महाभारतम्-12-शांतिपर्व-197
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जापकोपाख्याने कालयमधर्मविप्रेक्ष्वाक्वादीनां संवादः।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-197-1x |
कालमृत्युयमानां ते इक्ष्वाकोर्ब्राह्मणस्य च। विवादो व्याहृतः पूर्वं तद्भवान्वक्तुमर्हति।। | 12-197-1a 12-197-1b |
भीष्म उवाच। | 12-197-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। इक्ष्वाकोः सूर्यपुत्रस्य यद्वृत्तं ब्राह्मणस्य च।। | 12-197-2a 12-197-2b |
कालस्य मृत्योश्च तथा यद्वृत्तं तन्निबोध मे। यथा स तेषां संवादो यस्मिन्स्थानेऽपि चाभवत्। `येनैव कारणेनात्र धर्मवादसमन्वितः।।' | 12-197-3a 12-197-3b 12-197-3c |
ब्राह्मणो जापकः कश्चिद्धर्मवृत्तो महायशाः। षडङ्गविन्महाप्राज्ञः पैप्पलादिः स कौशिकः।। | 12-197-4a 12-197-4b |
तस्यापरोक्षं विज्ञानं षडङ्गेषु वभूव ह। वेदेषु चैव निष्णातो हिमवत्पादसंश्रयः।। | 12-197-5a 12-197-5b |
सोयं ब्राह्मं पस्तेपे संहितां संयतो जपन्। तस्य वर्षसहस्रं तु नियमेन तथा गतम्।। | 12-197-6a 12-197-6b |
स देव्या दर्शितः साक्षात्प्रीतास्मीति तदा किल। जप्यमावर्तयंस्तूष्णीं न स तां किंचिदब्रवीत्।। | 12-197-7a 12-197-7b |
तस्यानुकम्पया देवी प्रीता समभवत्तदा। वेदमाता ततस्तस्य तज्जप्यं समपूजयत्।। | 12-197-8a 12-197-8b |
`चतुर्भिरक्षरैर्युक्ता सोमपानेऽक्षराष्टका। जगद्बीजसमायुक्ता चनुर्विशाक्षरात्मिका।।' | 12-197-9a 12-197-9b |
समाप्य जप्यं तूत्थाय शिरसा पादयोस्तदा। पपात देव्या धर्मात्मा वचनं चेदमब्रवीत्।। | 12-197-10a 12-197-10b |
दिष्ट्या देवि प्रसन्ना त्वं दर्शनं चागता मम। यदि चापि प्रसन्नासि जप्ये मे रमतां मनः।। | 12-197-11a 12-197-11b |
सावित्र्युवाच। | 12-197-12x |
किं प्रार्थयसि विप्रर्षे किं चेष्टं करवाणि ते। प्रब्रूहि जपतां श्रेष्ठ सर्वं तत्ते भविष्यति।। | 12-197-12a 12-197-12b |
इत्युक्तः स तदा देव्या विप्रः प्रोवाच धर्मवित्। जप्यं प्रति ममेच्छेयं वर्धत्विति पुनः पुनः।। | 12-197-13a 12-197-13b |
मनसश्च समाधिर्मे वर्धेताहरहः शुभे। तत्तथेति ततो देवी मधुरं प्रत्यभाषत।। | 12-197-14a 12-197-14b |
इदं चैवापरं प्राह देवी तत्प्रियकाम्यया। निरयं नैव याता त्वं यत्र याता द्विजर्षभाः।। | 12-197-15a 12-197-15b |
यास्यसि ब्रह्मणः स्थानमनिमित्तमतन्द्रितः। साधु ते भविता चैतद्यत्त्वयाऽहमिहार्थिता।। | 12-197-16a 12-197-16b |
नियतो जप चैकाग्रो धर्मस्त्वां समुपैष्यति। कालो मृत्युर्यमश्चैव समायास्यन्ति तेऽन्तिकम्। भविता च विवादोऽत्र तव तेषां च धर्मतः।। | 12-197-17a 12-197-17b 12-197-17c |
भीष्म उवाच। | 12-197-18x |
एवमुक्त्वा भगवती जगाम भवनं स्वकम्।। | 12-197-18a |
ब्राह्मणोऽपि जपन्नास्ते दिव्यं वर्षशतं तथा। सदा दान्तो जितक्रोधः सत्यसन्धोऽनसूयकः।। | 12-197-19a 12-197-19b |
समाप्ते नियमे तस्मिन्नथ विप्रस्य धीमतः। साक्षात्प्रीतस्तदा धर्मो दर्शयामास तं द्विजम्।। | 12-197-20a 12-197-20b |
धर्म उवाच। | 12-197-21x |
द्विजाते पश्य मां धर्ममहं त्वां द्रष्टुमागतः। जप्यस्यास्य फलं यत्तत्प्रंप्राप्तं तच्च मे शृणु।। | 12-197-21a 12-197-21b |
जिता लोकास्त्वया सर्वे ये दिव्या ये च मानुषाः। देवानां निलयान्साधो सर्वानुत्क्रम्य यास्यसि।। | 12-197-22a 12-197-22b |
प्राणत्यागं कुरु मुने गच्छ लोकान्यथेप्सितान्। त्यक्त्वाऽऽत्मनः शरीरं च ततो लोकानवाप्स्यसि।। | 12-197-23a 12-197-23b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-24x |
कृतं लोकेन मे धर्म गच्छ त्वं च यथासुखम्। बहुदुःखमहं देहं नोत्सृजेयमहं विभो।। | 12-197-24a 12-197-24b |
धर्म उवाच। | 12-197-25x |
`अचलं ते मनः कृत्वा त्यज देहं महामते। अनेन किं ते संयोगः कथं मोहं गमिष्यसि।।' | 12-197-25a 12-197-25b |
अवश्यं भोः शरीरं ते त्यक्तव्यं मुनिपुङ्गव। स्वर्गमारोह भो विप्र किं वा वै रोचतेऽनघ।। | 12-197-26a 12-197-26b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-27x |
किमुक्तं धर्म किं नेति कस्मान्मां प्रोक्तवानसि। त्यज देहं द्विजेति त्वं ससंबुध्यात्र मे यदि।। | 12-197-27a 12-197-27b |
न रोचये स्वर्गवासं विना देहमहं विभो। गच्छ धर्म न मे श्रद्धा स्वर्गं गन्तुं विनाऽऽत्मना।। | 12-197-28a 12-197-28b |
धर्म उवाच। | 12-197-29x |
अलं देहे मनः कृत्वा त्यक्त्वा देहं सुखी भव। गच्छ लोकानरजसो यत्र गत्वा न शोचसि।। | 12-197-29a 12-197-29b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-30x |
रमे जपन्महाभाग कृतं लोकैः सनातनैः। सशरीरेण गन्तव्यं मया स्वर्गं न चान्यथा।। | 12-197-30a 12-197-30b |
धर्म उवाच। | 12-197-31x |
`एवं ते कायसंप्रातिर्वर्तते मुनिसत्तम।' यदि त्वं नेच्छसि त्यक्तुं शरीरं पश्य वै द्विज। एष कालस्तथा मृत्युर्यमश्च त्वामुपागताः।। | 12-197-31a 12-197-31b 12-197-31c |
भीष्म उवाच। | 12-197-32x |
अथ वैवस्वतः कालो मृत्युश्च त्रितयं विभो। ब्राह्मणं तं महाभागमुपगम्येदमब्रवन्।। | 12-197-32a 12-197-32b |
यम उवाच। | 12-197-33x |
तपसोऽस्य सुतप्तस्य तथा सुचरितस्य च। फलप्राप्तिस्तव श्रेष्ठा यमोऽहं त्वामुपब्रुवे।। | 12-197-33a 12-197-33b |
काल उवाच। | 12-197-34x |
यथावदस्य जप्यस्य फलं प्राप्तस्त्वमुत्तमम्। कालस्ते स्वर्गमारोढुं कालोऽहं त्वामुपागतः।। | 12-197-34a 12-197-34b |
मृत्युरुवाच। | 12-197-35x |
मृत्युं मां विद्धि धर्मज्ञ रूपिणं स्वयमागतम्। कालेन चोदितो विप्र त्वामितो नेतुमद्य वै।। | 12-197-35a 12-197-35b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-36x |
स्वागतं सूर्यपुत्राय कालाय च महात्मने। मृत्यवे चाथ धर्माय किं कार्यं करवाणि वः।। | 12-197-36a 12-197-36b |
भीष्म उवाच। | 12-197-37x |
अर्ध्यं पाद्यं च दत्त्वा स तेभ्यस्तत्र समागम। अब्रवीत्परमप्रीतः स्वशक्त्या किं करोमि वः।। | 12-197-37a 12-197-37b |
`स्वकार्यनिर्भरा यूयं परोपद्रवहेतवः। भवन्तो लोकसामान्याः किमर्थं ब्रूत सत्तमाः।। | 12-197-38a 12-197-38b |
यम उवाच। | 12-197-39x |
वयमप्येवमत्युग्रा धातुराज्ञापुरः सराः। चोदिता धावमाना वै कर्मभावमनुव्रताः।। | 12-197-39a 12-197-39b |
भीष्म उवाच।' | 12-197-40x |
तस्मिन्नेवाथ काले तु तीर्थयात्रामुपागतः। इक्ष्वाकुरगमत्तत्र समेता यत्र ते विभो।। | 12-197-40a 12-197-40b |
सर्वानेव तु राजर्षिः संपूज्याथ प्रणम्य च। कुशलप्रश्नमकरोत्सर्वेषां राजसत्तमः।। | 12-197-41a 12-197-41b |
तस्मै सोऽथासनं दत्त्वा पाद्यमर्ध्यं तथैव च। अब्रवीद्ब्राह्मणो वाक्यं कृत्वा कुशलसंविदम्।। | 12-197-42a 12-197-42b |
स्वागतं ते महाराज ब्रूहि यद्यदिहेच्छसि। स्वशक्त्या किं करोमीह तद्भवान्प्रब्रवीतु माम।। | 12-197-43a 12-197-43b |
राजोवाच। | 12-197-44x |
राजाऽहं ब्राह्मणश्च त्वं यदा षट्कर्मसंस्थितः। ददानि वसु किंचित्ते प्रार्थितं तद्वदस्व मे।। | 12-197-44a 12-197-44b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-45x |
द्विविधो ब्राह्मणो राजन्धर्मश्च द्विविधः स्मृतः। प्रवृत्तश्च निवृत्तश्च निवृत्तोऽह प्रतिग्रहात्।। | 12-197-45a 12-197-45b |
तेभ्यः प्रयच्छ दानानि ये प्रवृत्ता नराधिप। अहं न प्रतिगृह्णामि किमिष्टं किं ददामि ते। ब्रूहि त्वं नृपतिश्रेष्ठ तपसा साधयामि किम्।। | 12-197-46a 12-197-46b 12-197-46c |
राजोवाच। | 12-197-47x |
क्षत्रियोऽहं न जानामि देहीति वचनं क्वचित्। प्रयच्छ युद्धमित्येवंवादी चास्मि द्विजोत्तम।। | 12-197-47a 12-197-47b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-48x |
तुष्यसि त्वं स्वधर्मेण तथा तुष्टा वयं नृप। अन्योन्यस्योत्तरं नास्ति यदिष्टं तत्समाचर।। | 12-197-48a 12-197-48b |
राजोवाच। | 12-197-49x |
स्वशक्त्याऽहं ददानीति त्वया पूर्वमुदाहृतम्। याचे त्वां दीयतां मह्यं जप्यस्यास्य फलं द्विज।। | 12-197-49a 12-197-49b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-50x |
युद्धं मम सदा वाणी याचतीति विकत्थसे। न च युद्धं मया सार्धं किमर्थं याचसे पुनः।। | 12-197-50a 12-197-50b |
राजोवाच। | 12-197-51x |
वाग्वज्राब्राह्मणाः प्रोक्ताः क्षत्रिया बाहुजीविनः। वाग्युद्धं तदिदं तीव्रं मम विप्र त्वया सह।। | 12-197-51a 12-197-51b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-52x |
सेयमद्य प्रतिज्ञा मे स्वशक्त्या किं प्रदीयताम्। ब्रूहि दास्यामि राजेन्द्र विभवे सति माचिरम्।। | 12-197-52a 12-197-52b |
राजोवाच। | 12-197-53x |
यत्तद्वर्षशतं पूर्णं जप्यं वै जपता त्वया। फलं प्राप्तं तत्प्रयच्छ मम दित्सुर्भवान्यदि।। | 12-197-53a 12-197-53b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-54x |
परमं गृह्यतां तस्य फलं यज्जपितं मया। अर्धं त्वमविचारेण फलं तस्य ह्यवाप्नुहि।। | 12-197-54a 12-197-54b |
अथवा सर्वमेवेह मामकं जापकं फलम्। राजन्प्राप्नुहि कामं त्वं यदि सर्वमिहेच्छसि।। | 12-197-55a 12-197-55b |
राजोवाच। | 12-197-56x |
कृतं सर्वेण भद्रं ते जप्यं यद्याचितं मया। स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि किंच तस्य फलं वद।। | 12-197-56a 12-197-56b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-57x |
फलप्राप्तिं न जानामि दत्तं यज्जपितं मया। अयं धर्मश्च कालश्च यमो मृत्युश्च साक्षिणः।। | 12-197-57a 12-197-57b |
राजोवाच। | 12-197-58x |
अज्ञातमस्य धर्मस्य फलं किं मे करिष्यति। फलं ब्रवीषि धर्मस्य न चेज्जप्यकृतस्य माम्। प्राप्नोतु तत्फलं विप्रो नाहमिच्छे ससंशयम्।। | 12-197-58a 12-197-58b 12-197-58c |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-59x |
नाददेऽपरदत्तं वै दत्तं वा चाफलं मया। वाक्यं प्रमाणं राजर्षे ममाद्य तव चैव हि।। | 12-197-59a 12-197-59b |
सकृदंशो निपतति सकृत्कन्या प्रदीतये। सकृदेव ददानीति त्रीण्येतानि सकृत्सकृत्।। | 12-197-60a 12-197-60b |
नाभिसंधिर्मया जप्ये कृतपूर्वः कदाचन। जप्यस्य राजशार्दूल कथं वेत्स्याम्यहं फलम्।। | 12-197-61a 12-197-61b |
ददस्वेति त्वया चोक्तं दत्तं वाचा फलं मया। न वाचं दूषयिष्यामि सत्यं रक्ष स्थिरो भव।। | 12-197-62a 12-197-62b |
अथैवं वदतो मेऽद्य वचनं न करिष्यसि। महानधर्मो भविता तव राजन्मृषा कृतः।। | 12-197-63a 12-197-63b |
न युक्ता तु मृषावाणी त्वया वक्तुमरिंदम। तथा मयाऽप्यभिहितं मिथ्या कर्तुं न शक्यते।। | 12-197-64a 12-197-64b |
संश्रुतं च मया पूर्वं ददानीत्यविचारितम्। तद्गृह्णीष्वाविचारेण यदि सत्ये स्थितो भवान्।। | 12-197-65a 12-197-65b |
इहागम्य हि मां राजञ्जाप्यं फलमयाचथाः। तन्मे निसृष्टं गृह्णीष्व भव सत्येस्थितोपि च।। | 12-197-66a 12-197-66b |
नायं लोकोऽस्ति न परो न च पूर्वान्स तारयेत्। कुत एवापरान्राजन्मृषावादपरायणः।। | 12-197-67a 12-197-67b |
न यज्ञाध्ययने दानं नियमास्तारयन्ति हि। यथा सत्यं परे लोके तथेह पुरुषर्षभ।। | 12-197-68a 12-197-68b |
तपांसि यानि चीर्णानि चरिष्यन्ति च यत्तपः। समाशतैः सहस्रैश्च तत्सत्यान्न विशिष्यते।। | 12-197-69a 12-197-69b |
सत्यमेकं परं ब्रह्म सत्यमेकं परं तपः। सत्यमेकं परो यज्ञः सत्यमेकं परं श्रुतम्।। | 12-197-70a 12-197-70b |
सत्यं वेदेषु जागर्ति फलं सत्ये परं स्मृतम्। तपो धर्मो दमश्चैव सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्।। | 12-197-71a 12-197-71b |
सत्यं वेदास्तथाङ्गानि सत्यं यज्ञास्तथा विधिः। व्रतचर्या तथा सत्यमोंकारः सत्यमेव च।। | 12-197-72a 12-197-72b |
प्राणिनां जननं सत्यं सत्यं सन्ततिरेव च। सत्येन वायुरभ्येति सत्येन तपते रविः।। | 12-197-73a 12-197-73b |
सत्येन चाग्निर्दहति स्वर्गः सत्ये प्रतिष्ठितः। सत्यं यज्ञस्तपो वेदाः स्तोभा मन्त्राः सरस्वती।। | 12-197-74a 12-197-74b |
तुलामारोपितो धर्मः सत्यं चैवेति नः श्रुतम्। समां कक्षां धारयतो यः सत्यं ततोऽधिकम्।। | 12-197-75a 12-197-75b |
यतो धर्मस्ततः सत्यं सर्वं सत्येन वर्धते। किमर्थमनृतं कर्म कर्तुं राजंस्त्वमिच्छसि।। | 12-197-76a 12-197-76b |
सत्ये कुरु स्थिरं भावं मा राजन्ननृतं कृथाः। कस्मात्त्वमनृतं वाक्यं देहीति कुरुषेऽशुभम्।। | 12-197-77a 12-197-77b |
यदि जप्यफलं दत्तं मया नेच्छसि वै नृप। स्वधर्मेभ्यः परिभ्रष्टो लोकाननुचरिष्यसि।। | 12-197-78a 12-197-78b |
संश्रुत्य यो न दित्सेत याचित्वा यश्च नेच्छति। उभावानृतिकावेतो न मृपा कर्तुमर्हसि।। | 12-197-79a 12-197-79b |
राजोवाच। | 12-197-80x |
योद्धव्यं रक्षितव्यं च क्षत्रधर्मः किल द्विज। दातारः क्षत्रियाः प्रोक्ता गृह्णीयां भवतः कथम्।। | 12-197-80a 12-197-80b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-81x |
न च्छन्दयामि ते राजन्नापि ते गृहमाव्रजम्। इहागम्य तु याचित्वा न गृह्णीषे पुनः कथम्।। | 12-197-81a 12-197-81b |
धर्म उवाच। | 12-197-82x |
अविवादोऽस्तु युवयोर्वित्तं मां धर्ममागतम्। द्विजो दानफलैर्युक्तो राजा सत्यफलेन च।। | 12-197-82a 12-197-82b |
स्वर्ग उवाच। | 12-197-83x |
स्वर्गं मां विद्धि राजेन्द्र रूपिणं स्वयमागतम्। अविवादोऽस्तु युवयोरुमौ तुल्यफलौ युवाम्।। | 12-197-83a 12-197-83b |
राजोवाच। | 12-197-84x |
कृतं स्वर्गेण मे कार्यं गच्छ स्वर्ग यथागतम्। विप्रो यदीच्छते दातुं चीर्णं गृह्णातु मे फलम्।। | 12-197-84a 12-197-84b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-85x |
बाल्ये यदि स्मादज्ञानान्मया हस्तः प्रसारितः। निवृत्तलक्षणं धर्ममुपासे संहितां जपन्।। | 12-197-85a 12-197-85b |
निवृत्तं मां चिराद्राजन्विप्रलोभयसे कथम्। स्वेन कार्यं करिष्यामि त्वत्तो नेच्छे फलं नृप। तपःस्वाध्यायशीलोऽहं निवृत्तश्च प्रतिग्रहात्।। | 12-197-86a 12-197-86b 12-197-86c |
राजोवाच। | 12-197-87x |
यदि विप्र विसृष्टं ते जप्यस्य फलमुत्तमम्। आवयोर्यत्फलं किंचित्सहितं नौ तदस्त्विह।। | 12-197-87a 12-197-87b |
द्विजाः प्रतिग्रहे युक्ता दातारो राजवंशजाः। यदि धर्मः क्षुतो विप्र सहैव फलमस्तु नौ।। | 12-197-88a 12-197-88b |
मा वा भूत्सह भोज्यं नौ मदीयं फलमाप्नुहि। प्रतीच्छ मत्कृतं धर्मं यदि ते मय्यनुग्रहः।। | 12-197-89a 12-197-89b |
भीष्म उवाच। | 12-197-90x |
ततो विकृतवैषौ द्वौ पुरुषौ समुपस्थितौ। गृहीत्वाऽन्योन्यमावेष्ठ्य कुचेलावूचतुर्वचः।। | 12-197-90a 12-197-90b |
न मे धारयसीत्येको धारयामीति चापरः। इहास्ति नौ विवादोऽयमयं राजाऽनुशासकः।। | 12-197-91a 12-197-91b |
सत्यं ब्रवीम्यहमिदं न मे धारयते भवान्। अनृतं वदसीह त्वमृणं ते धारयाम्यहम्। | 12-197-92a 12-197-92b |
तावुभौ सुभृशं तप्तौ राजानमिदमृचतुः। परीक्ष्यौ तु यथा स्याव नावामिह विगर्हितौ।। | 12-197-93a 12-197-93b |
विरूप उवाच। | 12-197-94x |
घारयामि नरव्याघ्र विकृतस्येह गोः फलम्। ददतश्च न गृह्णाति विकृतो मे महीपते।। | 12-197-94a 12-197-94b |
विकृत उवाच। | 12-197-95x |
न मे धारयते किंचिद्विरूपोऽयं नराधिप। मिथ्या ब्रवीत्ययं हि त्वां सत्याभासं नराधिप।। | 12-197-95a 12-197-95b |
राजोवाच। | 12-197-96x |
विरूप किं धारयते भवानस्य ब्रवीतु मे। श्रुत्वा तथा करिष्येऽहमिति मे धीयते मनः।। | 12-197-96a 12-197-96b |
विरूप उवाच। | 12-197-97x |
शृणुष्वावहितो राजन्यथैतद्धारयाम्यहम्। विकृतस्यास्य राजर्षे निखिलेन नराधिप।। | 12-197-97a 12-197-97b |
अनेन धर्मप्राप्त्यर्थं शुभा दत्ता पुराऽनघ। धेनुर्विप्राय राजर्षे तपःस्वाध्यायशीलिने।। | 12-197-98a 12-197-98b |
तस्याश्चायं मया राजन्फलमभ्येत्य याचितः। विकृतेन च मे दत्तं विशुद्धेनान्तरात्मना।। | 12-197-99a 12-197-99b |
ततो मे सुकृतं कर्म कृतमात्मविशुद्धये। गावौ च कपिले क्रीत्वा वत्सले बहुदोहने।। | 12-197-100a 12-197-100b |
ते चोञ्छवृत्तये राजन्मया समुपवर्जिते। यथाविधि यथाश्रद्धं तदस्याहं पुनः प्रभो।। | 12-197-101a 12-197-101b |
इहाद्यैव प्रयच्छामि गृहीत्वा द्विगुणां फलम्। एवं स्यात्पुरुषव्याघ्र कःशुद्धः कोऽत्र दोषवान्।। | 12-197-102a 12-197-102b |
एवं विवदमानौ स्वस्त्यामिहाभ्यागतौ नृप। कुरु धर्ममधर्मं वा विनये नौ समादध।। | 12-197-103a 12-197-103b |
यदि नेच्छति मे दानं यथा दत्तमनेन वै। भवानत्र स्थिरो भूत्वा मार्गे स्थापयिताऽद्य नौ।। | 12-197-104a 12-197-104b |
राजोवाच। | 12-197-105x |
दीयमानं न गृह्णासि ऋणं कस्मात्त्वमद्य वै। यथैव तेऽभ्यनुज्ञातं यथा गृह्णीष्व माचिरम्।। | 12-197-105a 12-197-105b |
विकृत उवाच। | 12-197-106x |
दीयतामित्यनेनोक्तं ददानीति तथा मया। नायं मे धारयत्यत्र गच्छतां यत्र वाञ्छति।। | 12-197-106a 12-197-106b |
राजोवाच। | 12-197-107x |
ददतोऽस्य न गृह्णासि विषमं प्रतिभाति मे। दणड्यो हि त्वं मम मतो नास्त्यत्र खलु संशयः।। | 12-197-107a 12-197-107b |
विकृत उवाच। | 12-197-108x |
मयाऽस्य दत्तं राजर्षे गृह्णीयां तत्कथं पुनः। को ममात्रापराधो मे दण्डमाज्ञापय प्रभो।। | 12-197-108a 12-197-108b |
विरूप उवाच। | 12-197-109x |
दीयमानं यदि मया न गृह्णासि कथंचन। नियच्छति त्वां नृपतिरयं धर्मानुशासकः।। | 12-197-109a 12-197-109b |
विकृत उवाच। | 12-197-110x |
स्वयं मया याचितेन दत्तं कथमिहाद्य तत्। गृह्णीयां गच्छतु भवानभ्यनुज्ञां ददानि ते।। | 12-197-110a 12-197-110b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-111x |
श्रुतमेतत्त्वया राजन्ननयोः कथितं द्वयोः। प्रतिज्ञातं मया यत्ते तद्गृहाणाविचारितम्।। | 12-197-111a 12-197-111b |
राजोवाच। | 12-197-112x |
प्रस्तुतं सुमहत्कार्यमनयोर्गह्वरं यथा। जापकस्य दृढीकारः कथमेतद्भविष्यति।। | 12-197-112a 12-197-112b |
यदि तावन्न गृह्णामि जापकेनापवर्जितम्। कथं न लिप्येयमहं पापेन महताऽद्य वै।। | 12-197-113a 12-197-113b |
तौ चोवाच स राजर्षिः कृतकार्यौ गमिष्यथः। नेदानीं मामिहासाद्य राजधर्मो भवेन्मृषा।। | 12-197-114a 12-197-114b |
स्वधर्मः परिपाल्यस्तु राज्ञामिति विनिश्चयः। विप्रधर्मश्च गहनो मामनात्मानमाविशत्।। | 12-197-115a 12-197-115b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-116x |
गृहाण धारयेऽहं च याचितं संश्रुतं मया। न चेद्भहीष्यसे राजञ्शपिष्ये त्वां न संशयः।। | 12-197-116a 12-197-116b |
राजोवाच। | 12-197-117x |
धिग्राजधर्मं यस्यायं कार्यस्येह विनिश्चयः। इत्यर्थं मे ग्रहीतव्यं कथं तुल्यं भवेदिति।। | 12-197-117a 12-197-117b |
एष पाणिरपूर्वं मे निक्षेपार्थं प्रसारितः। यन्मे धारयसे विप्र तदिदानीं प्रदीयताम्।। | 12-197-118a 12-197-118b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-197-119x |
संहितां जपता यावान्गुणः कश्चित्कृतो मया। तत्सर्वं प्रतिगृह्णीष्व यदि किंचिदिहास्ति मे।। | 12-197-119a 12-197-119b |
राजोवाच। | 12-197-120x |
जलमेतन्निपतितं मम पाणौ द्विजोत्तम। सममस्तु सहैवास्तु प्रतिगृह्णातु वै भवान्।। | 12-197-120a 12-197-120b |
विरूप उवाच। | 12-197-121x |
कामक्रोधौ विद्धि नौ त्वमावाभ्यां कारितो भवान्। `जिज्ञासमानौ युवयोर्मनोत्थं तु द्विजोत्तम।।' | 12-197-121a 12-197-121b |
सहेति च यदुक्तं ते समा लोकास्तवास्य च। | 12-197-122a 12-197-122b |
कालो धर्मस्तथा मृत्युः कामक्रोधौ तथा युवाम्। | 12-197-123a 12-197-123b |
`सर्वेषामुपरिस्थानं ब्रह्मणो व्यक्तजन्मनः। | 12-197-124a 12-197-124b |
सर्वे गच्छाम यत्र स्वान्स्वाँल्लोकांश्च तथा वयम्।' | 12-197-125a 12-197-125b |
` ततो धर्मयमाद्यास्ते वाक्यमूचुर्नपर्द्विजौ। | 12-197-126a 12-197-126b |
तत्रस्थौ हि भवन्तौ हि युवाभ्यां निर्जिता वयम्। युवयोः काम आपन्नस्तत्काम्यमविशङ्कया।।' | 12-197-127a 12-197-127b |
भीष्म उवाच। | 12-197-128x |
जापकानां फलावाप्तिर्मया ते संप्रदर्शिता। गतिः स्थानं च लोकाश्च जापकेन यथा जिताः।। | 12-197-128a 12-197-128b |
प्रयाति संहिताध्यायी ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्। अथवाऽग्निं समायाति सूर्यमाविशतेऽपि वा।। | 12-197-129a 12-197-129b |
स तैजसेन भावेन यदि तत्र रमत्युत। गुणांस्तेषां समाधत्ते रागेण प्रतिमोहितः।। | 12-197-130a 12-197-130b |
एवं सोमे तथा वायौ भूम्याकाशशरीरगः। सरागस्तत्र वसति गुणांस्तेषां समाचरन्।। | 12-197-131a 12-197-131b |
अथ तत्र विरागी स परं गच्छत्यसंशयम्। परमव्ययमिच्छन्स तमेवाविशते पुनः।। | 12-197-132a 12-197-132b |
अमृताच्चामृतं प्राप्तः शान्तीभूतो निरात्मवान्। ब्रह्मभूतः स निर्द्वन्द्वः सुखी शान्तो निरामयः।। | 12-197-133a 12-197-133b |
ब्रह्मस्थानमनावर्तमेकमक्षरसंज्ञकम्। अदुःखमजरं शान्तं स्थानं तत्प्रतिपद्यते।। | 12-197-134a 12-197-134b |
चतुर्भिर्लक्षणैर्हीनं तथा पड्भिः सषोडशैः। पुरुषं तमतिक्रम्य आकाशं प्रतिपद्यते।। | 12-197-135a 12-197-135b |
अथ नेच्छति रागात्मा सर्वं तदधितिष्ठति। यच्च प्रार्थयते तच्च मनसा प्रतिपद्यते।। | 12-197-136a 12-197-136b |
अथवा चेक्षते लोकान्सर्वान्निरयसंज्ञितान्। निस्पृहः सर्वतो मुक्तस्तत्र वै रमते सुखम्।। | 12-197-137a 12-197-137b |
एवमेषा महाराज जापकस्य गतिर्यथा। एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमर्हसि।। | 12-197-138a 12-197-138b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 197।। |
12-197-1 आयुःपरिच्छेदिका देवता कालः। प्राणवियोजिका मृत्युः। पुण्यापुण्यफलदायिका यमः। तत् तम्।। 12-197-2 सूर्यपुत्रस्य यमस्य।। 12-197-4 जापको मन्त्राध्ययनपरः। पैप्पलाद इति ड. पाठः।। 12-197-7 देव्या सावित्र्या दर्शितो दर्शनदानेनानुगृहीतः।। 12-197-14 समाधिर्नियमः।। 12-197-15 निरयं स्वर्गं क्षयिणम्। याता यास्यसि। याता गताः।। 12-197-16 अनिमित्तमजन्यम्। यज्जप्ये मे रमतां मन इति।। 12-197-20 दर्शयामास आत्मानं दर्शितवान्।। 12-197-24 बहुदुःखसुखमिति झ.ध. पाठः।। 12-197-56 कृतमलं सर्वेण जपफलेन।। 12-197-57 यज्जपितं जप्यं तस्येति शेषः।। 12-197-61 अभिसंधिः कामः। निष्कामस्य जपस्यानन्तं फलमिति भावः।। 12-197-62 दूषयिष्यामि अन्यथाकरिष्यामि।। 12-197-66 मे मया निसृष्टं दत्तम्।। 12-197-77 देहीति उक्त्वेति शेषः।। 12-197-81 न च्छन्दयामि प्रतिगृह्णीष्वेति न प्रार्थितवानस्मि।। 12-197-84 तत्प्रतीच्छतु मे फलमिति ध. पाठः। बहु गृह्णातु मे फलमिति ट. पाठः।। 12-197-90 द्वौ पुरुषौ कामक्रोधौ।। 12-197-93 परीक्ष्य त्वं यथा स्यावो नावामिति झ. पाठः।। 12-197-94 प्रार्थना हि राज्ञोऽननुरूपेति तस्य कामो विकृतसंज्ञः। शान्तिस्वभावस्यापि जापकस्य याचित्वापि दीयमानं न गृह्णातीति राजानं प्रति यः क्रोधः स विरूपसंज्ञः। गोः फलं वाचं धेनुमुपासीतेति श्रुतेर्धेनुसरूप्रायाः वाचः। जपस्य फलमित्यर्थः।। 12-197-98 धेनुर्वाक्। विप्राय परमेश्वराय।। 12-197-106 धारयामीति झ. ट. पाठः।। 12-197-118 निक्षेपार्थं प्रतिगृह्य प्रदानार्थम्।। 12-197-131 तेषां सूर्यादिलोकपालानां गुणान् प्रकाशकत्वादीन्।।
शांतिपर्व-196 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-198 |