महाभारतम्-12-शांतिपर्व-032
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युद्धे राज्ञां हननेन पापशङ्कया विषीदन्तं युधिष्ठिरंप्रति व्यासेन तत्त्वकथनपूर्वकं क्षात्रधर्मविधानम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-32-1x |
युधिष्ठिरस्य तद्वाक्यं श्रुत्वा द्वैपायनस्तदा। परीक्ष्य निपुणं बुद्ध्या ऋषिः प्रोवाच पाण्डवम्।। | 12-32-1a 12-32-1b |
व्यास उवाच। | 12-32-2x |
मा विषादं कृथा राजन्क्षत्रधर्ममनुस्मरन्। स्वधर्मेण हता ह्येते क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ।। | 12-32-2a 12-32-2b |
काङ्क्षमाणाः श्रियं कृत्स्नां पृथिव्यां च मबद्यशः। कृतान्तविधिसंयुक्ताः कालेन निधनं गताः।। | 12-32-3a 12-32-3b |
नृ त्वं हन्ता न भीमोऽयं नार्जुनो न यमावपि। कालः पर्यायधर्मेण प्राणानादत्त देहिनाम्।। | 12-32-4a 12-32-4b |
न तस्य मातापितरौ नानुग्राह्यो हि कश्चन। कर्मसाक्षी प्रजानां यस्तेन कालेन संहृताः।। | 12-32-5a 12-32-5b |
हेतुमात्रमिदं तस्य विहितं भरतर्षभ। यद्धन्ति भूतैर्भूतानि तदस्मै रूपमैश्वरम्।। | 12-32-6a 12-32-6b |
कर्म मूर्त्यात्मकं विद्धि साक्षिणं शुभपापयोः। सुखदुःखगुणोदर्कं कालं कालफलप्रदम्।। | 12-32-7a 12-32-7b |
तेषामपि महाबाहो कर्माणि परिचिन्तय। विनाशहेतुकानि त्वं यैस्तै कालवशं गताः।। | 12-32-8a 12-32-8b |
आत्मनश्च विजानीहि नियतव्रतशीलताम्। यदा त्वमीदृशं कर्म विधिनाऽऽक्रम्य कारितः।। | 12-32-9a 12-32-9b |
त्वष्ट्रेव विहितं यन्त्रं यथा चेष्टयितुर्वशे। कर्मणा कालयुक्तेन तथेदं भ्राम्यते जगत्।। | 12-32-10a 12-32-10b |
पुरुषस्य हि दृष्ट्वेमामुत्पत्तिमनिमित्ततः। यदृच्छया विनाशं च शोकहर्षावनर्थकौ।। | 12-32-11a 12-32-11b |
व्यलीकमपि यत्त्वत्र चित्तवैतंसिकं तव। तदर्थमिष्यते राजन्प्रायश्चित्तं तदाचर।। | 12-32-12a 12-32-12b |
इदं तु श्रूयते पार्थ युद्धे देवासुरे पुरा। असुरा भ्रातरो ज्येष्ठा देवाश्चापि यवीयसः।। | 12-32-13a 12-32-13b |
तेषामपि श्रीनिमित्तं महानासीत्समुच्छ्रयः। युद्धं वर्षसहस्राणि द्वात्रिंशदभवत्किल।। | 12-32-14a 12-32-14b |
एकार्णवां महीं कृत्वा रुधिरेण परिप्लुताम्। जघ्नुर्दैत्यांस्तथा देवास्त्रिदिवं चाभिलेभिरे।। | 12-32-15a 12-32-15b |
तथैव पृथिवीं लब्ध्वा ब्राह्मणा वेदपारगाः। संश्रिता दानवानां वै साह्यार्थं दर्पमोहिताः।। | 12-32-16a 12-32-16b |
शालावृका इति ख्यातास्त्रिषु लोकेषु भारत। अष्टाशीतिसहस्राणि ते चापि विबुर्धैर्हताः।। | 12-32-17a 12-32-17b |
धर्मव्युच्छित्तिमिच्छतो येऽधर्मस्य प्रवर्तकाः। हन्तव्यास्ते दुरात्मानो देवैर्दैत्या इवोल्वणाः।। | 12-32-18a 12-32-18b |
एकं हत्वा यदि कुले शिष्टानां स्यादनामयम्। कुलं हत्वा च राष्ट्रे च न तद्वृत्तोपघातकम्।। | 12-32-19a 12-32-19b |
अधर्मरूपो धर्मो हि कश्चिदस्ति नराधिप। धर्मरूपो ह्यधर्मश्च तच्च ज्ञेयं विपश्चिता।। | 12-32-20a 12-32-20b |
तस्मात्संस्तम्भयात्मानं श्रुतवानसि पाण्डव। देवैः पूर्वगतं मार्गमनुयातोऽसि भारत।। | 12-32-21a 12-32-21b |
न हीदृशा गमिष्यन्ति नरकं पाण्डवर्षभ। भ्रातॄनाश्वासयैतांस्त्वं सुहृदश्च परंतप।। | 12-32-22a 12-32-22b |
यो हि पापसमारम्भे कार्ये तद्भावभावितः। कुर्वन्नपि तथैव स्यात्कृत्वा च निरपत्रपः।। | 12-32-23a 12-32-23b |
तस्मिंस्तत्कलुषं सर्वं समस्तमिति शब्दितम्। प्रायश्चित्तं न तस्यास्ति ह्रासो वा पापकर्मणः।। | 12-32-24a 12-32-24b |
त्वं तु शुक्लाभिजातीयः परदोषेण कारितः। अनिच्छमानः कर्मेदं कृत्वा च परितप्यसे।। | 12-32-25a 12-32-25b |
अश्वमेधो महायज्ञः प्रायश्चित्तमुदाहृतम्। तमाहर महाराज विपाप्मैवं भविष्यसि।। | 12-32-26a 12-32-26b |
मरुद्भिः सह जित्वाऽरीन्भगवान्पाकशासनः। एकैकं क्रतुमाहृत्य शतकृत्वः शतक्रतुः।। | 12-32-27a 12-32-27b |
धूतपाप्मा जितस्वर्गो लोकान्प्राप्य सुखोदयान्। मरुद्गणैर्वृतः शक्रः शुशुभे भासयन्दिशः।। | 12-32-28a 12-32-28b |
स्वर्गे लोके महीयन्तमप्सरोभिः शचीपतिम्। ऋषयः पर्युपासन्ते देवाश्च विबुधेश्वरम्।। | 12-32-29a 12-32-29b |
सेयं त्वामनुसंप्राप्ता विक्रमेण वसुंधरा। निर्जिताश्च महीपाला विक्रमेण त्वयाऽनध।। | 12-32-30a 12-32-30b |
तेषां पुराणि राष्ट्राणि गत्वा राजन्सुहृद्वॄतः। भ्रातॄन्पुत्रांश्च पौत्रांश्च स्वेस्वे राज्येऽभिषेचय।। | 12-32-31a 12-32-31b |
बालानपि च गर्भस्थान्सांत्वेन समुदाचरन्। रञ्जयन्प्रकृतीः सर्वाः परिपाहि वसुंधराम्।। | 12-32-32a 12-32-32b |
कुमारो नास्ति येषां च कन्यास्तत्राभिषेचय। कामाशयो हि स्त्रीवर्गः शोकमेवं प्रहास्यसि।। | 12-32-33a 12-32-33b |
एवमाश्वासनं कृत्वा सर्वराष्ट्रेषु भारत। यजस्व वाजिमेधेन यथेन्द्रो विजयी पुरा।। | 12-32-34a 12-32-34b |
अशोच्यास्ते महात्मानः क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ। स्वकर्मभिर्गता नाशं कृतान्तबलमोहिताः।। | 12-32-35a 12-32-35b |
अवाप्तः क्षत्रधर्मस्ते राज्यं प्राप्तमकण्टकम्। रक्ष स्वधर्मं कौन्तेय श्रेयान्यः प्रेत्यभाविकः।। | 12-32-36a 12-32-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः।। 32।। |
12-32-3 कृतान्तविधिः परप्राजहरणं तेन संयुक्ताः। स्वापराधेनैव हता इत्यर्थः।। 12-32-6 इदं युक्षम्। अस्मै अस्य ऐश्वरं नियन्तृत्वम्।। 12-32-11 उत्पत्तिवद्विनाशोऽपि यादृच्छिक एवेति भावः।। 12-32-12 चित्तवैतंसिकं चित्तबन्धनं तदर्थं तन्निवृत्त्यर्थम्।। 12-32-13 यवीयसः यवीयांसः।। 12-32-14 समुच्छ्रयो विरोधः।। 12-32-16 संश्रिताः सन्नद्धाः। साह्यार्थं साहाय्यार्थम्।। 12-32-19 तत् एकस्य कुलस्य वा हननं वृत्तोपघातकम् धर्मनाशकं न भवति।। 12-32-23 तद्भावभावितः पापभावनां गतः। कुर्वन्पापमिति वर्तते।। 12-32-24 तस्य अपश्चात्तापिनो निर्लज्जस्य प्रायश्चित्तं वा तेन पापह्रासो वा नास्तीत्यर्थः।। 12-32-25 परदोषेण दुर्योधनदोषेण।। 12-32-29 महीयन्तं महीयमानम्।। 12-32-33 कामाः आशेरतेऽस्मिन्कामाशयः। पूर्णकाम इत्यर्थः।।
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