महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-268
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कोटिकाश्याद्द्रौपदीतत्वंविदितवता जयद्रथेन द्रौपदीमेत्य स्वभार्यात्वयाचनाः ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-268-1x |
तथाऽऽसीनेषु सर्वेषु तेषु राजसु भारत। `कोटिकाश्यो जगामाशु सिन्धुराजनिवेशनम् ।। | 3-268-1a 3-268-1b |
यदुक्तं कृष्णया सार्धं तत्सर्वं प्रत्यवेदयत्। कोटिकाश्यवचः श्रुत्वा शैब्यं सौवीरकोऽब्रवीत् ।। | 3-268-2a 3-268-2b |
यदा वाचं व्याहरन्त्यामस्यां मे रमते मनः। सीमन्तिनीनां सुख्यायां विनिवृत्तः कथं भवान् ।। | 3-268-3a 3-268-3b |
एतां दृष्ट्वा स्त्रियो मेऽन्या यथा शाखामृगस्त्रियः। प्रतिभान्ति महाबाहो सत्यमेतद्ब्रवीमि ते ।। | 3-268-4a 3-268-4b |
दर्शनादेव हि मनस्तया मेऽपहृतं भृशम्। तां समाचक्ष्व कल्याणीं यदि स्याच्छैब्य मानुषी ।। | 3-268-5a 3-268-5b |
कोटिक उवाच। | 3-268-6x |
एषा वै द्रौपदी कृष्णा राजपुत्री यशस्विनी। पञ्चानां पाण्डुपुत्राणां महिषी संमता भृशम् ।। | 3-268-6a 3-268-6b |
सर्वेषां चैव पार्थानां प्रिया बहुमता सती। तया समेत्य सौवीर सौवीराभिमुखो व्रज ।। | 3-268-7a 3-268-7b |
वैशंपायन उवाच। | 3-268-8x |
एवमुक्तः प्रत्युवाच पश्यामि द्रौपदीमिति। पतिः सौवीरसिन्धूनां दुष्टभावो जयद्रथः ।। | 3-268-8a 3-268-8b |
स प्रविश्याश्रमं पुण्यं सिंहगोष्ठं वृको यथा। आत्मना सप्तमः कृष्णामिदं वचनमब्रवीत् ।। | 3-268-9a 3-268-9b |
कुशलं ते वरारोहे भर्तारस्तेऽप्यनामयाः। येषां कुशलकामासि तेऽपिकच्चिदनामयाः ।। | 3-268-10a 3-268-10b |
द्रौपद्युवाच। | 3-268-11x |
अपि ते कुशलं राजन्राष्ट्रे कोशे बले तथा। कच्चिदेकः शिबीनाढ्यान्सौवीरान्सह सिन्धुभिः। अनुतिष्ठसि धर्मेण ये चान्ये विदितास्त्वया ।। | 3-268-11a 3-268-11b 3-268-11c |
कौरव्यः कुशली राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। अहं च भ्रातरश्चास्य यांश्चान्यान्परिपृच्छसि ।। | 3-268-12a 3-268-12b |
पाद्यं प्रतिगृहाणेदमासनं च नृपात्मज। मृगान्विता मृगीश्चैव प्रातराशं ददानि ते ।। | 3-268-13a 3-268-13b |
ऐणेयान्पृषतान्न्यङ्कून्हरिणाञ्शरभाञ्शशान्। ऋक्षाव्रुरूञ्शम्बरांश्च गवयांश्च मृगान्बहून् ।। | 3-268-14a 3-268-14b |
वराहामहिषांश्चैव याश्चान्या मृगजातयः। प्रदास्यति स्वयं तुभ्यं कुन्तीपुत्रो युधिष्टिरः ।। | 3-268-15a 3-268-15b |
जयद्रथ उवाच। | 3-268-16x |
कुशलं प्रातराशस्य सर्वं मे दित्सितं त्वया। एहि मे रथमारोह सुखमाप्नुहि केवलम् ।। | 3-268-16a 3-268-16b |
गतश्रीकान्हृतराज्यान्कृपणान्गतचेतसः। अरण्यवासिनः पार्थान्नानुरोद्धुं त्वमर्हसि ।। | 3-268-17a 3-268-17b |
नैव प्राज्ञा गतश्रीकं भर्तारमुपयुञ्जते। युञ्जानमनुयुञ्जीत न शरियः संक्षये वसेत् ।। | 3-268-18a 3-268-18b |
श्रिया विहीना राष्ट्राच्च विनष्टाः शाश्वतीः समाः। अलं ते पाण्डुपुत्राणां भक्त्या क्लेशमुपासितुम् ।। | 3-268-19a 3-268-19b |
भार्या मे भव सुश्रोणि त्यजैनान्मुखमाप्नुहि। अखिलान्सिन्धुसौवीरानाप्नुहि त्वं मया सह ।। | 3-268-20a 3-268-20b |
वैशंपायन उवाच। | 3-268-21x |
इत्युक्ता सिन्धुराजेन वाक्यं हृदयकम्पनम्। कृष्णा तस्मादपाक्रामद्देशात्सभ्रुकुटीमुखी ।। | 3-268-21a 3-268-21b |
अवमत्यास्य तद्वांक्यमाक्षिप्य च सुमध्यमा। मैवमित्यब्रवीत्कृष्णा लज्जस्वेति च सैन्धवम् ।। | 3-268-22a 3-268-22b |
सा काङ्क्षमाणा भर्तृणामुपयातमनिन्दिता। विलम्बयामास परं वाक्यैर्वाक्यानि युञ्जती ।। | 3-268-23a 3-268-23b |
द्रैपद्युवाच। | 3-268-23x |
नैवं वद महाबाहो न्याय्यं त्वं न च मन्यसे। पाण्डूनां धार्तराष्ट्राणां स्वसा चैव कनीयसी ।। | 3-268-24a 3-268-24b |
दुश्शला नाम तस्यास्त्वं भर्ता राजकुलोद्वह। मम भ्राता च न्याय्येन त्वया रक्ष्या महारथ ।। | 3-268-25a 3-268-25b |
धर्मिष्ठानां कुले जातो न धर्मं त्वमवेक्षसे। इत्युक्तः सिन्धुराजोथ वाक्यमुत्तरमब्रवीत् ।। | 3-268-26a 3-268-26b |
राज्ञां धर्मं न जानीषे स्त्रियो रत्नानि चैव हि। साधारणानि लोकेऽस्मिन्प्रवदन्ति मनीषिणः ।। | 3-268-27a 3-268-27b |
स्वसा च स्वस्रिया चैव भ्रातृभार्या तथैव च। सुखं गृह्णन्ति राजानस्ताश्च तत्र नृपोद्भवाः' ।। | 3-268-28a 3-268-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि अष्टषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 268 ।। |
3-268-3 सौवीरको जयद्रथः ।। 3-268-7 यदास्यां मे मनोरमते तदा भवान्कथं विनिवृत्त इति योज्यम् ।। 3-268-9 सिंहगोष्ठं गोष्ठमिव गोष्ठं स्थानम् ।। 3-268-11 अनुतिष्ठति पालयसि। विदिता लब्धाः ।। 3-268-18 श्रियः संक्षये सतीति शेषः। हीनलक्ष्मीके इत्यर्थः ।। 3-268-19 समाः संवत्सरान् ।। 3-268-23 विलोभयामास परमिति झ. पाठः ।।
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