महाभारतम्-12-शांतिपर्व-308
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति क्षराक्षरलक्षणप्रतिपादकजनकवसिष्ठसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-308-1x |
किं तदक्षरमित्युक्तं यस्मान्नावर्तते पुनः। किंच तत्क्षरमित्युक्तं यस्मादावर्तते पुनः।। | 12-308-1a 12-308-1b |
अक्षरधरयोर्व्यक्तिं पृच्छाम्यरिनिषूदन। उपलब्धुं महाबाहो तत्त्वेन कुरुनन्दन।। | 12-308-2a 12-308-2b |
त्वं हि ज्ञाननिधिर्विप्रैरुच्यसे वेदपारगैः। ऋषिभिश्च महाभागैर्यतिभिश्च महात्मभिः।। | 12-308-3a 12-308-3b |
शेषमत्यं दिनानां ते दक्षिणायनभास्करे। आवृत्ते भगवत्यर्के गन्तासि परमां गतिम्।। | 12-308-4a 12-308-4b |
त्वयि प्रतिगते श्रेयः कुतः श्रोष्यामहे वयम्। कुरुवंशप्रदीपस्त्वं ज्ञानदीपेन दीप्यसे।। | 12-308-5a 12-308-5b |
तदेतच्छ्रोतुमिच्छामि त्वत्तः कुरुकुलोद्वह। न तृष्यामीह राजेन्द्र शृण्वन्नमृतमीदृशम्।। | 12-308-6a 12-308-6b |
भीष्म उवाच। | 12-308-7x |
अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्। वसिष्ठस्य च संवादं करालजनकस्य च।। | 12-308-7a 12-308-7b |
वसिष्ठं श्रेष्ठमासीनमृषीणां भास्करद्युतिम्। पप्रच्छ जनको राजा ज्ञानं नैःश्रेयसं परम्।। | 12-308-8a 12-308-8b |
परमध्यात्मकुशलमध्यात्मगतिनिश्चयम्। मैत्रावरुणिमासीनमभिवाद्य कृताञ्जलिः।। | 12-308-9a 12-308-9b |
स्वक्षरं प्रश्रितं वाक्यं मधुरं चाप्यनुल्वणम्। पप्रच्छर्षिवरं राजा करालजनकः पुरा।। | 12-308-10a 12-308-10b |
भगवञ्श्रोतुमिच्छामि परं ब्रह्म सनातनम्। यस्मान्न पुनरावृत्तिमाप्नुवन्ति मनीषिणः।। | 12-308-11a 12-308-11b |
यच्च तत्क्षरमित्युक्तं यत्रेदं क्षरते जगत्। यच्चाक्षरमिति प्रोक्तं शिवं क्षेम्यमनामयम्।। | 12-308-12a 12-308-12b |
वसिष्ठ उवाच। | 12-308-13x |
श्रूयतां पृथिवीपाल क्षरतीदं यथा जगत्। यन्न क्षरति पूर्वेण यावत्कालेन चाप्यथ।। | 12-308-13a 12-308-13b |
युगं द्वादशसाहस्रं कल्पं विद्धि चतुर्युगम्। दशकल्पशतावृत्तमहस्तद्ब्राह्ममुच्यते।। | 12-308-14a 12-308-14b |
रात्रिश्चैतावती राजन्यस्यान्ते प्रतिबुध्यते। सृजत्यनन्तकर्माणं महान्तं भूतमग्रजम्।। | 12-308-15a 12-308-15b |
मूर्तिमन्तममूर्तात्मा विश्वं शंभुः स्वयंभुवम्। अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानं ज्योतिरव्ययम्।। | 12-308-16a 12-308-16b |
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोक्षिशिरोमुखम्। सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।। | 12-308-17a 12-308-17b |
हिरण्यगर्भो भगवानेष बुद्धिरिति स्मृतः। महानिति च योगेषु विरिञ्चिरिति चाप्यजः।। | 12-308-18a 12-308-18b |
साङ्ख्ये च पठ्यते शास्त्रे नामभिर्बहुधात्मकः। विचित्ररूपो विश्वात्मा एकाक्षर इति स्मृतः।। | 12-308-19a 12-308-19b |
वृतं नैकात्मकं येन कृतं त्रैलोक्यमात्मना। तथैव बहुरूपत्वाद्विश्वरूप इति स्मृतः।। | 12-308-20a 12-308-20b |
एष वै विक्रियापन्नः सृजत्यात्मानमात्मना। अहंकारं महातेजाः प्रजापतिरंकृतम्।। | 12-308-21a 12-308-21b |
अव्यक्ताद्व्यक्तमापन्नं विद्यासर्गं वदन्ति तम्। महान्तं चाप्यहंकारमविद्यासर्गमेव च।। | 12-308-22a 12-308-22b |
अपरश्च परश्चैव समुत्पन्नौ तथैकतः। विद्याविद्येति विख्याते श्रुतिशास्त्रार्थचिन्तकैः।। | 12-308-23a 12-308-23b |
भूतसर्गमहंकारात्तृतीयं विद्धि पार्थिव। अहंकारेषु सर्वेषु चतुर्थं विद्धि वैकृतम्।। | 12-308-24a 12-308-24b |
वायुर्ज्योतिरथाकाशमापोऽथ पृथिवी तथा। शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च।। | 12-308-25a 12-308-25b |
एवं युगपदुत्पन्नं दशवर्गमसंशयम्। पञ्चमं विद्धि राजेन्द्र भौतिकं सर्गमर्थवत्।। | 12-308-26a 12-308-26b |
श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा घ्राणमेव च पञ्चमम्। वाक्च हस्तौ च पादौ च पायुर्मेढ्रं तथैव च।। | 12-308-27a 12-308-27b |
बुद्धीन्द्रियाणि चैतानि तथा कर्मेन्द्रियाणि च। संभूतानीह युगपन्मनसा सह पार्थिव।। | 12-308-28a 12-308-28b |
एषा तत्त्वचतुर्विशत्सर्वाकृतिषु वर्तते। यां ज्ञात्वा नाभिशोचन्ति ब्राह्मणास्तत्त्वदर्शिनः।। | 12-308-29a 12-308-29b |
एतद्देहं समाख्यानं त्रैलोक्ये सर्वदेहिषु। वेदितव्यं नरश्रेष्ठ सदेवनरदानवे।। | 12-308-30a 12-308-30b |
सयक्षभूतगन्धर्वे सकिन्नरमहोरगे। सचारणपिशाचे वै सदेवर्षिनिशाचरे।। | 12-308-31a 12-308-31b |
सदंशकीटमशक्रे सपूतिकृमिमूषिके। शुनि श्वपाके चैणेये सचाण्डाले सपुल्कसे।। | 12-308-32a 12-308-32b |
हस्त्यश्वखरशार्दूले सवृके गवि चैव ह। यच्च मूर्तिमयं किचित्सर्वत्रैतन्निदर्शनम्।। | 12-308-33a 12-308-33b |
जले भुवि तथाऽऽकाशे नान्यत्रेति विनिश्चयः। स्थानं देहवतामस्ति इत्येवमनुशुश्रुम।। | 12-308-34a 12-308-34b |
कृत्स्नमेतावतस्तात क्षरते व्यक्तसंज्ञितम्। अहन्यहनि भूतात्मा ततः क्षर इति स्मृतः।। | 12-308-35a 12-308-35b |
एतद्धि क्षरमित्युक्तं क्षरतीदं यथा जगत्। जगन्मोहात्मकं प्राहुरव्यक्तं व्यक्तसंज्ञकम्।। | 12-308-36a 12-308-36b |
महांश्चैवाग्रजो नित्यमेतत्क्षरनिदर्शनम्। कथितं ते महाराजन्यस्मान्नावर्तते पुनः।। | 12-308-37a 12-308-37b |
पञ्चर्विशतिमो विष्णुर्निस्तत्त्वस्तत्त्वसंज्ञितः। तत्त्वसंश्रयणादेतत्तत्वमाहुर्मनीषिणः।। | 12-308-38a 12-308-38b |
यन्मर्त्यमसृजद्व्यक्तं तत्तन्मूर्त्यधितिष्ठति। चतुर्विशतिमोऽव्यक्तो ह्यमूर्तः पञ्चविंशकः।। | 12-308-39a 12-308-39b |
स एव हृदि सर्वासु मूर्तिष्वात्मावतिष्ठते। चेतयंश्चेतनान्नित्यं सर्वमूर्तिरमूर्तिमान्।। | 12-308-40a 12-308-40b |
सर्वप्रत्ययधर्मिण्यां स सर्गः प्रत्ययात्मकः। गोचरे वर्तते नित्यं निर्गुणो गुणसंज्ञिते।। | 12-308-41a 12-308-41b |
एवमेष महानात्मा सर्गप्रलयकोविदः। विकुर्वाणः प्रकृतिमानभिमन्यत्यबुद्धिमान्।। | 12-308-42a 12-308-42b |
तमः सत्वरजोयुक्तस्तासु तास्विह योनिषु। लीयते प्रतिबुद्धत्वादबुद्धजनसेवनात्।। | 12-308-43a 12-308-43b |
सहवासनिवासात्मा नान्योऽहमिति मन्यते। योऽहं सोहमिति ह्युक्त्वा गुणानेवानुवर्तते।। | 12-308-44a 12-308-44b |
तमसा तामसान्भावान्विविधान्प्रतिपद्यते। रजसा राजसांश्चैव सात्विकान्सत्वसंश्रयात्।। | 12-308-45a 12-308-45b |
शुक्ललोहितकृष्णानि रूपाण्येतानि त्रीणि तु। सर्वाण्येतानि रूपाणि यानीह प्राकृतानि वै।। | 12-308-46a 12-308-46b |
तामसा निरयं यान्ति राजसा मानुपानथ। सात्विका देवलोकाय गच्छन्ति सुखभागिनः।। | 12-308-47a 12-308-47b |
निष्कैवल्येन पापेन तिर्यग्योनिमवाप्नुयात्। पुण्यपापेन मानुष्यं पुण्येनैकेन देवताः।। | 12-308-48a 12-308-48b |
एवमव्यक्तविषयं क्षरमाहुर्मनीषिणः। पञ्चविंशतिमो योऽयं ज्ञानादेव प्रवर्तते।। | 12-308-49a 12-308-49b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अष्टाधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 308।। |
12-308-5 ज्ञानद्रव्येण दीप्यस इति ड. ध. पाठः।। 12-308-7 करालनामाजनकः करालजनकस्तस्य। एतत्ते वर्तयिष्यामीति ट. ड. थ. पाठः।। 12-308-9 कुशलं ऊहापोहसमर्थम्। गतिरनुभवस्तेन निश्चयोऽस्यास्तीति तथा। मैत्रावरुणिं वसिष्ठम्।। 12-308-22 महतश्चाप्यहंकारमिति ड. ध. पाठः।। 12-308-23 अबिधिश्च विधिश्चैवेति झ. पाठः। श्रुतिश्चाध्यात्मचिन्तकैरिति ड. थ.ध. पाठ।। 12-308-37 एतत्क्षेत्रनिदर्शनमिति ट. ड. ध. पाठः।। 12-308-39 यां तु मूर्ति सृजत्येषा तां मूर्तिमधितिष्ठतीति ट. पाठः।। 12-308-41 सर्गप्रलयधर्मिण्या ससर्गप्रलयात्मक इति झ. पाठः।। 12-308-42 सर्गप्रत्ययकोविद इति ट. ध. पाठः। अक्षरः क्षरमात्मानमभिमज्जत्यबुद्धिमानिति थ. पाठः।। 12-308-44 सहवासविनाशित्वान्नान्योऽहमिति झ. पाठः।। 12-308-46 जातानि प्राकृतानि वै इति ड. थ. पाठः। जानीहि प्राकृतानि वै इति ध. पाठः।।
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