महाभारतम्-12-शांतिपर्व-130
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भीष्मेण युधिष्ठिंप्रति राज्ञा ब्रह्मस्ववर्जं आपदि प्रजापीडनेनापि कोशवृद्धेरवश्यं कर्तव्यत्वोक्तिः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-130-1x |
त्रैः प्रहीयमाणस्य बह्वमित्रस्य का गतिः। -- संक्षीणकोशस्य बलहीनस्य भारत।। | 12-130-1a 12-130-1b |
--मात्यसहायस्य श्रुतमन्त्रस्य सर्वतः। ज्यात्प्रच्यवमानस्य गतिमन्यामपश्यतः।। | 12-130-2a 12-130-2b |
परचक्राभियातस्य परराष्ट्राणि मृद्गतः। विग्रहे वर्तमानस्य दुर्बलस्य बलीयसा।। | 12-130-3a 12-130-3b |
असंविहितराष्ट्रस्य देशकालावजानतः। अप्राप्यं च भवेत्सान्त्वं भेदो वाऽप्यतिपीडनात्। | 12-130-4a 12-130-4b |
जीवितं त्वर्थहेतोर्वा तत्र किं सुकृतं भवेत्।। | 12-130-5a |
भीष्म उवाच। | 12-130-6x |
गुह्यां मा धर्ममप्राक्षीरतीव भरतर्षभ। | 12-130-5b |
प्रवक्तुं नोत्सहे पृष्टो धर्ममेतं युधिष्ठिर।। धर्मो ह्यणीयान्वचनाद्वुद्धेश्च भरतर्षभ। श्रुत्वौपम्यं सदाचारैः साधुर्भवति स क्वचित्।। | 12-130-6a 12-130-6b 12-130-6c |
कर्मणा बुद्धिपूर्वेण भवत्याढ्ये न वा पुनः। तादृशोऽयमनुप्रश्नस्तद्ध्यायस्व स्वया धिया।। | 12-130-7a 12-130-7b |
उपायं धर्मबहुलं यात्रार्थं शृणु भारत। नाहमेतादृशे धर्मे बुभूषे धर्मकारणात्।। | 12-130-8a 12-130-8b |
दुःखादान इह ह्येष स्यात्तु पश्चात्क्षमो मम। अभिगम्य मतीनां हि सर्वासामेव निश्चयम्।। | 12-130-9a 12-130-9b |
यथायथा हि पुरुषो नित्यं शास्त्रमवेक्षते। तथातथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते।। | 12-130-10a 12-130-10b |
अविज्ञानादयोगो हि पुरुषस्योपजायते। विज्ञानादपि योगश्च योगो भूतिकरः परः।। | 12-130-11a 12-130-11b |
अशङ्कमानो वचनमनसूयुरिदं शृणु। राज्ञः कोशक्षयादेव जायते बलसंक्षयः।। | 12-130-12a 12-130-12b |
कोशं संजनयेद्राजा नित्यमेभ्यो यथाबलम्। कालं प्राप्यानुगृह्णीयादेष धर्मोऽत्र सांप्रतम्।। | 12-130-13a 12-130-13b |
उपायधर्मं प्राप्यैनं पूर्वैराचरितं जनैः। अन्यो धर्मः समर्थानामापत्स्वल्पश्च भारत।। | 12-130-14a 12-130-14b |
प्रकार्यं प्रोच्यते धर्मो वृत्तिर्धर्मे गरीयसी। धर्मं प्राप्य यथान्यायं न बलीयान्निषीदति।। | 12-130-15a 12-130-15b |
यस्माद्धर्मस्योपचितिरेकान्तेन न विद्यते। तस्मादापद्यधर्मोऽपि श्रूयते धर्मलक्षणः।। | 12-130-16a 12-130-16b |
अधर्मो जायते तस्मिन्निति वै कवयो विदुः। अनन्तरं क्षत्रियस्य तत्र किं विचिकित्स्यते।। | 12-130-17a 12-130-17b |
यथास्य धर्मो न ग्लायेन्नेयाच्छत्रुवशं यथा। तत्कर्तव्यमिहेत्याहुर्नात्मानमवसादयेत्।। | 12-130-18a 12-130-18b |
सर्वात्मनैव धर्मस्य न परस्य न चात्मनः। सर्वोपायैरुज्जिहीर्षेदात्मानमिति निश्चयः।। | 12-130-19a 12-130-19b |
तत्र धर्मविदस्तात निश्चयो धर्मनैपुणैः। उद्यमं जीवनं क्षात्रे बाहुवीर्यादिति श्रुतिः।। | 12-130-20a 12-130-20b |
क्षत्रियो वृत्तिसंरोधे कस्य नादातुमर्हति। अन्यत्र तापसस्वाच्च श्रोत्रियस्वाच्च भारत।। | 12-130-21a 12-130-21b |
यथा वै ब्राह्मणः सीदन्नयाज्यमपि याजयेत्। अभोज्यमपि चाश्नीयात्तत्रेदं नात्र संशयः।। | 12-130-22a 12-130-22b |
पीडितस्य किमद्वारमुत्पथेनार्दितस्य च। अद्वारतः प्रद्रवति यथा भवति पीडितः।। | 12-130-23a 12-130-23b |
तस्य कोशबलग्लान्यां सर्वलोकपराभवः। भैक्षचर्या न विहिता न च विट्शूद्रजीविका।। | 12-130-24a 12-130-24b |
स्वधर्मानन्तरावृत्तिर्याऽन्यामनुपजीवतः। जहतः प्रथमं कल्पमनुकल्पेन जीवनम्।। | 12-130-25a 12-130-25b |
आपद्गतेन धर्माणामन्यायेनोपजीवनम्। अपि ह्येतद्ब्राह्मणेषु दृष्टं वृत्तिपरिक्षये।। | 12-130-26a 12-130-26b |
क्षत्रिये संशयः कस्मादित्येत्निश्चितं सदा। आददीत विशिष्टेभ्यो नावसीदेत्कथंचन।। | 12-130-27a 12-130-27b |
आर्तानां रक्षितारं च प्रजानां क्षत्रियं विदुः। तस्मात्संरक्षता कार्यमादानं क्षत्रबन्धुना।। | 12-130-28a 12-130-28b |
अन्यत्रापि विहिंसाया वृत्तिर्नेहास्ति कस्यचित्। अप्यरण्यसमुत्थस्य एकस्य चरतो मुनेः।। | 12-130-29a 12-130-29b |
न शङ्खलिखितां वृत्तिं शक्यमास्थाय जीवितुम्। विशेषतः कुरुश्रेष्ठ प्रजापालनमीप्सता।। | 12-130-30a 12-130-30b |
परस्पराभिहरणं राज्ञा राष्ट्रेण चापदि। नित्यमेव हि कर्तव्यमेष धर्मः सनातनः।। | 12-130-31a 12-130-31b |
राजा राष्ट्रं यथापत्सु द्रव्यौधैः परिरक्षति। राष्ट्रेण राजा व्यसने परिरक्ष्यस्तथा भवेत्।। | 12-130-32a 12-130-32b |
कोशं दण्डं बलं मित्रं यदन्यदपि संचितम्। न कुर्वीतान्तरं राष्ट्रे राजा परिगतः क्षुधा।। | 12-130-33a 12-130-33b |
बीजं भक्तेन संपाद्यमिति धर्मविदो विदुः। अत्रैतच्छम्बरस्याहुर्महामायस्य दर्शनम्।। | 12-130-34a 12-130-34b |
धिक्तस्य जीवितं राज्ञो राष्ट्रं यस्यावसीदति। अवृत्त्यान्यमनुष्योऽपि यो वैदेशिक इत्यपि।। | 12-130-35a 12-130-35b |
राज्ञः कोशबलं मूलं कोशमूलं पुनर्बलम्। तन्मूलं सर्वधर्माणां धर्ममूलाः पुनः प्रजाः।। | 12-130-36a 12-130-36b |
नान्यानपीडयित्वेह कोशः शक्यः कुतो बलम्। तदर्थं पीडयित्वा च न दोषं प्राप्नुमर्हति।। | 12-130-37a 12-130-37b |
अकार्यमपि कार्यार्थं क्रियते यज्ञकर्मसु। एतस्मिन्कारणे राजा न दोषं प्राप्नुमर्हति।। | 12-130-38a 12-130-38b |
अर्थार्थमन्यद्भवति विपरीतमथापरम्। अनर्थार्थमथाप्यन्यत्तत्सर्वं ह्यर्थकारणम्। एवं बुद्ध्या संप्रपश्येन्मेधावी कार्यनिश्चयम्।। | 12-130-39a 12-130-39b 12-130-39c |
यज्ञार्थमन्यद्भवति यज्ञोऽन्यार्थस्तथाः परः। यज्ञस्वार्थार्थमेवान्यत्तत्सर्वं यज्ञसाधकम्।। | 12-130-40a 12-130-40b |
उपमामत्र वक्ष्यामि धर्मतत्त्वप्रकाशिनीम्।। | 12-130-41a |
यूपं छिन्दन्ति यज्ञार्थं तत्र ये परिपन्थिः। द्रुमाः केचन सामन्ता ध्रुवं छिन्दन्ति तानपि।। | 12-130-42a 12-130-42b |
ते चापि निपतन्तोऽन्यान्निघ्नन्त्यपि वनस्पतीन्। एवं कोशस्य महतो ये नराः परिपन्थिनः। तानहत्वा न पश्यामि सिद्धिमत्र परंतप।। | 12-130-43a 12-130-43b 12-130-43c |
धनेन जयते लोकमिमं चामुं च भारत। सत्यं च धर्मवचनं यथा नास्त्यधनस्तथा।। | 12-130-44a 12-130-44b |
सर्वोपायैराददीत धनं यज्ञप्रयोजनम्। न तुल्यदोषः स्यादेवं कार्याकार्येषु भारत।। | 12-130-45a 12-130-45b |
नोभौ सभवतो राजन्कथंचिदपि भारत। न ह्यरण्येषु पश्यामि धनवृद्धानहं क्वचित्।। | 12-130-46a 12-130-46b |
यदिदं दृश्यते वित्तं पृथिव्यामिह किंचन। ममेदं स्यान्ममेदं स्यादित्येवं मन्यते जनः।। | 12-130-47a 12-130-47b |
न च राज्ञः समो धर्मः कश्चिदस्ति कथंचन। धर्मः संशब्दितो राज्ञामापदर्थस्ततोऽन्यथा।। | 12-130-48a 12-130-48b |
ज्ञानेन कर्मणा चान्ये तपन्त्यन्ये तपस्विनः। बुद्ध्या दाक्ष्येण चैवान्ये चिन्वन्ति धनसंचयान्।। | 12-130-49a 12-130-49b |
अधनं दुर्बलं प्राहुर्धनेन बलवान्भवेत्। सर्वं बलवतः प्राप्यं सर्वं तरति कोशवान्।। | 12-130-50a 12-130-50b |
कोशो धर्मश्च कामश्च परलोकस्तथा ह्ययम्। तं धर्मेण विलिप्सेत नाधर्मेण कदाचन।। | 12-130-51a 12-130-51b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शतसाहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 130।। | |
समाप्तं च राजधर्मपर्व।। 1।। |
12-130-2 सर्वतः सर्वैः।। 12-130-3 परस्य चक्रं राष्ट्रं प्रत्यभियातस्य। बलीयसा सार्धम्।। 12-130-4 असंविहितमसम्यग्रक्षितं राष्ट्रं येन तस्य। अतिपीडनात् परकीयामात्यादीनां भेदोऽप्यप्राप्यः।। 12-130-5 मा मामप्राक्षीः पृष्टवानसि। गुह्यं धर्मज मा प्राक्षीरतीव भरतर्षभ। अपृष्टो नोत्संहे वक्तुं धर्ममेतं युधिष्ठिरेति झ. पाठः।। 12-130-6 वचनाच्छास्त्रात्।। 12-130-8 यात्रार्थं राज्ञां व्यवहारनिर्वाहार्थम्। बुभूषे प्राप्तुमिच्छामि।। 12-130-9 एष उपायो दुःखादानः अजानां दुःखेनाऽऽदीयतेङ्गीक्रियते।। 12-130-11 अयोग उपायाभावः।। 12-130-13 अनुगृह्णीयात् प्राक्कर्षिताः प्रजा इति शेषः।। 12-130-14 उपायधर्ममुपधर्मम्। अमुख्यधर्ममितियावत्।। 12-130-17 अनन्तरं आपन्निवृत्त्युत्तरं तत्र पूर्वोक्ताधर्मे किं विचिकित्स्यते प्रायश्चित्तादिकं कराग्रहणादिकं च विधीयते दोषपरिहारार्थमित्यर्थः।। 12-130-19 धर्मस्येति कर्मणिषष्ठी। परस्य धर्मं नोज्जिही र्षेत्राप्यात्मनो धर्ममुज्जिहीर्षेदपि तु आत्मान मेव उज्जिहीर्षेत्। स्वपरधर्मलोपेऽप्यात्मानमेवोद्धर्तुमिच्छेदित्यर्थः।। 12-130-30 शङ्खेललाटास्थ्नि छिखितां वृत्तिम्। दिष्टमात्रालम्बिना राज्ञ जीवितं न शक्यम्।। 12-130-33 अन्तरं दूरतः।। 12-130-34 बीजभक्तेन संपादितं चेदग्रे भक्तदौर्वल्यं यथाभवति एवमत्यधे राजा प्रजाभिर्न रक्षितो नश्यति। नष्टे च तस्मिन्सर्वाः प्रजा अपि नश्यन्तीत्यर्थः। एतत्पूर्वार्धोक्तं दर्शनं शास्त्रम्।। 12-130-35 अवृत्त्या जीविकाया अभावेन यस्य राष्ट्रं अवसीदति यो वा अमनुष्यः यो वा वैदेशिको देशान्तरोपजीवी तस्य राज्ञो जीवीतं धिक्।। 12-130-36 राज्ञो मूलं कोशो बलं च। कोशो बलस्य मूल तद्बलं धर्माणां मूलम्। अतः सर्वस्य मूलभूतं कोशं वर्धयेत्।। 12-130-39 अन्यत् आपदि प्रजापीडनमप्यर्थार्थं भवति। अ अपीडनं विपरीतं अनर्थार्थं भवति। यदप्यन्यत् अनर्थार्थं अर्थाभावार्थं कुञ्जरपालादि भवति तदेवेहार्थस्य कारणं उत्पादकं भवति।। 12-130-40 यथा पश्वादिकं यज्ञार्थं यज्ञश्च चित्तसंस्कारार्थः। पश्वादिकं यज्ञः संस्कारश्चेति त्रयं अर्थार्थं मोक्षार्थं भवति। एवं दण्डः कोशार्थं कोशो बलार्थं बलं शत्रुपराभवार्थम्। कोशो बलं जयश्चेति त्रयं राष्ट्रपुष्ट्यर्थमिति भावः।। 12-130-42 सामन्ताः प्रतिपक्षभूताः।। 12-130-44 यथा नास्त्यधनस्तथेति जीवन्मृतत्वमधनस्योक्तम्।। 12-130-45 कार्याकार्येषु विहितनिषिद्धेषु आपदि प्रजापीडनं विहितं तदेवानापदि निषिद्धं। तथाभूतेष्वर्थेषु तुल्यदोषो न स्याद्देशकालानुसारेण कार्यमप्यकार्यं भवत्यकार्यमपि कार्यं भवति तत्र विपरीतं न प्रतिपद्येतेति भावः।। 12-130-46 उभौ धनसंग्रहत्यागावेकस्मिन्पुरुषे न संभवतः।। 12-130-47 अन्येषु त्यागार्थसंभवमाह यदिदमिति।। 12-130-48 न च राज्यसमो धर्म इति झ. पाठः। अनापद्येव राज्ञो बहुकरादानं पापमूलमापदि तु न तत्तथा भवतीत्यर्थः।।
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