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महाभारतम्-12-शांतिपर्व-192

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  375. 375

भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रत्यध्यात्मनिरूपणम्।। 1।।

युधिष्ठिर उवाच। 12-192-1x
अध्यात्मं नाम यदिदं पुरुषस्येह चिन्त्यते।
यदध्यात्मं यथा चैतत्तन्मे ब्रूहि पितामह।।
12-192-1a
12-192-1b
कुतः सृष्टमिदं सर्वं ब्रह्मन्स्थावरजङ्गमम्।
प्रलये च कमभ्येति तन्मे वक्तुमिहार्हसि।।
12-192-2a
12-192-2b
भीष्म उवाच। 12-192-3x
अध्यात्ममिति मां पार्थ यदेतदनुपृच्छसि।
तद्व्याख्यास्यामि ते तात श्रेयस्करतमं शुभम्।।
12-192-3a
12-192-3b
[सृष्टिप्रलयसंयुक्तमाचार्यैः परिदर्शितम्।]
यज्ज्ञात्वा पुरुषो लेके प्रीतिं सौख्यं च विन्दति।
फललाभश्च तस्य स्यात्सर्वभूतहितं च तत्।।
12-192-4a
12-192-4b
12-192-4c
`आत्मानममलं राजन्नावृत्यैवं व्यवस्थितम्।
तस्मिन्प्रकाशते नित्यं तमः सोमो यथैव तत्।।
12-192-5a
12-192-5b
तद्विद्वान्नष्टयाप्मैष ब्रह्मभूयाय कल्पते।
अण्डावरणभूतानां पर्यन्तं हि यथा तमः।।'
12-192-6a
12-192-6b
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्।
महाभूतानि भूतानां सर्वेषां प्रभवाप्ययौ।।
12-192-7a
12-192-7b
यतः सृष्टानि तत्रैव तानि यान्ति पुनःपुनः।
महाभूतानि भूतेभ्यः सागरस्योर्मयो यथा।।
12-192-8a
12-192-8b
प्रसार्य च यथाङ्गानि कूर्मः संहरते पुनः।
तद्वद्भूतानि भूतात्मा सृष्ट्वा संहरते पुनः।।
12-192-9a
12-192-9b
`स तेषां गुणसंघातः शरीरे भरतर्षभ।
सततं प्रविलीयन्ते गुणास्ते प्रभवन्ति च।।
12-192-10a
12-192-10b
यद्विना नैव शृणुते न पश्यति न दीप्यते।
यदधीनं यतस्तस्मादध्यात्ममिति कथ्यते।।
12-192-11a
12-192-11b
ज्ञानं तदेकरूपाख्यं नानाप्रज्ञान्वितं तदा।
न तेवाचाऽनुरूपं स्याद्यया रासविवर्जितम्।।
12-192-12a
12-192-12b
आकाशात्खलु याज्येषु भवन्ति सुमहागुणाः।
इति तन्मयमेवैतत्सर्वं स्थावरजङ्गमम्।
12-192-13a
12-192-13b
प्रलये च तमभ्येति तस्मादुत्सृज्यते पुनः।
महाभूतेषु भूतात्मा सृष्ट्वा संहरते पुनः।।'
12-192-14a
12-192-14b
महाभूतानि पञ्चैव सर्वभूतेषु भूतकृत्।
अकरोत्तेषु वैषम्य तत्तु जीवो न पश्यति।।
12-192-15a
12-192-15b
शब्दः श्रोत्रं तथा खानि त्रयमाकाशसंभवम्।
वायोः स्पर्शस्तथा चेष्टा त्वक्चैव त्रितयं स्मृतम्।।
12-192-16a
12-192-16b
रूपं चक्षुस्तथा पाकस्त्रिविधं तेज उच्यते।
रसः क्लेदश्च जिह्वा च त्रयो जलगुणाः स्मृताः।।
12-192-17a
12-192-17b
घ्रेयं घ्राणं शरीरं च एते भूमिगुणास्त्रयः।
महाभूतानि पञ्चैव षष्ठं च मन उच्यते।।
12-192-18a
12-192-18b
इन्द्रियाणि मनश्चैव विज्ञानान्यस्य भारत।
सप्तमी बुद्धिरित्याहुः क्षेत्रज्ञः पुनरष्टमः।।
12-192-19a
12-192-19b
चक्षुरालोचनायैव संशयं कुरुते मनः।
बुद्धिरध्यवसानाय क्षेत्रज्ञः साक्षिवत्स्थितः।।
12-192-20a
12-192-20b
`चिच्छक्त्याधिष्ठिता बुद्धिश्चेतनेत्यभिविश्रुता।
चेतनानन्तरो जीवस्तदा वेत्ति च लक्ष्यते।।
12-192-21a
12-192-21b
नोत्सृजन्विसृजंश्चैव शरीरं दृश्यते तमः।
तस्मिंश्चेतोपलब्धिः स्यात्तमो वा सारयन्त्युत।।
12-192-22a
12-192-22b
ऊर्ध्वं पादतलाभ्यां यदर्वाक्चोर्ध्वं च पश्यति।
एतेन सर्वमेवेदं बिद्ध्यभिव्याप्तमन्तरम्।।
12-192-23a
12-192-23b
पुरुषैरिन्द्रियाणीह विजेतव्यानि कृत्स्नशः।
तमो रजश्च सत्वं च तेऽपि भावास्तदाश्रिताः।।
12-192-24a
12-192-24b
एतां बुद्ध्वा नरो बुद्ध्या भूतानामागतिं गतिम्।
समवेक्ष्य शनैश्चैव लभते शममुत्तमम्।।
12-192-25a
12-192-25b
गुणैर्नेनीयते बुद्धिर्बुद्धिरेवेन्द्रियाण्यपि।
मनःषष्ठानि सर्वाणि बुद्ध्यभावे कुतो गुणाः।।
12-192-26a
12-192-26b
इति तन्मयमेवैतत्सर्वं स्थावरजङ्गमम्।
प्रलीयते चोद्भवति तस्मान्निर्दिश्यते तथा।।
12-192-27a
12-192-27b
येन पश्यति तच्चक्षुः शृणोति श्रोत्रमुच्यते।
जिघ्रति घ्राणमित्याहू रसं जानाति जिह्वया।।
12-192-28a
12-192-28b
त्वचा स्पर्शयते स्पर्शं बुद्धिर्विक्रियतेऽसकृत्।
येन संकल्पयत्यर्थं किंचिद्भवति तन्मनः।।
12-192-29a
12-192-29b
अधिष्ठानानि बुद्धेर्हि पृथगर्थानि पञ्चधा।
पञ्चेन्द्रियाणि यान्याहुस्तान्यदृश्योऽधितिष्ठति।।
12-192-30a
12-192-30b
पुरुषाधिष्ठिता बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते।
कदाचिल्लभते प्रीतिं कदाचिदनुशोचति।।
12-192-31a
12-192-31b
न सुखेन न दुःखेन कदाचिदपि वर्तते।
एवं नराणां मनसि त्रिषु भावेष्ववस्थिता।।
12-192-32a
12-192-32b
सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेतानतिवर्तते।
सरितां सागरो भर्ता महावेलामिवोर्मिमान्।।
12-192-33a
12-192-33b
अविभागगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते।
प्रवर्तमानं तु रजस्तद्भावमनुवर्तते।।
12-192-34a
12-192-34b
इन्द्रियाणि हि सर्वाणि प्रवर्तयति सा तदा।
ततः सत्वं तमो भावः प्रातियोगात्प्रवर्तते।।
12-192-35a
12-192-35b
प्रीतिः सत्वं रजः शोकस्तमो मोहस्तु ते त्रयः।
येये च भावा लोकेऽस्मिन्सर्वेष्वेतेषु वै त्रिषु।।
12-192-36a
12-192-36b
इति बुद्धिगतिः सर्वा व्याख्याता तव भारत।
इन्द्रियाणि च सर्वाणि विजेतव्यानि धीमता।।
12-192-37a
12-192-37b
सत्वं रजस्तमश्चैव प्राणिनां संश्रिताः सदा।
त्रिविधा वेदना चैव सर्वसत्वेषु दृश्यते।।
12-192-38a
12-192-38b
सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति भारत।
सुखस्पर्शः सत्त्वगुणो दुःखस्पर्शो रजोगुणः।
तमोगुणेन संयुक्तौ भवतो व्यावहारिकौ।।
12-192-39a
12-192-39b
12-192-39c
तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
वर्तते सात्विको भाव इत्युपेक्षेत तत्तथा।।
12-192-40a
12-192-40b
अथ यद्दुःखसंयुक्तमप्रीतिकरमात्मनः।
प्रवृत्तं रज इत्येव तन्न संरभ्य चिन्तयेत्।।
12-192-41a
12-192-41b
अथ यन्मोहसंयुक्तमव्यक्तविषयं भवेत्।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्।
12-192-42a
12-192-42b
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता।
कथंचिदभिवर्तन्त इत्येते सात्विका गुणा।।
12-192-43a
12-192-43b
अतुष्टिः परितापश्च शोको लोभस्तथाऽक्षमा।
लिङ्गानि रजसस्तानि दृश्यन्ते हेत्वहेतुभिः।।
12-192-44a
12-192-44b
अभिमानस्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतन्द्रिता।
कथंचिदभिवर्तन्ते विविधास्तामसा गुणाः।।
12-192-45a
12-192-45b
दूरगं बहुधागामि प्रार्थनासंशयात्मकम्।
मनः सुनियतं यस्य स सुखी प्रेत्य चेह च।।
12-192-46a
12-192-46b
सत्वक्षेत्रज्ञयोरेतदन्तरं पश्य सूक्ष्मयोः।
सृजते तु गुणानेक एको न सृजते गुणान्।।
12-192-47a
12-192-47b
मशकोदुम्बरौ वाऽपि संप्रयुक्तौ यथा सदा।
अन्योन्यमेतौ स्यातां च संप्रयोगस्तथा तयोः।।
12-192-48a
12-192-48b
पृथग्भूतौ प्रकृत्या तौ संप्रयुक्तौ च सर्वदा।
यथा मत्स्यो जलं चैव संप्रयुक्तौ तथैव तौ।।
12-192-49a
12-192-49b
न गुणा विदुरात्मानं स गुणान्वेति सर्वशः।
परिद्रष्टा गुणानां स संसृष्टान्मन्यते तथा।।
12-192-50a
12-192-50b
इन्द्रियैस्तु प्रदीपार्थं कुरुते बुद्धिसप्तमैः।
निर्विचेष्टैरजानद्भिः परमात्मा प्रदीपवत्।।
12-192-51a
12-192-51b
सृजते हि गुणान्सत्वं क्षेत्रज्ञः परिपश्यति।
संप्रयोगस्तयोरेष सत्वक्षेत्रज्ञयोर्ध्रुवः।।
12-192-52a
12-192-52b
आश्रयो नास्ति सत्वस्य क्षेत्रज्ञस्य च कश्चन।
सत्वं मनः संसृजते न गुणान्वै कदाचन।।
12-192-53a
12-192-53b
रश्मीस्तेषां स मनसा यदा सम्यङ्गियच्छति।
तदा प्रकाशतेऽस्यात्मा घटे दीपो ज्वलन्निव।।
12-192-54a
12-192-54b
त्यक्त्वा यः प्राकृतं कर्म नित्यमात्मरतिर्मुनिः।
सर्वभूतात्मभूस्तस्मात्स गच्छेदुत्तमां गतिम्।।
12-192-55a
12-192-55b
यथा वारिचरः पक्षी सलिलेन न लिप्यते।
एवमेव कृतप्रज्ञो भूतेषु परिवर्तते।।
12-192-56a
12-192-56b
एवं स्वभावमेवैतत्स्वबुद्ध्या विहरेन्नरः।
अशोचन्नप्रहृष्यंश्च चरेद्विगतमत्सरः।।
12-192-57a
12-192-57b
स्वभावसिद्ध्या युक्तस्तु स नित्यं सृजत गुणान्।
ऊर्णनाभिर्यथा सूत्रं विज्ञेयास्तन्तुवद्गुणाः।।
12-192-58a
12-192-58b
प्रध्वस्ता न निवर्न्तते निवृत्तिर्नोपलभ्यते।
प्रत्यक्षेण परोक्षं तदनुमानेन सिध्यति।।
12-192-59a
12-192-59b
एवमेकेऽध्यवस्यन्ति निवृत्तिरिति चापरे।
उभयं संप्रधार्यैतद्व्यवस्येत यथामति।।
12-192-60a
12-192-60b
इतीमं हृदयग्रत्थिं बुद्धिभेदमयं दृढम्।
विमुच्य सुखमासीत न शोचेच्छिन्नसंशयः।।
12-192-61a
12-192-61b
मलिनाः प्राप्नुयुः शुद्धिं यथा पूर्णां नदीं नराः।
अवगाह्य सुविद्वांसो विद्धि ज्ञानमिदं तथा।।
12-192-62a
12-192-62b
महानद्या हि पारज्ञस्तप्यते न तदन्यथा।
न तु तप्यति तत्त्वज्ञः फले ज्ञाते तरत्युत।।
12-192-63a
12-192-63b
एवं ये विदुराध्यात्मं केवलं ज्ञानमुत्तमम्।। 12-192-64a
एतां बुद्धा नरः सर्वां भूतानामागतिं गतिम्।
अवेक्ष्य च शनैर्बुद्ध्या लभते शममुत्तमम्।।
12-192-65a
12-192-65b
त्रिवर्गो यस्य विदितः प्रेक्ष्य तं स विमुच्यते।
अन्वीक्ष्य मनसा युक्तस्तत्त्वदर्शी निरुत्सुकः।।
12-192-66a
12-192-66b
न चात्मा शक्यते द्रष्टुमिन्द्रियेषु विभागशः।
तत्रतत्र विसृष्टेषु दुर्वार्येष्वकृतात्मभिः।।
12-192-67a
12-192-67b
एतद्बुद्धा भवेद्बुद्धः किमन्यद्बुद्धिलक्षणम्।
प्रतिगृह्य च निह्नोति ह्यन्यथा च प्रदृश्यते।।
12-192-68a
12-192-68b
न सर्पति च यं प्राहुः सर्वत्र प्रतिहन्यते।
धूमेन चाप्रसन्नोऽग्निर्यथाऽर्कं न प्रवर्तयेत्।।
12-192-69a
12-192-69b
धिष्ण्याधिपे प्रसन्ने तु स्थितिमेतां निरीक्षते।
अतिक्षूराच्च सूक्ष्मत्वात्प्रस्थानं न प्रकाशते।।
12-192-70a
12-192-70b
प्रपद्य तच्छ्रुताह्नानि चिन्मयं स्वीकृतं विना।
विज्ञाय तद्धि मन्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः।।
12-192-71a
12-192-71b
न भवति विदुषां ततो भयं
यदविदुषां सुमहद्भयं भवेत्।
न हि गतिरधिकास्ति कस्यचि
त्सति हि गुणे प्रवदन्त्यतुल्यताम्।।
12-192-72a
12-192-72b
12-192-72c
12-192-72d
यः करोत्यनभिसन्धिपूर्वकं
तच्च निर्णुदति यत्पुरा कृतम्।
नाप्रियं तदुभयं कुतः प्रियं
तस्य तज्जनयतीह सर्वतः।।
12-192-73a
12-192-73b
12-192-73c
12-192-73d
ये विदुस्तदुभयं पदं सताम्।। 12-192-74f
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि
मोक्षधर्मपर्वणि द्विनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 192।।

12-192-47 क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेतदिति ध. पाठः।। 12-192-61 बुद्धिमोहमयं दृढमिति थ. ध. पाठः।। 12-192-63 पारज्ञस्तप्यते न चरन्यथेति ध. पाठः। पारज्ञास्तरन्ते न तदन्यथेति ट.थ. पाठः।।

शांतिपर्व-191 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शांतिपर्व-193