महाभारतम्-12-शांतिपर्व-138
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति आपदि शत्रुणापि संधिकरणविषये दृष्टान्ततया मार्जारमूषिकचरितकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-138-1x |
सर्वत्र बुद्धिः कथिता श्रेष्ठा ते भरतर्षभ। अनागता तथोत्पन्ना दीर्घसूत्रा विनाशिनी।। | 12-138-1a 12-138-1b |
तदिच्छामि परां बुद्धिं श्रोतुं ते भरतर्षभ। यथा राजा न मुह्येत शत्रुभिः परिपीडितः।। | 12-138-2a 12-138-2b |
------याज्ञं सर्वशास्त्रविशारदम्। पृच्छ------- तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 12-138-3a 12-138-3b |
शत्रुभिबहु------था मुच्येत पार्थिवः। एतदिच्छाम्य------र्वमेव यथाविधि।। | 12-138-4a 12-138-4b |
विषमस्थं हि राजा----त्रवः परिपन्थिनः। बहवोऽप्येकमुद्धर्तुं यतन्ते पूर्वतापिताः।। | 12-138-5a 12-138-5b |
सर्वतः प्रार्थ्यमानेन दर्बलेन महाबलैः। एकेनैवासहायेन शक्यं स्थातुं भवेत्कथम्।। | 12-138-6a 12-138-6b |
कथं मित्रमरिं चापि विन्देत भरतर्षभ। चेष्टितव्यं कथं चात्र शत्रोर्मित्रस्य चान्तरे।। | 12-138-7a 12-138-7b |
अजातलक्षणे राजन्नमित्रे मित्रतां गते। कथं नु पुरुषः कुर्यात्कृत्वा किं वा सुखी भवेत्।। | 12-138-8a 12-138-8b |
विग्रहं केन वा कुर्यात्संधिं वा केन योजयेत्। कथं वा शत्रुमध्यस्थो वर्तेत बलवानपि।। | 12-138-9a 12-138-9b |
एतद्धै सर्वकृत्यानां परं कृत्यं नराधिप। नैतस्य कश्चिद्वक्ताऽस्ति श्रोता वाऽपि सुदुर्लभः।। | 12-138-10a 12-138-10b |
ऋते पितामहाद्भीष्मात्सत्यसंधाज्जितेन्द्रियात्। तदन्वीक्ष्य महाभाग सर्वमेतद्ब्रवीहि मे।। | 12-138-11a 12-138-11b |
भीष्म उवाच। | 12-138-12x |
त्वद्युक्तोऽयमनुप्रश्नो युधिष्ठिर गुणोदयः। शृणु मे पुत्र कार्त्स्न्येन गुह्यमापत्सु भारत।। | 12-138-12a 12-138-12b |
अमित्रो मित्रतां याति मित्रं चापि प्रदुष्यति। सामर्थ्ययोगात्कार्याणामनित्या हि सदा गतिः।। | 12-138-13a 12-138-13b |
तस्माद्विश्वसितव्यं च विग्रहं च समाचरेत्। देशं कालं च विज्ञाय कार्याकार्यविनिश्चये।। | 12-138-14a 12-138-14b |
संधातव्यं बुधैर्नित्यं व्यवस्य च हितार्थिभिः। अमित्रैरपि संधेयं प्राणा रक्ष्या हि भारत।। | 12-138-15a 12-138-15b |
यो ह्यमित्रैर्नरैर्नित्यं न संदध्यादपण्डितः। न सोर्थं प्राप्नुयात्किंचित्फलान्यपि च भारत।। | 12-138-16a 12-138-16b |
यस्त्वमित्रेण संधत्ते मित्रेण च विरुध्यते। अर्थयुक्तिं समालोक्य सुमहद्विन्दते फलम्।। | 12-138-17a 12-138-17b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। मार्जारस्य च संवादं न्यग्रोधे मूषिकस्य च।। | 12-138-18a 12-138-18b |
वने महति कस्मिंश्चिन्न्यग्रोधः सुमहानभूत्। लताजालपरिच्छन्नो नानाद्विजगणायुतः।। | 12-138-19a 12-138-19b |
स्कन्धवान्मेघसंकाशः शीतच्छायो मनोरमः। अरण्यमभितो जातस्तरुर्व्यालमृगायुतः।। | 12-138-20a 12-138-20b |
तस्य मूलमुपाश्रित्य कृत्वा शतमुखं बिलम्। वसति स्म महाप्राज्ञः पलितो नाम मूषिकः।। | 12-138-21a 12-138-21b |
शाखां तस्य समाश्रित्य वसति स्म सुखं तदा। लोमशो नाम मार्जारः सर्वसत्वावसादकः।। | 12-138-22a 12-138-22b |
तत्र त्वागत्य चण्डालो ह्यरण्यकृतकेतनः। युयोज यन्त्रमुन्माथं नित्यमस्तंगते रवौ।। | 12-138-23a 12-138-23b |
तत्र स्नायुमयान्पाशान्यथावत्संविधाय सः। गृहं गत्वा सुखं शेते प्रभातामेति शर्वरीम्।। | 12-138-24a 12-138-24b |
तत्र स्म नित्यं बध्यन्ते नक्तं बहुविधा मृगाः। कदाचिदत्र मार्जारः संप्रवृत्तो व्यबध्यत।। | 12-138-25a 12-138-25b |
तस्मिन्बद्धे महाप्राणे शत्रौ नित्याततायिनि। तं कालं पलितो ज्ञात्वा प्रचचार सुनिर्भयः।। | 12-138-26a 12-138-26b |
तेनानुचरता तस्मिन्वते विश्वस्तचारिणा। भक्ष्यं मृगयमाणे नचिराद्दृष्टमामिषम्।। | 12-138-27a 12-138-27b |
स तमुन्माथमारुह्य तदामिषमभक्षयत्। तस्योपरि सपत्नस्य बद्धस्य मनसा हसन्।। | 12-138-28a 12-138-28b |
आमिषे तु प्रसक्तः स कदाचितवलोकयन्। अपश्यदपरं घोरमात्मनो रिपुमागतम्।। | 12-138-29a 12-138-29b |
शरप्रसूनसंकाशं महीविवरशायिनम्। सकुलं हरिकं नाम चपलं ताम्रलोचनम्।। | 12-138-30a 12-138-30b |
तन मूषिकगन्धेन त्वरमाण उपागतम्। सक्ष्यार्थं लेलिहन्वक्रं भूमावूर्ध्वमुखः स्थितः।। | 12-138-31a 12-138-31b |
--ाखागतमरिं चान्यमपश्यत्कोटरालयम्। सूलकं चन्द्रकं नाम वक्रतुण्डं दुरासदम्।। | 12-138-32a 12-138-32b |
पतस्य विषयं तस्य नकुलोलूकयोस्तथा। यथास्यासीदियं चिन्ता तत्प्राप्तस्य महद्भयम्।। | 12-138-33a 12-138-33b |
पपद्यस्यां सुकष्टायां मरणे समुपस्थिते। मन्ताद्भय उत्पन्ने कथं कार्यं मनीषिणा।। | 12-138-34a 12-138-34b |
तथा सर्वतो रुद्धः सर्वत्र भयकर्शितः। भवद्भयसंत्रस्तश्चक्रे च परमां मतिम्।। | 12-138-35a 12-138-35b |
आपद्विनाशभूयिष्ठं शङ्कनीयं हि जीवितम्। मन्तात्संशयः सोऽयं तस्मादापदुपस्थिता।। | 12-138-36a 12-138-36b |
गतं हि सहसा भूमिं नकुलो मामवाप्नुयात्। उलूकश्चेह तिष्ठन्तं मार्जारः पाशसंक्षयात्।। | 12-138-37a 12-138-37b |
न त्वेवास्मद्विधः प्राज्ञः संमोहं गन्तुमर्हति। रिष्ये जीविते यत्नं यावदुच्छ्वासनिग्रहात्।। | 12-138-38a 12-138-38b |
न हि बुद्ध्याऽन्वितः प्राज्ञो नीतिशास्त्रविशारदः। निमज्जत्यापदं प्राप्य महतोऽर्थानवाप्य ह।। | 12-138-39a 12-138-39b |
न त्वन्यामिह मार्जाराद्गतिं पश्यामि सांप्रतम्। विषमस्थो ह्ययं शत्रुः कृत्यं चास्य महन्मया।। | 12-138-40a 12-138-40b |
जीवितार्थी कथं त्वद्य शत्रुभिः प्रार्थितस्त्रिभिः। प्राणहेतोरिमं मित्रं मार्जारं संश्रयामि वै।। | 12-138-41a 12-138-41b |
नीतिशास्त्रं समाश्रित्य हितमस्योपवर्णये। येनेमं शत्रुसंघातं मतिपूर्वेण वञ्चये।। | 12-138-42a 12-138-42b |
अयमत्यन्तशत्रुर्मे वैषम्यं परमं गतः। मूढो ग्राहयितुं स्वार्थं संगत्या यदि शक्यते।। | 12-138-43a 12-138-43b |
कदाजिद्व्यसनं प्राप्य संधिं कुर्यान्मया सह।। | 12-138-44a |
बलिना सन्निकृष्टस्य शत्रोरपि परिग्रहः। कार्य इत्याहुराचार्या विषमे जीवितार्थिना।। | 12-138-45a 12-138-45b |
श्रेष्ठो हि पण्डितः शत्रुर्न च मित्रमपण्डितः। अमित्रे खलु मार्जारे जीवितं संप्रतिष्ठितम्।। | 12-138-46a 12-138-46b |
ततोऽस्मै संप्रवक्ष्यामि हेतुमात्माभिरक्षणे। अपीजानीमयं शत्रुः संगत्या पण्डितो भवेत्।। | 12-138-47a 12-138-47b |
एवं विचिन्तयामास मूषिकः शत्रुचेष्टितम्।। | 12-138-48a |
ततोऽर्थगतितत्त्वज्ञः संधिविग्रहकालवित्। सान्त्वपूर्वमिदं वाक्यं मार्जारं मूषिकोऽब्रवीत्।। | 12-138-49a 12-138-49b |
सौहृदेनाभिभाषे त्वां कच्चिन्मार्जार जीवसे। जीवितं हि तवेच्छामि श्रेयः साधारणं हि नौ।। | 12-138-50a 12-138-50b |
न ते सौम्य भयं कार्यं जीविष्यसि यथा पुरा। अहं त्वामुद्धरिष्यामि प्राणाञ्जह्यां हि ते कृते।। | 12-138-51a 12-138-51b |
अस्ति कश्चिदुपायोऽत्र पुष्कल प्रतिभाति मे। येन शक्यस्त्वया मोक्षः प्राप्नुं श्रेयस्तथा मया।। | 12-138-52a 12-138-52b |
मयाऽप्युपायो दृष्टोऽयं विचार्य मतिमात्मनः। आत्मार्थं च त्वदर्थं च श्रेयः साधारणां हि नौ।। | 12-138-53a 12-138-53b |
इदं हि नकुलोलूकं पापबुद्ध्या हि संस्थितम्। न धर्षयति मार्जार तेन ते स्वस्ति सांप्रतम्।। | 12-138-54a 12-138-54b |
कूजंश्चपलनेत्रोऽयं कौशिको मां निरीक्षते। नगशाखाग्रगः पापस्तस्याहं भृशमुद्विजे।। | 12-138-55a 12-138-55b |
सतां साप्तपदं मैत्रं स सखा मेऽसि पण्डितः। साहाय्यकं करिष्यामि नास्ति ते प्राणतो भयम्।। | 12-138-56a 12-138-56b |
न हि शक्तोऽसि मार्जार पाशं छेत्तुं मया विना। अहं छेत्स्यामि पाशांस्ते यदि मां त्वं न हिंससि।। | 12-138-57a 12-138-57b |
त्वमाश्रितो द्रुमस्याग्रं मूलं त्वहमुपाश्रितः। चिरोषितावुभावावां वृक्षेऽस्मिन्विदितं च ते।। | 12-138-58a 12-138-58b |
यस्मिन्नाश्वासते कश्चिद्यश्च नाश्वसिति क्वचित्। न तौ धीराः प्रशंसन्ति नित्यमुद्विग्रमानसौ।। | 12-138-59a 12-138-59b |
तस्माद्विवर्धतां प्रीतिर्नित्यं संगतमस्तु नौ। कालातीतमिहार्थं हि न प्रशंसन्ति पण्डिताः।। | 12-138-60a 12-138-60b |
अर्थयुक्तिमिमां तत्र यथाभूतां निशामय। तव जीवितमिच्छामि त्वं ममेच्छसि जीवितम्।। | 12-138-61a 12-138-61b |
कश्चित्तरति काष्ठेन सुगम्भीरां महानदीम्। स तारयति तत्काष्ठं स च काष्ठेन तार्यते।। | 12-138-62a 12-138-62b |
ईदृशो नौ क्रियायोगो भविष्यति सुविस्तरः। अहं त्वां तारयिष्यामि मां च त्वं तारयिष्यसि।। | 12-138-63a 12-138-63b |
एवमुक्त्वा तु पलितस्तमर्थमुभयोर्हितम्। हेतुमद्ग्रहणीयं च कालापेक्षी व्यतिष्ठत।। | 12-138-64a 12-138-64b |
अथ सुव्याहृतं श्रुत्वा तस्य शत्रोर्विचक्षणः। हेतुमद्ग्रहणीयार्थं मार्जारो वाक्यमब्रवीत्।। | 12-138-65a 12-138-65b |
बुद्धिमान्वाक्यसंपन्नस्तद्वाक्यमनुवर्तयन्। स्वामवस्थां प्रतीक्ष्यैनं साम्नैव प्रत्यपूजयत्।। | 12-138-66a 12-138-66b |
ततस्तीक्ष्णाग्रदशनो मणिवैदूर्यलोचनः। मूषिकं मन्दमुद्वीक्ष्य मार्जारो लोमशोऽब्रबीत्।। | 12-138-67a 12-138-67b |
नन्दामि सौम्य भद्रं ते यो मां जीवितुमिच्छसि। श्रेयश्च यदि जानीषे क्रियतां मा विचारय।। | 12-138-68a 12-138-68b |
अहं हि भृशमापन्नस्त्वमापन्नतरो मया। द्वयोरापन्नयोः सन्धिः क्रियतां मा चिराय च।। | 12-138-69a 12-138-69b |
विधत्स्व प्राप्तकालं यत्कार्थं सिध्यतु चावयोः। मयि कृच्छ्राद्विनिर्मुक्ते न विनङ्क्ष्यति ते कृतम्।। | 12-138-70a 12-138-70b |
न्यस्तमानोस्मि भक्तोस्मि शिष्यस्त्वद्धितकृत्तथा। तथा निदेशवर्ती च भवन्तं शरणं गतः।। | 12-138-71a 12-138-71b |
इत्येवमुक्तः पलितो मार्जारं वशमागतम्। वाक्यं हितमुवाचेदमभिजातार्थमर्थवित्।। | 12-138-72a 12-138-72b |
उदारं यद्भवानाह नैतच्चित्रं भवद्विधे। विहितो यस्तु मार्गो मे हितार्थं शृणु तं मम।। | 12-138-73a 12-138-73b |
अहं त्वाऽनुप्रवेक्ष्यामि नकुलान्मे महद्भयम्। त्रायस्व मां मा वधीश्च शक्तोऽस्मि तव रक्षणे।। | 12-138-74a 12-138-74b |
उलूकाच्चैव मां रक्ष क्षुद्रः प्रार्थयते हि माम्। अहं छेत्स्यामि ते पाशान्सखे सत्येने ते शपे।। | 12-138-75a 12-138-75b |
तद्वचः संगतं श्रुत्वा लोमशो युक्तमर्थवत्। हर्षादुद्वीक्ष्य पलितं स्वागतेनाभ्यपूजयत्।। | 12-138-76a 12-138-76b |
तं संपूज्याथ पलितं मार्जारः सौहृदे स्थितम्। स विचिन्त्याब्रवीद्धीरः प्रीतस्त्वरित एव च।। | 12-138-77a 12-138-77b |
क्षिप्रमागच्छ भद्रं ते त्वं मे प्राणसमः सखा। तव प्राज्ञप्रसादाद्धि प्रियं प्राप्स्यामि जीवितम्।। | 12-138-78a 12-138-78b |
यद्यदेवंगतेनाद्य शक्यं कर्तुं मया तव। तदाज्ञापस्य कर्तास्मि सिद्धिरेवास्तु नौ सखे।। | 12-138-79a 12-138-79b |
अस्मात्ते संशयान्मुक्तः समित्रगणबान्धवः। सर्वकार्याणि कर्ताऽहं प्रियाणि च हितानि च।। | 12-138-80a 12-138-80b |
मुक्तश्च व्यसनादस्मात्सौम्याहमपि नाम ते। प्रीतिमुत्पादयेयं न प्रतिकर्तुं च शक्नुयाम्।। | 12-138-81a 12-138-81b |
प्रत्युपकुर्वन्बह्वपि न भाति पूर्वोपकारिणा तुल्यः। एकः करोति हि कृते निष्कारणमेव कुरुतेऽन्यः।। | 12-138-82a 12-138-82b |
भीष्म उवाच। | 12-138-83x |
एवमाश्वासितो बिद्वान्मार्जारेण स मूषिकः। प्रविवेश सुविस्रब्धः सम्यगङ्गीचकार ह।। | 12-138-83a 12-138-83b |
ग्राहयित्वा तु तं स्वार्थं मार्जारं मूषिकस्तथा। मार्जारोरसि विस्रब्धः सुष्वाप पितृमातृवत्।। | 12-138-84a 12-138-84b |
निलीनं तस्य गात्रेषु मार्जारस्याथ मूषिकम्। दृष्ट्वा तौ नकुलोलूकौ निराशौ प्रत्यपद्यताम्।। | 12-138-85a 12-138-85b |
तथैव तौ सुसंत्रस्तौ दृढमागततन्द्रितौ। दृष्ट्वा तयोः परां प्रीतिं विस्मयं परमं गतौ।। | 12-138-86a 12-138-86b |
बलिनौ मतिमन्तौ च सुवृत्तौ चाप्युपासितौ। अशक्तौ तु नयात्तस्मात्संप्रधर्षयितुं बलात्।। | 12-138-87a 12-138-87b |
कार्यार्थं कृतसंधी तौ दृष्ट्वा मार्जारमूषिकौ। उलूकनकुलौ तूर्णं जग्मतुस्तौ स्वमालयम्।। | 12-138-88a 12-138-88b |
लीनः स तस्य गात्रेषु पलितो देशकालवित्। चिच्छेद पाशान्नृपते कालाकाङ्क्षी शनैः शनैः।। | 12-138-89a 12-138-89b |
अथ बन्धपरिक्लिष्टो मार्जारो वीक्ष्य मूषिकम्। छिन्दन्तं वै तदा पाशानत्वरन्तं त्वरान्वितः।। | 12-138-90a 12-138-90b |
तमत्वरन्तं पलितं पाशानां छेदने तदा। संचोदयितुमारेभे मार्जारो मूषिकं ततः।। | 12-138-91a 12-138-91b |
किं सौम्य नातित्वरसे किं कृतार्थोऽवमन्यसे। छिन्धि पाशानमित्रघ्न पुरा श्वपच एति सः।। | 12-138-92a 12-138-92b |
इत्युक्तस्त्वरताऽनेन मतिमान्पलितोऽब्रवीत्। मार्जारमकृतप्रज्ञं तथ्यमात्महितं वचः।। | 12-138-93a 12-138-93b |
तूष्णीं भव न ते सौम्य त्वरा कार्या न संभ्रमः। वयमेवात्र कालज्ञा न कालः परिहास्यते।। | 12-138-94a 12-138-94b |
अकाले कृत्यमारब्धं कर्तुर्नार्थाय कल्पते। तदेव काल आरब्धं महतेऽर्थाय कल्पते।। | 12-138-95a 12-138-95b |
अकाले विप्रमुक्तान्मे त्वत्त एव भयं भवेत्। तस्मात्कालं प्रतीक्षस्व किमिति त्वरसे सखे।। | 12-138-96a 12-138-96b |
यावत्पश्यामि चण्डालमायान्तं शस्त्रपाणिनम्। ततश्छेत्स्यामि ते पाशान्प्राप्ते साधारणे भये।। | 12-138-97a 12-138-97b |
तस्मिन्काले प्रमुक्तस्त्वं तरुमेवाधिरोक्ष्यसे। न हि ते जीवितादन्यत्किंचित्कृत्यं भविष्यति।। | 12-138-98a 12-138-98b |
तस्मिन्कालेऽपि च तता दिवाकीर्तिभयार्दितः। मम न ग्रहणे शक्तः पलायनपरायणः।।' | 12-138-99a 12-138-99b |
ततो भवत्यपक्रान्ते त्रस्ते भीते च लुब्धकात्। अहं बिलं प्रवेक्ष्यामि भवाञ्शाखां गमिष्यति।। | 12-138-100a 12-138-100b |
एवमुक्तस्तु मार्जारो मूषिकेणात्मनो हितम्। वचनं वाक्यतत्त्वज्ञो जीवितार्थी महामतिः।। | 12-138-101a 12-138-101b |
अथात्मकृत्ये त्वरितः सम्यक्प्रार्थितमाचरन्। उवाच लोमशो वाक्यं मूषिकं चिरकारिणाम्।। | 12-138-102a 12-138-102b |
नह्येवं मित्रकार्याणि प्रीत्या कुर्वन्ति साधवः।। | 12-138-103a |
यथा त्वं मोक्षितः कृच्छ्रात्त्वरमाणेन वै मया। तथा हि त्वरमाणेन त्वया कार्यमिदं मम। यत्नं कुरु महाप्राज्ञ यथा स्वस्त्यावयोर्भवेत्।। | 12-138-104a 12-138-104b 12-138-104c |
अथवा पूर्ववैरं त्वं स्मरन्कालं जिहीर्षसि। पश्य दुष्कृतकर्मंस्त्वं व्यक्तमायुःक्षयो मम।। | 12-138-105a 12-138-105b |
यदि किंचिन्मयाऽज्ञानात्पुरस्ताद्दुष्कृतं कृतम्। न तन्मनसि कर्तव्यं क्षामये त्वां प्रसीद मे।। | 12-138-106a 12-138-106b |
तमेवंवादिनं प्राज्ञं शास्त्रविद्बुद्धिसत्तमः। उवाचेदं वचः श्रेष्ठं मार्जारं मूषिकस्तदा।। | 12-138-107a 12-138-107b |
श्रुतं मे तव मार्जार स्वमर्थं परिगृह्णतः। ममापि त्वं विजानासि स्वमर्थं परिगृह्णतः।। | 12-138-108a 12-138-108b |
यन्मित्रं भीतवत्साध्यं यस्मिन्मित्रे भयं हितम्। आरक्षितं ततः कार्यं पाणिः सर्पमुखादिव।। | 12-138-109a 12-138-109b |
कृत्वा बलवता संधिमात्मानं यो न रक्षति। अपथ्यमिव तद्भुक्तं तस्यार्थाय कल्पते।। | 12-138-110a 12-138-110b |
कश्चित्कस्यचिन्मित्रं न कश्चित्कस्यचिद्रिपुः। अर्थतस्तु निबध्यन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।। | 12-138-111a 12-138-111b |
अर्थैरर्था निबध्यन्ते गजैरिव महागजाः। न च कश्चित्कृते कार्ये कर्तारं समवेक्षते। तस्मात्सर्वाणि कार्याणि सावशेषाणि कारयेत्।। | 12-138-112a 12-138-112b 12-138-112c |
तस्मिन्कालेऽपि च भवान्दिवाकीर्तिभयार्दितः। मम न ग्रहणे शक्तः पलायपरायणः।। | 12-138-113a 12-138-113b |
छिन्नं तु तन्तुबाहुल्यं तन्तुरेकोऽवशेषितः। छेत्स्याम्यहं तमप्याशु निर्वृतो भव लोमश।। | 12-138-114a 12-138-114b |
तयोः संवदतोरेवं तथैवापन्नयोर्द्वयोः। क्षयं जगाम सा रात्रिर्लोमशं त्वागमद्भयम्।। | 12-138-115a 12-138-115b |
ततः प्रभातसमये विकटः कृष्णपिङ्गलः। स्थूलस्फिग्विकृतो रूक्षः श्वयूथपरिवारितः।। | 12-138-116a 12-138-116b |
शङ्कुकर्णो महावक्रः खनित्री घोरदर्शनः। परिघो नाम चण्डालः शस्त्रपाणिरदृश्यत।। | 12-138-117a 12-138-117b |
तं दृष्ट्वा यमदूताभं मार्जारस्त्रस्तचेतनः। उवाच पलितं भीतः किमिदानीं करिष्यसि।। | 12-138-118a 12-138-118b |
तथैव च सुसंत्रस्तौ तं दृष्ट्वा घोरसंकुलम्। क्षणेन नकुलोलूकौ नैराश्यमुपजग्मतुः।। | 12-138-119a 12-138-119b |
बलिनौ मतिमन्तौ च संघातं चाप्युपागतौ। अशक्तौ सुनयात्तस्मात्संप्रधर्षयितुं बलात्।। | 12-138-120a 12-138-120b |
कार्यार्थे कृतसंधी तौ दृष्ट्वा मार्जारमूषिकौ। उलूकनकुलौ तूर्णं जग्मतुः स्वंस्वमालयम्।। | 12-138-121a 12-138-121b |
ततश्चिच्छेद तं तन्तुं मार्जारस्य स मूषिकः। विप्रमुक्तोऽथ मार्जारस्तमेवाभ्यपतद्दुमम्।। | 12-138-122a 12-138-122b |
स तस्मात्संभ्रमान्मुक्तो मुक्तो घोरेण सत्रुणा। बिलं विवेश पलितः शाखां लेभे स लोमशः।। | 12-138-123a 12-138-123b |
उन्माथमप्युपादाय चण्डालो वीक्ष्य सर्वशः। विहताशः क्षणेनैव तस्माद्देशादपाक्रमत्। जगाम स स्वभवनं चण्डालो भरतर्षभ।। | 12-138-124a 12-138-124b 12-138-124c |
ततस्तस्माद्भान्मुक्तो दुर्लभं प्राप्य जीवितम्। बिलस्थं पादपाग्रस्थः पलितं लोमशोऽब्रवीत्।। | 12-138-125a 12-138-125b |
अकृत्वा संविदं कांचित्सहसा त्वमपस्रुतः। कृतज्ञः कृतकल्याणः कच्चिन्मां नाभिशङ्कसे।। | 12-138-126a 12-138-126b |
गत्वा च मम विश्वासं दत्त्वा च मम जीवितम्। मित्रोपभोगसमये किं हि मां नोपसर्पसि।। | 12-138-127a 12-138-127b |
कृत्वा हि पूर्वं मित्राणि यः पश्चान्नानुतिष्ठति। न स मित्राणि लभते कृच्छ्रात्स्वापत्सु दुर्मतिः।। | 12-138-128a 12-138-128b |
सत्कृतोऽहं त्वया मित्र सामर्थ्यादात्मानः सखे। स मां मित्रत्वमापन्नमुपभोक्तुं त्वमर्हसि।। | 12-138-129a 12-138-129b |
यानि मे सन्ति मित्राणि ये च मे सन्ति बान्धवाः। सर्वे त्वां पूजयिष्यन्ति शिष्या गुरुमिव प्रियम्।। | 12-138-130a 12-138-130b |
अहं च पूजयिष्ये त्वां समित्रगणबान्धवम्। जीवितस्य प्रदातारं कृतज्ञः को न पूजयेत्।। | 12-138-131a 12-138-131b |
ईश्वरो मे भवानस्तु शरीरस्य गृहस्य च। अर्थानां चैव सर्वेषामनुशास्ता च मे भव।। | 12-138-132a 12-138-132b |
अमात्यो मे भव प्राज्ञ पितेवेह प्रशाधि माम्। न तेऽस्ति भयमस्मत्तो जीवितेनात्मनः शपे।। | 12-138-133a 12-138-133b |
बुद्ध्या त्वमुशना साक्षाद्बलेनाधिकृता वयम्। त्वं मन्त्रबलयुक्तो हि दद्या विजयमेव मे।। | 12-138-134a 12-138-134b |
एवमुक्तः परं सान्त्वं मार्जारेण स मूषिकः। उवाच परमार्थज्ञः श्लक्ष्णमात्महितं वचः।। | 12-138-135a 12-138-135b |
यद्भवानाह तत्सर्वं मया ते लोमश श्रुतम्। ममापि तावद्ब्रुवतः शृणु यत्प्रतिभाति मे।। | 12-138-136a 12-138-136b |
वेदितव्यानि मित्राणि बोद्धव्याश्चापि शत्रवः। एतत्सुसूक्ष्मं लोकेऽस्मिन्दृश्यते प्राज्ञसंमतैः।। | 12-138-137a 12-138-137b |
शत्रुरूपा हि सुहृदो मित्ररूपाश्च शत्रवः। सान्त्वितास्ते न बुध्यन्ते रागलोभवशं गताः।। | 12-138-138a 12-138-138b |
येषां सौम्यानि मित्राणि क्रोधनाश्चैव शत्रवः। सान्त्वितास्ते न बुध्यन्ते रागलोभवशंगताः।। | 12-138-139a 12-138-139b |
नास्ति जात्या रिपुर्नाम मित्रं नाम न विद्यते। सामर्थ्ययोगाज्जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।। | 12-138-140a 12-138-140b |
यो यस्मिञ्जीवति स्वार्थे पश्येत्पीडां न जीवति। स तस्य मित्रं तावत्स्यःद्यावन्न स्याद्विपर्ययः।। | 12-138-141a 12-138-141b |
नास्ति मैत्री स्थिरा नाम न च ध्रुवमसौहृदम्। अर्थयुक्त्याऽनुजायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।। | 12-138-142a 12-138-142b |
मित्रं च शत्रुतामेति कस्मिंश्चित्कालपर्यये। शत्रुश्च मित्रतामेति स्वार्थो हि बलवत्तरः।। | 12-138-143a 12-138-143b |
यो विश्वसिति मित्रेषु न विश्वसिति शत्रुषु। अर्थयुक्तिमविज्ञाय चलितं तस्य जीवितम्।। | 12-138-144a 12-138-144b |
मित्रे वा यदि वा शत्रौ तस्यापि चलिता मतिः। न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्। विश्वासाद्भयमुत्पन्नमपि मूलानि कृन्तति।। | 12-138-145a 12-138-145b 12-138-145c |
अर्थयुक्त्या हि जायन्ते पिता माता सुतस्तथा। मातुला भागिनेयाश्च तथा संबन्धिबान्धवाः।। | 12-138-146a 12-138-146b |
पुत्रं हि मातापितरौ त्यजतः पतितं प्रियम्। लोको रक्षति चात्मानं पश्य स्वार्थस्य सारताम्।। | 12-138-147a 12-138-147b |
सामान्या निष्कृतिः प्राज्ञ यो मोक्षात्समन्तरम्। कृत्यं मृगयते कर्तुं सुखोपायमसंशयम्।। | 12-138-148a 12-138-148b |
अस्मिन्निलय एवं त्वं न्यग्रोधादवतारितः। पूर्वं निविष्टमुन्माथं चपलन्वान्न बुद्धवान्।। | 12-138-149a 12-138-149b |
आत्मनश्चपलो नास्ति कुतोऽन्येषां भविष्यति। तस्मात्सर्वाणि कार्याणि चपलो हन्त्यसंशयम्।। | 12-138-150a 12-138-150b |
ब्रवीषि मधुरं यच्च प्रियो मेऽद्य भवानिति। तन्मिथ्याकारणं सर्वं विस्तरेणापि मे शृणु।। | 12-138-151a 12-138-151b |
कारणात्प्रियतामेति द्वेष्यो भवति कारणात्। अर्थार्थी जीवलोकोऽयं न कश्चित्कस्यचित्प्रियः।। | 12-138-152a 12-138-152b |
सख्यं सोदर्ययोर्भ्रात्रोदर्पंत्योर्वा परस्परम्। कस्यचिन्नाभिजानामि प्रीतिं निष्कारणामिह।। | 12-138-153a 12-138-153b |
यद्यपि भ्रातरः क्रुद्धा भार्या वा कारणान्तरे। स्वभावतस्ते प्रीयन्ते नेतरः प्राकृतो जनः।। | 12-138-154a 12-138-154b |
प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापरः। मन्त्रहोमजपैरन्यः कार्यार्थे प्रीयते जनः।। | 12-138-155a 12-138-155b |
उत्पन्ना कारणात्प्रीतिरासीन्नौ कारणान्तरे। प्रध्वस्ते कारणस्थाने सा प्रीतिर्नाभिवर्तते।। | 12-138-156a 12-138-156b |
किंनु तत्कारणं मन्ये येनाहं भवतः प्रियः। अन्यत्राभ्यवहारार्थात्तत्रापि च बुधा वयम्।। | 12-138-157a 12-138-157b |
कालो हेतुं विकुरुते स्वार्थस्तमनुवर्तते। स्वार्धं प्राज्ञोऽभिजानाति प्राज्ञं लोकोऽनुवर्तते। न त्वीदृशं त्वया वाच्यं विद्यते स्वार्थपण्डितः।। | 12-138-158a 12-138-158b 12-138-158c |
न कालो हि समर्थस्य स्नेहहेतुरयं तव। तस्मान्नाहं चले स्वार्थात्सुस्थितः संधिविग्रहे।। | 12-138-159a 12-138-159b |
अभ्राणामिव रुपाणि विकुर्वन्ति पदेपदे। अद्यैव हि रिपुर्भूत्वा पुनरद्यैव मे सुहृत्। पुनश्च रिपुरद्यैव युक्तीनां पश्य चापलम्।। | 12-138-160a 12-138-160b 12-138-160c |
आसीन्मैत्री तु तावन्नौ यावद्धेतुरभूत्पुरा। सागता सह तेनैव कालयुक्तेन हेतुना।। | 12-138-161a 12-138-161b |
त्वं हि मेऽत्यन्ततः शत्रुः सामर्थ्यान्मित्रतां गतः। तत्कृत्यमभिनिर्वर्त्य प्रकृतिः शत्रुतां गता।। | 12-138-162a 12-138-162b |
सोऽहमेवं प्रणीतानि ज्ञात्वा शास्त्राणि तत्त्वतः। प्राविशेयं कथं पाशं त्वत्कृते तद्ब्रवीहि मे।। | 12-138-163a 12-138-163b |
त्वद्वीर्येण विमुक्तोऽहं मद्वीर्येण तथा भवान्। अन्योन्यानुग्रहे वृत्ते नास्ति भूयः समागमः।। | 12-138-164a 12-138-164b |
त्वं हि सौम्य कृतार्थोऽद्य निवृत्तार्थास्तथा वयम्। न तेऽस्त्यद्य मया कृत्यं किंचिदन्यत्र भक्षणात्।। | 12-138-165a 12-138-165b |
अहमन्नं भवान्भोक्ता दुर्बलोऽहं भवान्बली। नावयोर्विद्यते संधिर्वियुक्ते विषमे बले।। | 12-138-166a 12-138-166b |
स मन्येऽहं तव प्रज्ञां यन्मोक्षात्प्रत्यनन्तरम्। भक्ष्यं मृगयते नूनं सुखोपायमसंशयम्।। | 12-138-167a 12-138-167b |
--र्थी ह्येव सुव्यक्तो विमुक्तः प्रसृतः क्षुधा। शास्त्रजां मतिमास्थाय प्रातराशमिहेच्छसि।। | 12-138-168a 12-138-168b |
जानामि क्षुधितं च त्वामाहारसमयश्च ते। स त्वं मामभिसंधाय भक्ष्यं मृगयसे पुनः।। | 12-138-169a 12-138-169b |
किंचात्र पुत्रदारार्थं यद्वाणीं सृजसे मयि। शुश्रूषां यतसे कर्तुं सखे मम तत्क्षमम्।। | 12-138-170a 12-138-170b |
त्वया मां सहितं दृष्ट्वा प्रिया भार्या सुताश्च ये। कस्मात्ते मां न खादेयुः स्पृष्टवा प्रणयिनि त्वयि।। | 12-138-171a 12-138-171b |
नाहं त्वया समेष्यामि वृत्ते हेतुसमागमे। शिवं ध्यायस्व मेऽत्रस्थः सुकृतं स्मरसे यदि।। | 12-138-172a 12-138-172b |
शत्रोरन्नाद्यभूतः सन्क्लिष्टस्य क्षुधितस्य च। भक्ष्यं मृगयमाणस्य कः प्राज्ञो विषयं व्रजेत्।। | 12-138-173a 12-138-173b |
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि दूरादपि तवोद्विजे। [विश्वस्तं वा प्रमत्तं वा एतदेव कृतं भवेत्।।] | 12-138-174a 12-138-174b |
नाहं त्वया समेष्यामि निवृत्तो भव लोमश। बलवत्सन्निकर्षो हि न कदाचित्प्रशस्यते।। | 12-138-175a 12-138-175b |
यदि त्वं सुकृतं वेत्सि तत्सख्यमनुसारय। प्रशान्तादपि हि प्राज्ञाद्भेतव्यं बलिनः सदा।। | 12-138-176a 12-138-176b |
यदि त्वर्थेन ते कार्यं ब्रूहि किं करवाणि ते। कामं सर्वं प्रदास्यामि न त्वात्मानं कथंचन।। | 12-138-177a 12-138-177b |
आत्मार्थे संततिस्त्याज्या राज्यं रत्नं धनानि च। अपि सर्वस्वमुत्सृज्य रक्षेदात्मानमात्मवान्।। | 12-138-178a 12-138-178b |
ऐश्वर्यधनरत्नानां प्रत्यमित्रेऽपि वर्तताम्। दृष्टा हि पुनरावृत्तिर्जीवतामिति नः श्रुतम्।। | 12-138-179a 12-138-179b |
न त्वात्मनः संप्रदानं धनरत्नवदिष्यते। आत्मा हि सर्वदा रक्ष्यो दारैरपि धनैरपि।। | 12-138-180a 12-138-180b |
आत्मरक्षणतन्त्राणां सुपरीक्षितकारिणाम्। आपदो नोपपद्यन्ते पुरुषाणां स्वदोषजाः।। | 12-138-181a 12-138-181b |
शत्रुं सम्यगविज्ञातो विप्रियो ह्यबलीयसा। `शङ्कनीयः स सर्वत्र प्रियमप्याचरन्सदा।। | 12-138-182a 12-138-182b |
कुलजानां सुमित्राणां धार्मिकाणां महात्मनाम्।' न तेषां चाल्यते बुद्धिः शास्त्रार्थकृतिश्चया।। | 12-138-183a 12-138-183b |
इत्यभिव्यक्तमेवासौ पलितेनापहासितः। मार्जारो व्रीडितो भूत्वा मूषिकं वाक्यमब्रवीत्।। | 12-138-184a 12-138-184b |
सत्यं शपे त्वयाऽहं वै मित्रद्रोहो विगर्हितः। संमन्येऽहं तव प्रज्ञां यस्त्वं मम हिते रतः।। | 12-138-185a 12-138-185b |
उक्तवानर्थतत्त्वेन मया संभिन्नदर्शनः। न तु मामन्यथा साधो त्वं ग्रहीतुमिहार्हसि।। | 12-138-186a 12-138-186b |
प्राणप्रदानजं त्वत्तो मयि सौहृदमागतम्। धर्मज्ञोऽस्मि गुणज्ञोऽस्मि कृतज्ञोस्मि विशेषतः।। | 12-138-187a 12-138-187b |
मित्रेषु वत्सलश्चास्मि त्वद्भक्तश्च विशेषतः। त्वं मामेवंगते साधो न वाचयितुमर्हसि।। | 12-138-188a 12-138-188b |
त्वया हि वाच्यमानोऽहं जह्यां प्राणान्सबान्धवः। धिक्शब्दो हि बुधैर्दृष्टो मद्विधेषु मनस्विषु। पतनं धर्मतत्त्वज्ञ न मे शङ्कितुमर्हसि।। | 12-138-189a 12-138-189b 12-138-189c |
इति संस्तूयमानोऽपि मार्जारेण स मूषिकः। मनसा भावगम्भीरं मार्जारमिदमब्रवीत्।। | 12-138-190a 12-138-190b |
साधुर्भवान्कृतार्थोऽस्मि प्रिये च न च विश्वसे। संस्तवैर्वा धनौघैर्वा नाहं शक्यः पुनस्त्वया।। | 12-138-191a 12-138-191b |
न ह्यमित्रवशं यान्ति प्राज्ञा निष्कारणं सखे। अस्मिन्नर्थे च गाथे द्वे निबोधोशनसा कृते।। | 12-138-192a 12-138-192b |
शत्रुसाधारणे कृत्ये कृत्वा सन्धिं बलीयसा। समाहितश्चरेद्बुद्ध्या कृतार्थश्च न विश्वसेत्।। | 12-138-193a 12-138-193b |
न विश्वसेदवश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्चसेत्। नित्यं विश्वासयेदन्यान्परेषां तु न विश्वसेत्।। | 12-138-194a 12-138-194b |
तस्मात्सर्वास्ववस्थासु रक्षेज्जीवितमात्मनः। द्रव्याणि संततिश्चैव सर्वं भवति जीवताम्।। | 12-138-195a 12-138-195b |
संक्षेपो नीतिशास्त्राणामविश्वासः परो मतः। नृषु तस्मादविश्वासः पुष्कलं हितमात्मनः।। | 12-138-196a 12-138-196b |
वध्यन्ते न ह्यविश्वस्ताः शत्रुर्भिर्दुर्बला अपि। विश्वस्तास्तेषु वध्यन्ते बलवन्तोऽपि शत्रुभिः।। | 12-138-197a 12-138-197b |
त्वद्विधेभ्यो मया ह्यात्मा रक्ष्यो मार्जार सर्वदा। रक्ष त्वमपि चात्मानं चण्डालाज्जातिकिल्बिषात्।। | 12-138-198a 12-138-198b |
स तस्य ब्रुवतस्त्वेवं संत्रासाज्जातसाध्वसः। कथां हित्वा जवेनाशु मार्जारः प्रययौ ततः।। | 12-138-199a 12-138-199b |
ततः शास्त्रार्थतत्त्वज्ञो बुद्धिसामर्थ्यमात्मनः। विश्राव्य पलितः प्राज्ञो बिलमन्यज्जगाम ह।। | 12-138-200a 12-138-200b |
एवं प्रज्ञावता बुद्ध्या दुर्बलेन महाबलाः। एकेन बहवोऽमित्राः पलितेनाभिसंधिताः।। | 12-138-201a 12-138-201b |
अरिणापि समर्थेन सन्धिं कुर्वीत पण्डितः। मूषिकश्च बिडालश्च मुक्तावन्योन्यसंश्रयात्।। | 12-138-202a 12-138-202b |
इत्येवं क्षत्रधर्मस्य मया मार्गो निदर्शितः। विस्तरेण महाराज संक्षेपमपि मे शृणु।। | 12-138-203a 12-138-203b |
अन्योन्यं कृतवैरौ तु चक्रतुः प्रीतिमुत्तमाम्। अन्योन्यमभिसंधातुं संबभूव तयोर्मतिः।। | 12-138-204a 12-138-204b |
तत्र प्राज्ञोऽभिसंधत्ते सम्यग्बुद्धिबलाश्रयात्। अभिसंधीयते प्राज्ञः प्रमादादपि वा बुधैः।। | 12-138-205a 12-138-205b |
तस्मादभीतवद्भीतो विश्वस्तवदविश्वसेत्। न ह्यप्रमत्तश्चलति चलितोऽवा न नश्यति।। | 12-138-206a 12-138-206b |
काले हि रिपुणा संधिः काले मित्रेण विग्रहः। कार्य इत्येव तत्वज्ञाः प्राहुर्नित्यं नराधिप।। | 12-138-207a 12-138-207b |
एतज्ज्ञात्वा महाराज शास्त्रार्थमभिगम्य च। अभियुक्तोऽप्रमत्तश्च प्राग्भयाद्भीतवच्चरेत्।। | 12-138-208a 12-138-208b |
भीतवत्संहितः कार्यः प्रतिसंधिस्तथैव च। भयादुत्पद्यते बुद्धिरप्रमत्ताभियोगजा।। | 12-138-209a 12-138-209b |
न भयं जायते राजन्भीतस्यानागते भये। अभीतस्य च विस्रम्भात्सुमहज्जायते भयम्।। | 12-138-210a 12-138-210b |
न भीरुरिति चात्यन्तं मन्त्रो देयः कथंचन। अविज्ञानाद्धि विज्ञाने गच्छेदास्पददर्शनाम्।। | 12-138-211a 12-138-211b |
तस्मादभीतवद्भीतो विश्वस्तवदविश्वसन्। कार्याणां गुरुतां ज्ञात्वा नादृतं किंचिदाचरेत्।। | 12-138-212a 12-138-212b |
एवमेतन्मया प्रोक्तमितिहासं युधिष्ठिर। श्रुत्वा त्वं सुहृदां मध्ये यथावत्समुदाचर।। | 12-138-213a 12-138-213b |
उपलभ्य मतिं चाग्र्यामरिमित्रान्तरं तथा। संधिविग्रहकालौ च मोक्षोपायं तथाऽऽपदि।। | 12-138-214a 12-138-214b |
शत्रुसाधारणे कृत्ये कृत्वा सन्धिं बलीयसा। समागतश्चरेद्बुद्ध्या कृतार्थो न च विश्वसेत्।। | 12-138-215a 12-138-215b |
अविरुद्धां त्रिवर्गेण नीतिमेतां महीपते। अभ्युत्तिष्ठ श्रुतात्तस्माद्भूयः संरञ्जयन्प्रजाः।। | 12-138-216a 12-138-216b |
ब्राह्मणैश्चापि ते सार्धं यात्रा भवतु पाण्डव। ब्राह्मणाद्धि परं श्रेयो दिवि चेह च भारत।। | 12-138-217a 12-138-217b |
एते धर्मस्य वेत्तारः कृतज्ञाः सततं प्रभो। पूजिताः शुभकर्तारः पूजयैनाञ्जाधिप।। | 12-138-218a 12-138-218b |
राज्यं श्रेयः परं राजन्यशश्च महदाप्स्यसे। कुलस्य संततिं चैव यथान्यायं यथाक्रमम्।। | 12-138-219a 12-138-219b |
श्रुतं च ते भारत संधिविग्रहं विभावितं बुद्धिविशेषकारितम्। तथा त्ववेक्ष्य क्षितिपेन सर्वदा निषेवितव्यं नृप शत्रुमण्डलम्।। | 12-138-220a 12-138-220b 12-138-220c 12-138-220d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि अष्टत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 138।। |
12-138-5 उद्धर्तुमुन्मूलयितुम्।। 12-138-6 सर्वतः सर्वदिक्स्थैः प्रार्थ्यमानेन प्रसितुमिति शेषः।। 12-138-9 प्राकृतकृत्रिममित्रयोर्मध्ये केन सन्धिः कर्तव्यः केन वा वैरम्।। 12-138-18 व्यवस्य निश्चित्य अत्र पूर्वश्लोकोक्तेऽर्थे।। 12-138-20 वैराज्यमभिते जात इति ट. ड. थ. द. पाठः।। 12-138-23 उन्माथं कूटयन्त्रं पशुमृगपक्षिबन्धनम्।। 12-138-26 पलितो मूषिकः।। 12-138-28 तदामिषं तस्य उन्माथे धृतमामिषम्। सपत्नस्य सपत्नं बद्धं अनादृत्य।। 12-138-30 शरस्तृणविशेष स्तत्प्रसूनं पुष्पम्।। 12-138-51 यदि मां न जिघांससि इति झ. द. पाठः।। 12-138-105 स्मरन्कालं चिकीर्षसीति थ. द. पाठः।। 12-138-160 पुनरद्यैव सौहृदमिति थ. द. ध. पाठः।।
मार्जारमूषकसंवादः
१२.१३६ 12.138
युधिष्ठिर उवाच॥
सर्वत्र बुद्धिः कथिता श्रेष्ठा ते भरतर्षभ |
अनागता तथोत्पन्ना दीर्घसूत्रा विनाशिनी ॥१॥
तदिच्छामि परां बुद्धिं श्रोतुं भरतसत्तम |
यथा राजन्न मुह्येत शत्रुभिः परिवारितः ॥२॥
धर्मार्थकुशल प्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद |
पृच्छामि त्वा कुरुश्रेष्ठ तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥३॥
शत्रुभिर्बहुभिर्ग्रस्तो यथा वर्तेत पार्थिवः |
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं सर्वमेव यथाविधि ॥४॥
विषमस्थं हि राजानं शत्रवः परिपन्थिनः |
बहवोऽप्येकमुद्धर्तुं यतन्ते पूर्वतापिताः ॥५॥
सर्वतः प्रार्थ्यमानेन दुर्बलेन महाबलैः |
एकेनैवासहायेन शक्यं स्थातुं कथं भवेत् ॥६॥
कथं मित्रमरिं चैव विन्देत भरतर्षभ |
चेष्टितव्यं कथं चात्र शत्रोर्मित्रस्य चान्तरे ॥७॥
प्रज्ञातलक्षणे राजन्नमित्रे मित्रतां गते |
कथं नु पुरुषः कुर्यात्किं वा कृत्वा सुखी भवेत् ॥८॥
विग्रहं केन वा कुर्यात्सन्धिं वा केन योजयेत् |
कथं वा शत्रुमध्यस्थो वर्तेताबलवानिति ॥९॥
एतद्वै सर्वकृत्यानां परं कृत्यं परन्तप |
नैतस्य कश्चिद्वक्तास्ति श्रोता चापि सुदुर्लभः ॥१०॥
ऋते शान्तनवाद्भीष्मात्सत्यसन्धाज्जितेन्द्रियात् |
तदन्विष्य महाबाहो सर्वमेतद्वदस्व मे ॥११॥
भीष्म उवाच॥
त्वद्युक्तोऽयमनुप्रश्नो युधिष्ठिर गुणोदयः |
शृणु मे पुत्र कार्त्स्न्येन गुह्यमापत्सु भारत ॥१२॥
अमित्रो मित्रतां याति मित्रं चापि प्रदुष्यति |
सामर्थ्ययोगात्कार्याणां तद्गत्या हि सदा गतिः ॥१३॥
तस्माद्विश्वसितव्यं च विग्रहं च समाचरेत् |
देशं कालं च विज्ञाय कार्याकार्यविनिश्चये ॥१४॥
सन्धातव्यं बुधैर्नित्यं व्यवस्यं च हितार्थिभिः |
अमित्रैरपि सन्धेयं प्राणा रक्ष्याश्च भारत ॥१५॥
यो ह्यमित्रैर्नरो नित्यं न संदध्यादपण्डितः |
न सोऽर्थमाप्नुयात्किञ्चित्फलान्यपि च भारत ॥१६॥
यस्त्वमित्रेण सन्धत्ते मित्रेण च विरुध्यते |
अर्थयुक्तिं समालोक्य सुमहद्विन्दते फलम् ॥१७॥
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् |
मार्जारस्य च संवादं न्यग्रोधे मूषकस्य च ॥१८॥
वने महति कस्मिंश्चिन्न्यग्रोधः सुमहानभूत् |
लताजालपरिच्छन्नो नानाद्विजगणायुतः ॥१९॥
स्कन्धवान्मेघसङ्काशः शीतच्छायो मनोरमः |
वैरन्त्यमभितो जातस्तरुर्व्यालमृगाकुलः ॥२०॥
तस्य मूलं समाश्रित्य कृत्वा शतमुखं बिलम् |
वसति स्म महाप्राज्ञः पलितो नाम मूषकः ॥२१॥
शाखाश्च तस्य संश्रित्य वसति स्म सुखं पुरः |
लोमशो नाम मार्जारः पक्षिसत्त्वावसादकः ॥२२॥
तत्र चागत्य चण्डालो वैरन्त्यकृतकेतनः |
अयोजयत्तमुन्माथं नित्यमस्तं गते रवौ ॥२३॥
तत्र स्नायुमयान्पाशान्यथावत्संनिधाय सः |
गृहं गत्वा सुखं शेते प्रभातामेति शर्वरीम् ॥२४॥
तत्र स्म नित्यं बध्यन्ते नक्तं बहुविधा मृगाः |
कदाचित्तत्र मार्जारस्त्वप्रमत्तोऽप्यबध्यत ॥२५॥
तस्मिन्बद्धे महाप्राज्ञः शत्रौ नित्याततायिनि |
तं कालं पलितो ज्ञात्वा विचचार सुनिर्भयः ॥२६॥
तेनानुचरता तस्मिन्वने विश्वस्तचारिणा |
भक्षं विचरमाणेन नचिराद्दृष्टमामिषम् ॥२७॥
स तमुन्माथमारुह्य तदामिषमभक्षयत् |
तस्योपरि सपत्नस्य बद्धस्य मनसा हसन् ॥२८॥
आमिषे तु प्रसक्तः स कदाचिदवलोकयन् |
अपश्यदपरं घोरमात्मनः शत्रुमागतम् ॥२९॥
शरप्रसूनसङ्काशं महीविवरशायिनम् |
नकुलं हरिकं नाम चपलं ताम्रलोचनम् ॥३०॥
तेन मूषकगन्धेन त्वरमाणमुपागतम् |
भक्षार्थं लेलिहद्वक्त्रं भूमावूर्ध्वमुखं स्थितम् ॥३१॥
शाखागतमरिं चान्यदपश्यत्कोटरालयम् |
उलूकं चन्द्रकं नाम तीक्ष्णतुण्डं क्षपाचरम् ॥३२॥
गतस्य विषयं तस्य नकुलोलूकयोस्तदा |
अथास्यासीदियं चिन्ता तत्प्राप्य सुमहद्भयम् ॥३३॥
आपद्यस्यां सुकष्टायां मरणे समुपस्थिते |
समन्ताद्भय उत्पन्ने कथं कार्यं हितैषिणा ॥३४॥
स तथा सर्वतो रुद्धः सर्वत्र समदर्शनः |
अभवद्भयसन्तप्तश्चक्रे चेमां परां गतिम् ॥३५॥
आपद्विनाशभूयिष्ठा शतैकीयं च जीवितम् |
समन्तसंशया चेयमस्मानापदुपस्थिता ॥३६॥
गतं हि सहसा भूमिं नकुलो मां समाप्नुयात् |
उलूकश्चेह तिष्ठन्तं मार्जारः पाशसङ्क्षयात् ॥३७॥
न त्वेवास्मद्विधः प्राज्ञः संमोहं गन्तुमर्हति |
करिष्ये जीविते यत्नं यावदुच्छ्वासनिग्रहम् ॥३८॥
न हि बुद्ध्यान्विताः प्राज्ञा नीतिशास्त्रविशारदाः |
सम्भ्रमन्त्यापदं प्राप्य महतोऽर्थानवाप्य च ॥३९॥
न त्वन्यामिह मार्जाराद्गतिं पश्यामि साम्प्रतम् |
विषमस्थो ह्ययं जन्तुः कृत्यं चास्य महन्मया ॥४०॥
जीवितार्थी कथं त्वद्य प्रार्थितः शत्रुभिस्त्रिभिः |
तस्मादिममहं शत्रुं मार्जारं संश्रयामि वै ॥४१॥
क्षत्रविद्यां समाश्रित्य हितमस्योपधारये |
येनेमं शत्रुसङ्घातं मतिपूर्वेण वञ्चये ॥४२॥
अयमत्यन्तशत्रुर्मे वैषम्यं परमं गतः |
मूढो ग्राहयितुं स्वार्थं सङ्गत्या यदि शक्यते ॥४३॥
कदाचिद्व्यसनं प्राप्य सन्धिं कुर्यान्मया सह |
बलिना संनिविष्टस्य शत्रोरपि परिग्रहः ॥४४॥
कार्य इत्याहुराचार्या विषमे जीवितार्थिना ॥४४॥
श्रेयान्हि पण्डितः शत्रुर्न च मित्रमपण्डितम् |
मम ह्यमित्रे मार्जारे जीवितं सम्प्रतिष्ठितम् ॥४५॥
हन्तैनं सम्प्रवक्ष्यामि हेतुमात्माभिरक्षणे |
अपीदानीमयं शत्रुः सङ्गत्या पण्डितो भवेत् ॥४६॥
ततोऽर्थगतितत्त्वज्ञः सन्धिविग्रहकालवित् |
सान्त्वपूर्वमिदं वाक्यं मार्जारं मूषकोऽब्रवीत् ॥४७॥
सौहृदेनाभिभाषे त्वा कच्चिन्मार्जार जीवसि |
जीवितं हि तवेच्छामि श्रेयः साधारणं हि नौ ॥४८॥
न ते सौम्य विषत्तव्यं जीविष्यसि यथा पुरा |
अहं त्वामुद्धरिष्यामि प्राणाञ्जह्यां हि ते कृते ॥४९॥
अस्ति कश्चिदुपायोऽत्र पुष्कलः प्रतिभाति माम् |
येन शक्यस्त्वया मोक्षः प्राप्तुं श्रेयो यथा मया ॥५०॥
मया ह्युपायो दृष्टोऽयं विचार्य मतिमात्मनः |
आत्मार्थं च त्वदर्थं च श्रेयः साधारणं हि नौ ॥५१॥
इदं हि नकुलोलूकं पापबुद्ध्यभितः स्थितम् |
न धर्षयति मार्जार तेन मे स्वस्ति साम्प्रतम् ॥५२॥
कूजंश्चपलनेत्रोऽयं कौशिको मां निरीक्षते |
नगशाखाग्रहस्तिष्ठंस्तस्याहं भृशमुद्विजे ॥५३॥
सतां साप्तपदं सख्यं सवासो मेऽसि पण्डितः |
सांवास्यकं करिष्यामि नास्ति ते मृत्युतो भयम् ॥५४॥
न हि शक्नोषि मार्जार पाशं छेत्तुं विना मया |
अहं छेत्स्यामि ते पाशं यदि मां त्वं न हिंससि ॥५५॥
त्वमाश्रितो नगस्याग्रं मूलं त्वहमुपाश्रितः |
चिरोषिताविहावां वै वृक्षेऽस्मिन्विदितं हि ते ॥५६॥
यस्मिन्नाश्वसते कश्चिद्यश्च नाश्वसते क्वचित् |
न तौ धीराः प्रशंसन्ति नित्यमुद्विग्नचेतसौ ॥५७॥
तस्माद्विवर्धतां प्रीतिः सत्या सङ्गतिरस्तु नौ |
कालातीतमपार्थं हि न प्रशंसन्ति पण्डिताः ॥५८॥
अर्थयुक्तिमिमां तावद्यथाभूतां निशामय |
तव जीवितमिच्छामि त्वं ममेच्छसि जीवितम् ॥५९॥
कश्चित्तरति काष्ठेन सुगम्भीरां महानदीम् |
स तारयति तत्काष्ठं स च काष्ठेन तार्यते ॥६०॥
ईदृशो नौ समायोगो भविष्यति सुनिस्तरः |
अहं त्वां तारयिष्यामि त्वं च मां तारयिष्यसि ॥६१॥
एवमुक्त्वा तु पलितस्तदर्थमुभयोर्हितम् |
हेतुमद्ग्रहणीयं च कालाकाङ्क्षी व्यपैक्षत ॥६२॥
अथ सुव्याहृतं तस्य श्रुत्वा शत्रुर्विचक्षणः |
हेतुमद्ग्रहणीयार्थं मार्जारो वाक्यमब्रवीत् ॥६३॥
बुद्धिमान्वाक्यसम्पन्नस्तद्वाक्यमनुवर्णयन् |
तामवस्थामवेक्ष्यान्त्यां साम्नैव प्रत्यपूजयत् ॥६४॥
ततस्तीक्ष्णाग्रदशनो वैडूर्यमणिलोचनः |
मूषकं मन्दमुद्वीक्ष्य मार्जारो लोमशोऽब्रवीत् ॥६५॥
नन्दामि सौम्य भद्रं ते यो मां जीवन्तमिच्छसि |
श्रेयश्च यदि जानीषे क्रियतां मा विचारय ॥६६॥
अहं हि दृढमापन्नस्त्वमापन्नतरो मया |
द्वयोरापन्नयोः सन्धिः क्रियतां मा विचारय ॥६७॥
विधत्स्व प्राप्तकालं यत्कार्यं सिध्यतु चावयोः |
मयि कृच्छ्राद्विनिर्मुक्ते न विनङ्क्ष्यति ते कृतम् ॥६८॥
न्यस्तमानोऽस्मि भक्तोऽस्मि शिष्यस्त्वद्धितकृत्तथा |
निदेशवशवर्ती च भवन्तं शरणं गतः ॥६९॥
इत्येवमुक्तः पलितो मार्जारं वशमागतम् |
वाक्यं हितमुवाचेदमभिनीतार्थमर्थवत् ॥७०॥
उदारं यद्भवानाह नैतच्चित्रं भवद्विधे |
विदितो यस्तु मार्गो मे हितार्थं शृणु तं मम ॥७१॥
अहं त्वानुप्रवेक्ष्यामि नकुलान्मे महद्भयम् |
त्रायस्व मां मा वधीश्च शक्तोऽस्मि तव मोक्षणे ॥७२॥
उलूकाच्चैव मां रक्ष क्षुद्रः प्रार्थयते हि माम् |
अहं छेत्स्यामि ते पाशान्सखे सत्येन ते शपे ॥७३॥
तद्वचः सङ्गतं श्रुत्वा लोमशो युक्तमर्थवत् |
हर्षादुद्वीक्ष्य पलितं स्वागतेनाभ्यपूजयत् ॥७४॥
स तं सम्पूज्य पलितं मार्जारः सौहृदे स्थितः |
सुविचिन्त्याब्रवीद्धीरः प्रीतस्त्वरित एव हि ॥७५॥
क्षिप्रमागच्छ भद्रं ते त्वं मे प्राणसमः सखा |
तव प्राज्ञ प्रसादाद्धि क्षिप्रं प्राप्स्यामि जीवितम् ॥७६॥
यद्यदेवङ्गतेनाद्य शक्यं कर्तुं मया तव |
तदाज्ञापय कर्ताहं सन्धिरेवास्तु नौ सखे ॥७७॥
अस्मात्ते संशयान्मुक्तः समित्रगणबान्धवः |
सर्वकार्याणि कर्ताहं प्रियाणि च हितानि च ॥७८॥
मुक्तश्च व्यसनादस्मात्सौम्याहमपि नाम ते |
प्रीतिमुत्पादयेयं च प्रतिकर्तुं च शक्नुयाम् ॥७९॥
ग्राहयित्वा तु तं स्वार्थं मार्जारं मूषकस्तदा |
प्रविवेश सुविस्रब्धः सम्यगर्थांश्चचार ह ॥८०॥
एवमाश्वासितो विद्वान्मार्जारेण स मूषकः |
मार्जारोरसि विस्रब्धः सुष्वाप पितृमातृवत् ॥८१॥
लीनं तु तस्य गात्रेषु मार्जारस्याथ मूषकम् |
तौ दृष्ट्वा नकुलोलूकौ निराशौ जग्मतुर्गृहान् ॥८२॥
लीनस्तु तस्य गात्रेषु पलितो देशकालवित् |
चिच्छेद पाशान्नृपते कालाकाङ्क्षी शनैः शनैः ॥८३॥
अथ बन्धपरिक्लिष्टो मार्जारो वीक्ष्य मूषकम् |
छिन्दन्तं वै तदा पाशानत्वरन्तं त्वरान्वितः ॥८४॥
तमत्वरन्तं पलितं पाशानां छेदने तदा |
सञ्चोदयितुमारेभे मार्जारो मूषकं तदा ॥८५॥
किं सौम्य नाभित्वरसे किं कृतार्थोऽवमन्यसे |
छिन्धि पाशानमित्रघ्न पुरा श्वपच एति सः ॥८६॥
इत्युक्तस्त्वरता तेन मतिमान्पलितोऽब्रवीत् |
मार्जारमकृतप्रज्ञं वश्यमात्महितं वचः ॥८७॥
तूष्णीं भव न ते सौम्य त्वरा कार्या न सम्भ्रमः |
वयमेवात्र कालज्ञा न कालः परिहास्यते ॥८८॥
अकाले कृत्यमारब्धं कर्तुं नार्थाय कल्पते |
तदेव काल आरब्धं महतेऽर्थाय कल्पते ॥८९॥
अकालविप्रमुक्तान्मे त्वत्त एव भयं भवेत् |
तस्मात्कालं प्रतीक्षस्व किमिति त्वरसे सखे ॥९०॥
यावत्पश्यामि चण्डालमायान्तं शस्त्रपाणिनम् |
ततश्छेत्स्यामि ते पाशं प्राप्ते साधारणे भये ॥९१॥
तस्मिन्काले प्रमुक्तस्त्वं तरुमेवाधिरोहसि |
न हि ते जीवितादन्यत्किञ्चित्कृत्यं भविष्यति ॥९२॥
ततो भवत्यतिक्रान्ते त्रस्ते भीते च लोमश |
अहं बिलं प्रवेक्ष्यामि भवाञ्शाखां गमिष्यति ॥९३॥
एवमुक्तस्तु मार्जारो मूषकेणात्मनो हितम् |
वचनं वाक्यतत्त्वज्ञो जीवितार्थी महामतिः ॥९४॥
अथात्मकृत्यत्वरितः सम्यक्प्रश्रयमाचरन् |
उवाच लोमशो वाक्यं मूषकं चिरकारिणम् ॥९५॥
न ह्येवं मित्रकार्याणि प्रीत्या कुर्वन्ति साधवः |
यथा त्वं मोक्षितः कृच्छ्रात्त्वरमाणेन वै मया ॥९६॥
तथैव त्वरमाणेन त्वया कार्यं हितं मम |
यत्नं कुरु महाप्राज्ञ यथा स्वस्त्यावयोर्भवेत् ॥९७॥
अथ वा पूर्ववैरं त्वं स्मरन्कालं विकर्षसि |
पश्य दुष्कृतकर्मत्वं व्यक्तमायुःक्षयो मम ॥९८॥
यच्च किञ्चिन्मयाज्ञानात्पुरस्ताद्विप्रियं कृतम् |
न तन्मनसि कर्तव्यं क्षमये त्वां प्रसीद मे ॥९९॥
तमेवंवादिनं प्राज्ञः शास्त्रविद्बुद्धिसंमतः |
उवाचेदं वचः श्रेष्ठं मार्जारं मूषकस्तदा ॥१००॥
श्रुतं मे तव मार्जार स्वमर्थं परिगृह्णतः |
ममापि त्वं विजानीहि स्वमर्थं परिगृह्णतः ॥१०१॥
यन्मित्रं भीतवत्साध्यं यन्मित्रं भयसंहितम् |
सुरक्षितं ततः कार्यं पाणिः सर्पमुखादिव ॥१०२॥
कृत्वा बलवता सन्धिमात्मानं यो न रक्षति |
अपथ्यमिव तद्भुक्तं तस्यानर्थाय कल्पते ॥१०३॥
न कश्चित्कस्यचिन्मित्रं न कश्चित्कस्यचित्सुहृत् |
अर्थैरर्था निबध्यन्ते गजैर्वनगजा इव ॥१०४॥
न हि कश्चित्कृते कार्ये कर्तारं समवेक्षते |
तस्मात्सर्वाणि कार्याणि सावशेषाणि कारयेत् ॥१०५॥
तस्मिन्कालेऽपि च भवान्दिवाकीर्तिभयान्वितः |
मम न ग्रहणे शक्तः पलायनपरायणः ॥१०६॥
छिन्नं तु तन्तुबाहुल्यं तन्तुरेकोऽवशेषितः |
छेत्स्याम्यहं तदप्याशु निर्वृतो भव लोमश ॥१०७॥
तयोः संवदतोरेवं तथैवापन्नयोर्द्वयोः |
क्षयं जगाम सा रात्रिर्लोमशं चाविशद्भयम् ॥१०८॥
ततः प्रभातसमये विकृतः कृष्णपिङ्गलः |
स्थूलस्फिग्विकचो रूक्षः श्वचक्रपरिवारितः ॥१०९॥
शङ्कुकर्णो महावक्त्रः पलितो घोरदर्शनः |
परिघो नाम चण्डालः शस्त्रपाणिरदृश्यत ॥११०॥
तं दृष्ट्वा यमदूताभं मार्जारस्त्रस्तचेतनः |
उवाच पलितं भीतः किमिदानीं करिष्यसि ॥१११॥
अथ चापि सुसन्त्रस्तौ तं दृष्ट्वा घोरदर्शनम् |
क्षणेन नकुलोलूकौ नैराश्यं जग्मतुस्तदा ॥११२॥
बलिनौ मतिमन्तौ च सङ्घातं चाप्युपागतौ |
अशक्यौ सुनयात्तस्मात्सम्प्रधर्षयितुं बलात् ॥११३॥
कार्यार्थं कृतसन्धी तौ दृष्ट्वा मार्जारमूषकौ |
उलूकनकुलौ तूर्णं जग्मतुः स्वं स्वमालयम् ॥११४॥
ततश्चिच्छेद तं तन्तुं मार्जारस्य स मूषकः |
विप्रमुक्तोऽथ मार्जारस्तमेवाभ्यपतद्द्रुमम् ॥११५॥
स च तस्माद्भयान्मुक्तो मुक्तो घोरेण शत्रुणा |
बिलं विवेश पलितः शाखां भेजे च लोमशः ॥११६॥
उन्माथमप्यथादाय चण्डालो वीक्ष्य सर्वशः |
विहताशः क्षणेनाथ तस्माद्देशादपाक्रमत् ॥११७॥
जगाम च स्वभवनं चण्डालो भरतर्षभ ॥११७॥
ततस्तस्माद्भयान्मुक्तो दुर्लभं प्राप्य जीवितम् |
बिलस्थं पादपाग्रस्थः पलितं लोमशोऽब्रवीत् ॥११८॥
अकृत्वा संविदं काञ्चित्सहसाहमुपप्लुतः |
कृतज्ञं कृतकल्याणं कच्चिन्मां नाभिशङ्कसे ॥११९॥
गत्वा च मम विश्वासं दत्त्वा च मम जीवितम् |
मित्रोपभोगसमये किं त्वं नैवोपसर्पसि ॥१२०॥
कृत्वा हि पूर्वं मित्राणि यः पश्चान्नानुतिष्ठति |
न स मित्राणि लभते कृच्छ्रास्वापत्सु दुर्मतिः ॥१२१॥
तत्कृतोऽहं त्वया मित्रं सामर्थ्यादात्मनः सखे |
स मां मित्रत्वमापन्नमुपभोक्तुं त्वमर्हसि ॥१२२॥
यानि मे सन्ति मित्राणि ये च मे सन्ति बान्धवाः |
सर्वे त्वां पूजयिष्यन्ति शिष्या गुरुमिव प्रियम् ॥१२३॥
अहं च पूजयिष्ये त्वां समित्रगणबान्धवम् |
जीवितस्य प्रदातारं कृतज्ञः को न पूजयेत् ॥१२४॥
ईश्वरो मे भवानस्तु शरीरस्य गृहस्य च |
अर्थानां चैव सर्वेषामनुशास्ता च मे भव ॥१२५॥
अमात्यो मे भव प्राज्ञ पितेव हि प्रशाधि माम् |
न तेऽस्ति भयमस्मत्तो जीवितेनात्मनः शपे ॥१२६॥
बुद्ध्या त्वमुशनाः साक्षाद्बले त्वधिकृता वयम् |
त्वन्मन्त्रबलयुक्तो हि विन्देत जयमेव ह ॥१२७॥
एवमुक्तः परं सान्त्वं मार्जारेण स मूषकः |
उवाच परमार्थज्ञः श्लक्ष्णमात्महितं वचः ॥१२८॥
यद्भवानाह तत्सर्वं मया ते लोमश श्रुतम् |
ममापि तावद्ब्रुवतः शृणु यत्प्रतिभाति माम् ॥१२९॥
वेदितव्यानि मित्राणि बोद्धव्याश्चापि शत्रवः |
एतत्सुसूक्ष्मं लोकेऽस्मिन्दृश्यते प्राज्ञसंमतम् ॥१३०॥
शत्रुरूपाश्च सुहृदो मित्ररूपाश्च शत्रवः |
सान्त्वितास्ते न बुध्यन्ते रागलोभवशं गताः ॥१३१॥
नास्ति जात्या रिपुर्नाम मित्रं नाम न विद्यते |
सामर्थ्ययोगाज्जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥१३२॥
यो यस्मिञ्जीवति स्वार्थं पश्येत्तावत्स जीवति |
स तस्य तावन्मित्रं स्याद्यावन्न स्याद्विपर्ययः ॥१३३॥
नास्ति मैत्री स्थिरा नाम न च ध्रुवमसौहृदम् |
अर्थयुक्त्या हि जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥१३४॥
मित्रं च शत्रुतामेति कस्मिंश्चित्कालपर्यये |
शत्रुश्च मित्रतामेति स्वार्थो हि बलवत्तरः ॥१३५॥
यो विश्वसति मित्रेषु न चाश्वसति शत्रुषु |
अर्थयुक्तिमविज्ञाय चलितं तस्य जीवितम् ॥१३६॥
अर्थयुक्तिमविज्ञाय यः शुभे कुरुते मतिम् |
मित्रे वा यदि वा शत्रौ तस्यापि चलिता मतिः ॥१३७॥
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत् |
विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति ॥१३८॥
अर्थयुक्त्या हि दृश्यन्ते पिता माता सुतास्तथा |
मातुला भागिनेयाश्च तथा सम्बन्धिबान्धवाः ॥१३९॥
पुत्रं हि मातापितरु त्यजतः पतितं प्रियम् |
लोको रक्षति चात्मानं पश्य स्वार्थस्य सारताम् ॥१४०॥
तं मन्ये निकृतिप्रज्ञं यो मोक्षं प्रत्यनन्तरम् |
कृत्यं मृगयसे कर्तुं सुखोपायमसंशयम् ॥१४१॥
अस्मिन्निलय एव त्वं न्यग्रोधादवतारितः |
पूर्वं निविष्टमुन्माथं चपलत्वान्न बुद्धवान् ॥१४२॥
आत्मनश्चपलो नास्ति कुतोऽन्येषां भविष्यति |
तस्मात्सर्वाणि कार्याणि चपलो हन्त्यसंशयम् ॥१४३॥
ब्रवीति मधुरं कञ्चित्प्रियो मे ह भवानिति |
तन्मिथ्याकरणं सर्वं विस्तरेणापि मे शृणु ॥१४४॥
कारणात्प्रियतामेति द्वेष्यो भवति कारणात् |
अर्थार्थी जीवलोकोऽयं न कश्चित्कस्यचित्प्रियः ॥१४५॥
सख्यं सोदरयोर्भ्रात्रोर्दम्पत्योर्वा परस्परम् |
कस्यचिन्नाभिजानामि प्रीतिं निष्कारणामिह ॥१४६॥
यद्यपि भ्रातरः क्रुद्धा भार्या वा कारणान्तरे |
स्वभावतस्ते प्रीयन्ते नेतरः प्रीयते जनः ॥१४७॥
प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापरः |
मन्त्रहोमजपैरन्यः कार्यार्थं प्रीयते जनः ॥१४८॥
उत्पन्ने कारणे प्रीतिर्नास्ति नौ कारणान्तरे |
प्रध्वस्ते कारणस्थाने सा प्रीतिर्विनिवर्तते ॥१४९॥
किं नु तत्कारणं मन्ये येनाहं भवतः प्रियः |
अन्यत्राभ्यवहारार्थात्तत्रापि च बुधा वयम् ॥१५०॥
कालो हेतुं विकुरुते स्वार्थस्तमनुवर्तते |
स्वार्थं प्राज्ञोऽभिजानाति प्राज्ञं लोकोऽनुवर्तते ॥१५१॥
न त्वीदृशं त्वया वाच्यं विदुषि स्वार्थपण्डिते |
अकालेऽविषमस्थस्य स्वार्थहेतुरयं तव ॥१५२॥
तस्मान्नाहं चले स्वार्थात्सुस्थितः सन्धिविग्रहे |
अभ्राणामिव रूपाणि विकुर्वन्ति क्षणे क्षणे ॥१५३॥
अद्यैव हि रिपुर्भूत्वा पुनरद्यैव सौहृदम् |
पुनश्च रिपुरद्यैव युक्तीनां पश्य चापलम् ॥१५४॥
आसीत्तावत्तु मैत्री नौ यावद्धेतुरभूत्पुरा |
सा गता सह तेनैव कालयुक्तेन हेतुना ॥१५५॥
त्वं हि मेऽत्यन्ततः शत्रुः सामर्थ्यान्मित्रतां गतः |
तत्कृत्यमभिनिर्वृत्तं प्रकृतिः शत्रुतां गता ॥१५६॥
सोऽहमेवं प्रणीतानि ज्ञात्वा शास्त्राणि तत्त्वतः |
प्रविशेयं कथं पाशं त्वत्कृतं तद्वदस्व मे ॥१५७॥
त्वद्वीर्येण विमुक्तोऽहं मद्वीर्येण तथा भवान् |
अन्योन्यानुग्रहे वृत्ते नास्ति भूयः समागमः ॥१५८॥
त्वं हि सौम्य कृतार्थोऽद्य निर्वृत्तार्थास्तथा वयम् |
न तेऽस्त्यन्यन्मया कृत्यं किञ्चिदन्यत्र भक्षणात् ॥१५९॥
अहमन्नं भवान्भोक्ता दुर्बलोऽहं भवान्बली |
नावयोर्विद्यते सन्धिर्नियुक्ते विषमे बले ॥१६०॥
संमन्येऽहं तव प्रज्ञां यन्मोक्षात्प्रत्यनन्तरम् |
भक्ष्यं मृगयसे नूनं सुखोपायमसंशयम् ॥१६१॥
भक्ष्यार्थमेव बद्धस्त्वं स मुक्तः प्रसृतः क्षुधा |
शास्त्रज्ञमभिसन्धाय नूनं भक्षयिताद्य माम् ॥१६२॥
जानामि क्षुधितं हि त्वामाहारसमयश्च ते |
स त्वं मामभिसन्धाय भक्ष्यं मृगयसे पुनः ॥१६३॥
यच्चापि पुत्रदारं स्वं तत्संनिसृजसे मयि |
शुश्रूषां नाम मे कर्तुं सखे मम न तत्क्षमम् ॥१६४॥
त्वया मां सहितं दृष्ट्वा प्रिया भार्या सुताश्च ये |
कस्मान्मां ते न खादेयुर्हृष्टाः प्रणयिनस्त्वयि ॥१६५॥
नाहं त्वया समेष्यामि वृत्तो हेतुः समागमे |
शिवं ध्यायस्व मेऽत्रस्थः सुकृतं स्मर्यते यदि ॥१६६॥
शत्रोरन्नाद्यभूतः सन्क्लिष्टस्य क्षुधितस्य च |
भक्ष्यं मृगयमाणस्य कः प्राज्ञो विषयं व्रजेत् ॥१६७॥
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि दूरादपि तवोद्विजे |
नाहं त्वया समेष्यामि निर्वृतो भव लोमश ॥१६८॥
बलवत्संनिकर्षो हि न कदाचित्प्रशस्यते |
प्रशान्तादपि मे प्राज्ञ भेतव्यं बलिनः सदा ॥१६९॥
यदि त्वर्थेन मे कार्यं ब्रूहि किं करवाणि ते |
कामं सर्वं प्रदास्यामि न त्वात्मानं कदाचन ॥१७०॥
आत्मार्थे सन्ततिस्त्याज्या राज्यं रत्नं धनं तथा |
अपि सर्वस्वमुत्सृज्य रक्षेदात्मानमात्मना ॥१७१॥
ऐश्वर्यधनरत्नानां प्रत्यमित्रेऽपि तिष्ठताम् |
दृष्टा हि पुनरावृत्तिर्जीवतामिति नः श्रुतम् ॥१७२॥
न त्वात्मनः सम्प्रदानं धनरत्नवदिष्यते |
आत्मा तु सर्वतो रक्ष्यो दारैरपि धनैरपि ॥१७३॥
आत्मरक्षिततन्त्राणां सुपरीक्षितकारिणाम् |
आपदो नोपपद्यन्ते पुरुषाणां स्वदोषजाः ॥१७४॥
शत्रून्सम्यग्विजानन्ति दुर्बला ये बलीयसः |
तेषां न चाल्यते बुद्धिरात्मार्थं कृतनिश्चया ॥१७५॥
इत्यभिव्यक्तमेवासौ पलितेनावभर्त्सितः |
मार्जारो व्रीडितो भूत्वा मूषकं वाक्यमब्रवीत् ॥१७६॥
संमन्येऽहं तव प्रज्ञां यस्त्वं मम हिते रतः |
उक्तवानर्थतत्त्वेन मया सम्भिन्नदर्शनः ॥१७७॥
न तु मामन्यथा साधो त्वं विज्ञातुमिहार्हसि |
प्राणप्रदानजं त्वत्तो मम सौहृदमागतम् ॥१७८॥
धर्मज्ञोऽस्मि गुणज्ञोऽस्मि कृतज्ञोऽस्मि विशेषतः |
मित्रेषु वत्सलश्चास्मि त्वद्विधेषु विशेषतः ॥१७९॥
तन्मामेवङ्गते साधो न यावयितुमर्हसि |
त्वया हि याव्यमानोऽहं प्राणाञ्जह्यां सबान्धवः ॥१८०॥
धिक्षब्दो हि बुधैर्दृष्टो मद्विधेषु मनस्विषु |
मरणं धर्मतत्त्वज्ञ न मां शङ्कितुमर्हसि ॥१८१॥
इति संस्तूयमानो हि मार्जारेण स मूषकः |
मनसा भावगम्भीरं मार्जारं वाक्यमब्रवीत् ॥१८२॥
साधुर्भवाञ्श्रुतार्थोऽस्मि प्रीयते न च विश्वसे |
संस्तवैर्वा धनौघैर्वा नाहं शक्यः पुनस्त्वया ॥१८३॥
न ह्यमित्रवशं यान्ति प्राज्ञा निष्कारणं सखे |
अस्मिन्नर्थे च गाथे द्वे निबोधोशनसा कृते ॥१८४॥
शत्रुसाधारणे कृत्ये कृत्वा सन्धिं बलीयसा |
समाहितश्चरेद्युक्त्या कृतार्थश्च न विश्वसेत् ॥१८५॥
तस्मात्सर्वास्ववस्थासु रक्षेज्जीवितमात्मनः |
द्रव्याणि सन्ततिश्चैव सर्वं भवति जीवतः ॥१८६॥
सङ्क्षेपो नीतिशास्त्राणामविश्वासः परो मतः |
नृषु तस्मादविश्वासः पुष्कलं हितमात्मनः ॥१८७॥
वध्यन्ते न ह्यविश्वस्ताः शत्रुभिर्दुर्बला अपि |
विश्वस्तास्त्वाशु वध्यन्ते बलवन्तोऽपि दुर्बलैः ॥१८८॥
त्वद्विधेभ्यो मया ह्यात्मा रक्ष्यो मार्जार सर्वदा |
रक्ष त्वमपि चात्मानं चण्डालाज्जातिकिल्बिषात् ॥१८९॥
स तस्य ब्रुवतस्त्वेवं सन्त्रासाज्जातसाध्वसः |
स्वबिलं हि जवेनाशु मार्जारः प्रययौ ततः ॥१९०॥
ततः शास्त्रार्थतत्त्वज्ञो बुद्धिसामर्थ्यमात्मनः |
विश्राव्य पलितः प्राज्ञो बिलमन्यज्जगाम ह ॥१९१॥
एवं प्रज्ञावता बुद्ध्या दुर्बलेन महाबलाः |
एकेन बहवोऽमित्राः पलितेनाभिसन्धिताः ॥१९२॥
अरिणापि समर्थेन सन्धिं कुर्वीत पण्डितः |
मूषकश्च बिडालश्च मुक्तावन्योन्यसंश्रयात् ॥१९३॥
इत्येष क्षत्रधर्मस्य मया मार्गोऽनुदर्शितः |
विस्तरेण महीपाल सङ्क्षेपेण पुनः शृणु ॥१९४॥
अन्योन्यकृतवैरौ तु चक्रतुः प्रीतिमुत्तमाम् |
अन्योन्यमभिसन्धातुमभूच्चैव तयोर्मतिः ॥१९५॥
तत्र प्राज्ञोऽभिसन्धत्ते सम्यग्बुद्धिबलाश्रयात् |
अभिसन्धीयते प्राज्ञः प्रमादादपि चाबुधैः ॥१९६॥
तस्मादभीतवद्भीतो विश्वस्तवदविश्वसन् |
न ह्यप्रमत्तश्चलति चलितो वा विनश्यति ॥१९७॥
कालेन रिपुणा सन्धिः काले मित्रेण विग्रहः |
कार्य इत्येव तत्त्वज्ञाः प्राहुर्नित्यं युधिष्ठिर ॥१९८॥
एवं मत्वा महाराज शास्त्रार्थमभिगम्य च |
अभियुक्तोऽप्रमत्तश्च प्राग्भयाद्भीतवच्चरेत् ॥१९९॥
भीतवत्संविधिः कार्यः प्रतिसन्धिस्तथैव च |
भयादुत्पद्यते बुद्धिरप्रमत्ताभियोगजा ॥२००॥
न भयं विद्यते राजन्भीतस्यानागते भये |
अभीतस्य तु विस्रम्भात्सुमहज्जायते भयम् ॥२०१॥
न भीरुरिति चात्यन्तं मन्त्रोऽदेयः कथञ्चन |
अविज्ञानाद्धि विज्ञाते गच्छेदास्पददर्शिषु ॥२०२॥
तस्मादभीतवद्भीतो विश्वस्तवदविश्वसन् |
कार्याणां गुरुतां बुद्ध्वा नानृतं किञ्चिदाचरेत् ॥२०३॥
एवमेतन्मया प्रोक्तमितिहासं युधिष्ठिर |
श्रुत्वा त्वं सुहृदां मध्ये यथावत्समुपाचर ॥२०४॥
उपलभ्य मतिं चाग्र्यामरिमित्रान्तरं तथा |
सन्धिविग्रहकालं च मोक्षोपायं तथापदि ॥२०५॥
शत्रुसाधारणे कृत्ये कृत्वा सन्धिं बलीयसा |
समागमं चरेद्युक्त्या कृतार्थो न च विश्वसेत् ॥२०६॥
अविरुद्धां त्रिवर्गेण नीतिमेतां युधिष्ठिर |
अभ्युत्तिष्ठ श्रुतादस्माद्भूयस्त्वं रञ्जयन्प्रजाः ॥२०७॥
ब्राह्मणैश्चापि ते सार्धं यात्रा भवतु पाण्डव |
ब्राह्मणा हि परं श्रेयो दिवि चेह च भारत ॥२०८॥
एते धर्मस्य वेत्तारः कृतज्ञाः सततं प्रभो |
पूजिताः शुभकर्माणः पूर्वजित्या नराधिप ॥२०९॥
राज्यं श्रेयः परं राजन्यशः कीर्तिं च लप्स्यसे |
कुलस्य सन्ततिं चैव यथान्यायं यथाक्रमम् ॥२१०॥
द्वयोरिमं भारत सन्धिविग्रहं; सुभाषितं बुद्धिविशेषकारितम् |
तथान्ववेक्ष्य क्षितिपेन सर्वदा; निषेवितव्यं नृप शत्रुमण्डले ॥२११॥ 12.138.221
शांतिपर्व-137 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-139 |