महाभारतम्-12-शांतिपर्व-230
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इन्द्रबलिसंवादः।। 1।। इन्द्रावमानितेन बलिना तंप्रति गर्वभञ्जकवचनोपन्यासः।। 2।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-230-1x |
यया बुद्ध्या महीपालो भ्रष्टश्रीर्विचरेन्महीम्। कालदण्डविनिष्पिष्टस्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-230-1a 12-230-1b |
भीष्म उवाच। | 12-230-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। वासवस्य च संवादं बलेर्वैरोचनस्य च।। | 12-230-2a 12-230-2b |
पितामहमुपागम्य प्रणिपत्य कृताञ्जलिः। सर्वानेवासुराञ्जित्वा बलिं पप्रच्छ वासवः।। | 12-230-3a 12-230-3b |
यस्य स्म ददतो वित्तं न कदाचन हीयते। तं बलिं नाधिगच्छामि ब्रह्मन्नाचक्ष्व मे बलिम्।। | 12-230-4a 12-230-4b |
स वायुर्वरुणश्चैव स रविः स च चन्द्रमाः। सोऽग्निस्तपति भूतानि जलं च स भवत्युत।। | 12-230-5a 12-230-5b |
तं बलिं नाधिगच्छामि ब्रह्मन्नाचक्ष्व मे बलिम्। स एव ह्यस्तमयते स स्म विद्योतते दिशः।। | 12-230-6a 12-230-6b |
स वर्षति स्म वर्षाणि यथाकालमतन्द्रितः। तं बलिं नाधिगच्छामि ब्रह्मन्नाचक्ष्व मे बलिम्।। | 12-230-7a 12-230-7b |
ब्रह्मोवाच। | 12-230-8x |
नैतत्ते साधु मघवन्यदेनमनुपृच्छसि। पृष्टस्तु नानृतं ब्रूयात्तस्माद्वक्ष्यामि ते बलिम्।। | 12-230-8a 12-230-8b |
उष्ट्रेषु यदि वा गोषु खरेष्वश्वेषु वा पुनः। वरिष्ठो भविता जन्तुः शून्यागारे शचीपते।। | 12-230-9a 12-230-9b |
शक्र उवाच। | 12-230-10x |
यदि स्म बलिना ब्रह्मञ्शून्यागारे समेयिवान्। हन्यामेनं न वा हन्यां तद्ब्रह्मन्ननुशाधि माम्।। | 12-230-10a 12-230-10b |
ब्रह्मोवाच। | 12-230-11x |
मा स्म शक्र बलिं हिंसीर्न बलिर्वधमर्हति। न्यायस्तु शक्र प्रष्टव्यस्त्वया वासव काम्यया।। | 12-230-11a 12-230-11b |
भीष्म उवाच। | 12-230-12x |
एवमुक्तो भगवता महेन्द्रः पृथिवीं तदा। चचारैरावतस्कन्धमधिरुह्य श्रिया वृतः।। | 12-230-12a 12-230-12b |
ततो ददर्श स बलिं खरवेषेण संवृतम्। यथाख्यातं भगवता शून्यागारकृतालयम्।। | 12-230-13a 12-230-13b |
शक्र उवाच। | 12-230-14x |
खरयोनिमनुप्राप्तस्तुपभक्षोऽसि दानव। इदं ते योनिरसमा शोचस्याहो न शोचसि।। | 12-230-14a 12-230-14b |
अदृष्टं वत पश्यामि द्विषतां वशमागतम्। श्रिया विहीनं मित्रैश्च भ्रष्टैश्वर्यपराक्रमम्।। | 12-230-15a 12-230-15b |
यत्तद्यानसहस्रैस्त्वं ज्ञातिभिः परिवारितः। लोकान्प्रतापयन्सर्वान्यास्यस्मानवितर्कयन्।। | 12-230-16a 12-230-16b |
त्वन्मुखाश्चैव दैतेय व्यतिष्ठंस्तव शासने। अकृष्टपच्या पृथिवी तवैश्वर्ये बभूव ह।। | 12-230-17a 12-230-17b |
इदं च तेऽद्य व्यसनं शोचस्याहो न शोचसि। यदाऽतिष्ठः समुद्रस्य पूर्वकूले विलेलिखन्।। | 12-230-18a 12-230-18b |
ज्ञातिभ्यो विभजन्वित्तं तदासीत्ते मनः कथम्। यत्ते सहस्रसमिता ननुतुर्देवसोषितः।। | 12-230-19a 12-230-19b |
बहूनि वर्षपूगानि विहारे दीप्यतः श्रिया। सर्वाः पुष्करमालिन्यः सर्वाः काञ्चनसप्रभाः।। | 12-230-20a 12-230-20b |
कथमद्य तदा चैव मनस्ते दानवेश्वर। छत्रं तवासीत्सुमहत्सौवर्णं रत्नभूषितम्।। | 12-230-21a 12-230-21b |
ननृतुस्तत्र गन्धर्वाः षट्सहस्राणि सप्तचा। यूपस्तवासीत्सुमहान्यजतः सर्वकाञ्चनः।। | 12-230-22a 12-230-22b |
यत्राददः सहस्राणि अयुतानां गवां दश। अनन्तरं सहस्रेण तदाऽऽसीद्दैत्या का मतिः।। | 12-230-23a 12-230-23b |
यदा च पृथिवीं सर्वां यजमानोऽनुपर्यगाः। शम्याक्षेपेण विधिना तदाऽऽसीत्किंतु ते हृदि।। | 12-230-24a 12-230-24b |
न ते पश्यामि भृङ्गारं न च्छत्रं व्यजनं न च। ब्रह्मदत्तां च ते मालां न पश्याम्यसुराधिप।। | 12-230-25a 12-230-25b |
`भीष्म उवाच। | 12-230-26x |
ततः प्रहस्य स बलिर्वासवेन समीरितम्। निशम्य मानगम्भीरं सुरराजमथाब्रवीत्।। | 12-230-26a 12-230-26b |
अहो हि तव बालिश्यमिह देवगणाधिप। अयुक्तं देवराजस्य तव कष्टमिदं वचः।।' | 12-230-27a 12-230-27b |
न त्वं पश्यसि भृङ्गारं न च्छन्नं व्यजनं न च। ब्रह्मदत्तां च मे मालां न त्वं द्रक्ष्यसि वासव।। | 12-230-28a 12-230-28b |
गुहायां निहितानि त्वं मम रत्नानि पृच्छसि। यदा मे भविता कालस्तदा त्वं तानि द्रक्ष्यसि।। | 12-230-29a 12-230-29b |
`न जानीषे भवान्सिद्धिं शुभाङ्गस्वरूपरूपिणीम्। कालेन भविता सर्वो नात्र गच्छति वासव।।' | 12-230-30a 12-230-30b |
न त्वेतदनुरूपं ते यशसो वा कुलस्य च। समृद्धार्थोऽसमृद्धार्थं यन्मां कत्थितुमिच्छसि।। | 12-230-31a 12-230-31b |
न हि दुःखेषु शोचन्ते न प्रहृष्यन्ति चर्द्धिषु। कृतप्रज्ञाः ज्ञानतृप्ताः क्षान्ताः सन्तो मनीषिणः।। | 12-230-32a 12-230-32b |
त्वं तु प्राकृतया बुद्ध्या पुरंदर विकत्थसे। यदाऽहमिव भावी स्यास्तदा नैवं वदिष्यसि।। | 12-230-33a 12-230-33b |
`ऐश्वर्यमदमत्तो मां स त्वं किंचिन्न बुद्ध्यसे। राज्याद्विनिपतानेन सोहं न त्वपराजितः।।' | 12-230-34a 12-230-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शन्तिपर्वणि मोश्रधर्मपर्वणि त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 230।। |
12-230-1 भ्रष्टश्रीर्विन्दते महीम् इति ध. पाठः।। 12-230-4 स्ववीर्यख्यापनाय बलिं स्तौति यस्येत्यादिना।। 12-230-9 गोषु वृषभेषु। शृन्यागारप्रतिश्रयः इति ट. थ. ध. पाठः।। 12-230-15 भ्रष्टवीर्यपराक्रमम् इति झ. पाठः।। 12-230-17 अफुष्टयच्या कृषणंजिना धान्यप्रसृः।। 12-230-18 विलेलिहन् इति ध. पाठः। तत्र तालुग्रस्तं जगाकुर्वशित्यर्थः।। 12-230-24 सूक्ष्माग्रः स्थूलमूलः षट्त्रिंशदङ्गुलो दण्डः शम्या सा बलवता क्षिप्ता भातहूरे पतेतावदेकं देवप्रजनम्। एवं सर्वापि पृथिवी शम्याप्रक्षेपविभेदा। तव देवगजनानामपर्याप्ताभूदित्यर्थः। पर्यगाः परिहृत्य गतवान्।। 12-230-25 भृङ्गारः सौवणं उदपात्रविशेषः।। 12-230-35 विनिपतानेन विनिपतनेन।।
शांतिपर्व-229 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-231 |