महाभारतम्-12-शांतिपर्व-171
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गौतमेनन रात्रौ सुप्तं बकं हत्वाऽग्नौ पक्वतन्मांसमुपगृह्य स्वग्रामंप्रति प्रस्थानम्।। 1।। परेद्युर्बकस्यानागमनेन तस्य विपदाशङ्किना विरूपाक्षेण तद्वृत्तान्तजिज्ञासया स्वपुत्रस्य नियोजनम्।। 2।। पितृनियोगात्सपरिवारेण विरूपाक्षसुतेन गौतमहननम्।। 3।।
भीष्म उवाच। | 12-171-1x |
अथ तत्र महार्चिष्माननलो वातसारथिः। तस्याविदूरे रक्षार्थं खगेन्द्रेण कृतोऽभवत्।। | 12-171-1a 12-171-1b |
स चापि पार्श्वे सुष्वाप विश्वस्तो बकराट् तदा। कृतघ्नस्तु स दुष्टात्मा तं जिघांसुरजागरीत्।। | 12-171-2a 12-171-2b |
ततोऽलातेन दीप्तेन स सुप्तं निजघान तम्। निहत्य च मुदा युक्तः सोऽनुबन्धं न दृष्टवान्।। | 12-171-3a 12-171-3b |
स तं विपक्षरोमाणं कृत्वाऽग्नावपचत्तदा। तं गृहीत्वा सुवर्णं च ययौ द्रुततरं द्विजः।। | 12-171-4a 12-171-4b |
`ततो दाक्षायणीपुत्रं नागतं तं तु भारत। विरूपाक्षश्चिन्तयन्वै हृदयेन विदूयता।।' | 12-171-5a 12-171-5b |
ततोऽन्यस्मिन्गते चाह्नि विरूपाक्षोऽब्रवीत्सुतम्। न प्रेक्षे राजधर्माणमद्य पुत्र खगोत्तमम्। | 12-171-6a 12-171-6b |
स पूर्वसन्ध्यां ब्रह्माणं वन्दितुं याति सर्वदा। मां चादृष्ट्वा कदाचित्स न गच्छति गृहं खगः।। | 12-171-7a 12-171-7b |
द्विरात्रमुभयोः सन्ध्योर्नाभ्यगच्छन्ममालयम्। तस्मान्न शुद्ध्यते भावो मम स ज्ञायतां सुहृत्।। | 12-171-8a 12-171-8b |
स्वाध्यायेन वियुक्तो हि ब्रह्मवर्चसवर्जितः। स गतस्तत्र मे शङ्का हन्यात्तं स द्विजाधमः।। | 12-171-9a 12-171-9b |
दुराचारः स दुर्बुद्धिरिङ्गितैर्लक्षितो मया। निष्कृपो दारुणाकारो दुष्टो दस्युरिवाधमः। गौतमः स गतस्तत्र तेनोद्विग्नं मनो मम।। | 12-171-10a 12-171-10b 12-171-10c |
पुत्र शीघ्रमितो गत्वा राजधर्मनिवेशनम्। ज्ञायतां स विशुद्धात्मा यदि जीवति वा चिरम्।। | 12-171-11a 12-171-11b |
स एवमुक्तस्त्वरितो रक्षोभिः सहितो ययौ। * न्यग्रोधे राजधर्माणमपश्यन्निहतं ततः।। | 12-171-12a 12-171-12b |
रुदित्वा बहुशस्तस्मै विलप्य च स राक्षसः। गतो रोषसमाविष्टो गौतमग्रहणाय वै।। | 12-171-13a 12-171-13b |
गृहीतो गौतमः पापो रक्षोभिः क्रोधमूर्च्छितैः। राजधर्मशरीरस्य कङ्कालश्चाप्यथो धृतः।। | 12-171-14a 12-171-14b |
मनुव्रजं तु नगरं यातुधानास्ततो गताः। क्रोधरक्तेक्षणा घोरा गौतमस्य वधे धृताः।। | 12-171-15a 12-171-15b |
पार्थिवस्वाग्रतो न्यस्तः कङ्कालो राजधर्मणः। तं दृष्ट्वा विमना राजा सामात्यः सगणोऽभवत्।। | 12-171-16a 12-171-16b |
आर्तरावो महानासीद्गृहे तस्य महात्मनः। समुत्थितः स्रीसङ्घस्य निहते काश्यपात्मजे।। | 12-171-17a 12-171-17b |
राजा चैवाब्रवीत्पुत्रं पापोऽयं वध्यतामिति।। | 12-171-18a |
राक्षमा ऊचुः। | 12-171-19x |
अस्य मांसं वयं सर्वे खादिष्यामः समागताः। पापकृत्पापकर्मा च पापात्मा पापमास्थितः। हन्तव्य एव पापात्मा कृतघ्नो नात्र संशयः।। | 12-171-19a 12-171-19b 12-171-19c |
विरूपाक्ष उवाच। | 12-171-20x |
कृतघ्नं पापकर्माणां न भक्षयितुमुत्सहे। दासेभ्यो दीयतामेप मित्रध्रुक्पुरुपाधमः।। | 12-171-20a 12-171-20b |
भीष्म उवाच। | 12-171-21x |
दासाः सर्वे समाहूता यातुधानास्तथा परे। नेच्छन्ति स्म कृतघ्नं तं खादितुं पुरुषोत्तम।। | 12-171-21a 12-171-21b |
शिरोभिश्चागता भूमिं महाराज ततो बलात्। मानार्थं जातु निर्बन्धं किल्विषं दातुमर्हसि।। | 12-171-22a 12-171-22b |
यातुधाना नृपेणोक्ताः पापकर्मा विशस्यताम्। दह्यतां त्यज्यतां वाऽयं दर्शनादपनीयताम्।। | 12-171-23a 12-171-23b |
ततस्ते रुपिता दासाः शूलपट्टसपाणयः। खण्डशो विकृतं हत्वा क्रव्याद्भ्यो ह्यददुस्तदा।। | 12-171-24a 12-171-24b |
क्रव्यादास्त्वपि राजेन्द्र नेच्छन्ति पिशिताशनाः। मृतानपि हि क्रव्यादाः कृतघ्नान्नोपभुञ्जते।। | 12-171-25a 12-171-25b |
ब्रह्मस्वहरणे चोरे ब्रह्मघ्ने गुरुतल्पगे। निष्कृतिर्विहिता सद्भिः कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः।। | 12-171-26a 12-171-26b |
मित्रद्रुहं कृतघ्नं च नृशंसं च नराधमम्। क्रव्यादाः किमयश्चैव नोपभुञ्जन्ति वै सदा।। | 12-171-27a 12-171-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि एकसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 171।। |
12-171-3 अनुबन्ध पापदोषम्।। | 12-171-8 तद्व्रत इति पाठे हिंस्रधर्म।। |
- इत आरभ्य आद्विसप्तत्यधिकशततमाध्यायसमाप्ति विद्यमानानां श्लोकानां स्थाने अधोलिखितश्लोका झ. पाठे वर्तन्ते। तेच
न्यग्रोधं तत्र चापश्यत्कङ्कालं राजधर्मणः। स रुदन्नगमत्पुत्रो राक्षसेन्द्रस्य धीमतः। त्वरमाणः परं शक्त्या गौतमग्रहणाय वै।। | 12-171a-1a 12-171a-1b 12-171a-1c |
ततो विदूरे जगृहुगौतमं राक्षसास्तदा।। | 12-171a-2a |
राजधमर्शरीरं च पक्षास्थिचरणोज्झितम्। तमादायाथ रक्षांसि द्रुतं मेरुव्रजं ययुः।। | 12-171a-3a 12-171a-3b |
राज्ञश्च दर्शयामासुः शरीरं राजधर्मणः। कृतघ्नं पुरुषं तं च गौतमं पापकारिणम्।। | 12-171a-4a 12-171a-4b |
रुरोद राजा तं दृष्ट्वा सामात्यः सपुरोहितः। आर्तनादश्च सुमहानभूत्तस्य निवेशने। सस्त्रीकुमारं च पुरं बभूवास्वस्थमानसम्।। | 12-171a-5a 12-171a-5b 12-171a-5c |
अथाव्रवीन्नृपः पुत्रं पापोऽयं वध्यतामिति। अस्य मांसैरिमे सर्वे विहरन्तु यथेष्टतः।। | 12-171a-6a 12-171a-6b |
पापाचारः पापकर्मा पापात्मा पापसाधनः। हन्तव्योऽयं मम मतिर्भवद्भिरिति राक्षसाः।। | 12-171a-7a 12-171a-7b |
इत्युक्ता राक्षसेन्द्रेण राक्षसा घोरविक्रमाः। नेच्छन्त तं भक्षयितुं पापकर्माणमित्युत।। | 12-171a-8a 12-171a-8b |
दस्यूनां दीयतामेष साध्वद्य पुरुषाधमः। इत्यूचुस्ते गहाराज राक्षसेन्द्रं निशाचराः।। | 12-171a-9a 12-171a-9b |
शिरोभिः प्रणताः सर्वे व्याहरन्राक्षसाधिपम्। न दातुमर्हसि त्वं नो भक्षणायास्य किल्विषम्।। | 12-171a-10a 12-171a-10b |
एवमस्त्विति तानाह राक्षसेन्द्रो निशाचरान्। दस्यूनां दीयतामेष कृतघ्नोऽद्यैव राक्षसाः।। | 12-171a-11a 12-171a-11b |
इत्युक्ता राक्षसास्तेन शूलपट्टसपाणयः। कृत्वा तं खण्डशः पापं दस्युभ्यः प्रददुस्तदा।। | 12-171a-12a 12-171a-12b |
दस्यवश्चापि नैच्छन्त तमत्तुं पापकारिणम्। क्रव्यादा अपि राजेन्द्र कृतघ्नं नोपभुञ्जते।। | 12-171a-13a 12-171a-13b |
ब्रह्मघ्ने च सुरापे च चौरे भग्नव्रते तथा। निष्कृतिर्विहिता राजन्कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः।। | 12-171a-14a 12-171a-14b |
मित्रदोही कृतघ्नश्च नृशंसश्च नराधमः। क्रव्यादैः कृमिभिश्चैव न भुज्यन्ते हि तादृशाः।। | 12-171a-15a 12-171a-15b |
भीष्म उवाच। | 12-171a-16x |
ततश्चितां बकपतेः कारयामास राक्षसः। रत्नैर्गन्धैश्च बहुभिर्वस्त्रैश्च समलंकृताम्।। | 12-171a-16a 12-171a-16b |
ततः प्रज्वाल्य नृपतिर्बकराजं प्रतापवान्। प्रेतकार्याणि विधिवद्राक्षसेन्द्रश्चकार ह।। | 12-171a-17a 12-171a-17b |
तस्मिन्काले च सुरभिर्देवी दाक्षायणी शुभा। उपरिष्टात्ततस्तस्य सा बभूव पयस्विनी।। | 12-171a-18a 12-171a-18b |
तस्य वक्राच्च्युतः फेनः क्षीरमिश्रस्तदाऽनघ। सोऽपतद्वै ततस्तस्यां चितायां राजधर्मणः।। | 12-171a-19a 12-171a-19b |
ततः संजीवितस्तेन बकराजस्तदाऽनघ। उत्पत्य च समीयाय विरूपाक्षं बकाधिपः।। | 12-171a-20a 12-171a-20b |
ततोऽभ्ययाद्देवराजो विरूपाक्षपुरं तदा। प्राह चेदं विरूपाक्षं दिष्ट्या संजीवितस्त्वया।। | 12-171a-21a 12-171a-21b |
श्रावयामास चेन्द्रस्तं विरूपाक्षं पुरातनम्। यथा शापः पुरा दत्तो ब्रह्मणा राजधर्मणः।। | 12-171a-22a 12-171a-22b |
यदा बकवती राजन्ब्रह्माणं नोपसर्पति। ततो रोषादिदं प्राह स्वगेन्द्राय पितामहः।। | 12-171a-23a 12-171a-23b |
यस्मान्मूढो मम सभां नागतोऽसौ बकाधमः। तस्माद्वधं स दुष्टात्मा न चिरात्समवाप्स्यति।। | 12-171a-24a 12-171a-24b |
तदयं तस्य वचनान्निहतो गौतमेन वै। तेनैवामृतसिक्तश्च पुनः संजीवितो बकः।। | 12-171a-25a 12-171a-25b |
राजधर्मा बकः प्राह प्रणिपत्य पुरंदरम्। यदि तेऽनुग्रहकृता मयि बुद्धिः सुरेश्वर। सखाऽयं मे सुदयितं गौतमं जीवयेत्युत।। | 12-171a-26a 12-171a-26b 12-171a-26c |
तस्य वाक्यं समादाय वासवः पुरुषर्षभ। सिक्त्वाऽमृतेन तं विप्रं गौतमं जीवयत्तदा।। | 12-171a-27a 12-171a-27b |
सभाण्डोपस्कारं राजंस्तमासाद्य बकाधिपः। संपरिष्वज्य सुहृदं प्रीत्या परमया युतः।। | 12-171a-28a 12-171a-28b |
अथ तं पापकर्माणं राजधर्मा बकाधिपः। विसर्जयित्वा सधनं प्रविवेश स्वमालयम्।। | 12-171a-29a 12-171a-29b |
यथोचितं च स बको ययौ ब्रह्मसदस्तथा। ब्रह्मा चैनं महात्मानमातिथ्येनाभ्यपूजयत्।। | 12-171a-30a 12-171a-30b |
गौतमश्चापि संप्राप्य पुनस्तं शबरालयम्। शूद्रायां जनयामास पुत्रान्दुष्कृतकारिणः।। | 12-171a-31a 12-171a-31b |
शापश्च सुमहांस्तस्य दत्तः सुरगणैस्तदा। कुक्षौ पुनर्भ्वाः पापोऽयं जनयित्वा चिरात्सुतान्। निरयं प्राप्स्यति महत्कृतघ्नोऽयमिति प्रभो।। | 12-171a-32a 12-171a-32b 12-171a-32c |
एतत्प्राह पुरा सर्वं नारदो मम भारत। संस्मृत्य चापि सुमहदाख्यानं भरतर्षभ। मयाऽपि भवते सर्वं यथावदनुवर्णितम्।। | 12-171a-33a 12-171a-33b 12-171a-33c |
कुतः कृतघ्नस्य यशः कुतः स्थानं कुतः सुखम्। अश्रद्धेयः कृतघ्नो हि कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः।। | 12-171a-34a 12-171a-34b |
मित्रद्रोहो न कर्तव्यः पुरुषेण विशेषतः। मित्रध्रुङ्गरकं घोरमनन्तं प्रतिपद्यते।। | 12-171a-35a 12-171a-35b |
कृतज्ञेन सदा भाव्यं मित्रकामेन चैव ह। मित्राच्च लभते सर्वं मित्रात्पूजां लभेत च।। | 12-171a-36a 12-171a-36b |
मित्राद्भोगांश्च भुञ्जीत मित्रेणापत्सु मुच्यते। सत्कारैरुत्तमैर्मित्रं पूजयेत विचक्षणः।। | 12-171a-37a 12-171a-37b |
परित्याज्यो बुधैः पापः कृतघ्नो निरपत्रपः। मित्रद्रोही कुलाङ्गारः पापकर्मा नराधमः।। | 12-171a-38a 12-171a-38b |
एष धर्मभूतां श्रेष्ठ प्रोक्तः पापो मया तव। मित्रद्रोही कृतघ्नो वै किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 12-171a-39a 12-171a-39b |
वैशंपायन उवाच। | 12-171a-40x |
एतच्छ्रुत्वा तदा वाक्यं भीष्मेणोक्तं महात्मना। युधिष्ठिरः प्रीतमना बभूव जनमेजय।। | 12-171a-40a 12-171a-40b |
12-171a-1 कङ्कालमस्थि।।
शांतिपर्व-170 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-172 |