महाभारतम्-12-शांतिपर्व-232
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बलिशरीरान्निर्गन्त्या श्रिया शक्नं प्रति स्वनिर्गमनकारणाभिधानपूर्वकं ततः स्वस्य स्थानचतुष्टयवरणम्।। 1।। इन्द्रबलिसंवादश्च।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-232-1x |
शतक्रतुरथापश्यद्बलेर्दीप्तां महात्मनः। स्वरूपिणीं शरीराद्धि निष्क्रामन्तीं तदा श्रियम्।। | 12-232-1a 12-232-1b |
तां दृष्ट्वा प्रभया दीप्तां भगवान्पाककशासनः। विस्मयोत्फुल्लनयनो बलिं पप्रच्छ वासवः।। | 12-232-2a 12-232-2b |
बले केयमपक्रान्ता रोचमाना शिखण्डिनी। त्वत्तः स्थिता सकेयूरा दीप्यमाना स्वतेजसा।। | 12-232-3a 12-232-3b |
बलिरुवाच। | 12-232-4x |
न हीमामासुरीं वेद्मि न दैवीं च न मानुषीम्। त्वमेनां पृच्छ वा मा वा यथेष्टं कुरु वासव।। | 12-232-4a 12-232-4b |
शक्र उवाच। | 12-232-5x |
का त्वं बलेरपक्रान्ता रोचमाना शिखण्डिनी। अजानतो ममाचक्ष्व नामधेयं शुचिस्मिते।। | 12-232-5a 12-232-5b |
का त्वं तिष्ठसि मामेवं दीप्यमाना स्वतेजसा। हित्वा दैत्यवरं सुभ्रु तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः।। | 12-232-6a 12-232-6b |
श्रीरुवाच। | 12-232-7x |
न मां विरोचनो वेद नायं वैरोचनो बलिः। आहुर्मां दुःसहेत्येवं विधित्सेति च मां विदुः।। | 12-232-7a 12-232-7b |
भूतिर्लक्ष्मीति मामाहुः श्रीरित्येव च वासव। त्वं मां शक्र न जानीषे सर्वे देवा न मां विदुः।। | 12-232-8a 12-232-8b |
शक्र उवाच। | 12-232-9x |
किमिदं त्वं मम कृते उताहो बलिनः कृते। दुःसहे विजहास्येनं चिरसंवासिनी सती।। | 12-232-9a 12-232-9b |
श्रीरुवाच। | 12-232-10x |
नो धाता न विधाता मां विदधाति कथंचन। कालस्तु शक्र पर्यागान्मैवं शक्रावमन्यथाः।। | 12-232-10a 12-232-10b |
शक्र उवाच। | 12-232-11x |
कथं त्वया बलिस्त्यक्तः किमर्थं वा शिखण्डिनि। कथं च मां न जह्यास्त्वं तन्मे ब्रूहि शुचिस्मिते।। | 12-232-11a 12-232-11b |
श्रीरुवाच। | 12-232-12x |
सत्ये स्थिताऽस्मि दाने च व्रते तपसि चैव हि। पराक्रमे च धर्मे च पराचीनस्ततो बलिः।। | 12-232-12a 12-232-12b |
ब्रह्मण्योऽयं पुरा भूत्वा सत्यवादी जितेन्द्रियः। अभ्यसूयन्ब्राह्मणान्वै उच्छिष्टश्चास्पृशद्धृतम्।। | 12-232-13a 12-232-13b |
यज्ञशीलः सदा भूत्वा मामेव यजते स्वयम्। ततः प्रहाय मूढात्मा कालेनोपनिपीडितः।। | 12-232-14a 12-232-14b |
अपक्रान्ता ततः शक्र त्वयि वत्स्यामि वासव। अप्रमत्तेन धार्याऽस्मि तपसा विक्रमेण च।। | 12-232-15a 12-232-15b |
शक्र उवाच। | 12-232-16x |
कोऽस्ति देवमनुष्येषु सर्वभूतेषु वा पुमान्। यस्त्वामेको विषहितुं शक्नुयात्कमलालये।। | 12-232-16a 12-232-16b |
श्रीरुवाच। | 12-232-17x |
नैव देवो न गन्धर्वो नासुरो नं च न्राक्षसः। यो मामेको विषहितुं शक्तः कश्चित्पुरंदर।। | 12-232-17a 12-232-17b |
शक्र उवाच। | 12-232-18x |
तिष्ठेथा मयि नित्यं त्वं यथा तद्ब्रूहि मे शुभे। तत्करिष्यामि ते वाक्यमृतं तद्वक्तुमर्हसि।। | 12-232-18a 12-232-18b |
शक्र उवाच। | 12-232-19x |
स्थास्यामि नित्यं देवेन्द्र यथा त्वयि निबोध तत्। विधिना वेददृष्टेन चतुर्धा विभजस्व माम्।। | 12-232-19a 12-232-19b |
शक्र उवाच। | 12-232-20x |
अहं वै त्वां निधास्यामि यथाशक्ति यथाबलम्। न तु मेऽतिक्रमः स्याद्वै सदा लक्ष्मि तवान्तिके।। | 12-232-20a 12-232-20b |
भूमिरेव मनुष्येषु धारिणी भूतभाविनी। सा ते पादं तितिक्षेत समर्था हीति मे मतिः।। | 12-232-21a 12-232-21b |
श्रीरुवाच। | 12-232-22x |
एष मे निहितः पादो योऽयं भूमौ प्रतिष्ठितः। द्वितीयं शक्र पादं मे तस्मात्सुनिहितं कुरु।। | 12-232-22a 12-232-22b |
शक्र उवाच। | 12-232-23x |
आप एव मनुष्येषु द्रवन्त्यः परिधारणे। तास्ते पादं तितिक्षन्तामलमापस्तितिक्षितुम्।। | 12-232-23a 12-232-23b |
श्रीरुवाच। | 12-232-24x |
एष मे निहितः पादो योऽयमप्सु प्रतिष्ठितः। तृतीयं शक्र पादं मे तस्मात्सुनिहितं कुरु।। | 12-232-24a 12-232-24b |
शक्र उवाच। | 12-232-25x |
यस्मिन्वेदाश्च यज्ञाश्च यस्मिन्देवाः प्रतिष्ठिताः। तृतीयं पादमग्निस्ते सुधृतं धारयिष्यति।। | 12-232-25a 12-232-25b |
श्रीरुवाच। | 12-232-26x |
एष मे निहितः पादो योऽयमग्नौ प्रतिष्ठितः। चतुर्थं शक्र पादं मे तस्मात्सुनिहितं कुरु।। | 12-232-26a 12-232-26b |
शक्र उवाच। | 12-232-27x |
ये वै सन्तो मनुष्येषु ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः। तेते पादं तितिक्षन्तामलं सन्तस्तितिक्षितुम्।। | 12-232-27a 12-232-27b |
श्रीरुवाच। | 12-232-28x |
एष मे निहितः पादो योऽयं सत्सु प्रतिष्ठितः। एवं हि निहितां शक्र भूतेषु परिधत्स्व माम्।। | 12-232-28a 12-232-28b |
शक्र उवाच। | 12-232-29x |
`भूमिशुद्धिं ततः कृत्वा अद्भिः संतर्पयन्ति ये। भूतानि च यजन्त्यग्नौ तेषां त्वमनपायिनी।। | 12-232-29a 12-232-29b |
ये क्रियाभिः सुरक्ताभिर्हेतुयुक्ताः समाहिताः। ज्ञानवन्तो विवत्सायां लब्धा माद्यन्ति योगिनः।।' | 12-232-30a 12-232-30b |
भूतानामिह यो वै त्वां मया विनिहितां सतीम्। उपहन्यात्स मे द्वेष्यस्तथा शृण्वन्तु मे वचः।। | 12-232-31a 12-232-31b |
`भीष्म उवाच। | 12-232-32x |
तथेति चोक्त्वा सा भ्रष्टा सर्वलोकनमस्कृता। वासवं पालयामास सा देवी कमलालया।।' | 12-232-32a 12-232-32b |
ततस्त्यक्तः श्रिया राजा दैत्यानां बलिरब्रवीत्।। | 12-232-33a |
यावत्पुरस्तात्प्रतपेत्तावद्वै दक्षिणां दिशम्। पश्चिमां तावदेवापि तथोदीचीं दिवाकरः।। | 12-232-34a 12-232-34b |
तथा मध्यंदिने सूर्यो नास्तमेति यदा तदा। पुनर्देवासुरं युद्धं भावि जेताऽस्मि वस्तदा।। | 12-232-35a 12-232-35b |
सर्वलोकान्यदाऽऽदित्यो मध्यस्थस्तापयिष्यति। तदा देवासुरे युद्धे जेताऽहं त्वां शतक्रतो।। | 12-232-36a 12-232-36b |
शक्र उवाच। | 12-232-37x |
ब्रह्मणाऽस्मि समादिष्टो न हन्तव्यो भवानिति। तेन तेऽहं बले वज्रं न विमुञ्जामि मूर्धनि।। | 12-232-37a 12-232-37b |
यथेष्टं गच्छ दैत्येन्द्र स्वस्ति तेऽस्तु महासुर।। | 12-232-38a |
आदित्यो नैव तपिता कदाचिन्मध्यतः स्थितः। स्थापितो ह्यस्य समयः पूर्वमेव स्वयंभुवा।। | 12-232-39a 12-232-39b |
अजस्रं परियात्येष सत्येनावतपन्प्रजाः। अयनं तस्य षण्मासा उत्तरं दक्षिणं तथा। येन संयाति लोकेषु शीतोष्णे विसृजन्रविः।। | 12-232-40a 12-232-40b 12-232-40c |
भीष्म उवाच। | 12-232-41x |
एवमुक्तस्तु दैत्येन्द्रो बलिरिन्द्रेण भारत। जगाम दक्षिणामाशामुदीचीं तु पुरंदरः।। | 12-232-41a 12-232-41b |
इत्येतद्बलिना गीतमनहंकारसंज्ञितम्। वाक्यं श्रुत्वा सहस्राक्षः स्वमेवारुरुहे तदा।। | 12-232-42a 12-232-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्वात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 232।। |
12-232-31 वित्तं तीर्थादिपुण्यं यज्ञादिधर्मो विद्या चेति श्रियश्चत्वारः पादा भूमौ जलेऽग्नौ विद्वत्सु च निहितास्तेषामुपघातः स्तेयकामाशौचाशमैः।। 12-232-34 वैवस्वतमन्वन्तरमेवाष्टधा विभज्य तदन्ते सर्वपुर्युच्छेदे सति मन्वन्तरान्तरे बलिरिन्द्रो भविष्यतीति ज्ञेयम्। तदिदमुक्तं यावत्पुरस्तात्प्रतपेदित्यादिना श्लोकत्रयेण।। 12-232-36 यदादित्यो ह्येकस्थ इति झ. ध. पाठः।।
शांतिपर्व-231 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-233 |