महाभारतम्-12-शांतिपर्व-192
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रत्यध्यात्मनिरूपणम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-192-1x |
अध्यात्मं नाम यदिदं पुरुषस्येह चिन्त्यते। यदध्यात्मं यथा चैतत्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-192-1a 12-192-1b |
कुतः सृष्टमिदं सर्वं ब्रह्मन्स्थावरजङ्गमम्। प्रलये च कमभ्येति तन्मे वक्तुमिहार्हसि।। | 12-192-2a 12-192-2b |
भीष्म उवाच। | 12-192-3x |
अध्यात्ममिति मां पार्थ यदेतदनुपृच्छसि। तद्व्याख्यास्यामि ते तात श्रेयस्करतमं शुभम्।। | 12-192-3a 12-192-3b |
[सृष्टिप्रलयसंयुक्तमाचार्यैः परिदर्शितम्।] यज्ज्ञात्वा पुरुषो लेके प्रीतिं सौख्यं च विन्दति। फललाभश्च तस्य स्यात्सर्वभूतहितं च तत्।। | 12-192-4a 12-192-4b 12-192-4c |
`आत्मानममलं राजन्नावृत्यैवं व्यवस्थितम्। तस्मिन्प्रकाशते नित्यं तमः सोमो यथैव तत्।। | 12-192-5a 12-192-5b |
तद्विद्वान्नष्टयाप्मैष ब्रह्मभूयाय कल्पते। अण्डावरणभूतानां पर्यन्तं हि यथा तमः।।' | 12-192-6a 12-192-6b |
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्। महाभूतानि भूतानां सर्वेषां प्रभवाप्ययौ।। | 12-192-7a 12-192-7b |
यतः सृष्टानि तत्रैव तानि यान्ति पुनःपुनः। महाभूतानि भूतेभ्यः सागरस्योर्मयो यथा।। | 12-192-8a 12-192-8b |
प्रसार्य च यथाङ्गानि कूर्मः संहरते पुनः। तद्वद्भूतानि भूतात्मा सृष्ट्वा संहरते पुनः।। | 12-192-9a 12-192-9b |
`स तेषां गुणसंघातः शरीरे भरतर्षभ। सततं प्रविलीयन्ते गुणास्ते प्रभवन्ति च।। | 12-192-10a 12-192-10b |
यद्विना नैव शृणुते न पश्यति न दीप्यते। यदधीनं यतस्तस्मादध्यात्ममिति कथ्यते।। | 12-192-11a 12-192-11b |
ज्ञानं तदेकरूपाख्यं नानाप्रज्ञान्वितं तदा। न तेवाचाऽनुरूपं स्याद्यया रासविवर्जितम्।। | 12-192-12a 12-192-12b |
आकाशात्खलु याज्येषु भवन्ति सुमहागुणाः। इति तन्मयमेवैतत्सर्वं स्थावरजङ्गमम्। | 12-192-13a 12-192-13b |
प्रलये च तमभ्येति तस्मादुत्सृज्यते पुनः। महाभूतेषु भूतात्मा सृष्ट्वा संहरते पुनः।।' | 12-192-14a 12-192-14b |
महाभूतानि पञ्चैव सर्वभूतेषु भूतकृत्। अकरोत्तेषु वैषम्य तत्तु जीवो न पश्यति।। | 12-192-15a 12-192-15b |
शब्दः श्रोत्रं तथा खानि त्रयमाकाशसंभवम्। वायोः स्पर्शस्तथा चेष्टा त्वक्चैव त्रितयं स्मृतम्।। | 12-192-16a 12-192-16b |
रूपं चक्षुस्तथा पाकस्त्रिविधं तेज उच्यते। रसः क्लेदश्च जिह्वा च त्रयो जलगुणाः स्मृताः।। | 12-192-17a 12-192-17b |
घ्रेयं घ्राणं शरीरं च एते भूमिगुणास्त्रयः। महाभूतानि पञ्चैव षष्ठं च मन उच्यते।। | 12-192-18a 12-192-18b |
इन्द्रियाणि मनश्चैव विज्ञानान्यस्य भारत। सप्तमी बुद्धिरित्याहुः क्षेत्रज्ञः पुनरष्टमः।। | 12-192-19a 12-192-19b |
चक्षुरालोचनायैव संशयं कुरुते मनः। बुद्धिरध्यवसानाय क्षेत्रज्ञः साक्षिवत्स्थितः।। | 12-192-20a 12-192-20b |
`चिच्छक्त्याधिष्ठिता बुद्धिश्चेतनेत्यभिविश्रुता। चेतनानन्तरो जीवस्तदा वेत्ति च लक्ष्यते।। | 12-192-21a 12-192-21b |
नोत्सृजन्विसृजंश्चैव शरीरं दृश्यते तमः। तस्मिंश्चेतोपलब्धिः स्यात्तमो वा सारयन्त्युत।। | 12-192-22a 12-192-22b |
ऊर्ध्वं पादतलाभ्यां यदर्वाक्चोर्ध्वं च पश्यति। एतेन सर्वमेवेदं बिद्ध्यभिव्याप्तमन्तरम्।। | 12-192-23a 12-192-23b |
पुरुषैरिन्द्रियाणीह विजेतव्यानि कृत्स्नशः। तमो रजश्च सत्वं च तेऽपि भावास्तदाश्रिताः।। | 12-192-24a 12-192-24b |
एतां बुद्ध्वा नरो बुद्ध्या भूतानामागतिं गतिम्। समवेक्ष्य शनैश्चैव लभते शममुत्तमम्।। | 12-192-25a 12-192-25b |
गुणैर्नेनीयते बुद्धिर्बुद्धिरेवेन्द्रियाण्यपि। मनःषष्ठानि सर्वाणि बुद्ध्यभावे कुतो गुणाः।। | 12-192-26a 12-192-26b |
इति तन्मयमेवैतत्सर्वं स्थावरजङ्गमम्। प्रलीयते चोद्भवति तस्मान्निर्दिश्यते तथा।। | 12-192-27a 12-192-27b |
येन पश्यति तच्चक्षुः शृणोति श्रोत्रमुच्यते। जिघ्रति घ्राणमित्याहू रसं जानाति जिह्वया।। | 12-192-28a 12-192-28b |
त्वचा स्पर्शयते स्पर्शं बुद्धिर्विक्रियतेऽसकृत्। येन संकल्पयत्यर्थं किंचिद्भवति तन्मनः।। | 12-192-29a 12-192-29b |
अधिष्ठानानि बुद्धेर्हि पृथगर्थानि पञ्चधा। पञ्चेन्द्रियाणि यान्याहुस्तान्यदृश्योऽधितिष्ठति।। | 12-192-30a 12-192-30b |
पुरुषाधिष्ठिता बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते। कदाचिल्लभते प्रीतिं कदाचिदनुशोचति।। | 12-192-31a 12-192-31b |
न सुखेन न दुःखेन कदाचिदपि वर्तते। एवं नराणां मनसि त्रिषु भावेष्ववस्थिता।। | 12-192-32a 12-192-32b |
सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेतानतिवर्तते। सरितां सागरो भर्ता महावेलामिवोर्मिमान्।। | 12-192-33a 12-192-33b |
अविभागगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते। प्रवर्तमानं तु रजस्तद्भावमनुवर्तते।। | 12-192-34a 12-192-34b |
इन्द्रियाणि हि सर्वाणि प्रवर्तयति सा तदा। ततः सत्वं तमो भावः प्रातियोगात्प्रवर्तते।। | 12-192-35a 12-192-35b |
प्रीतिः सत्वं रजः शोकस्तमो मोहस्तु ते त्रयः। येये च भावा लोकेऽस्मिन्सर्वेष्वेतेषु वै त्रिषु।। | 12-192-36a 12-192-36b |
इति बुद्धिगतिः सर्वा व्याख्याता तव भारत। इन्द्रियाणि च सर्वाणि विजेतव्यानि धीमता।। | 12-192-37a 12-192-37b |
सत्वं रजस्तमश्चैव प्राणिनां संश्रिताः सदा। त्रिविधा वेदना चैव सर्वसत्वेषु दृश्यते।। | 12-192-38a 12-192-38b |
सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति भारत। सुखस्पर्शः सत्त्वगुणो दुःखस्पर्शो रजोगुणः। तमोगुणेन संयुक्तौ भवतो व्यावहारिकौ।। | 12-192-39a 12-192-39b 12-192-39c |
तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्। वर्तते सात्विको भाव इत्युपेक्षेत तत्तथा।। | 12-192-40a 12-192-40b |
अथ यद्दुःखसंयुक्तमप्रीतिकरमात्मनः। प्रवृत्तं रज इत्येव तन्न संरभ्य चिन्तयेत्।। | 12-192-41a 12-192-41b |
अथ यन्मोहसंयुक्तमव्यक्तविषयं भवेत्। अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्। | 12-192-42a 12-192-42b |
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता। कथंचिदभिवर्तन्त इत्येते सात्विका गुणा।। | 12-192-43a 12-192-43b |
अतुष्टिः परितापश्च शोको लोभस्तथाऽक्षमा। लिङ्गानि रजसस्तानि दृश्यन्ते हेत्वहेतुभिः।। | 12-192-44a 12-192-44b |
अभिमानस्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतन्द्रिता। कथंचिदभिवर्तन्ते विविधास्तामसा गुणाः।। | 12-192-45a 12-192-45b |
दूरगं बहुधागामि प्रार्थनासंशयात्मकम्। मनः सुनियतं यस्य स सुखी प्रेत्य चेह च।। | 12-192-46a 12-192-46b |
सत्वक्षेत्रज्ञयोरेतदन्तरं पश्य सूक्ष्मयोः। सृजते तु गुणानेक एको न सृजते गुणान्।। | 12-192-47a 12-192-47b |
मशकोदुम्बरौ वाऽपि संप्रयुक्तौ यथा सदा। अन्योन्यमेतौ स्यातां च संप्रयोगस्तथा तयोः।। | 12-192-48a 12-192-48b |
पृथग्भूतौ प्रकृत्या तौ संप्रयुक्तौ च सर्वदा। यथा मत्स्यो जलं चैव संप्रयुक्तौ तथैव तौ।। | 12-192-49a 12-192-49b |
न गुणा विदुरात्मानं स गुणान्वेति सर्वशः। परिद्रष्टा गुणानां स संसृष्टान्मन्यते तथा।। | 12-192-50a 12-192-50b |
इन्द्रियैस्तु प्रदीपार्थं कुरुते बुद्धिसप्तमैः। निर्विचेष्टैरजानद्भिः परमात्मा प्रदीपवत्।। | 12-192-51a 12-192-51b |
सृजते हि गुणान्सत्वं क्षेत्रज्ञः परिपश्यति। संप्रयोगस्तयोरेष सत्वक्षेत्रज्ञयोर्ध्रुवः।। | 12-192-52a 12-192-52b |
आश्रयो नास्ति सत्वस्य क्षेत्रज्ञस्य च कश्चन। सत्वं मनः संसृजते न गुणान्वै कदाचन।। | 12-192-53a 12-192-53b |
रश्मीस्तेषां स मनसा यदा सम्यङ्गियच्छति। तदा प्रकाशतेऽस्यात्मा घटे दीपो ज्वलन्निव।। | 12-192-54a 12-192-54b |
त्यक्त्वा यः प्राकृतं कर्म नित्यमात्मरतिर्मुनिः। सर्वभूतात्मभूस्तस्मात्स गच्छेदुत्तमां गतिम्।। | 12-192-55a 12-192-55b |
यथा वारिचरः पक्षी सलिलेन न लिप्यते। एवमेव कृतप्रज्ञो भूतेषु परिवर्तते।। | 12-192-56a 12-192-56b |
एवं स्वभावमेवैतत्स्वबुद्ध्या विहरेन्नरः। अशोचन्नप्रहृष्यंश्च चरेद्विगतमत्सरः।। | 12-192-57a 12-192-57b |
स्वभावसिद्ध्या युक्तस्तु स नित्यं सृजत गुणान्। ऊर्णनाभिर्यथा सूत्रं विज्ञेयास्तन्तुवद्गुणाः।। | 12-192-58a 12-192-58b |
प्रध्वस्ता न निवर्न्तते निवृत्तिर्नोपलभ्यते। प्रत्यक्षेण परोक्षं तदनुमानेन सिध्यति।। | 12-192-59a 12-192-59b |
एवमेकेऽध्यवस्यन्ति निवृत्तिरिति चापरे। उभयं संप्रधार्यैतद्व्यवस्येत यथामति।। | 12-192-60a 12-192-60b |
इतीमं हृदयग्रत्थिं बुद्धिभेदमयं दृढम्। विमुच्य सुखमासीत न शोचेच्छिन्नसंशयः।। | 12-192-61a 12-192-61b |
मलिनाः प्राप्नुयुः शुद्धिं यथा पूर्णां नदीं नराः। अवगाह्य सुविद्वांसो विद्धि ज्ञानमिदं तथा।। | 12-192-62a 12-192-62b |
महानद्या हि पारज्ञस्तप्यते न तदन्यथा। न तु तप्यति तत्त्वज्ञः फले ज्ञाते तरत्युत।। | 12-192-63a 12-192-63b |
एवं ये विदुराध्यात्मं केवलं ज्ञानमुत्तमम्।। | 12-192-64a |
एतां बुद्धा नरः सर्वां भूतानामागतिं गतिम्। अवेक्ष्य च शनैर्बुद्ध्या लभते शममुत्तमम्।। | 12-192-65a 12-192-65b |
त्रिवर्गो यस्य विदितः प्रेक्ष्य तं स विमुच्यते। अन्वीक्ष्य मनसा युक्तस्तत्त्वदर्शी निरुत्सुकः।। | 12-192-66a 12-192-66b |
न चात्मा शक्यते द्रष्टुमिन्द्रियेषु विभागशः। तत्रतत्र विसृष्टेषु दुर्वार्येष्वकृतात्मभिः।। | 12-192-67a 12-192-67b |
एतद्बुद्धा भवेद्बुद्धः किमन्यद्बुद्धिलक्षणम्। प्रतिगृह्य च निह्नोति ह्यन्यथा च प्रदृश्यते।। | 12-192-68a 12-192-68b |
न सर्पति च यं प्राहुः सर्वत्र प्रतिहन्यते। धूमेन चाप्रसन्नोऽग्निर्यथाऽर्कं न प्रवर्तयेत्।। | 12-192-69a 12-192-69b |
धिष्ण्याधिपे प्रसन्ने तु स्थितिमेतां निरीक्षते। अतिक्षूराच्च सूक्ष्मत्वात्प्रस्थानं न प्रकाशते।। | 12-192-70a 12-192-70b |
प्रपद्य तच्छ्रुताह्नानि चिन्मयं स्वीकृतं विना। विज्ञाय तद्धि मन्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः।। | 12-192-71a 12-192-71b |
न भवति विदुषां ततो भयं यदविदुषां सुमहद्भयं भवेत्। न हि गतिरधिकास्ति कस्यचि त्सति हि गुणे प्रवदन्त्यतुल्यताम्।। | 12-192-72a 12-192-72b 12-192-72c 12-192-72d |
यः करोत्यनभिसन्धिपूर्वकं तच्च निर्णुदति यत्पुरा कृतम्। नाप्रियं तदुभयं कुतः प्रियं तस्य तज्जनयतीह सर्वतः।। | 12-192-73a 12-192-73b 12-192-73c 12-192-73d |
ये विदुस्तदुभयं पदं सताम्।। | 12-192-74f |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्विनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 192।। |
12-192-47 क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेतदिति ध. पाठः।। 12-192-61 बुद्धिमोहमयं दृढमिति थ. ध. पाठः।। 12-192-63 पारज्ञस्तप्यते न चरन्यथेति ध. पाठः। पारज्ञास्तरन्ते न तदन्यथेति ट.थ. पाठः।।
शांतिपर्व-191 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-193 |