महाभारतम्-12-शांतिपर्व-010
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युधिष्ठिरंप्रति भीमसेनवचनम्।। 1।।
भीम उवाच। | 12-10-1x |
श्रोत्रियस्येव ते राजन्मन्दकस्याविपश्चितः। अनुवाकहता बुद्धिर्नैषा तत्त्वार्थदर्शिनी।। | 12-10-1a 12-10-1b |
आलस्ये कृतचित्तस्य राजधर्मानसूयतः। विनाशे धार्तराष्ट्राणां किं फलं भरतर्षभ।। | 12-10-2a 12-10-2b |
क्षमाऽनुकम्पा कारुण्यमानृशंस्यं न विद्यते। क्षात्रमाचरतो मार्गमपि बन्धोस्त्वदन्तरे।। | 12-10-3a 12-10-3b |
यदीमां भवतो बुद्धिं विद्याम वयमीदृशीम्। शस्त्रं नैव ग्रहीष्यामो न वधिष्याम कंचन।। | 12-10-4a 12-10-4b |
भैक्षमेवाचरिष्याम शरीरस्याविमोक्षणात्। न चेदं दारुणं युद्धमभविष्यन्महीक्षिताम्।। | 12-10-5a 12-10-5b |
प्राणस्यान्नमिदं सर्वमिति वै कवयो विदुः। स्थावरं जङ्गमं चैव सर्वं प्राणस्य भोजनम्।। | 12-10-6a 12-10-6b |
आददानस्य चेद्राज्यं ये केचित्परिपन्थिनः। हन्तव्यास्त इति प्राज्ञाः क्षत्रधर्मविदो विदुः।। | 12-10-7a 12-10-7b |
ते सदोषा हताऽस्माभिरन्नस्य परिपन्थिनः। तान्हत्वा भुङ्क्ष्व धर्मेण युधिष्ठिर महीमिमाम्।। | 12-10-8a 12-10-8b |
यथा हि पुरुषः खात्वा कूपमप्राप्य चोदकम्। पङ्कदिग्धो निवर्तेत् कर्मेदं नस्तथोपमम्।। | 12-10-9a 12-10-9b |
यथाऽऽरुह्य महावृक्षमपहृत्य ततो मधु। अप्राश्य निधनं गच्छेत्कर्मेदं नस्तथोपमम्।। | 12-10-10a 12-10-10b |
यथा महान्तमध्वानमाशया पुरुषः पतन्। स निराशो निवर्तेत कर्मैतन्नस्तथोपमम्।। | 12-10-11a 12-10-11b |
यथा शत्रून्घातयित्वा पुरुषः कुरुनन्दन। आत्मानं घातयेत्पश्चात्कर्मेदं नस्तथोपमम्।। | 12-10-12a 12-10-12b |
यथान्नं क्षुधितो लब्ध्वा न भुञ्जीयाद्यदृच्छया। कामी च कामिनीं लब्ध्वा कर्मेदं नस्तथोपमम्।। | 12-10-13a 12-10-13b |
वयमेवात्र गर्ह्या हि यद्वयं मन्दचेतसम्। त्वां राजन्ननुगच्छामो ज्येष्ठोऽयमिति भारत।। | 12-10-14a 12-10-14b |
वयं हि बाहुबलिनः कृतविद्या मनस्विनः। क्लीबस्य वाक्ये तिष्ठामो यथैवाशक्तयस्तथा।। | 12-10-15a 12-10-15b |
अगतीकगतीनस्मान्नष्टार्थनर्थसिद्धये। कथं वै नानुपश्येयुर्जनाः पश्यत यादृशम्।। | 12-10-16a 12-10-16b |
आपत्काले हि संन्यासः कर्तव्य इति शिष्यते। जरयाऽभिपरीतेन शत्रुभिर्व्यंसितेन वा।। | 12-10-17a 12-10-17b |
तस्मादिह कृतप्रज्ञास्त्यागं न परिचक्षते। धर्मव्यतिक्रमं चैव मन्यन्ते सूक्ष्मदर्शिनः।। | 12-10-18a 12-10-18b |
कथं तस्मात्समुत्पन्नास्तन्निष्ठास्तदुपाश्रयाः। तदेव निन्दां भाषेयुर्धाता तत्र न गर्ह्यते।। | 12-10-19a 12-10-19b |
श्रिया विहीनैरधनैर्नास्तिकैः संप्रवर्तितम्। वेदवादस्य विज्ञानं सत्याभासमिवानृत्।। | 12-10-20a 12-10-20b |
शक्यं तु मौनमास्थाय बिभ्रताऽऽत्मानमात्मना। धर्मच्छझ समास्थाय च्यवितुं न तु जीवितुम्। | 12-10-21a 12-10-21b |
शक्यं पुनररण्येषु सुखमेकेन जीवितुम्। अबिभ्रता पुत्रपौत्रान्देवर्षीनतिथीन्पितॄन्।। | 12-10-22a 12-10-22b |
नेमे मृगाः स्वर्गजितो न वराहा न पक्षिणः। अथान्येन प्रकारेण पुण्यमाहुर्न ते जनाः।। | 12-10-23a 12-10-23b |
यदि संन्यासतः सिद्धिं राजा कश्चिदवाप्नुयात्। पर्वताश्च दुमाश्चैव क्षिप्तं सिद्धिमवाप्नुयुः।। | 12-10-24a 12-10-24b |
एते हि नित्यसंन्यासा दृश्यन्ते निरुपद्रवाः। अपरिग्रहवन्तश्च सततं ब्रह्मचारिणः।। | 12-10-25a 12-10-25b |
अथ चेदात्मभाग्येषु नान्येषां सिद्धिमश्र्नुते। तस्मात्कर्मैव कर्तव्यं नास्ति सिद्धिरकर्मणः।। | 12-10-26a 12-10-26b |
औदकाः सृष्टयश्चैव जन्तवः सिद्धिमाप्नुयुः। तेषामात्मैव भर्तव्यो नान्यः कश्चन विद्यते।। | 12-10-27a 12-10-27b |
अवेक्षस्व यथा स्वैः कर्मभिर्व्यापृतं जगत्। तस्मात्कर्मैव कर्तव्यं न्प्रस्ति सिद्धिरकर्मणः।। | 12-10-28a 12-10-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि दशमोऽध्यायः।। 10।। |
12-10-1 श्रोत्रियस्य वेदपाठकस्य मन्दत्वादेवाविपश्चितोऽर्थज्ञाशून्यस्य। अनुवाकेन नित्यपाठेन हता नष्टा।। 12-10-3 त्वदन्तरे त्वत्तोऽन्यत्र।। 12-10-6 प्राणस्य प्राणवतो बलिष्ठस्येदं सर्वमन्नमिवान्नं भोग्यम्। भोजनं भुज्यते पाल्यते इति व्युत्पत्त्या पालनीयम्।। 12-10-8 हतास्माभिरिति संधिरार्षः। हत्वा निघ्नन् त्वं। हन्तेरन्येभ्योऽपि दृश्यत इति क्वनिप् अनुनासिकलोपो ह्रस्वस्येति तुक्। राज्यस्य परिपन्थिन इति झ. पाठः।। 12-10-9 तथा तेन प्रकारेणोपमीयत इति तथोपमम्।। 12-10-11 पतन् गच्छन् 12-10-15 अशक्तयः शक्तिहीनाः।। 12-10-16 अगतीकगतीननाथरक्षकान्। दैर्ध्यमार्षम्। एतत् यादृशं मम वचनं तादृशं पश्यत।युक्तमयुक्तं वेति परीक्षयतेत्यर्थः।। 12-10-17 व्यंसितेन दुर्गतिंप्रापितेन।। 12-10-18 त्यागं संन्यासम्। क्षत्रियस्य मौण्ड्यादिकं निषिद्धं तस्याचरणे धर्मव्यतिक्रमोऽस्त्येवेति भावः।। 12-10-19 हिंसार्थमुत्पन्ना हिंस्नयोनौ जाताः। हिंसैकजीवनास्तदेव तस्यैव हिंस्नधर्मस्य निन्दां कथं भाषेयुः। कथं वा तत्र धाता तस्य धर्मस्य स्नष्टा न गर्ह्यते न निन्द्यते। धातृविहितत्वात्सहजत्वाच्च नासौ धर्मो निन्द्य इत्यर्थः। तएव भूषयेयुर्ये ते श्रद्धाह्यत्र गर्ह्यते इति द. पाठः।। 12-10-20 श्रिया विहीनैरनयैर्नास्तिकैः संप्रकीर्तितम्। वेदाभासमिवाज्ञानमिति थ. पाठः। श्रिया त्रय्या विद्यया विहीनैः। अधनैर्लक्ष्म्या च हीनैः। इदमनृतं संप्रवर्तितम्। वेदयतीति वेदो विधिस्तस्य वादोऽर्थवादस्तत्संबन्धि विज्ञानं संन्यासविधिस्तुत्यर्थं भरतादिकीर्तनं प्रजापतिवपोत्खननवदर्थवादो नतु तावता मौण्ड्ये क्षत्रियस्याधिकारः सिध्यतीति भावः।। 12-10-21 आत्मानं देहमात्मना स्वेनैव बिभ्रता निश्चलं स्थापयता धर्मच्छझ कपटयोगं आस्थाय च्यवितुं मर्तुमेव शक्यं न जीवितुम्। केवलं प्रणिधानेन शरीरनाशो भवेदित्यर्थः।। 12-10-26 आत्मभाग्येषु स्वसंपत्सु अन्येषां सिद्धिं परकर्मार्जितं फलम्।।
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