महाभारतम्-12-शांतिपर्व-158
दिखावट
← शांतिपर्व-157 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-158 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-159 → |
भीष्मेण दमप्रशंसनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-158-1x |
स्वाध्यायकृतयत्नस्य ब्राह्मणस्य विशेषतः। धर्मकामस्य धर्मात्मन्किंनु श्रेय इहोच्यते।। | 12-158-1a 12-158-1b |
बहुधा दर्शने लोके श्रेयो यदिह मन्यसे। अस्मिँल्लोके परे चैव तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-158-2a 12-158-2b |
महानयं धर्मपथो बहुशाखश्च भारत। किंस्विदेवेह धर्माणामनुष्ठेयतमं मतम्।। | 12-158-3a 12-158-3b |
धर्मस्य महतो राजन्बहुशाखस्य तत्त्वतः। यन्मूलं परमं तात तत्सर्वं ब्रूह्यतन्द्रितः।। | 12-158-4a 12-158-4b |
भीष्म उवाच। | 12-158-5x |
हन्त ते कथयिष्यामि येन श्रेयो ह्यवाप्स्यसि। पीत्वाऽमृतमिव प्राज्ञो येन तृप्तो भविष्यसि।। | 12-158-5a 12-158-5b |
धर्मस्य विधयो नैके तेते प्रोक्ता महर्षिभिः। स्वंस्वं विज्ञानमाश्रित्य दमस्तेषां परायणम्।। | 12-158-6a 12-158-6b |
दमं निःश्रेयसं प्राहुर्वृद्धा निश्चितदर्शिनः। ब्राह्मणस्य विशेषेण दमो धर्मः सनातनः।। | 12-158-7a 12-158-7b |
नादान्तस्य क्रियासिद्धिर्यथावदुपलभ्यते। दमो दानं तथा यज्ञानधीतं चातिवर्तते।। | 12-158-8a 12-158-8b |
दमस्तेजो वर्धयति पवित्रं च दमः परम्। विपाप्मा तेजसा युक्तः पुरुषो विन्दते महत्।। | 12-158-9a 12-158-9b |
दमेन सदृशं धर्मं नान्यं लोकेषु शुश्रुम्। दमो हि परमो लोके प्रशस्तः सर्वधर्मिणाम्।। | 12-158-10a 12-158-10b |
प्रेत्य चात्र मनुष्येन्द्र परमं विन्दते सुखम्। दमेन हि सदा युक्तो महान्तं धर्ममश्नुते।। | 12-158-11a 12-158-11b |
सुखं दान्तः प्रस्वपिति सुखं च प्रतिबुध्यते। सुखं पर्येति लोकांश्च मनश्चास्य प्रसीदति।। | 12-158-12a 12-158-12b |
अदान्तः पुरुषः क्लेशमभीक्ष्णं प्रतिपद्यते। अनर्थांश्च बहूनन्यान्प्रसृजत्यात्मदोषजान्।। | 12-158-13a 12-158-13b |
आश्रमेषु चतुर्ष्वाहुर्दममेवोत्तमं व्रतम्। दमलिङ्गानि वक्ष्यामि येषां समुदयो दमः।। | 12-158-14a 12-158-14b |
क्षमा धृतिरार्हेसा च समता सत्यमार्जवम्। इन्द्रियाभिजयो दाक्ष्यं मार्दवं ह्रीरचापलम्।। | 12-158-15a 12-158-15b |
अकार्पण्यमसंरम्भः संतोषः प्रियवादिता। अविहसाऽनसूया चाप्येषां समुदयो दमः।। | 12-158-16a 12-158-16b |
गुरुपूजा च कौरव्य दया भूतेष्वपैशुनम्। जनवादमृषावादस्तुतिनिन्दाविसर्जनम्।। | 12-158-17a 12-158-17b |
कामं क्राधं च लोभं च दर्पं स्तम्भं विकत्थनम्। रोषमीर्ष्यावमानं च नैव दान्तो निषेवते।। | 12-158-18a 12-158-18b |
अनिन्दितो ह्यकामात्मा नाल्पेष्वर्थ्यनसूयकः। समुद्रकल्पः स नरो न कथंचन पूर्यते।। | 12-158-19a 12-158-19b |
अहं त्वयि मम त्वं च मयि ते तेषु चाप्यहम्। पूर्वसंबन्धिसंयोगं नैतद्दान्तो निषेवते।। | 12-158-20a 12-158-20b |
सर्वा ग्राम्यास्तथाऽऽरण्या याश्च लोके प्रवृत्तयः। निन्दां चैव प्रशंसां च यो नाश्रयति मुच्यते।। | 12-158-21a 12-158-21b |
मैत्रोऽथ शीलसंपन्नः प्रसन्नात्मात्मविच्च यः। मुक्तस्य विविधैः सङ्गैस्तस्य प्रेत्य फलं महत्।। | 12-158-22a 12-158-22b |
सुवृत्तः शीलसंपन्नः प्रसन्नात्माऽऽत्मविद्वुधः। प्राप्येह लोके सत्कारं सुगतिं प्रतिपद्यते।। | 12-158-23a 12-158-23b |
कर्म यच्छुभमेवेह सद्भिराचरितं च यत्। तदेव ज्ञानयुक्तस्य मुनेर्वर्त्म न हीयते।। | 12-158-24a 12-158-24b |
निष्क्रम्य वनमास्थाय ज्ञानयुक्तो जितेन्द्रियः। कालाकाङ्गी चरन्नेवं ब्रह्मभूयाय कल्पते।। | 12-158-25a 12-158-25b |
अभयं यस्य भूतेभ्यो भूतानामभयं यतः। तस्य देहाद्विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन।। | 12-158-26a 12-158-26b |
अवाचिनोति कर्माणि न च संप्रचिनोति ह। समः सर्वेषु भूतेषु मैत्रायणगतिं चरेत्।। | 12-158-27a 12-158-27b |
शकुनीनामिवाकाशे मत्स्यानांमिव चोदके। यथा गतिर्न दृश्येत तथा तस्य स संशयः।। | 12-158-28a 12-158-28b |
गृहानुत्सृज्य यो राज्मोक्षमेवाभिपद्यते। लोकास्तेजोमयास्तस्य कल्पन्ते शाश्वतीः समाः।। | 12-158-29a 12-158-29b |
संन्यस्य सर्वकर्माणि संन्यस्य विधिवत्तपः। संन्यस्य विविधा विद्याः सर्वं संन्यस्य चैव ह।। | 12-158-30a 12-158-30b |
कामे शुचिरनावृत्तः प्रसन्नात्माऽऽत्मविच्छुचिः। प्राप्येह लोके सत्कारं स्वर्गं समभिपद्यते।। | 12-158-31a 12-158-31b |
यच्च पैतामहं स्थानं ब्रह्मराशिसमुद्भवम्। गुहायां निहितं नित्यं तद्दमेनाभिगम्यते।। | 12-158-32a 12-158-32b |
ज्ञानारामस्य बुद्धस्य सर्वभूतानुरोधिनः। नावृत्तिभयमस्तीह परलोकभयं कुतः।। | 12-158-33a 12-158-33b |
एक एव दमे दोषो द्वितीयो नोपपद्यते। यदेनं दमसंयुक्तमशक्तं मन्यते जनः।। | 12-158-34a 12-158-34b |
एकोऽस्य सुमहाप्राज्ञ दोषः स्यात्सुमहान्गुणः। क्षमया विपुला लोका दुर्लभा हि सहिष्णुता।। | 12-158-35a 12-158-35b |
दान्तस्य किमरण्येन तथाऽदान्तस्य भारत। यत्रैव निवसेद्दान्तस्तदरण्यं स चाश्रमः।। | 12-158-36a 12-158-36b |
वैशंपायन उवाच। | 12-158-37x |
एतद्भीष्मस्य वचनं श्रुत्वा राजा युधिष्ठिरः। अमृतेनेव संतृप्तः प्रहृष्टः समपद्यत।। | 12-158-37a 12-158-37b |
पुनश्च परिपप्रच्छ भीष्मं धर्मभृतां वरम्। ततः प्रीतः स चोवाच तस्मै सर्वं कुरूद्वहः।। | 12-158-38a 12-158-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि अष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 158।। |
12-158-6 परायणं पराकाष्ठा। अत्रैव सर्वे धर्मा अन्तर्भूता इत्यर्थः।। 12-158-18 दर्पं गर्वं। स्तम्भं अविनम्।। 12-158-19 अल्पेषु अनित्यसुखेषु। कथंचन ब्रह्मलोकलाभेऽपि न पूर्यते न तृप्तो भवति।। 12-158-25 निष्कम्य गृहादिति शेषः।। 12-158-27 अवाचिनोति भोगेन व्ययीकरोति। नच संचिनोति संगृह्णाति तत्त्वज्ञस्य कर्मास्लोषस्मरणात्। मैत्रायणं सर्वभूतेभ्योऽभयदानम्।। 12-158-31 कामे शुचिः सत्यकामइत्यर्थः। अनावृतः सर्वत्र कामचारभाक्। तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवतीति श्रुतेः।। 12-158-32 गुहायां हृत्पुण्डरीके। पैतामहं ब्रह्मलोकाख्यम्।।
शांतिपर्व-157 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-159 |