महाभारतम्-12-शांतिपर्व-191
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति सदाचारनिरूपणम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-191-1x |
आचारस्य विधिं तात प्रोच्यमानं त्वयाऽनघ। श्रोतुमिच्छामि धर्मज्ञ सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः।। | 12-191-1a 12-191-1b |
भीष्म उवाच। | 12-191-2x |
दुराचारा दुर्विचेष्टा दुष्प्रज्ञाः प्रियसाहसाः। असन्तस्त्वभिविख्याताः सन्तश्चाचारलक्षणाः।। | 12-191-2a 12-191-2b |
पुरीषं यदि वा मूत्रं ये न कुवन्ति मानवाः। राजमार्गे गवां मध्ये धान्यमध्ये शिवालये। अग्न्यगारे तथा तीरे ये न कुर्वन्ति ते शुभाः।। | 12-191-3a 12-191-3b 12-191-3c |
शौचमावश्यकं कृत्वा देवतानां च तर्पणम्। धर्ममाहुर्मनुष्याणामुपस्पृश्य नदीं तरेत्।। | 12-191-4a 12-191-4b |
सूर्यं सदोपतिष्ठेन न स्वपेद्भास्करोदये। सायंप्रातर्जपेत्सन्ध्यां तिष्ठन्पूर्वां तथेतराम्।। | 12-191-5a 12-191-5b |
पञ्चार्द्रो भोजनं भुञ्ज्यात्प्राद्भुखो मौनमास्थितः। न निन्द्यादन्नभक्ष्यांश्च स्वादुस्वादु च भक्षयेत्।। | 12-191-6a 12-191-6b |
नार्द्रपाणिः समुत्तिष्ठेन्नार्द्रपादः स्वपेन्निशि। देवर्षिर्नारदः प्राह एतदाचारलक्षणम्।। | 12-191-7a 12-191-7b |
शोचिष्केशमनड्वाहं देवगोष्ठं चतुष्पथम्। ब्राह्मणं धार्मिकं चैव नित्यं कुर्यात्प्रदक्षिणम्।। | 12-191-8a 12-191-8b |
अतिथीनां च सर्वेषां प्रेष्याणां स्वजनस्य च। सामात्यं भोजनं भृत्यैः पुरुषस्य प्रशस्यते।। | 12-191-9a 12-191-9b |
सायंप्रातर्मनुष्याणामशनं वेदनिर्मितम्। नान्तरा भोजनं दृष्टमुपवासी तथा भवेत्।। | 12-191-10a 12-191-10b |
होमकाले तथ्ना जुह्वन्नृतुकाले तथा व्रजन्। अनन्यस्त्रीजनः प्राज्ञो ब्रह्मचारी तथा भवेत्।। | 12-191-11a 12-191-11b |
अमृतं ब्राह्मणोच्छिष्टं जनन्या हृदयं कृतम्। तज्जनाः पर्युपासन्ते सत्यं सन्तः समासते।। | 12-191-12a 12-191-12b |
लोष्टमदीं तृणच्छेदी नखखादी तु यो नरः। नित्योच्छिष्टः संकसुको नेहायुर्विन्दते महत्।। | 12-191-13a 12-191-13b |
यजुषा संस्कृतं मांसं निवृत्तो मांसभक्षणात्। भक्षयेन्न वृथामांसं पृष्ठमांसं च वर्जयेत्।। | 12-191-14a 12-191-14b |
स्वदेशे परदेशे वा अतिर्थि नोपवासयेत्। काम्यकर्मफलं लब्ध्वा गुरूणामुपपादयेत्।। | 12-191-15a 12-191-15b |
गुरूणामासनं देयं कर्तव्यं चाभिवादनम्। गुरूनभ्यर्च्य युज्येत आयुषा यशसा श्रिया।। | 12-191-16a 12-191-16b |
नेक्षेतादित्यमुद्यन्तं न च नग्नां परस्त्रियम्। मैथुनं सततं धर्म्यं गुह्ये चैव समाचरेत्।। | 12-191-17a 12-191-17b |
तीर्थानां हृदयं तीर्थं शुचीनां हृदयं शुचिः। सर्वमार्यकृतं धर्म्यं वालसंस्पर्शनानि च।। | 12-191-18a 12-191-18b |
दर्शनेदर्शने नित्यं सुखप्रश्नमुदाहरेत्। सायं प्रातश्च विप्राणां प्रदिष्टमभिवादनम्।। | 12-191-19a 12-191-19b |
देवगोष्ठे गवां मध्ये ब्राह्मणानां क्रियापथे। स्वाध्याये भोजने चैव दक्षिणं पाणिमुद्धरेत्।। | 12-191-20a 12-191-20b |
सायं प्रातश्च विप्राणां पूजनं च यथाविधि। पण्यानां शोभते पण्यं कृषीणामृद्ध्यतां कृषिः। बहुकारं च सस्यानां वाह्ये वाहो गवां तथा।। | 12-191-21a 12-191-21b 12-191-21c |
संपन्नं भोजने नित्यं पानीये तर्पणं तथा। सुशृतं पायसे ब्रूयाद्यवाग्वां कृसरे तथा।। | 12-191-22a 12-191-22b |
श्मश्रुकर्मणि संप्राप्ते क्षुते स्नानेऽथ भोजने। व्याधितानां च सर्वेषामायुष्ममभिनन्दनम्।। | 12-191-23a 12-191-23b |
प्रत्यादित्यं न मेहेत न पश्येदात्मनः शकृत्। सुतैः स्त्रिया च शयनं सह भोज्यं च वर्जयेत्।। | 12-191-24a 12-191-24b |
त्वंकारं नामधेयं च ज्येष्ठानां परिवर्जयेत्। अवराणां समानानामुभयं नैव दुष्यति।। | 12-191-25a 12-191-25b |
हृदयं पापवृत्तानां पापमाख्याति वैकृतम्। ज्ञानपूर्वं विनश्यन्ति गूहमाना महाजने।। | 12-191-26a 12-191-26b |
ज्ञानपूर्वकृतं पापं छादयन्त्यबहुश्रुताः। नैनं मनुष्याः पश्यन्ति पश्यन्त्येव दिवौकसः।। | 12-191-27a 12-191-27b |
पापेनापिहितं पापं पापमेवानुवर्तते। धर्मेणापिहितो धर्मो धर्ममेवानुवर्तते। धार्मिकेण कृतो धर्मो धर्ममेवानुवर्तते।। | 12-191-28a 12-191-28b 12-191-28c |
पापं कृतं न स्मरतीह मूढो विवर्तमानस्य तदेति कर्तुः। राहुर्यथा चन्द्रमुपैति चापि तथाऽबुधं पापमुपैति कर्म।। | 12-191-29a 12-191-29b 12-191-29c 12-191-29d |
आशया संचितं द्रव्यं दुःखेनैवोपभुज्यते। तद्बुधा न प्रशंसन्ति मरणं न प्रतीक्षते।। | 12-191-30a 12-191-30b |
मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणः। तस्मात्सर्वेषु भूतेषु मनसा शिवमाचरेत्।। | 12-191-31a 12-191-31b |
एक एव चरेद्धर्मं नास्ति धर्मे सहायता। केवलं विधिमासाद्य सहायः किं करिष्यति।। | 12-191-32a 12-191-32b |
धर्मो योनिर्मनुष्याणां देवानाममृतं दिवि। प्रेत्यभावे सुखं धर्माच्न्छश्वत्तैरुपभुज्यते।। | 12-191-33a 12-191-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 191।। |
12-191-2 आचारो लक्षणं ज्ञापकं येषाम्।। 12-191-4 शौचं कृत्वा उपस्पृश्य आचम्य नदीं तरेदवगाहेत्। ततस्तर्पणमिति संबन्धः।। 12-191-5 जपेत्सावित्रीम्। सन्ध्यामुपलक्ष्य तिष्ठन्नुपतिष्ठेत।। 12-191-6 पादौ पाणी सुखं चेति पञ्च आर्द्राणि यस्य। भोजनमन्नम्।। 12-191-8 शुचिंदेशमनड्वाहं इति धार्मिकं चैत्यं इति च झ. पाठः।। 12-191-9 सामान्यं साधारणम्। पाकभेदं न कुर्यादित्यर्थः।। 12-191-10 तथा कुर्वन् यथाकालभोजी उपवासफलं लभेतेत्यर्थः।। 12-191-12 ब्राह्मणभुक्तावशिष्टं मातुर्हृदयमिव हितकरं कृतं धात्रा तद्ये उपासते ते सत्यं ब्रह्म समासते आसादयन्ति।। 12-191-13 संकसुकः कामलोभादिवशः।। 12-191-14 वृथामांसमसंस्कृतमांसम्।। 12-191-17 धर्म्यं ऋतुकालिकम्। गुह्ये रहसि।। 12-191-18 हृदयं रहस्यम्। तीर्थं गुरुः। शुचिरग्निः। आर्यकृतं शिष्टाचरितम्। वालं गोपुच्छम्। सर्वमार्यकृतं चौक्ष्यमिति झ. पाठः।। 12-191-19 प्रदिष्टं कर्तव्यत्वेनोपदिष्टम्।। 12-191-20 दक्षिणं पाणिमुद्धरेत् यज्ञोपवीती भवेत्।। 12-191-21 विप्राणां पूजनमेवोत्तमं पण्यमुत्तमा कृषिश्च तद्वत् दृष्टफलमित्यर्थः। सस्यानां धान्यानां बहुकारं बहुलीकरणं च तदेव गवामिन्द्रियाणां वाह्ये प्राप्ये। वाहप्रापणम्। दिव्यस्त्र्यन्नपानादीष्टप्राप्तिरपि विप्राणां पूजनमेव पण्यादिवदेष्टव्यमित्यर्थः।। 12-191-22 पूजनप्रकारमाह संपन्नमिति। भोजने दीयमाने संपन्नमिति ब्रूयाद्दाता। सुसंपन्नमिति प्रतिग्रहीता। एवमुत्तरत्र।। 12-191-23 संप्राप्ते कृते सति। विप्राणामभिनन्दनं वन्दनादिना संतोषणं कार्यमिति शेषः।। 12-191-24 प्रत्यादित्यमादित्याभिमुखो न मेहेत न मूत्रमुत्सृजेत्। शकृत्पुरीषम्। पु्तरैस्त्रिया च सुहृदा सह भुक्तं च वर्जयेत् इति ट. पाठः।। 12-191-26 वैकृतं नेत्रादिविकारः। पापं हृदयमाख्याति गूहमानाः पापम्।। 12-191-28 पापं पापिम्। पापं प्रकाशनीयं धर्मस्तु गोपनीय इत्यर्थः।। 12-191-30 मरणं कर्तृ।। 12-191-31 मानसं मनोनिर्वर्त्यम्।।
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