महाभारतम्-12-शांतिपर्व-219
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शिष्याय गुरूक्तवार्ष्णेयाध्यात्मानुवादसमापनम्।। 1।।
गुरुरुवाच॥
न स वेद परं धर्मं यो न वेद चतुष्टयम् |
व्यक्ताव्यक्ते च यत्तत्त्वं सम्प्राप्तं परमर्षिणा ॥१॥
व्यक्तं मृत्युमुखं विद्यादव्यक्तममृतं पदम् |
प्रवृत्तिलक्षणं धर्ममृषिर्नारायणोऽब्रवीत् ॥२॥
अत्रैवावस्थितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् |
निवृत्तिलक्षणं धर्ममव्यक्तं ब्रह्म शाश्वतम् ॥३॥
प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं प्रजापतिरथाब्रवीत् |
प्रवृत्तिः पुनरावृत्तिर्निवृत्तिः परमा गतिः ॥४॥
तां गतिं परमामेति निवृत्तिपरमो मुनिः |
ज्ञानतत्त्वपरो नित्यं शुभाशुभनिदर्शकः ॥५॥
तदेवमेतौ विज्ञेयावव्यक्तपुरुषावुभौ |
अव्यक्तपुरुषाभ्यां तु यत्स्यादन्यन्महत्तरम् ॥६॥
तं विशेषमवेक्षेत विशेषेण विचक्षणः |
अनाद्यन्तावुभावेतावलिङ्गौ चाप्युभावपि ॥७॥
उभौ नित्यौ सूक्ष्मतरौ महद्भ्यश्च महत्तरौ |
सामान्यमेतदुभयोरेवं ह्यन्यद्विशेषणम् ॥८॥
प्रकृत्या सर्गधर्मिण्या तथा त्रिविधसत्त्वया |
विपरीतमतो विद्यात्क्षेत्रज्ञस्य च लक्षणम् ॥९॥
प्रकृतेश्च विकाराणां द्रष्टारमगुणान्वितम् |
अग्राह्यौ पुरुषावेतावलिङ्गत्वादसंहितौ ॥१०॥
संयोगलक्षणोत्पत्तिः कर्मजा गृह्यते यया |
करणैः कर्मनिर्वृत्तैः कर्ता यद्यद्विचेष्टते ॥११॥
कीर्त्यते शब्दसञ्ज्ञाभिः कोऽहमेषोऽप्यसाविति ॥११॥
उष्णीषवान्यथा वस्त्रैस्त्रिभिर्भवति संवृतः |
संवृतोऽयं तथा देही सत्त्वराजसतामसैः ॥१२॥
तस्माच्चतुष्टयं वेद्यमेतैर्हेतुभिराचितम् |
यथासञ्ज्ञो ह्ययं सम्यगन्तकाले न मुह्यति ॥१३॥
श्रियं दिव्यामभिप्रेप्सुर्ब्रह्म वाङ्मनसा शुचिः |
शारीरैर्नियमैरुग्रैश्चरेन्निष्कल्मषं तपः ॥१४॥
त्रैलोक्यं तपसा व्याप्तमन्तर्भूतेन भास्वता |
सूर्यश्च चन्द्रमाश्चैव भासतस्तपसा दिवि ॥१५॥
प्रतापस्तपसो ज्ञानं लोके संशब्दितं तपः |
रजस्तमोघ्नं यत्कर्म तपसस्तत्स्वलक्षणम् ॥१६॥
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते |
वाङ्मनोनियमः साम्यं मानसं तप उच्यते ॥१७॥
विधिज्ञेभ्यो द्विजातिभ्यो ग्राह्यमन्नं विशिष्यते |
आहारनियमेनास्य पाप्मा नश्यति राजसः ॥१८॥
वैमनस्यं च विषये यान्त्यस्य करणानि च |
तस्मात्तन्मात्रमादद्याद्यावदत्र प्रयोजनम् ॥१९॥
अन्तकाले वयोत्कर्षाच्छनैः कुर्यादनातुरः |
एवं युक्तेन मनसा ज्ञानं तदुपपद्यते ॥२०॥
रजसा चाप्ययं देही देहवाञ्शब्दवच्चरेत् |
कार्यैरव्याहतमतिर्वैराग्यात्प्रकृतौ स्थितः ॥२१॥
आ देहादप्रमादाच्च देहान्ताद्विप्रमुच्यते ॥२१॥
हेतुयुक्तः सदोत्सर्गो भूतानां प्रलयस्तथा |
परप्रत्ययसर्गे तु नियतं नातिवर्तते ॥२२॥
भवान्तप्रभवप्रज्ञा आसते ये विपर्ययम् |
धृत्या देहान्धारयन्तो बुद्धिसङ्क्षिप्तमानसाः ॥२३॥
स्थानेभ्यो ध्वंसमानाश्च सूक्ष्मत्वात्तानुपासते ॥२३॥
यथागमं च तत्सर्वं बुद्ध्या तन्नैव बुध्यते |
देहान्तं कश्चिदन्वास्ते भावितात्मा निराश्रयः ॥२४॥
युक्तो धारणया कश्चित्सत्तां केचिदुपासते ॥२४॥
अभ्यस्यन्ति परं देवं विद्युत्संशब्दिताक्षरम् |
अन्तकाले ह्युपासन्नास्तपसा दग्धकिल्बिषाः ॥२५॥
सर्व एते महात्मानो गच्छन्ति परमां गतिम् |
सूक्ष्मं विशेषणं तेषामवेक्षेच्छास्त्रचक्षुषा ॥२६॥
देहं तु परमं विद्याद्विमुक्तमपरिग्रहम् |
अन्तरिक्षादन्यतरं धारणासक्तमानसम् ॥२७॥
मर्त्यलोकाद्विमुच्यन्ते विद्यासंयुक्तमानसाः |
ब्रह्मभूता विरजसस्ततो यान्ति परां गतिम् ॥२८॥
कषायवर्जितं ज्ञानं येषामुत्पद्यतेऽचलम् |
ते यान्ति परमाँल्लोकान्विशुध्यन्तो यथाबलम् ॥२९॥
भगवन्तमजं दिव्यं विष्णुमव्यक्तसञ्ज्ञितम् |
भावेन यान्ति शुद्धा ये ज्ञानतृप्ता निराशिषः ॥३०॥
ज्ञात्वात्मस्थं हरिं चैव निवर्तन्ते न तेऽव्ययाः |
प्राप्य तत्परमं स्थानं मोदन्तेऽक्षरमव्ययम् ॥३१॥
एतावदेतद्विज्ञानमेतदस्ति च नास्ति च |
तृष्णाबद्धं जगत्सर्वं चक्रवत्परिवर्तते ॥३२॥
बिसतन्तुर्यथैवायमन्तःस्थः सर्वतो बिसे |
तृष्णातन्तुरनाद्यन्तस्तथा देहगतः सदा ॥३३॥
सूच्या सूत्रं यथा वस्त्रे संसारयति वायकः |
तद्वत्संसारसूत्रं हि तृष्णासूच्या निबध्यते ॥३४॥
विकारं प्रकृतिं चैव पुरुषं च सनातनम् |
यो यथावद्विजानाति स वितृष्णो विमुच्यते ॥३५॥
प्रकाशं भगवानेतदृषिर्नारायणोऽमृतम् |
भूतानामनुकम्पार्थं जगाद जगतो हितम् ॥३६॥ 12.217.38
गुरुरुवाच। | 12-219-1x |
न स वेद परं ब्रह्म यो न वेद चतुष्टयम्। व्यक्ताव्यक्तं च यत्तत्त्वं संप्रोक्तं परमर्षिणा।। | 12-219-1a 12-219-1b |
व्यक्तं मृत्युमुखं विद्यादव्यक्तममृतं पदम्। निवृत्तिलक्षणं धर्ममृषिर्नारायणोऽब्रवीत्।। | 12-219-2a 12-219-2b |
तत्रैवावस्थितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्। निवृत्तिलक्षणं धर्ममव्यक्तं ब्रह्म शाश्वतम्।। | 12-219-3a 12-219-3b |
प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं प्रजापतिरतथाब्रवीत्। प्रवृत्तिः पुनरावृत्तिर्निवृत्तिः परमा गतिः।। | 12-219-4a 12-219-4b |
तां गतिं परमामेति निवृत्तिपरमो मुनिः। ज्ञानतत्त्वपरो नित्यं शुभाशुभनिदर्शकः।। | 12-219-5a 12-219-5b |
तदेवमेतौ विज्ञेयावव्यक्तपुरुषाबुभौ। अव्यक्तपुरुषाभ्यां तु यत्स्यादन्यन्महत्तरम्।। | 12-219-6a 12-219-6b |
तं विशेषमवेक्षेति विशेषेण विचक्षणः। अनाद्यन्तावुभावेतावलिङ्गौ चाप्युभावपि।। | 12-219-7a 12-219-7b |
उभौ नित्यावनुचरौ महद्भ्यश्च महत्तरौ। सामान्यमेतदुभयोरेवं ह्यन्यद्विशेषणम्।। | 12-219-8a 12-219-8b |
प्रकृत्या सर्गधर्मिण्या तथा त्रिगुणसत्वया। विपरीतमतो विद्यात्क्षेत्रज्ञस्य स्वलक्षणम्।। | 12-219-9a 12-219-9b |
प्रकृतेश्च विकाराणां द्रष्टारमगुणान्वितम्। `क्षेत्रज्ञमाहुर्जीवं तु कर्तारं गुणसंवृतम्।। | 12-219-10a 12-219-10b |
अग्राह्यं येन जानन्ति तज्ज्ञानं दंशितश्च तत्। तेनैव दंशितो नित्यं न गुणः परिभूयते।। | 12-219-11a 12-219-11b |
अग्राह्यौ पुरुषावेतावलिङ्गत्वादसङ्गिनौ। संयोगलक्षणोत्पत्तिः कर्मजा गृह्यते यथा।। | 12-219-12a 12-219-12b |
करणैः कर्मनिर्वृत्तैः कर्ता यद्यद्विचेष्टते। कीर्त्यते शब्दसंज्ञाभिः कोऽहमेषोप्यसाविति।। | 12-219-13a 12-219-13b |
`ममापि कायमिति च तदज्ञो नित्यसंवृतः।' उष्णीषवान्यथा वस्त्रैस्त्रिभिर्भवति संवृतः। संवृतोऽयं तथा देही सत्त्वराजसतामसैः।। | 12-219-14a 12-219-14b 12-219-14c |
`भेदवस्तु त्वभेदेन जानाति स यदा पुमान्। तदा परं परात्माऽसौ भवत्येव निरञ्जनः।। | 12-219-15a 12-219-15b |
क्रियायोगे च भेदाख्ये बहु संक्षिप्यते क्वचित्। वसुरुद्रगणाद्येषु स्वानुभोगेन भोगतः।। | 12-219-16a 12-219-16b |
एवमेष परः सत्त्वो नानारूपेण संस्थितः। संक्षिप्तो दृश्यते पश्चादेकरूपेण विष्ठितः।।' | 12-219-17a 12-219-17b |
तस्माच्चतुष्टयं वेद्यमेतैर्हेतुभिरावृतम्। तथासंज्ञो ह्ययं सम्यगन्तकाले न मुह्यति। `वायुर्विधो यथा भानुर्विप्रकाशं गमिष्यति।।' | 12-219-18a 12-219-18b 12-219-18c |
श्रियं दिव्यामभिप्रेप्सुर्वर्ष्मवान्मनसा शुचिः। शारीरैर्नियमैरुग्रैश्चरेन्निष्कल्मषं तपः।। | 12-219-19a 12-219-19b |
त्रैलोक्यं तपसा व्याप्तमन्तर्भूतेन भास्वता। सूर्यश्च चन्द्रमाश्चैव भासतस्तपसा दिवि।। | 12-219-20a 12-219-20b |
`अन्यच्च धर्मसाम्यं यत्तपस्तत्कीर्त्यते पुनः।' प्रकाशस्तपसो ज्ञानं लोके संशब्दितं तपः।। | 12-219-21a 12-219-21b |
रजस्तमोघ्नं यत्कर्म तपसस्तत्स्वलक्षणम्। `त्रितयं ह्येतदाख्यातं यद्यस्माद्भासितुं पुनः।। | 12-219-22a 12-219-22b |
स्वभासा भासयंश्चापि चन्द्रमा ह्यत्र वर्तते। सूर्ययोगे तु यः सन्धिस्तपः सर्वं प्रदीप्यते।।' | 12-219-23a 12-219-23b |
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते। वाङ्भनोनियमः सम्यङ्भानसं तप उच्यते।। | 12-219-24a 12-219-24b |
विधिज्ञेभ्यो द्विजातिभ्यो ग्राह्यमन्नं विशिष्यते। आहारनियमेनास्य पाप्मा शाम्यति राजसः।। | 12-219-25a 12-219-25b |
वैमनस्यं च विषये यान्त्यस्य करणानि च। तस्मात्तन्मात्रमादद्याद्यावदत्र प्रयोजनम्।। | 12-219-26a 12-219-26b |
अन्तकाले बलोत्कर्षाच्छनैः कुर्यादनातुरः। एवं युक्तेन मनसा ज्ञानं यदुपपद्यते।। | 12-219-27a 12-219-27b |
रजोवर्ज्यो ह्ययं देही देहवाञ्छब्दवांश्चरेत्। कार्यैरव्याहतमतिर्वैराग्यात्प्रकृतौ स्थितः।। | 12-219-28a 12-219-28b |
आ देहादप्रमादाच्च देहान्ताद्विप्रमुच्यते। हेतुयुक्तः सदा सार्गो भूतानां प्रलयस्तथा।। | 12-219-29a 12-219-29b |
परप्रत्ययसर्गे तु नियमो नातिवर्तते। एवं तत्प्रभवां प्रज्ञामासते ये विषर्यये।। | 12-219-30a 12-219-30b |
धृत्या देहान्धारयन्तो बुद्धिसंक्षिप्तचेतसः। स्थानेभ्यो ध्वंसमानाश्च सूक्ष्मत्वात्तदुपासते।। | 12-219-31a 12-219-31b |
यथागमं च तत्सर्वं बुद्ध्या तन्नैव बुद्ध्यते। देहान्तं कश्चिदन्वास्ते भावितात्मा निराश्रयः।। | 12-219-32a 12-219-32b |
युक्तो धारणया कश्चित्सतः केचिदुपासते। अभ्यस्यन्ति परं देवं विद्यासंशब्दिताक्षरम्।। | 12-219-33a 12-219-33b |
अन्तकाले ह्युपासन्ते तपसा दग्धकिल्विषाः। सर्व एते महात्मानो गच्छन्ति परमां गतिम्।। | 12-219-34a 12-219-34b |
सूक्ष्मं विशेषणं तेषामवेक्षेच्छास्त्रचक्षुषा। देहं तु परमं विद्याद्विमुक्तमपरिग्रहम्।। | 12-219-35a 12-219-35b |
अन्तरिक्षादन्यतरं धारणासक्तमानसम्। मर्त्यलोकाद्विमुच्यन्ते विद्यासंसक्तचेतसः।। | 12-219-36a 12-219-36b |
ब्रह्मभूता विरजसस्ततो यान्ति परां गतिम्। एवमेकायनं धर्ममाहुर्वेदविदो जनाः।। | 12-219-37a 12-219-37b |
यथाज्ञानमुपासन्तः सर्वे यान्ति परां गतिम्। कषायवर्जितं----तेषामुत्पद्यतेऽमलम्। यान्ति तेऽपि----- कान्विशुध्यन्ति यथाबलं।। | 12-219-38a 12-219-38b 12-219-38c |
भगवन्तमजं दिव्य विष्णुमव्यक्तसंज्ञितम्। भावेन यान्ति शुद्धा ये ज्ञानतृप्ता निराशिषः।। | 12-219-39a 12-219-39b |
ज्ञात्वाऽऽत्मस्थं------- न निवर्तन्ति तेऽव्ययाः। प्राप्य तत्परमं स्थानमोदन्तेऽक्षरमव्ययम्।। | 12-219-40a 12-219-40b |
एतावदेतद्विज्ञानमेतदस्ति च नास्ति च। तृष्णाबद्धं जगत्सर्वं चक्रवत्परिवर्तते।। | 12-219-41a 12-219-41b |
विसतन्तुर्यथैवायमन्तस्थः सर्वतो बिसे। तृष्णातन्तुरनाद्यन्तस्तथा देहगतः सदा।। | 12-219-42a 12-219-42b |
सूच्या सूत्रं यथा वस्त्रे संसारयति वायकः। तद्वत्संसारसूत्रं हि तृष्णासूच्या निबद्ध्यते।। | 12-219-43a 12-219-43b |
`इतस्ततः समाहृत्य रूपं निर्वर्तयिष्यति।' विकारं प्रकृतिं चैव पुरुषं च सनातनम्।। | 12-219-44a 12-219-44b |
यो यथावद्विजानाति स वितृष्णो विमुच्यते। याति नित्यं स सद्भावमात्मनो वै महद्भुवम्।। | 12-219-45a 12-219-45b |
भीष्म उवाच। | 12-219-46x |
प्रकाशं भगवानेतदृषिर्नारायणोऽमृतम्। भूतानामनुकम्पार्थं जगाद जगतो हितम्।। | 12-219-46a 12-219-46b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकोनविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 219।। |
12-219-1 न स वेद परं धर्मं इति ध. पाठः।। 12-219-22 तपसस्तच्च लक्षणमिति थ. पाठः। तत्वलक्षणमिति ध. पाठः।। 12-219-25 ग्राह्यमन्नं तपस्थिभिरिति ट. थ. पाठः।। 12-219-29 देहान्ते विप्रमुच्यत इति ट. थ. पाठः। सदोत्सर्ग इति ध. पाठः।। 12-219-38 विमुच्यन्ते यथाबलमिति झ. पाठः। विशुध्यन्तो यथाबलमिति ट. थ. पाठः।। 12-219-46 प्रकाशं स्पष्टम्। अमृतं मोक्षसाधनम्।।
शांतिपर्व-218 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-220 |