्तस्वरो वह्निर्विश्वदंष्ट्रोऽथ नैर्ऋतिः। संकोचोऽथ वरीताक्षो वराहाश्वो रुचिप्रभः।। | 12-234-52a 12-234-52b |
विश्वजित्प्रतिरूपश्च वृषाण्डो विष्करो मधुः। हिरण्यकशिपुश्चैव कैटभश्चैव दानवः।। | 12-234-53a 12-234-53b |
दैतेया दानवाश्चैव सर्वे ते नैर्ऋतैः सह। एते चान्ये च बहवः पूर्वे पूर्वतराश्च ये।। | 12-234-54a 12-234-54b |
दैत्येन्द्रा दानवेन्द्राश्च यांश्चान्याननुशुश्रुम्। बहवः पूर्वदैत्येन्द्राः संत्यज्य पृथिवीं गताः।। | 12-234-55a 12-234-55b |
कालेनाभ्याहताः सर्वे कालो हि बलवत्तरः। सर्वैः क्रतुशतैरिष्टं न त्वमेकः शतक्रतुः।। | 12-234-56a 12-234-56b |
सर्वे धर्मपराश्चासन्सर्वे सततसत्रिणः। अन्तरिक्षचराः सर्वे सर्वेऽभिमुखयोधिनः।। | 12-234-57a 12-234-57b |
सर्वे संहननोपेताः सर्वे परिघबाहवः। सर्वे मायाशतधराः सर्वे ते कामरूपिणः। सर्वे समरमासाद्य न श्रूयन्ते पराजिताः।। | 12-234-58a 12-234-58b 12-234-58c |
सर्वे सत्यव्रतपराः सर्वे कामविहारिणः। सर्वे वेदव्रतपराः सर्वे चैव बहुश्रुताः।। | 12-234-59a 12-234-59b |
सर्वे संमतमैश्वर्यमीश्वराः प्रतिपेदिरे। न चैश्वर्यमदस्तेषां भूतपूर्वो महात्मनाम्।। | 12-234-60a 12-234-60b |
सर्वे यथार्हदातारः सर्वे विगतमत्सराः। सर्वे सर्वेषु भूतेषु यथावत्प्रतिपेदरे।। | 12-234-61a 12-234-61b |
सर्वे दाक्षायणीपुत्राः प्राजपत्या महाबलाः। ज्वलन्तः प्रतपन्तश्च कालेन प्रतिसंहृताः।। | 12-234-62a 12-234-62b |
त्वं चैवेमां यदा भुक्त्वा पृथिवीं त्यक्ष्यसे पुनः। न शक्ष्यसि तदा शक्र नियन्तुं शोकमात्मनः।। | 12-234-63a 12-234-63b |
मुञ्चेच्छां कामभोगेषु मुञ्जेमं श्रीभवं मदम्। एवं स्वराज्यनाशे त्वं शोकं संप्रसहिष्यसि।। | 12-234-64a 12-234-64b |
शोककाले शुचो मा त्वं हर्षकाले च मा हृषः। अतीतानागतं हित्वा प्रत्युत्पन्नेन वर्तय।। | 12-234-65a 12-234-65b |
मां चेदभ्यागतः कालः सदा युक्तमतन्द्रितः। क्षमस्व न चिरादिन्द्र त्वामप्युपगमिष्यति।। | 12-234-66a 12-234-66b |
त्रासयन्निव देवेन्द्र वाग्भिस्तक्षसि मामिह। संयते मयि ननं त्वमात्मानं बहु मन्यसे।। | 12-234-67a 12-234-67b |
कालः प्रथममायान्मां पञ्चात्त्वामनुधावति। तेन गर्जसि देवेन्द्र पूर्वं कालहते मयि।। | 12-234-68a 12-234-68b |
को हि स्थातुमलं लोके मम क्रुद्धस्य संयुगे। कालस्तु बलवान्प्राप्तस्तेन तिष्ठसि वासव।। | 12-234-69a 12-234-69b |
यत्तद्वर्षसहस्रान्तं तूर्णं भवितुमर्हति। यथा मे सर्वगात्राणि न सुस्थानि महौजसः।। | 12-234-70a 12-234-70b |
अहमैन्द्राच्च्युतः स्थानात्त्वमिन्द्रः प्रकृतो दिवि। सुचित्रे जीवलोकेऽस्मिन्नुपास्यः कालपर्ययः।। | 12-234-71a 12-234-71b |
किं हि कृत्वा स्वमिन्द्रोऽद्य किं वा कृत्वा वयं च्युताः। कालः कर्ता विकर्ता च सर्वमन्यदकारणम्।। | 12-234-72a 12-234-72b |
नाशं विनाशमैश्वर्यं सुखदुःखे भवाभवौ। विद्वान्प्राप्यैवमत्यर्थं न प्रहृष्येन्न च व्यथेत्।। | 12-234-73a 12-234-73b |
त्वमेव हीन्द्र वेत्थास्मान्वेदाहं त्वां च वासव। किं कत्थसे मां किंच त्वं कालेन निरपत्रयः।। | 12-234-74a 12-234-74b |
त्वमेव हि पुरा वेत्थ यत्तदा पौरुषं मम। समरेषु च विक्रान्तं पर्याप्तं तन्निदर्शनम्।। | 12-234-75a 12-234-75b |
आदित्याश्चैव रुद्राश्च साध्याश्च वसुभिः सह। मया विनिर्जिताः पूर्वं मरुतश्च शचीपते।। | 12-234-76a 12-234-76b |
त्वमेव शक्र जानासि देवासुरसमागमे। समेता विबुधा भग्नास्तरसा समरे मया।। | 12-234-77a 12-234-77b |
पर्वताश्चासकृत्क्षिप्ताः सवनाः सवनौकसः। सशृङ्गशिखरा भग्नाः समरे मूर्ध्निं ते मया।। | 12-234-78a 12-234-78b |
किं नु शक्यं मया कर्तुं कालो हि दुरतिक्रमः। न हि त्वां नोत्सहे हन्तुं सवज्रमपि मुष्टिना।। | 12-234-79a 12-234-79b |
न तु विक्रमकालोऽयं क्षमाकालोऽयमागतः। तेन त्वां मर्षये शक्र दुर्मर्षणतरस्त्वया।। | 12-234-80a 12-234-80b |
तं मां परिणते काले परीतं कालवह्निना। नियतं कालपाशेन बद्धं शक्र विकत्थसे।। | 12-234-81a 12-234-81b |
अयं स पुरुषः श्यामो लोकस्य दुरतिक्रमः। बद्ध्वा तिष्ठति मां रौद्रः पशुं रशनया यथा।। | 12-234-82a 12-234-82b |
लाभालाभौ सुखं दुःखं कामक्रोधौ भवाभवौ। वधो बन्धप्रमोक्षश्च सर्वं कालेन लभ्यते।। | 12-234-83a 12-234-83b |
नाहं कर्ता न कर्ता त्वं कर्ता यस्तु सदा प्रभुः। सोयं पचति कालो मां वृक्षे फलमिवागतम्।। | 12-234-84a 12-234-84b |
यान्येव पुरुषः कुर्वन्सुखैः कालेन युज्यते। पुनस्तान्येव कुर्वाणो दुःखैः कालेन युज्यते।। | 12-234-85a 12-234-85b |
न च कालेन कालज्ञः स्पृष्टः शोचितुमर्हति। तेन शक्र न शोचामि नास्ति शोके सहायता।। | 12-234-86a 12-234-86b |
यदा हि शोचतः शोको व्यसनं नाषकर्षति। सामर्थ्यं शोचतो नास्तीत्यतोऽहं नाद्य शोचिमि।। | 12-234-87a 12-234-87b |
भीष्म उवाच। | 12-234-88x |
एवमुक्तः सहस्राक्षो भगवान्पाकशासनः। प्रतिसंहृत्य संरम्भमित्युवाच शतक्रतुः।। | 12-234-88a 12-234-88b |
सवज्रमुद्यतं बाहुं दृष्ट्वा पाशांश्च वारुणान्। कस्येह न व्यथेद्बुद्धिर्मृत्योरपि जिघांसतः।। | 12-234-89a 12-234-89b |
सा ते न व्यथते बुद्धिरचला तत्त्वदर्शिनी। व्रुवन्न व्यथसेऽद्य त्वं धैर्यात्सत्यपराक्रम।। | 12-234-90a 12-234-90b |
को हि विश्वासमर्थेषु शरीरे वा शरीरभृत्। कर्तुमुत्सहते लोके दृष्ट्वा संप्रस्थितं जगत्।। | 12-234-91a 12-234-91b |
अहमप्येवमेवैनं लोकं जानाम्यशाश्वतम्। कालाग्नावाहितं घोरे गुह्ये सततगेऽक्षरे।। | 12-234-92a 12-234-92b |
न चात्र परिहारोऽस्ति कालस्पृष्टस्य कस्यचित्। सूक्ष्माणां महतां चैव भूतानां परिपच्यताम्।। | 12-234-93a 12-234-93b |
अनीशस्याप्रमत्तस्य भूतानि पचतः सदा। अनिवृत्तस्य कालस्य क्षयं प्राप्तो न मुच्यते।। | 12-234-94a 12-234-94b |
अप्रमत्तः प्रमत्तेषु कालो जागर्ति देहिषु। प्रयत्नेनाप्यपक्रान्तो दृष्टपूर्वो न केनचित्।। | 12-234-95a 12-234-95b |
पुराणः शाश्वतो धर्मः सर्वप्राणभृतां समः। कालो न परिहार्यश्च न चास्यास्ति व्यतिक्रमः।। | 12-234-96a 12-234-96b |
अहोरात्रांश्च मासांश्च क्षणान्काष्ठा लवान्कलाः। संपीडयति यः कालो वृद्धिं वार्धुपिको यथा।। | 12-234-97a 12-234-97b |
इदमद्य करिष्यामि श्वः कर्ताऽस्मीति वादिनम्। कालो हरति संप्राप्तो नदीवेग इव द्रुमम्।। | 12-234-98a 12-234-98b |
इदानीं तावदेवासौ मया दृष्टः कथं मृतः। इति कालेन ह्रियतां प्रलापः श्रूयते नृणाम्।। | 12-234-99a 12-234-99b |
नश्यन्त्यर्थास्तथा भोगाः स्थानमैश्वर्यमेव च। जीवितं जीवलोकस्य कालेनागम्य नीयते।। | 12-234-100a 12-234-100b |
उच्छ्राया विनिपातान्ता भावोऽभावः स एव च। अनित्यमध्रुवं सर्वं व्यवसायो हि दुष्करः।। | 12-234-101a 12-234-101b |
सा ते न व्यथते बुद्धिरचला तत्त्वदर्शिनी। अहमासं पुरा चेति मनसाऽपि न बुद्ध्यते।। | 12-234-102a 12-234-102b |
कालेनाक्रम्य लोकेऽस्मिन्पच्यमाने बलीयसा। अज्येष्ठमकनिष्ठं च क्षिप्यमाणो न बुद्ध्यते।। | 12-234-103a 12-234-103b |
ईर्ष्याभिमानलोभेषु कामक्रोधभयेषु च। स्पृहामोहाभिमानेषु लोकः सक्तो विमुह्यति।। | 12-234-104a 12-234-104b |
भवांस्तु भावतत्त्वज्ञो विद्वाञ्ज्ञानतपोन्वितः। कालं पश्यति सुव्यक्तं पाणावामलकं यथा।। | 12-234-105a 12-234-105b |
कालचारित्रतत्त्वज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः। वैरोचते कृतार्थोऽसि स्पृहणीयो विजानताम्।। | 12-234-106a 12-234-106b |
सर्वलोको ह्ययं मन्ये बुद्ध्या परिगतस्त्वया। विहरन्सर्वतोमुक्तो न क्वचिच्च विषीदसि।। | 12-234-107a 12-234-107b |
रजश्च हि तमश्च त्वां स्पृशते न जितेन्द्रियम्। निष्प्रीतिं नष्टसंतापमात्मानं त्वमुपाससे।। | 12-234-108a 12-234-108b |
सुहृदं सर्वभूतानां निर्वैरं शान्तमानसम्। दृष्ट्वा त्वां मम संजाता त्वय्यनुक्रोशिनी मतिः।। | 12-234-109a 12-234-109b |
नाहमेतादृशं बुद्धं हन्तुमिच्छामि बन्धनैः। आनृशंस्यं परो धर्मो ह्यनुक्रोशश्च मे त्वयि।। | 12-234-110a 12-234-110b |
मोक्ष्यन्ते वारुणाः पाशास्तवेमे कालपर्ययात्। प्रजानामुपचारेण स्वस्ति तेऽस्तु महासुर।। | 12-234-111a 12-234-111b |
यदा श्वश्रूं स्नुषा वृद्धां परिचारेण योक्ष्यते। पुत्रश्च पितरं मोहात्प्रेषयिष्यति कर्मसु।। | 12-234-112a 12-234-112b |
ब्राह्मणैः कारयिष्यन्ति वृषलाः पादधावनम्। शूद्राश्च ब्राह्मणीं भार्यामुपयास्यन्ति निर्भयाः।। | 12-234-113a 12-234-113b |
वियोनिषु विमोक्ष्यन्ति बीजानि पुरुषा यदा। संकरं कांस्यभाण्डैश्च बलिं चैव कुपात्रकैः।। | 12-234-114a 12-234-114b |
चातुर्वर्ण्यं यदा कृत्स्नममर्यादं भविष्यति। एकैकस्ते तदा पाशः क्रमशः परिमोक्ष्यते।। | 12-234-115a 12-234-115b |
अस्मत्तस्ते भयं नास्ति समयं प्रतिपालय। सुखी भव निराबाधः स्वस्थचेता निरामयः।। | 12-234-116a 12-234-116b |
भीष्म उवाच। | 12-234-117x |
तमेवमुक्त्वा भगवाञ्छतक्रतुः प्रतिप्रयातो गजराजवाहनः। विजित्य सर्वानसुरान्सुराधिपो ननन्द हर्षेण बभूव चैकराट्।। | 12-234-117a 12-234-117b 12-234-117c 12-234-117d |
महर्षयस्तुष्टुवुरञ्जसा च तं वृषाकर्पि सर्वचराचरेश्वरम्। हिमापहो हव्यमुवाह चाध्वरे तथाऽमृतं चार्पितमीश्वरोऽपि हि।। | 12-234-118a 12-234-118b 12-234-118c 12-234-118d |
द्विजोत्तमैः सर्वगतैरभिष्टुतो विदीप्ततेजाः शतमन्युरीश्वरः। प्रशान्तचेता मुदितः स्वमालयं त्रिविष्टपं प्राप्य मुमोद वासवः।। | 12-234-119a 12-234-119b 12-234-119c 12-234-119d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 234।। |
12-234-20 श्रुत्वामुखमसंभ्रान्त इति झ. ट. थ. पाठः।।
शांतिपर्व-233 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-235 |