महाभारतम्-12-शांतिपर्व-174
← शांतिपर्व-173 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-174 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-175 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति कालस्य द्रुततरपातितय सद्यः साधनस्य संपादनीयत्वे प्रमाणतया पितृपुत्रसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-174-1x |
अतिक्रामति कालेऽस्मिन्सर्वभूतक्षयावहे। किं श्रेयः प्रतिपद्येत तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-174-1a 12-174-1b |
भीष्म उवाच। | 12-174-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। पितुः पुत्रेण संवादं तं निबोध युधिष्ठिर।। | 12-174-2a 12-174-2b |
द्विजातेः कस्यचित्पार्थ स्वाध्यायनिरतस्य वै। बभूव पुत्रो मेधावी मेधावीनाम नामतः।। | 12-174-3a 12-174-3b |
सोऽब्रवीत्पितरं पुत्रः स्वाध्यायकरणे रतम्। मोक्षधर्मार्थकुशलो लोकतन्त्रविचक्षणः।। | 12-174-4a 12-174-4b |
पुत्र उवाच। | 12-174-5x |
धीरः किंस्वित्तात कुर्यात्प्रजानन् क्षिप्रं ह्यायुर्भ्रश्यते मानवानाम्। पितस्तदाचक्ष्व यथार्थयोगं ममानुपूर्व्या येन धर्मं चरेयम्।। | 12-174-5a 12-174-5b 12-174-5c 12-174-5d |
पितोवाच। | 12-174-6x |
वेदानधीत्य ब्रह्मचर्येण पुत्र पुत्रानिच्छेत्पावनार्थं पितृणाम्। अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो वनं प्रविश्याथ मुनिर्बुभूषेत्।। | 12-174-6a 12-174-6b 12-174-6c 12-174-6d |
पुत्र उवाच। | 12-174-7x |
एवमभ्याहते लोके समन्तात्परिवारिते। अमोघासु पतन्तीषु किं धीर इव भाषसे।। | 12-174-7a 12-174-7b |
पितोवाच। | 12-174-8x |
कथमभ्याहतो लोकः केन वा परिवारितः। अमोघाः काः पतन्तीह किंनु भीषयसीव माम्।। | 12-174-8a 12-174-8b |
पुत्र उवाच। | 12-174-9x |
मृत्युनाभ्याहतो लोको जरया परिवारितः। अहोरात्राः पतन्त्येते ननु कस्मान्न बुध्यसे। अमोघा रात्रयश्चापि नित्यमायान्ति यान्ति च।। | 12-174-9a 12-174-9b 12-174-9c |
पितोवाच। | 12-174-10x |
यथाऽहमेतज्जानामि न मृत्युस्तिष्ठतीति ह। सोऽहं कथं प्रतीक्षिष्ये जालेनेवावृतश्चरन्।। | 12-174-10a 12-174-10b |
पुत्र उवाच। | 12-174-11x |
रात्र्यांरात्र्यां व्यतीतायामायुरल्पतरं यदा। तदैव बन्ध्यं दिवसमिति विन्द्याद्विचक्षणः।। | 12-174-11a 12-174-11b |
गाधोदके मत्स्य इव सुखं विन्देत कस्तदा। अनवाप्तेषु कामेषु मृत्युरभ्योति मानवम्।। | 12-174-12a 12-174-12b |
पुष्पाणीव विचिन्वन्तमन्यत्र गतमानसम्। वृकीवोरणमासाद्य मृत्युरादाय गच्छति।। | 12-174-13a 12-174-13b |
अद्यैव कुरु यच्छ्रेयो मा त्वां कालोऽत्यगादयम्। अकृतेष्वेव कार्येषु मृत्युर्वै संप्रकर्षति।। | 12-174-14a 12-174-14b |
श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्णिकम्। नहि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वा कृतम्।। | 12-174-15a 12-174-15b |
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति। युवैव धर्मशीलः स्यादनित्यं खलु जीवितम्। कृते धर्मे भवेत्कीर्तिरिह प्रेत्य च वै सुखम्।। | 12-174-16a 12-174-16b 12-174-16c |
मोहेन हि समाविष्टः पुत्रदारार्थमुद्यतः। कृत्वा कार्यमकार्यं वा पुष्टिमेषां प्रयच्छति।। | 12-174-17a 12-174-17b |
तं पुत्रपशुसंपन्नं व्यासक्तमनसं नरम्। सुप्तं व्याघ्रो मृगमिव मृत्युरादाय गच्छति।। | 12-174-18a 12-174-18b |
संचिन्वानकमेवैनं कामानामवितृप्तकम्। व्याघ्रः पशुमिवादाय मृत्युरादाय गच्छति।। | 12-174-19a 12-174-19b |
इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत्कृताकृतम्। एवमीहासुखासक्तं कृतान्तः कुरुते वशे।। | 12-174-20a 12-174-20b |
कृतानां फलमप्राप्तं कर्मणां कर्मसंज्ञितम्। क्षेत्रापणगृहासक्तं मृत्युरादाय गच्छति।। | 12-174-21a 12-174-21b |
दुर्बलं बलवन्तं च शूरं भीरुं जडं कविम्। अप्राप्तं सर्वकामार्थान्मृत्युरादाय गच्छति।। | 12-174-22a 12-174-22b |
नृत्युर्जरा च व्याधिश्च दुःखं चानेककारणम्। अनुषक्तं यदा देहे किं स्वस्थ इव तिष्ठसि।। | 12-174-23a 12-174-23b |
जातमेवान्तकोऽन्ताय जरा चान्वेति देहिनम्। अनुषक्ता द्वयेनैते भावाः स्थावरजङ्गमाः।। | 12-174-24a 12-174-24b |
अत्योर्वा मुखमेतद्वै या ग्रामे वसतो रतिः। वानामेष वै गोष्ठो यदरण्यमिति श्रुतिः।। | 12-174-25a 12-174-25b |
तेबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रवि। छेत्त्वेता सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः।। | 12-174-26a 12-174-26b |
हिंसयति यो जन्तून्मनोवाक्कायहेतुभिः। जीवितार्थापनयनैः प्राणिभिर्न स हिंस्यते।। | 12-174-27a 12-174-27b |
न मृत्युसेनामायान्तीं जातु कश्चित्प्रबाधते। ऋते सत्यमसत्त्याज्यं सत्ये ह्यमृतमाश्रितम्।। | 12-174-28a 12-174-28b |
तस्मात्सत्यव्रताचारः सत्ययोगपरायणः। सत्यागमः सदा दान्तः सत्येनैवान्तकं जयेत्।। | 12-174-29a 12-174-29b |
अमृतं चैव मृत्युश्च द्वयं देहे प्रतिष्ठितम्। मृत्युरापद्यते मोहात्सत्येनापद्यतेऽमृतम्।। | 12-174-30a 12-174-30b |
सोऽहं ह्यहिंस्रः सत्यार्थी कामक्रोधबहिष्कृतः। समदुःखसुखः क्षेमी मृत्युंहास्याम्यमर्त्यवत्।। | 12-174-31a 12-174-31b |
शान्तियज्ञरतो दान्तो ब्रह्मयज्ञे स्थितो मुनिः। वाङ्भनः कर्मयज्ञश्च भविष्याम्युदगायने।। | 12-174-32a 12-174-32b |
पशुयज्ञैः कथं हिंस्रैर्मादृशो चष्टुमर्हति। अन्तवद्भिरिव प्राज्ञः क्षेत्रयज्ञैः पिशाचवत्।। | 12-174-33a 12-174-33b |
यस्य वाङ्भनसी स्यातां सम्यक्प्रणिहिते सदा। तपस्त्यागश्च सत्यं च स वै सर्वमवाप्नुयात्।। | 12-174-34a 12-174-34b |
नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः। नास्ति रागसमंदुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्।। | 12-174-35a 12-174-35b |
आत्मन्येवात्मना जात आत्मनिष्ठोऽप्रजोपि वा। आत्मन्येव भविष्यामि न मां तारयति प्रजा।। | 12-174-36a 12-174-36b |
नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तं यथैकता समता सत्यता च। शीलं स्थितिर्दण्डनिधानमार्जवं ततस्ततश्चोपरभः क्रियाभ्यः।। | 12-174-37a 12-174-37b 12-174-37c 12-174-37d |
किं ते धनैर्बान्धवैर्वापि किं ते किं ते दारैर्ब्राह्मण यो मरिष्यसि। आत्मानमन्विच्छ गुहां प्रविष्टं पितामहास्ते क्व गताः पिता च।। | 12-174-38a 12-174-38b 12-174-38c 12-174-38d |
भीष्म उवाच। | 12-174-39x |
पुत्रस्यैतद्वचः श्रुत्वा यथाऽकार्षीत्पिता नृप। तथा त्वमपि वर्तस्व सत्यधर्मपरायणः।। | 12-174-39a 12-174-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 174।। |
12-174-4 मोक्षधर्माणामर्थेषु कुशलः।। 12-174-5 यथार्थयोगं फलसंबन्धमनतिक्रम्य तात कुर्याच्छुभार्थी इति ड.थ.पाठः। तात कुर्यात्प्रजासु इति ट. पाठः।। 12-174-7 अमोधास्वायुर्हरणेन सफलासु रात्रिषु।। 12-174-11 वन्ध्यं निष्फलम्।। 12-174-12 यदा मृत्युरभ्येति तदा कः सुखं विन्देतेति संबन्धः।। 12-174-13 पुष्पाणि काम्यकर्मफलानि मेषीणामार्तवानि वा। आर्तवं विना पशूनां स्त्रीसङ्गे प्रवृत्त्यदर्शनात्। विचिन्वन्तं शास्त्रदृष्ट्या आघ्राणेन च। उरणं मेषम्।। 12-174-17 एषां पुत्रादीनाम्।। 12-174-19 संचिन्वानकं कुत्सितं संचिन्वानं संग्रहीतारम्।। 12-174-20 कार्यं कर्तुमिष्टम्। कृताकृतमर्धकृतम्।। ईहा तृष्णा।। 12-174-21 कर्मसंज्ञितं वणिगित्यादि कर्मानुरूपसंज्ञावन्तम्।। 12-174-24 द्वयेनान्तकजराख्येन।। 12-174-25 ग्रामे ख्यादिसङ्घे रतिरासक्तिरेव मृत्योर्मुखं न तु वासमात्रम्। गोष्ठमिव गोष्ठं वासस्थानाम्। अरण्यं विविक्तदेशः। गृहं त्यक्त्वैकान्ते ध्यानपरो भवेदित्यर्थः।। 12-174-26 यान्ति मुक्तिमिति शेषः।। 12-174-27 न हिंसयति हिंसां न कारयति न करोति चेत्यर्थः। हेतुः श्राद्धादिनिमित्तं तैः जीवितमर्थांश्चापनयन्ति तैर्हिस्नस्तेनादिभिः।। 12-174-28 मृत्युसेनां जराव्याधिरूपां सत्ये ब्रह्मज्ञाने अमृतं कैवल्यम्।। 12-174-29 सत्यव्रताचारः सत्यं ब्रह्मज्ञाने तदर्थं व्रतं वेदान्तश्रवणादि तदाचारस्तदनुष्ठाता। सत्ययोगपरायणः ब्रह्मध्यानपरायणः। सत्यः प्रमाणभूत आगमो गुरुवे दवाक्यं यस्य स सत्यागमः श्रद्धावान्।। 12-174-32 शान्तियज्ञ इन्द्रियनिग्रहः। ब्रह्मयज्ञो नित्यमुपनिषदर्थचिन्तनम्। वाग्यज्ञः जपः। मनोयज्ञः ध्यानं। कर्मयज्ञः स्रानशौचगुरुशुश्रूषाद्यावश्यक धर्मानुष्ठानम्। उदगायने देवयानपथनिमित्तम्। दैर्घ्यमार्षम्।। 12-174-33 अन्तवद्भिरनित्यफलैः। क्षेत्रयज्ञैः शरीरनाशनैः।। 12-174-36 आत्मनि परमात्मनि प्रलये स्थित इति शेषः। आत्मना सृष्टिकाले जातः।। 12-174-37 एकता एकप्रकारता शीलं श्लाघनीयं वृत्तम्। दण्डनिधानं वाङ्भनः कायौर्हिसात्यागः।।
शांतिपर्व-173 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-175 |