महाभारतम्-12-शांतिपर्व-045
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति धर्मश्रवणाय भीष्मसमीपगमनचोदना।। 1।। तथा युधिष्ठिरप्रार्थनया स्वस्यापि तत्र गमनायदारुकेण रथसंयोजनम्।। 2।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-45-1x |
किमिदं परमाश्चर्यं ध्यायस्यमितविक्रम। कच्चिल्लोकत्रयस्यास्य स्वस्ति लोकपरायण।। | 12-45-1a 12-45-1b |
`इन्द्रियाणि मनश्चैव बुद्धौ संवेशितानि ते'। चतुर्थं ध्यानमार्गं त्वमालम्ब्य पुरुषर्षभ। अपक्रान्तो यतो जीवस्तेन मे विस्मितं मनः।। | 12-45-2a 12-45-2b 12-45-2c |
निगृहीतो हि वायुस्ते पञ्चकर्मा शरीरगः। इन्द्रियाणि च सर्वाणि मनसि स्थापितानि ते।। | 12-45-3a 12-45-3b |
वाक्च सत्वं च गोविन्द बुद्धौ संवेशितानि ते। सर्वे चैव गुणा देवाः क्षेत्रज्ञे ते निवेशिताः।। | 12-45-4a 12-45-4b |
नेङ्गन्ति तव रोमाणि स्थिरा बुद्धिस्तथा मनः। काष्ठकुड्यशिलाभूतो निरीहश्चासि माधव।। | 12-45-5a 12-45-5b |
यथा दीपो निवातस्थो निरिङ्गो ज्वलतेऽच्युत। तथाऽसि भगवन्देन निश्चलो योगनिश्चयात्।। | 12-45-6a 12-45-6b |
यदि श्रोतुमिहार्हामि न रहस्यं च ते यदि। छिन्धि मे संशयं देव प्रपन्नायाभियाचते।। | 12-45-7a 12-45-7b |
त्वं हि कर्ता विकर्ता च त्वं क्षरश्चाक्षरश्च ह। अनादिनिधनो ह्याद्यस्त्वमेकः पुरुषोत्तम।। | 12-45-8a 12-45-8b |
त्वं प्रपन्नाय भक्ताय शिरसा प्रणताय च। ध्यानस्यास्य यथातत्त्वं ब्रूहि धर्मभृतां वर।। | 12-45-9a 12-45-9b |
ततः स्वगोचरे न्यस्य मनोबुद्धीन्द्रियाणि च। स्मितपूर्वमुवाचेदं भगवान्वासवानुजः।। | 12-45-10a 12-45-10b |
वासुदेव उवाच। | 12-45-11x |
शरतल्पगतो भीष्मः शाम्यन्निव हुताशनः। मां ध्याति पुरुषव्याघ्रस्ततो मे तद्गतं मनः।। | 12-45-11a 12-45-11b |
यस्य ज्यातलनिर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः। न सहेद्देवराजोऽपि तमस्मि मनसा गतः।। | 12-45-12a 12-45-12b |
येनाभिजित्य तरसा समस्तं राजमण्डलम्। ऊढास्तिस्रः पुरा कन्यास्तमस्मि मनसा गतः।। | 12-45-13a 12-45-13b |
त्रयोविंशतिरात्रं यो योधयामास भार्गवम्। न च रामेण निस्तीर्णस्तमस्मि मनसा गतः।। | 12-45-14a 12-45-14b |
यं गङ्गा गर्भविधिना धारयामास भारतम्। वसिष्ठशिष्यं तं तात गतोऽस्मि मनसा नृप।। | 12-45-15a 12-45-15b |
दिव्यास्त्राणि महातेजा यो धारयति बुद्धिमान्। साङ्गांश्च चतुरो वेदांस्तमस्मि मनसा गतः।। | 12-45-16a 12-45-16b |
रामस्य दयितं शिष्यं जामदग्न्यस्य पाण्डव। आधारं सर्व्रविद्यानां तमस्मि मनसा गतः।। | 12-45-17a 12-45-17b |
`एकीकृत्येन्द्रियग्रामं मनः संयम्य मेधया। शरणं मामुपागच्छत्ततो मे तद्गतं मनः।। ' | 12-45-18a 12-45-18b |
स हि भूतं भविष्यच्च भवच्च भरतर्षभ। वेत्ति धर्मविदां श्रेष्ठस्तमस्मि मनसा गतः।। | 12-45-19a 12-45-19b |
तस्मिन्हि पुरुषव्याघ्रे शान्ते भीष्मे महात्मनि। भविष्यति मही पार्थ नष्टचन्द्रेव शर्वरी।। | 12-45-20a 12-45-20b |
तद्युधिष्ठिर गाङ्गेयं भीष्मं भीमपराक्रमम्। अभिगम्योपसंगृह्य पृच्छ यत्ते मनोगतम्।। | 12-45-21a 12-45-21b |
चातुर्विद्यं चातुर्होत्रं चातुराश्रम्यमेव च। राजधर्मांश्चि निखिलान्पृच्छैनं पृथिवीपते।। | 12-45-22a 12-45-22b |
तस्मिन्नस्तमिते भीष्मे कौरवाणां धुंरधरे। ज्ञानान्यल्पीभविष्यन्ति तस्मात्त्वां चोदयाम्यहम्।। | 12-45-23a 12-45-23b |
तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य तथ्यं वचनमुत्तमम्। साश्रुकण्ठः स धर्मज्ञो जनार्दनमुवाच ह।। | 12-45-24a 12-45-24b |
यद्भवानाह भीष्मस्य प्रभावं प्रति माधव। तथा तन्नात्र संदेहो विद्यते मम माधव।। | 12-45-25a 12-45-25b |
महाभाग्यं च भीष्मस्य प्रभावश्च महाद्युते। श्रुतं मया कथयतां ब्राह्मणानां महात्मनाम्।। | 12-45-26a 12-45-26b |
भवांश्च कर्ता लोकानां यद्ब्रवीत्यरिसूदन। तथा तद्रनभिध्येयं वाक्यं यादवनन्दन।। | 12-45-27a 12-45-27b |
यदि त्वनुग्रहवती बुद्धिस्ते मयि माधव। त्वामग्रतः पुरस्कृत्य भीष्मं यास्यामहे वयम्।। | 12-45-28a 12-45-28b |
आवृत्ते भगवत्यर्के स हि लोकान्गमिष्यति। त्वद्दर्शनं महाबाहो तस्मादर्हति कौरवः।। | 12-45-29a 12-45-29b |
तव ह्याद्यस्य देवस्य क्षरस्यैवाक्षरस्य च। दर्शनं त्वस्य लाभः स्यात्त्वं हि ब्रह्ममयो निधिः।। | 12-45-30a 12-45-30b |
वैशंपायन उवाच। | 12-45-31x |
श्रुत्वैवं धर्मराजस्य वचनं मधुसूदनः। पार्श्वस्थं सात्यकिं प्राह रथो मे युज्यतामिति।। | 12-45-31a 12-45-31b |
सात्यकिस्त्वाशु निष्क्रम्य केशवस्य समीपतः। दारुकं प्राह कृष्णस्य युज्यतां रथ इत्युत।। | 12-45-32a 12-45-32b |
स सात्यकेराशु वचो निशम्य रथोत्तमं काञ्चनभूषिताङ्गम्। मसारगल्वर्कमयैर्विभङ्गै र्विभूषितं हेमनिबद्धचक्रम्।। | 12-45-33a 12-45-33b 12-45-33c 12-45-33d |
दिवाकरांशुप्रभमाशुगामिनं विचित्रनानामणिभूषितान्तरम्। नवोदितं सूर्यमिव प्रतापिनं विचित्रतार्क्ष्यध्वजिनं पताकिनम्।। | 12-45-34a 12-45-34b 12-45-34c 12-45-34d |
सुग्रीवशैब्यप्रप्नुखैर्वराश्वै र्मनोजवैः काञ्चनभूषिताङ्गैः। संयुक्तमावेदयदच्युताय कृताञ्जलिर्दारुको राजसिंह।। | 12-45-35a 12-45-35b 12-45-35c 12-45-35d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि प्रञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः।। 45।। |
12-45-2 चतुर्थं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिभ्यः परम्। अपक्रान्तो यतो देव इति झ. पाठः।। 12-45-3 पञ्चकर्मा प्राणनादिकारी।। 12-45-4 सत्वं मनः। वागुपलक्षितानीन्द्रियाणि च बुद्धौ महत्तत्त्वे। गुणाः शब्दादिगुणभाजो देवाः श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि।। 12-45-5 नेङ्गन्ति न कम्पन्ते। निरीहो निश्चेष्टः।। 12-45-6 निरिङ्गः अचलः।। 12-45-10 गोचरे स्वस्वस्थाने।। 12-45-11 ध्याति ध्यायति।। 12-45-22 चतस्रो विद्याः धर्मार्थकाममोक्षविद्याः सर्ववर्णसाधारणाः चातुर्होत्रं त्रैवर्णिकानां विशेषधर्मो यज्ञादिः।। 12-45-27 अनभिध्येयं अविचारणीयम्।। 12-45-33 मसारगल्वर्कमयैर्विभङ्गैः मसारो मरकतमणिः गलुश्चन्द्रकान्तः अर्कः सूर्यकान्तः तन्मयैः विभङ्गैः विस्तरैः।।
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