महाभारतम्-12-शांतिपर्व-176
← शांतिपर्व-175 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-176 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-177 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति विरक्तेः सुस्वसाधनतायां प्रमाणतया मङ्किगीताया बोध्यगीतायाश्चानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-176-1x |
ईहमानः समारम्भान्यदि नासादयेद्धनम्। धनतृष्णाभिभूतश्च किं कुर्वन्सुखमाप्नुयात्।। | 12-176-1a 12-176-1b |
भीष्म उवाच। | 12-176-2x |
सर्वसाम्यमनायासः सत्यवाक्यं च भारत। निर्वेदश्चाविधित्सा च यस्य स्यात्स सखी नरः।। | 12-176-2a 12-176-2b |
एतान्येव पदान्याहुः पञ्च वृद्धाः प्रशान्तये। एष स्वर्गश्च धर्मश्च सुखं चानुत्तमं सताम्।। | 12-176-3a 12-176-3b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। निर्वेदान्मङ्किना गीतं तन्निबोध युधिष्ठिर।। | 12-176-4a 12-176-4b |
ईहमानो धनं मङ्किर्भग्नेहश्च पुनः पुनः। केनचिद्धनलेशेन क्रीतवान्दम्यगोयुगम्।। | 12-176-5a 12-176-5b |
सुसंबद्धौ तु तौ दम्यौ दमनायाभिनिःसृतौ। आसीनमुष्ट्रं मध्येन सहसैवाभ्यधावताम्।। | 12-176-6a 12-176-6b |
तयोः संप्राप्तयोरुष्ट्रः स्कन्धदेशममर्पणः। उत्थायोत्क्षिप्य तौ दम्यौ पससार महाजवः।। | 12-176-7a 12-176-7b |
ह्रियमाणौ तु तौ दम्यौ तेनोष्ट्रेण प्रमाथिना। प्रियमाणौ च संप्रेक्ष्य मङ्किस्तत्राब्रवीदिदम्।। | 12-176-8a 12-176-8b |
न जात्वविहितं शक्यं दक्षेणाषीहितुं धनम्। युक्तेन श्रद्धया सम्यगीहां समनुतिष्ठता।। | 12-176-9a 12-176-9b |
पूर्वमर्यैर्विहीनस्य युक्तस्याप्युतिष्ठतः। इमं पश्यत संगत्या मम दैवमुपप्लवम्।। | 12-176-10a 12-176-10b |
उद्यम्योद्यम्य मे दम्यौ विषमेणैव गच्छतः। उत्क्षिप्य काकतालीयमुन्माथेनेव जम्बुकः।। | 12-176-11a 12-176-11b |
मणीवोष्ट्रस्य लम्वेते प्रियौ वत्सतरौ मम। शुद्वं हि दैवमेवेदं हठे नैवास्ति पौरुषम्।। | 12-176-12a 12-176-12b |
यदि वाऽप्युपपद्येत पौरुषं नाम कर्हिचित्। अन्विष्यमाणं तदपि दैवमेवावतिष्ठते।। | 12-176-13a 12-176-13b |
तस्मान्निर्वेद एवेह गन्तव्यः सुखभीप्सता। सुखं स्वपिति निर्विण्णो निराशश्चार्थसाधने।। | 12-176-14a 12-176-14b |
अहो सम्यक्शुकेनोक्तं सर्वतः परिमुच्यता। प्रतिष्ठता महारण्यं जनकस्य निवेशनात्।। | 12-176-15a 12-176-15b |
यः कामानाप्नुयात्सर्वान्यश्चैतान्केवलांस्त्यजेत्। प्रापणात्सर्वकामानां परित्यागो विशिष्यते।। | 12-176-16a 12-176-16b |
नान्तं सर्वविधित्सानां गतपूर्वोऽस्ति कश्चन। शरीरे जीविते चैव तृष्णा मर्त्यस्य वर्धते।। | 12-176-17a 12-176-17b |
निवर्तस्य विधित्साभ्यः शाम्य निर्विद्य कामुक। असकृच्चासि निकृतो न च निर्विद्यसे मनः।। | 12-176-18a 12-176-18b |
यदि नाहं विनाश्यस्ते यद्येवं रमसे मया। मा मां योजय लोभेन वृथाऽत्वं वित्तकामुक।। | 12-176-19a 12-176-19b |
संचितं संचितं द्रव्यं नष्टं तव पुनः पुनः। कदा तां मोक्ष्यसे मूढ धनेहां धनकामुक।। | 12-176-20a 12-176-20b |
अहो नु मम बालिश्यं योऽहं क्रीडनकस्तव। `क्लेशैर्नानाविधैर्नित्यं संयोजयसि निर्घृणः।' किं नैवं जातु पुरुषः परेषां प्रेष्यतामियात्।। | 12-176-21a 12-176-21b 12-176-21c |
न पूर्वे नापरे जातु कामानामन्तमाप्नुवन्। त्यक्त्वा सर्वसमारम्भान्प्रतिबुद्धोऽस्मि जागृमि।। | 12-176-22a 12-176-22b |
नूनं मे हृदयं कामं वज्रसारमयं दृढम्। यदनर्थशताविष्टं शतधा न विदीर्यते।। | 12-176-23a 12-176-23b |
त्यजामि काम त्वां चैव यच्च किंचित्प्रियं तव। तवाहं प्रियमन्विच्छन्नात्मन्युपलभे सुखम्।। | 12-176-24a 12-176-24b |
काम जानामि ते मूलं संकल्पात्किल जायसे। न त्वां संकल्पयिष्यामि समूलो नभविष्यसि।। | 12-176-25a 12-176-25b |
ईहा धनस्य न सुखा लुब्ध्वा चिन्ता च भूयसी। लब्धनाशो यथा मृत्युर्लब्धं भवति वा न वा।। | 12-176-26a 12-176-26b |
परित्यागे न लभते ततो दुःखतरं नु किम्। न च तुष्यति लब्धेन भूय एव च मार्गति।। | 12-176-27a 12-176-27b |
अनुतर्पुल एवार्थः स्वादु गाङ्गभिवोदकम्। मद्विलापनमेततु प्रतिबुद्धोऽस्मि संत्यज।। | 12-176-28a 12-176-28b |
य इमं मामकं देहं भूतग्रामः समाश्रितः। स यात्वितो यथाकामं वसतां वा यथासुखम्।। | 12-176-29a 12-176-29b |
न युष्मास्विह मे प्रीतिः कामलोभानुसारिषु। तस्मादुत्सृज्य वः सर्वान्सत्वमेवाश्रयाम्यहम्।। | 12-176-30a 12-176-30b |
सर्व भूतान्यहं देहे पश्यन्मनसि चात्मनः। योगे बुद्धिं श्रुते सत्वं मनो ब्रह्मणि धारयन्।। | 12-176-31a 12-176-31b |
विहरिष्याम्यनासक्तः सुखी लोकान्निरामयः। यथा मां त्वं पुनर्नैवं दुःखेषु प्रणिधास्यसि।। | 12-176-32a 12-176-32b |
त्वया हि मे प्रणुन्नस्य गतिरन्या न विद्यते। तृष्णा शोकश्रमाणां हि त्वं काम प्रभवः सदा।। | 12-176-33a 12-176-33b |
धननाशेऽधिकं दुःखं मन्ये सर्वमहत्तरम्। ज्ञातयो ह्यवमन्यन्ते मित्राणि च धनाच्च्युतम्।। | 12-176-34a 12-176-34b |
अवज्ञानसहस्रैस्तु दोषाः कष्टतराऽधने। धने सुखकला या तु साऽपि दुःखैर्विधीयते।। | 12-176-35a 12-176-35b |
धनमस्येति पुरुषं पुरो निघ्नन्ति दस्यवः। क्लिश्यन्ति विविधैर्दण्डैर्नित्यमुद्वेजयन्ति च।। | 12-176-36a 12-176-36b |
धनलोलुपता दुःखमिति बुद्धं चिरान्मया। यद्यदालम्बसे कामं तत्तदेवानुरुध्यसे।। | 12-176-37a 12-176-37b |
अतत्त्वज्ञोऽसि बालश्च दुस्तोषोऽपूरणोऽनलः। नैव त्वं वेत्थ सुलभं नैव त्वं वेत्थ दुर्लभम्।। | 12-176-38a 12-176-38b |
पाताल इव दुष्पूरो मां दुःखैर्योक्तुमिच्छसि। नाहमद्य समावेष्टुं शक्यः काम पुनस्त्वया।। | 12-176-39a 12-176-39b |
निर्वेदमहमासाद्य द्रव्यनाशाद्यदृच्छया। निवृत्तिं परमां प्राप्य नाद्य कामान्विचिन्तये।। | 12-176-40a 12-176-40b |
अतिक्लेशान्सहामीह नाहं बुद्ध्याम्यबुद्धिमान्। निकृतो धननाशेन शये सर्वाङ्गविज्वरः।। | 12-176-41a 12-176-41b |
परित्यजामि काम त्वां हित्वा सर्वं मनोगतम्। न त्वं मया पुनः काम नस्योतेनेव रंस्यसे।। | 12-176-42a 12-176-42b |
क्षमिष्ये क्षिपमाणानां न हिंसिष्ये विहिंसितः। द्वेष्यमुक्तः प्रियं वक्ष्याम्यनादृत्य तदप्रियम्।। | 12-176-43a 12-176-43b |
तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं यथालब्धेन वर्तयन्। न सकामं करिष्यामि त्वामहं शत्रुमात्मनः।। | 12-176-44a 12-176-44b |
निर्वेदं निर्वृतिं तृप्तिं शान्तिं सत्यं दमं क्षमाम्। सर्वभूतदयां चैव विद्धि मां शरणागतम्।। | 12-176-45a 12-176-45b |
तस्मात्कामश्च लोभश्च तृष्णा कार्पण्यमेव च। त्यजन्तु मां प्रतिष्ठन्तं सत्वस्थो ह्यस्मि सांप्रतम्।। | 12-176-46a 12-176-46b |
प्रहाय कामं लोभं च क्रोधं पारुष्यमेव च। नाद्य लोभवशं प्राप्तो दुःखं प्राप्स्याम्यनात्मवान्।। | 12-176-47a 12-176-47b |
यद्यस्त्यजति कामानां तत्सुखस्याभिपूर्यते। कामस्य वशगो नित्यं दुःखमेव प्रपद्यते।। | 12-176-48a 12-176-48b |
कामानुबन्धं नुदते यत्किंचित्पुरुषो रजः। कामक्रोधोद्भवं दुःखमह्रीररतिरेव च।। | 12-176-49a 12-176-49b |
एष ब्रह्मप्रतिष्ठोऽहं ग्रीष्मे शीतमिव ह्रदम्। शाम्यामि परिनिर्वामि सुखमासे च केवलम्।। | 12-176-50a 12-176-50b |
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्। तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम्।। | 12-176-51a 12-176-51b |
आत्मना सप्तमं कामं हत्वा शत्रुमिवोत्तमम्। प्राप्यावध्यं ब्रह्मपुरं राजेव च वसाम्यहम्।। | 12-176-52a 12-176-52b |
एतां बुद्धिं समास्थाय मङ्किर्निर्वेदमागतः। सर्वान्कामान्परित्यज्य प्राप्य ब्रह्म महत्सुखम्।। | 12-176-53a 12-176-53b |
दम्यनाशकृते मङ्किरमृतत्वं किलागमत्। अच्छिनत्काममूलं स तेन प्राप परां गतिम्।। | 12-176-54a 12-176-54b |
अत्राप्युदाहरन्तीमं श्लोकं मोक्षोपसंहितम्। गीतं विदेहराजेन जनकेन प्रशाम्यता।। | 12-176-55a 12-176-55b |
अनन्तमिव मे वित्तं यस्य मे नास्ति किंचन। मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन।। | 12-176-56a 12-176-56b |
अत्रैवोदाहरन्तीमं बोध्यस्य पदसंचयम्। निर्वेदं प्रति विन्यस्तं तं निबोध युधिष्ठिर।। | 12-176-57a 12-176-57b |
बोध्यं शान्तमृषिं राजा नाहुषः पर्यपृच्छत। निर्वेदाच्छान्तिमापन्नं शास्त्रप्रज्ञानतर्पितम्।। | 12-176-58a 12-176-58b |
उपदेशं महाप्राज्ञ शमस्योपदिशस्व मे। कां बुद्धिं समनुप्राप्य शान्तश्चरसि निर्वृतः।। | 12-176-59a 12-176-59b |
बोध्य उवाच। | 12-176-60x |
उपदेशेन वर्तामि नानुशास्मीह कंचन। लक्षणं तस्य वक्ष्येऽहं तत्स्वयं परिमृष्यताम्।। | 12-176-60a 12-176-60b |
पिङ्गला कुररः सर्पः सारङ्गान्वेषणं वने। इषुकारः कुमारी च षडेते गुरवो मम।। | 12-176-61a 12-176-61b |
[*भीष्म उवाच। | 12-176-62x |
आशा बलवती राजन्नैराश्यं परमं सुखम्। आशां निराशां कृत्वा तु सुखं स्वपिति पिङ्गला।। | 12-176-62a 12-176-62b |
सामिषं कुररं दृष्ट्वा वध्यमानं निरामिषैः। आमिषस्य परित्यागात्कुररः सुखमेधते।। | 12-176-63a 12-176-63b |
गृहारम्भो हि दुःखाय न सुखाय कदाचन। सर्पः परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते।। | 12-176-64a 12-176-64b |
सुखं जीवन्ति मुनयो भैक्ष्यवृत्तिं समाश्रिताः। अद्रोहणैव भूतानां सारङ्ग इव पक्षिणः।। | 12-176-65a 12-176-65b |
`अल्पेभ्यश्च महद्भ्यश्च शास्त्रेभ्यो मतिमान्नरः। सर्वतः सारमादद्यात्पुष्पेभ्य इव षट्पदः।।' | 12-176-66a 12-176-66b |
इषुकारो नरः कश्चिदिपावासक्तमानसः। समीपेनापि गच्छन्तं राजानं नावबुद्धवान्।। | 12-176-67a 12-176-67b |
बहूनां कलहो नित्यं द्वयोः संकथनं ध्रुवम्। एकाकी विचरिष्यानि कुमारीशङ्खको यथा।।] | 12-176-68a 12-176-68b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि षट्सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 176।। |
12-176-3 पदानि पदनीयान्याश्रयणीयानि। प्रशान्तये मोक्षाय। एष इति विधेयापेक्षे लिङ्गैकत्वे।। 12-176-5 दम्यगोयुगं द्वौ वत्सतरौ। द्वित्वे गोयुगजिति गोयुगच्प्रत्ययः।। 12-176-7 उत्क्षिष्य तुलाभाजनद्वयवदुपरिभूमेर्नीत्वा।। 12-176-9 अविहितं दैवेना नुपस्थापितं ईहितुमेष्टुम्। श्रद्धया फलप्राप्तिनिश्चयेन। ईहां चेष्टां।। 12-176-10 युक्तस्यावहितचित्तस्य। अनुतिष्ठतोऽर्थप्राप्त्युपायान्। संगत्या दम्योष्ट्रसंबन्धेन। दैवं देवेनेश्वरेण निर्मितम्।। 12-176-11 उद्यम्योद्यम्य मोक्षार्थमुद्यमं कृत्वा विषमेण कृच्छ्रेण दम्यौ गच्छतः। काकतालीयं दैवकृतं संगमम्। उन्भाथः कूटयन्त्रम्। उत्पथेनैव धावतः इति झ. पाठः।। 12-176-12 वाशब्द इवार्थे।। 12-176-13 उपपद्येत यदि लोकदृष्टान्तेन पौरुषास्तित्वं युज्येत तर्हि फलव्यभिचारात्तदपि दैवायत्तमेवोपपद्यते न स्वातन्त्र्येणेत्यर्थः।। 12-176-17 विधित्सानां धनाद्यर्थं प्रवृत्तीनाम्। गतपूर्वः पूर्वं गतः प्राप्तो गत पूर्वः।। 12-176-18 कामुकका मादिधर्मवत् हे मनः निर्विद्य वैराग्यं प्राप्यशाम्य शमं गच्छ। निकृतः वञ्चितः प्रवृत्तिनैष्फत्यात्।। 12-176-20 मोक्ष्यसे त्यक्ष्यसे।। 12-176-21 क्रीडनकः क्रीडामृगः। जातु कदाचित्। प्रेष्यतां दास्यम्। कामाभावे कोऽपि कस्यचिदपि न प्रेष्यः स्यादित्यर्थः।। 12-176-22 अन्तं नाप्नुवन् अतो हेतोस्त्यक्त्वा।। 12-176-23 नूनं ते हृदयं कामेति झ. पाठः।। 12-176-24 प्रियं जायादि।। 12-176-25 नभविष्यसि विनशिष्यसि।। 12-176-26 ईहा लिप्सा चेष्टा वा। तदा धनस्य धनायेत्यर्थः। लब्ध्वा चिन्ता नाशभयात्। यथा मृत्युस्तथा दुःखकृत्। श्रमेऽपि फलं संदिग्धम्।। 12-176-27 परित्यागे देहस्य परस्वत्वापादनेऽपि न लभते। मार्गति मृगयते।। 12-176-28 अनुतर्पुलस्तृष्णावृद्धिकृत्। मद्विलापनं मन्नाशः। एतत् तृष्णावृद्ध्याख्यम्। प्रति बुद्धोऽस्मि अतो मां संत्यज। हे कामेति शेषः।। 12-176-29 भूतग्रामो यातु स्वकारणं प्रति। पञ्चत्वमस्त्वित्यर्थः।। 12-176-31 योगे विषये बुद्धिं करष्यामीति निश्चयं कुर्वन् श्रुते श्रवणादौ सत्वमेकाग्नचित्तं धारयन् मनश्च ब्रह्मणि धारयन् विहरिष्यामीत्यग्रिमेण संबन्धः।। 12-176-35 कष्टतराऽधने इति संधिरार्षः।। 12-176-36 धनमस्यास्तीति क्लिश्यन्ति क्लेशयन्ति।। 12-176-38 अनलोऽग्निरिवेत्यर्थः।। 12-176-41 सहामि इतःपूर्वं सोढवानस्मि।। 12-176-43 क्षिपमाणानां धिक्कुर्वताम्।। 12-176-44 सकामं लब्धमनोरथम्। हेकामेति शेषः।। 12-176-45 निर्वृतिं सुखम्। तृप्तिं पूर्णकामताम्।। 12-176-46 प्रतिष्ठन्तं मोक्षाय गन्तुम्।। 12-176-47 प्रहाय स्थितोस्मीति शेषः।। 12-176-49 रजः प्रवर्तको गुणः। तच्च कामेनानुवध्नातीति कामानुबन्धम्। दुःखादिकं च कामाद्युद्भवम्। अतः सर्वानर्थमूलं रजस्त्याज्यमित्यर्थः।। 12-176-50 शाम्यामि कर्मभ्य उपरतिं गच्छामि। परिनिर्वामि निर्दुःखो भवामि।। 12-176-54 काममूलमविद्याम्।। 12-176-55 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनं इति झ. पाठः।। 12-176-57 पदसंधयं श्लोकम्। वैराग्यार्थमुपन्यस्तम्।। 12-176-60 तत् ज्ञाप्यम्।। 12-176-61 सारङ्गो भ्रमरस्तस्याऽन्वेषणमनुगमनम्। इष गतौ दिवादिः।। 12-176-68 काचित्कुमारी पित्रादिपरवशा गृहागतानतिथीन्प्रच्छन्नं भोजयितुमिच्छन्ती ब्रीहिनवहन्तुं प्रचक्रमे। तस्याः प्रकोष्ठस्थाः शङ्खाश्चुक्रुशुः। सा परेषां सूचना माभूदिति शङ्खान्भड्क्त्वा एकैकमवशेषितवतीति श्रीमद्भागवते दृष्टान्तोऽयं व्याख्यातः।।
शांतिपर्व-175 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-177 |