महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-081
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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पुलस्त्येन भीष्मंप्रति नानातीर्थमहिमानुवर्णनम् ।। 1 ।।
पुलस्त्य उवाच। | 3-81-1x |
ततो गच्छेत राजेन्द्र कुरुक्षेत्रमभिष्टुतम्। पापेभ्योविप्रमुच्यन्ते तद्गताः सर्वजन्तवः ।। | 3-81-1a 3-81-1b |
कुरुक्षेत्रं गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्यहम्। य एवं सततं ब्रूयात्सोऽपि पापैः प्रमुच्यते ।। | 3-81-2a 3-81-2b |
पांसवोऽपिकुरुक्षेत्रे वायुना समुदीरिताः। अपिदुष्कृतकर्माणं नयन्ति परमां गतिम् ।। | 3-81-3a 3-81-3b |
दक्षिणेन सरस्वत्या दृषद्वत्युत्तरेण च। ये वसन्ति कुरुक्षेत्रे ते वसन्ति त्रिविष्टपे ।। | 3-81-4a 3-81-4b |
तत्र मासं वसेद्धीरः सरस्वत्यां युधांवर। यत्रब्रह्मादयो देवा ऋषयः सिद्धचारणाः ।। | 3-81-5a 3-81-5b |
गन्धर्वाप्सरसो यक्षाः पन्नगाश्च महीपते। ब्रह्मक्षेत्रं महापुण्यमभिगच्छन्ति भारत ।। | 3-81-6a 3-81-6b |
मनसाऽप्यभिकामस्य कुरुक्षेत्रं युधांवर। पापानि विप्रणश्यन्ति ब्रह्मलोकं च गच्छति ।। | 3-81-7a 3-81-7b |
गत्वा हि श्रद्धया युक्तः करुक्षेत्रं कुरूद्वह। राजसूयाश्वमेधाभ्यां फलमाप्नोति मानवः ।। | 3-81-8a 3-81-8b |
ततश्च मन्तुकं राजन्द्वारपालं महाबलम्। यक्षं समभिवाद्यैव गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-81-9a 3-81-9b |
ततो गच्छेत धर्मज्ञ विष्णो स्थानमनुत्तमम्। सततं नाम राजेन्द्र यत्रसन्निहितो हरिः ।। | 3-81-10a 3-81-10b |
तत्रस्नात्वाऽर्चयित्वा च त्रिलोकप्रभवं हरिम्। अश्वमेधमवाप्नोति विष्णुलोकं च गच्छति ।। | 3-81-11a 3-81-11b |
ततः परिप्लवं गच्छेत्तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्। अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं प्राप्नोति भारत ।। | 3-81-12a 3-81-12b |
पृथिवीतीर्थमासाद्य गोसहस्रफलं लभेत्। ततः शालूकिनी गत्वा तीर्थसेवी नराधिप ।। | 3-81-13a 3-81-13b |
दशाश्वमेधे स्नात्वा च तदेव फलमाप्नुयात्। सर्पदर्वीं समासाद्य नागानां तीर्थमुत्तमम् ।। | 3-81-14a 3-81-14b |
अग्निष्टोममवाप्नोति नागलोकं च विन्दति। ततो गच्छेत धर्मज्ञ द्वारपालमरुन्तुकम् ।। | 3-81-15a 3-81-15b |
तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत्। ततः पञ्चनदं गत्वा नियतो नियताशनः ।। | 3-81-16a 3-81-16b |
कोटितीर्थमुपस्पृश्य हयमेधफंल लभेत्। अश्विनोस्तीर्थमासाद्य रूपवानमिजायते ।। | 3-81-17a 3-81-17b |
ततो गच्छेत धर्मज्ञ वाराहं तीर्थमुत्तमम्। विष्णुर्वाराहरूपेण पूर्वं यत्र स्थितो विभुः ।। | 3-81-18a 3-81-18b |
तत्रस्नात्वा नरश्रेष्ठ अग्निष्टोमफलं लभेत्। ततो जयन्त्यां राजेन्द्र सोमतीर्थं समाविशेत् ।। | 3-81-19a 3-81-19b |
स्नात्वा फलमवाप्नोति राजसूयस्य मानवः। एकहंसे नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-81-20a 3-81-20b |
शतशौचं समासाद्य तीर्थसेवी नराधिप। पौण्डरीकमवाप्नोति कृतशौचो भवेच्च सः ।। | 3-81-21a 3-81-21b |
ततो मुञ्जवटं नाम स्थाणोः स्थानं महात्मनः। उपोष्य रजनीमेकां गाणपत्यमवाप्नुयात् ।। | 3-81-22a 3-81-22b |
तत्रैव च महाराज यक्षिणी लोकविश्रुता। तां चाभिगम्यराजेन्द्र सर्वान्कामानवाप्नुयात् ।। | 3-81-23a 3-81-23b |
कुरुक्षेत्रस् तद्द्वारं विश्रुतं भरतर्षभ। प्रदक्षिणमुपावृत्य तीर्थसेवी समाहितः ।। | 3-81-24a 3-81-24b |
संमिते पुष्कराणां च स्नात्वाऽर्च्य पितृदेवताः। जामदग्न्येन रामेण कृतं तत्सुमहात्मना ।। | 3-81-25a 3-81-25b |
कृतकृत्यो भवेद्राजन्नश्वमेधं च विन्दति। ततो रामह्रदानार्च्छेत्तीर्थसेवी समाहितः ।। | 3-81-26a 3-81-26b |
तत्ररामेण राजेनद्रतरसा दीप्ततेजसा। क्षत्रमुत्साद् वीरेण ह्रदाः पञ्च निवेशिताः ।। | 3-81-27a 3-81-27b |
पूरयित्वा नरव्याघ्र रुधिरेणेति नः श्रुतम्। पितरस्तर्पिताः सर्वे तथैव प्रपितागहाः ।। | 3-81-28a 3-81-28b |
ततस्ते पितरः प्रीता राममूचुर्नराधिप। रामराम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव ।। | 3-81-29a 3-81-29b |
अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण च ते विभो। वरं वृणीष्व भद्रं ते किमिच्छसि महाद्युते ।। | 3-81-30a 3-81-30b |
एवमुक्तः स राजेन्द्र राम प्रहरतांवरः। अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं पितॄन्स गगने स्थितान् ।। | 3-81-31a 3-81-31b |
भवन्तो यदि मे प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि। पितृप्रसादादिच्छेयं तपःस्वाध्ययनं पुनः ।। | 3-81-32a 3-81-32b |
यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया। ततश्च पापान्मुच्येयं युष्माकं तेजसाऽप्यहम् ।। | 3-81-33a 3-81-33b |
ह्रदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः। एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं रामस्य पितरस्तदा ।। | 3-81-34a 3-81-34b |
प्रत्यूचुः परमप्रीता रामं हर्पसमन्विताः। तपस्ते वर्धतां भूयः पितृभक्त्या विशेषतः ।। | 3-81-35a 3-81-35b |
यच्च रोपाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं त्वया। ततश्च पापान्मुक्तस्त्वं पातितास्ते स्वकर्मभिः ।। | 3-81-36a 3-81-36b |
ह्रदाश्च तव तीर्थत्वं गमिष्यन्ति न संशयः। ह्रदेषु तेषु यः स्नात्वा पितॄन्संतर्पयिष्यति ।। | 3-81-37a 3-81-37b |
पितरस्तस् वै प्रीता दास्यन्ति भुवि दुर्लभम्। ईप्सितं च मनःकामं स्वर्गलोकं च शाश्वतम् ।। | 3-81-38a 3-81-38b |
एवं दत्त्वा वरान्राजन्रामस्य पितरस्तदा। आमन्त्र्य भारग्वं प्रीत्या तत्रैवान्तर्हितास्ततः ।। | 3-81-39a 3-81-39b |
एवं रामह्रदाः पुण्या भार्गवस्य महात्मनः। स्नात्वा ह्रहेषु रामस्य ब्रह्मचारी शुचिव्रतः ।। | 3-81-40a 3-81-40b |
राममभ्यर्च्य राजेन्द्र लभेद्बहु सुवर्णकम्। वंशमूलकमासाद्य तीर्थसेवी कुरूद्वह ।। | 3-81-41a 3-81-41b |
स्ववंशमुद्धरेद्राजन्स्नात्वा वै वंशमूलके। कायशोधनमासाद्य तीर्थं भरतसत्तम ।। शरीरशुद्धिः स्नातस्य तस्मिंस्तीर्थे न संशयः। | 3-81-42a 3-81-42b 3-81-42c |
शरीरशुद्धिः स्नातस्य तस्मिंस्तीर्थे न संशयः। शुद्धदेहश्च संयाति युभाँल्लोकाननुत्तमान् ।। | 3-81-43a 3-81-43b |
ततो गच्छेत धर्मज्ञ तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्। लोका यत्रोद्धृताः पूर्वं विष्णुना प्रभविष्णुना ।। | 3-81-44a 3-81-44b |
लोकोद्धारं समासाद्य तीर्थं त्रैलोक्यपूजितम्। स्नात्वा तीर्थवरे राजँल्लोकानुद्धरते स्वकान् ।। | 3-81-45a 3-81-45b |
श्रीतीर्थं च समासाद्य स्नात्वा नियतमानसः। अर्चयित्वा पितॄन्देवान्विन्दते श्रियमुत्तमाम् ।। | 3-81-46a 3-81-46b |
कपिलातीर्थमासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः। तत्र स्नात्वाऽर्चयित्वा च पितॄन्स्वान्दैवतान्यपि ।। | 3-81-47a 3-81-47b |
कपिलानां सहस्रस्य फलंविन्दति मानवः। सूर्यतीर्थं समासाद्य स्नात्वा नियतमानसः ।। | 3-81-48a 3-81-48b |
अर्चयित्वा पितॄन्देवानुपवासपरायणः। अग्निष्टोममवाप्नोति सूर्यलोकं च गच्छति ।। | 3-81-49a 3-81-49b |
गवां भगवनासाद्य तीर्थसेवी यथाक्रमम्। तत्राभिषेकं कुर्वाणो गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-81-50a 3-81-50b |
शङ्खिनीतीर्थमासाद्य तीर्थसेवी कुरूद्वह। देव्यास्तीर्थे नरः स्नात्वा लभते रूपमुत्तमम् ।। | 3-81-51a 3-81-51b |
ततो गच्छेत राजेन्द्रद्वारपालमरुन्तुकम्। तच्च तीर्थं सरस्वत्यां यक्षेन्द्रस्य महात्मनः ।। | 3-81-52a 3-81-52b |
तत्रस्नात्वा नरो राजन्नग्निष्टोमफलं लभेत्। ततो गच्छेत राजेन्द्र ब्रह्मावर्तं नरोत्तमः ।। | 3-81-53a 3-81-53b |
ब्रह्मावर्ते नरः स्नात्वा ब्रह्मलोकमवाप्नुयात्। ततो गच्छेत राजेन्द्र सुतीर्थकमनुत्तमम् ।। | 3-81-54a 3-81-54b |
तत्रसन्निहिता नित्यं पितरो दैवतैः सह। तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः ।। | 3-81-55a 3-81-55b |
अश्वमेधमावाप्नोति पितृलोकं च गच्छति। ततोम्बुमत्यां धर्मज्ञ सुतीर्थकमनुत्तमम् ।। | 3-81-56a 3-81-56b |
कोशेश्वरस्य तीर्थेषु स्नात्वा भरतसत्तम। सर्वव्याधिविनिर्मुक्तो ब्रह्मलोके महीयते ।। | 3-81-57a 3-81-57b |
मातृतीर्थं च तत्रैव यत्रस्नातस्य भारत। प्रजा विवर्धते राजन्न तन्वीं श्रियमश्नुते ।। | 3-81-58a 3-81-58b |
ततः शीतवनं गच्छेन्नियतो नियताशनः। तीर्थं तत्रमहाराज महदन्यत्र दुर्लभम् ।। | 3-81-59a 3-81-59b |
पुनाति गमनादेव कुलमेकं नराधिप। केशानभ्युक्ष् वै तस्मिन्पूतो भवति भारत ।। | 3-81-60a 3-81-60b |
तीर्थं तत्र महाराज श्वानलोमापहं स्मृतम्। यत्र विप्रा नरव्याघ्र विद्वांसस्तीर्थतत्पराः ।। | 3-81-61a 3-81-61b |
गतिं गच्छन्ति परमां स्नात्वा भरतसत्तम। श्वानलोमापनयने तीर्थे भरतसत्तम ।। | 3-81-62a 3-81-62b |
प्राणायामैर्निर्हरन्ति स्वलोमानि द्विजोत्तमाः। पूतात्मानश्च राजेन्द्रप्रयान्ति परमां गतिम् ।। | 3-81-63a 3-81-63b |
दशाश्वमेधिकं चैव तस्मिंस्तीर्थे महीपते। तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र गच्छेत परमां गतिम् ।। | 3-81-64a 3-81-64b |
ततो गच्छेत राजेन्द्र मानुषं लोकविश्रुतम्। यत्र कृष्णमृगा राजन्व्याधेन परिपीडिताः ।। | 3-81-65a 3-81-65b |
विगाह्य तस्मिन्सरसि मानुषत्वमुपागताः। तस्मिंस्तीर्थे नरः स्नात्वा ब्रह्मचारी समाहितः ।। | 3-81-66a 3-81-66b |
सर्वपापविशुद्धात्मा स्वर्गलोके महीयते। मानुषस्य तु पूर्वेण क्रोशमात्रे महीपते ।। | 3-81-67a 3-81-67b |
आपगा नाम विख्याता नदीसिद्धनिषेविता। श्यामाकभोजनं तत्रयः प्रयच्छति मानवः ।। | 3-81-68a 3-81-68b |
देवान्पितॄन्समुद्दिश्य तस्य धर्मफलं महत्। एकस्मिन्भोजिते विप्रे कोटिर्भवति भोजिता ।। | 3-81-69a 3-81-69b |
तत्रस्नात्वाऽर्चयित्वा च पितृन्वै दैवतानि च। उषित्वा रजनीमेकामग्निष्टोमफलं लभेत् ।। | 3-81-70a 3-81-70b |
ततो गच्छेत राजेन्द्र ब्रह्मणः स्थानमुत्तमम्। ब्रह्मोदुम्बरमित्येव प्रकाशं भुवि भारत ।। | 3-81-71a 3-81-71b |
तत्रसप्तर्षिकुण्डेषु स्नातस् यनरपुङ्गव। केदारे चैवराजेन्द्रकपिञ्जलमहामुनेः ।। | 3-81-72a 3-81-72b |
ब्रह्माणमधिगत्वा च शुचिः प्रयतमानसः। सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोकं प्रपद्यते ।। | 3-81-73a 3-81-73b |
कपिञ्जलस्य केदारं समासाद्य सुदुर्लभम्। अन्तर्धानमवाप्नोति तपसा दग्धकिल्विषः ।। | 3-81-74a 3-81-74b |
ततो गच्छेत राजेन्द्र शङ्करं लोकविश्रुतम्। कृष्णपक्षे चतुर्दश्यामभिगम्य वृषध्वजम् ।। | 3-81-75a 3-81-75b |
लभेत सर्वकामान्हि स्वर्गलोकं च गच्छति। तिस्रः कोट्यस्तु तीर्थानां शङ्करे कुरुनन्दन ।। | 3-81-76a 3-81-76b |
रुद्रकोट्यां तथा कूपे ह्रदेषु च महीपते। शुद्धास्पदं च तत्रैव तीर्थं भरतसत्तम ।। | 3-81-77a 3-81-77b |
तत्रस्नात्वाऽर्चयित्वा च दैवतानि पितॄनथ। न दुर्गतिमवाप्नोति वाजपेयं च विन्दति ।। | 3-81-78a 3-81-78b |
किंदाने च नरः स्नात्वा किंजप्ये च महीपते। अप्रमेयमवाप्नोति दानं जप्यं च भारत ।। | 3-81-79a 3-81-79b |
कलश्यां वार्युपस्पृश्य श्रद्दधानो जितेन्द्रियः। अग्निष्टोमस् यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः ।। | 3-81-80a 3-81-80b |
शंकरस्य तु पूर्वेण नारदस्य महात्मनः। तीर्थं कुरुकुलश्रेष्ठ अजानन्तेति विश्रुतम् ।। | 3-81-81a 3-81-81b |
तत्रतीर्थे नरः स्नात्वा प्राणानुत्सृज्य भारत। नारदेनाभ्यनुज्ञातो लोकान्प्राप्नोत्यनुत्तमानन् ।। | 3-81-82a 3-81-82b |
शुक्लपक्षे दशम्यां च पुण्डरीकं समाविशेत्। तत्र स्नात्वा नरो राजन्पौण्डरीकफलं लभेत् ।। | 3-81-83a 3-81-83b |
ततस्त्रिविष्टपं गच्छेत्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। तत्र वैतरणी पुण्या नदी पापप्रणाशिनी ।। | 3-81-84a 3-81-84b |
तत्र स्नात्वाऽर्चयित्वा च शूलपाणिं वृषध्वजम्। सर्वपापविशुद्धात्मा गच्छेत परमां गतिम् ।। | 3-81-85a 3-81-85b |
ततो गच्छेत राजेन्द्र फलकीवनमुत्तमम्। तत्र देवाः सदा राजन्फलकीवनमाश्रिताः ।। | 3-81-86a 3-81-86b |
तपश्चरन्ति विपुलं बहुवर्षसहस्रकम्। दृषद्वत्यां नरः स्नात्वा तर्पयित्वा च देवताः ।। | 3-81-87a 3-81-87b |
अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं विन्दति भारत। तीर्ते च सर्वदेवानां स्नात्वा भरतसत्तम ।। | 3-81-88a 3-81-88b |
गोसहस्रस्य राजेन्द्र फलं विन्दति मानवः। पाणिस्वाते नरः स्नात्त्वा तर्पयित्वा च देवताः ।। | 3-81-89a 3-81-89b |
अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं विन्दति भारत। राजसूयमावाप्नोति ऋषिलोकं च विन्दति ।। | 3-81-90a 3-81-90b |
ततो गच्छेत राजेन्द्र मिश्रकं तीर्थमुत्तमम्। तत्र तीर्थानि राजेन्द्र मिश्रितानि महात्मना ।। | 3-81-91a 3-81-91b |
व्यासेन नृपशार्दूल द्विजार्थमिति नः श्रुतम्। सर्वतीर्थेषु स स्नाति मिश्रके स्नाति यो नरः ।। | 3-81-92a 3-81-92b |
ततो व्यासवनं गच्छेन्नियतो नियताशनः। मनोजवे नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-81-93a 3-81-93b |
गत्वा मधुवटीं चैव देव्याः स्थानं नरः शुचिः। तत्र स्नात्वाऽर्चयित्वा च पितॄन्देवांश्च पूरुषः ।। | 3-81-94a 3-81-94b |
स देव्या समनुज्ञातो गोसहस्रफलं लभेत्। कौशिक्याः संगमे यस्तु दृषद्वत्याश्च भारत ।। | 3-81-95a 3-81-95b |
स्नाति वै नियताहार सर्वपापैः प्रमुच्यते। ततो व्यासस्थली नाम यत्रव्यासेन धीमता ।। | 3-81-96a 3-81-96b |
पुत्रशोकाभितप्तेन देहत्यागे कृता मतिः। ततो देवैस्तु राजेन्द्र पुनरुत्थापितस्तदा ।। | 3-81-97a 3-81-97b |
अभिगत्वा स्थलीं तस्य गोसहस्रफलं लभेत्। किंदत्तं कूपमासाद्य तिलप्रस्थं प्रदाय च ।। | 3-81-98a 3-81-98b |
गच्छेत परमां सिद्धिमृणैर्मुक्तः कुरूद्वह। वेदीतीर्थे नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-81-99a 3-81-99b |
अहस्छ सुदिनं चैव द्वे तीर्थे लोकविश्रुते। तयोः स्नात्वा नरव्याघ्र सूर्यलोकमवाप्नुयात् ।। | 3-81-100a 3-81-100b |
मृगधूमं ततो गच्छेत्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। तत्राभिषेकं कुर्वीत गङ्गायां नृपसत्तम ।। | 3-81-101a 3-81-101b |
अर्चयित्वा महादेवमश्वमेधफलं लभेत्। देव्यास्तीर्थे नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-81-102a 3-81-102b |
ततो वामनकं गच्छेत्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। तत्रविष्णुपदे स्नात्वा अर्चयित्वा च वामनम् ।। | 3-81-103a 3-81-103b |
सर्वपापविशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति। कुलपुने नरः स्नात्वा पुनाति स्वकुलं ततः ।। | 3-81-104a 3-81-104b |
पवनस्य ह्रदे स्नात्वा मरुतां तीर्थमुत्तमम्। तत्रस्नात्वा नख्याघ्र विष्णुलोके महीयते ।। | 3-81-105a 3-81-105b |
अमराणां ह्रदे स्नात्वा समभ्यर्च्यामराधिपम्। अमराणां प्रभावेन स्वर्गलोके महीयते ।। | 3-81-106a 3-81-106b |
शालिहोत्रस्य तीर्थे च शालिशूर्पे यथाविधि। स्नात्वा नरवरश्रेष्ठ गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-81-107a 3-81-107b |
श्रीकुञ्जं च सरस्वत्यास्तीर्थं भरतसत्तम। तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ अग्निष्टोमफलं लभेत् ।। | 3-81-108a 3-81-108b |
ततो नैमिपकुञ्जं च समासाद्य कुरूद्वह। ऋषयः किल राजेन्द्र नैमिषेयास्तपस्विनः ।। | 3-81-109a 3-81-109b |
तीर्थयात्रां पुरस्कृत्य कुरुक्षेत्रं गताः पुरा। `तत्र तीर्थे नरः स्नात्वा वाजिमेधफलं लभेत्।' ततः कुञ्जः सरस्वत्याः कृतो भरतसत्तम ।। | 3-81-110a 3-81-110b 3-81-110c |
ऋपीणामवकाशः स्याद्यथा तुष्टिकरो महान्। कन्यातीर्थे नरः स्नात्वागोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-81-111a 3-81-111b |
ततो गच्छेत धर्मज्ञ कन्यातीर्थमनुत्तमम्। कन्यातीर्थे नरः स्नात्वा अग्निष्टोमफलं लभेत् ।। | 3-81-112a 3-81-112b |
ततो गच्छेत राजेन्द्र ब्रह्मणस्तीर्थमुत्तमम्। तत्रवर्णावरः स्नात्वा ब्राह्मण्यं लभते नरः ।। | 3-81-113a 3-81-113b |
ब्राह्मणश्च विशुद्धात्मा गच्छेत परमां गतिम्। ततो गच्छेन्नरश्रेष्ठ सोमतीर्थमनत्तमम् ।। | 3-81-114a 3-81-114b |
तत्र स्नात्वा नरो राजन्सोमलोकमवाप्नुयात्। सप्तसारस्वतं तीर्थं ततो गच्छेन्नराधिप ।। | 3-81-115a 3-81-115b |
यत्र मङ्कणकः सिद्धो महर्षिर्लोकविश्रुतः। पुरा मङ्कणको राजन्कुशाग्रेणेति नःश्रुतम् ।। | 3-81-116a 3-81-116b |
क्षतः किल करे राजंस्तस्य शाकरसोऽस्रवत्। स वै शाकरसं दृष्ट्वा हर्षाविष्टः प्रनृत्तवान् ।। | 3-81-117a 3-81-117b |
ततस्तस्मिन्प्रनृत्ते तु स्थावरं जङ्गमं च यत्। प्रनृत्तमुभयं वीर तेजसा तस्य मोहितम् ।। | 3-81-118a 3-81-118b |
ब्रह्मादिभिः सुरै राजनृषिभिश्च तपोधनैः। क्षिप्तो वै महादेव ऋषेरर्थे नराधिप ।। | 3-81-119a 3-81-119b |
नायं नृत्येद्यथा देव तथा न्वं कर्तुमर्हसि। तं प्रनृत्तं समासाद्य हर्षाविष्टेन चेतसा। सुराणां हितकामार्थमृषिं देवोऽभ्यभाषत ।। | 3-81-120a 3-81-120b 3-81-120c |
भोभो महर्षे धर्मज्ञ किमर्थं नृत्यते भवान्। हर्षस्थानं किमर्थं वा तवाद्य मुनिपुङ्गव ।। | 3-81-121a 3-81-121b |
ऋषिरुवाच। | 3-81-122x |
तपस्विनो धर्मपथे स्थितस्य द्विजसत्तम। किं न पश्यसि मे ब्रह्मन्कराच्छाकरसं स्रुतम् ।। | 3-81-122a 3-81-122b |
यं दृष्ट्वाऽहं प्रनृत्तोऽहं हर्षेण महताऽन्वितः। तं प्रहस्याब्रवीद्देव ऋषिं रागेण मोहितम् ।। | 3-81-123a 3-81-123b |
अहं तु विस्मयं विप्र न गच्छामीति पश्य माम्। एवमुक्त्वा नरश्रेष्ठ महादेवेन धीमता ।। | 3-81-124a 3-81-124b |
अङ्गुल्यग्रेण राजेन्द्रस्वाङ्गुष्ठस्ताडितोऽनघ। ततो भस्म क्षताद्राजन्निर्गतं हिमसन्निभम् ।। | 3-81-125a 3-81-125b |
तद्दृष्ट्वा व्रीडितो राजन्स मुनिः पादयोर्गतः। नान्यद्देवात्परं मेने रुद्रात्परतरं महत् ।। | 3-81-126a 3-81-126b |
सुरासुरस्य जगतो गतिस्त्वमसि शूलधृत्। त्वया सर्वमिदं सृष्टं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।। | 3-81-127a 3-81-127b |
त्वमेव सर्वान्ग्रससि पुनरेव युगक्षये। देवैरपि न शक्यस्त्वं परिज्ञातुं कुतो मया ।। | 3-81-128a 3-81-128b |
त्वयि सर्वे प्रदृश्यन्ते सुरा ब्रह्मादयोऽनघ। सर्वस्त्वमसि लोकानां कर्ताकारयिता च ह ।। | 3-81-129a 3-81-129b |
त्वत्प्रसादात्सुराः सर्वे निवसन्त्यकुतोभयाः। एवं स्तुत्वा महादेवमृषिर्वचनमब्रवीत् ।। | 3-81-130a 3-81-130b |
त्वत्प्रसादान्महादेव तपो मे न क्षरेत वै। ततो देवः प्रहृष्टात्मा ब्रह्मर्षिमिदमब्रवीत् ।। | 3-81-131a 3-81-131b |
तपस्ते वर्धतां विप्र मत्प्रसादात्सहस्रशः। आश्रमे चेह वत्स्यामि त्वया सह महामुने ।। | 3-81-132a 3-81-132b |
सप्तसारस्वते स्नात्वा अर्चयिष्यन्ति ये तु माम्। न तेषां दुर्लभं किंचिदिह लोके परत्र च ।। | 3-81-133a 3-81-133b |
सारस्वतं च ते लोकं गमिष्यन्ति न संशयः। एवमुक्त्वा महादेवस्तत्रैवान्तरधीयत ।। | 3-81-134a 3-81-134b |
पुलस्त्य उवाच। | 3-81-135x |
ततस्त्वौशनसं गच्छेत्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। यत्रब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च तपोधनाः ।। | 3-81-135a 3-81-135b |
कार्तिकेयश्च भगवांस्त्रिसंध्यं किल भारत। सान्निध्यमकरोन्नित्यं भार्गवप्रियकाम्यया ।। | 3-81-136a 3-81-136b |
कपालमोचनं तीर्थं सर्वपापप्रमोचनम्। तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। | 3-81-137a 3-81-137b |
अग्नितीर्थं ततो गच्छेत्तत्र स्नात्वा नरर्षभ। अग्निलोकमवाप्नोति कुलं चैव सुमुद्धरेत् ।। | 3-81-138a 3-81-138b |
विश्वामित्रस्य तत्रैव तीर्थं भरतसत्तम। तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ ब्राह्मण्यमधिगच्छति ।। | 3-81-139a 3-81-139b |
ब्रह्मयोनिं समासाद्य शुचिः प्रयतमानसः। तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र ब्रह्मलोकं प्रपद्यते ।। | 3-81-140a 3-81-140b |
पुनात्यासप्तमं चैव कुलं नास्त्यत्रसंशयः। ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् ।। | 3-81-141a 3-81-141b |
पृथूदकमिति ख्यातं कार्तिकेयस्य वै नृप। तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः ।। | 3-81-142a 3-81-142b |
अज्ञानाज्ज्ञानतो वाऽपिस्त्रिया वा पुरुषेण वा। यत्किंचिदशुभं कर्म कृतं मानुषबुद्धिना ।। | 3-81-143a 3-81-143b |
तत्सर्वं नश्यते तत्र स्नातमात्रस्य भारत। अश्वमेधफलं चास्य स्वर्गलोकं च गच्छति ।। | 3-81-144a 3-81-144b |
पुण्यमाहुः कुरुक्षेत्रं कुरुक्षेत्रात्सरस्वती। सरस्वत्याश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश् पृथूदकम् ।। | 3-81-145a 3-81-145b |
उत्तमे सर्वतीर्थानां यस्त्यजेदात्मनस्तनुम्। पृथूदके जप्यपरो नैव श्वो मरणं तपेत् ।। | 3-81-146a 3-81-146b |
गीतं सनत्कुमारेण व्यासेन च महात्मना। वेदे च नियतं राजन्नभिगच्छेत्पृथूदकम् ।। | 3-81-147a 3-81-147b |
पृथूदकात्तीर्थतमं नान्यत्तीर्थं कुरूद्वह। तन्मेध्यं तत्पवित्रं च पावनं च न संशयः ।। | 3-81-148a 3-81-148b |
तत्रस्नात्वा दिवं यान्ति येऽपि पापकृतो नराः। पृथूदके नरश्रेष्ठ एवमाहुर्मनीषिणः ।। | 3-81-149a 3-81-149b |
मधुस्रवं च तत्रैव तीर्थं भरतसत्तम। तत्र स्नात्वा नरो राजन्गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-81-150a 3-81-150b |
ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थं देव्या यथाक्रमम्। सरस्वत्यारुणायाश्च संगमे लोकविश्रुते ।। | 3-81-151a 3-81-151b |
त्रिरात्रोपोषितः स्नात्वा मुच्यते ब्रह्महत्यया। अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं विन्दति मानवः ।। | 3-81-152a 3-81-152b |
आसप्तमं कुलं चैव पुनाति भरतर्षभ। अवतीर्णं च तत्रैव तीर्थं कुरुकुलोद्वह ।। | 3-81-153a 3-81-153b |
विप्राणामनुकम्पार्थं शार्ङ्गिणा निर्मिनं पुरा। व्रतोपनयनाभ्यां चाप्युपवासेन वाऽप्युत ।। | 3-81-154a 3-81-154b |
क्रियामन्त्रैश्च संयुक्तो ब्राह्मणः स्यान्न संशयः। क्रियामन्त्रविहीनोऽपि तत्र स्नात्वा नरर्षभ। चीर्णव्रतो भवेद्विद्वान्दृष्टमेतत्पुरातनैः ।। | 3-81-155a 3-81-155b 3-81-155c |
समुद्राश्चापि चत्वारः समानीताश् दर्भिणा। तेषु स्नातो नरश्रेष्ठ न दुर्गतिमवाप्नुयात् ।। | 3-81-156a 3-81-156b |
फलानि गोसहस्राणां चतुर्णां विन्दते च सः। ततो गच्छेत धर्मज्ञ तीर्थं शतसहस्रकम् ।। | 3-81-157a 3-81-157b |
साहस्रकं च तत्रैव द्वे तीर्थे लोकविश्रुते। उभयोर्हि नरः स्नात्वा गोसरस्रफंल लभेत् ।। | 3-81-158a 3-81-158b |
दानं वाऽप्युपवासो वा सहस्रगुणितं भवेत्। ततो गच्छेत राजेन्द्र रेणुकातीर्थमुत्तमम् ।। | 3-81-159a 3-81-159b |
तीर्ताभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः। सर्वपापविशुद्धात्मा अग्निष्टोमफलं लभेत् ।। | 3-81-160a 3-81-160b |
विमोचनमुपस्पृश्य जितमन्युर्जितेन्द्रियः। प्रतिग्रहकृतैर्दोषैः सर्वैः स परिमुच्यते ।। | 3-81-161a 3-81-161b |
ततः पञ्चवटीं गत्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः। पुण्येन महता युक्तः सतां लोके महीयते ।। | 3-81-162a 3-81-162b |
यत्रयोगेश्वरः स्थाणुः स्वयमेव वृषध्वजः। तमर्चयित्वा देवेशं गमनादेव सिद्ध्यति ।। | 3-81-163a 3-81-163b |
तैजसं वारुणं तीर्थं दीप्यमानं स्वतेजसा। यत्र रब्रह्मादिभिर्दैर्वैर्ऋषिभिश्च तपोधनैः ।। | 3-81-164a 3-81-164b |
सैनापत्येन देवानामभिषिक्तो गुहस्तदा। तैजसस्य तु पूर्वेण कुरुतीर्थं कुरूद्वह ।। | 3-81-165a 3-81-165b |
कुरुतीर्थे नरः स्नात्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः। सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोकं प्रपद्यते ।। | 3-81-166a 3-81-166b |
स्वर्गद्वारं ततो गच्छेन्नियतो नियताशनः। स्वर्गलोकमवाप्नोति ब्रह्मलोकं च गच्छति ।। | 3-81-167a 3-81-167b |
ततो गच्छेदनरकं तीर्थसेवी नराधिप। तत्र स्नात्वा नरो राजन्न दुर्गतिमवाप्नुयात् ।। | 3-81-168a 3-81-168b |
तत्रब्रह्मा स्वयं नित्यं देवैः सह महीपते। अन्वास्ते पुरुषव्याघ्र नारायणपुरोगमैः ।। | 3-81-169a 3-81-169b |
सान्निध्यं तत्रराजेन्द्र रुद्रपत्न्याः कुरूद्वह। अभिगम्य च तां देवीं न दुर्गतिमवाप्नुयात् ।। | 3-81-170a 3-81-170b |
तत्रैव च महाराज विश्वेश्वरमुमापतिम्। अभिगम्य महादेवं मुच्यते सर्वकिल्विषैः ।। | 3-81-171a 3-81-171b |
नारायणं चाभिगम्य पद्मनाभमरिंदम। राजमानो महाराज विष्णुलोकं च गच्छति ।। | 3-81-172a 3-81-172b |
तीर्थेषु सर्वदेवानां स्नातः स पुरुषर्षभ। सर्वदुःखैः परित्यक्तो द्योतते शशिवन्नरः ।। | 3-81-173a 3-81-173b |
ततः स्वस्तिपुरं गच्छेत्तीर्थसेवी नराधिप। प्रदक्षिणमुपावृत्य गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-81-174a 3-81-174b |
पावनं तीर्थमासाद्य तर्पयेत्पितृदेवताः। अग्निष्टोमस्य यत्रस्य फलं प्राप्नोति भारत ।। | 3-81-175a 3-81-175b |
गङ्गाह्रदश्च तत्रैव कूपश्च भरतर्षभ। तिस्रः कोट्यस्तु तीर्थानां तस्मिन्कूपे महीपते ।। | 3-81-176a 3-81-176b |
तत्र स्नात्वा नरो राजन्स्वर्गलोकं प्रपद्यते। आपगायां नरः स्नात्वा अर्चयित्वा महेश्वरम् ।। | 3-81-177a 3-81-177b |
गाणपत्यमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्। ततः स्थाणुवटं गच्छेत्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।। | 3-81-178a 3-81-178b |
तत्र स्नात्वा स्थितो रात्रिं रुद्रलोकमवाप्नयात्। बदरीकाननं गच्छेद्वसिष्ठस्याश्रमं गतः ।। | 3-81-179a 3-81-179b |
बदरीं भक्षयेत्तत्र त्रिरात्रोपोषितो नरः। सम्यग्द्वादशवर्षाणि बदरीं भक्षयेत्तु यः ।। | 3-81-180a 3-81-180b |
त्रिरात्रोपोषितस्तेन भवेत्तुल्यो नराधिप। इन्द्रमार्गं समासाद्य तीर्थसेवी नराधिप ।। | 3-81-181a 3-81-181b |
अहोरात्रोपवासेन शक्रलोके महीयते। एकरात्रं समासाद्य एकरात्रोषितो नरः ।। | 3-81-182a 3-81-182b |
नियतः सत्यवादी च ब्रह्मलोके महीयते। ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् ।। | 3-81-183a 3-81-183b |
आदित्यस्याश्रमो यत्र तेजोराशेर्महात्मनः। तस्मिंस्तीर्थे नरः स्नात्वा पूजयित्वा विभावसुं ।। | 3-81-184a 3-81-184b |
आदित्यलोकं व्रजति कुलं चैव समुद्धरेत्। सोमतीर्थे नरः स्नात्वा तीर्थसेवी नराधिप ।। | 3-81-185a 3-81-185b |
सोमलोकमवाप्नोति नरो नास्त्यत्रसंशयः। ततो गच्छेत धर्मज्ञ दधीचस्य महात्मनः ।। | 3-81-186a 3-81-186b |
तीर्थं पुण्यतमं राजन्पावनं लोकविश्रुतम्। यत्र सारस्वतो यातः सोङ्गिरास्तपसो निधिः ।। | 3-81-187a 3-81-187b |
तस्मिस्तीर्थे नरः स्नात्वा वाजिमेधफलं लभेत्। सारस्वतीं गतिं चैव लभते नात्र संशयः ।। | 3-81-188a 3-81-188b |
ततः कन्याश्रमं गच्छेन्नियतो ब्रह्मचर्यवान्। त्रिरात्रोपोषितो राजन्नियतो नियताशनः ।। | 3-81-189a 3-81-189b |
लभेत्कन्याशतं दिव्यं स्वर्गलोकं च गच्छति। ततो गच्छेत धर्मज्ञ तीर्थं सन्निहतीमपि ।। | 3-81-190a 3-81-190b |
तत्रब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च तपोधनाः। मासिमासि समायान्ति पुण्येन महाताऽन्विताः ।। | 3-81-191a 3-81-191b |
सन्निहत्यामुपस्पृश्य राहुग्रस्ते दिवाकरे। अश्वमेधशतं तेन तत्रेष्टं शाश्वतं भवेत् ।। | 3-81-192a 3-81-192b |
पृथिव्यां यानि तीर्थानि अन्तरिक्षचराणि च। नद्यो ह्रदास्तडागाश्च सर्वप्रस्रवणानि च ।। | 3-81-193a 3-81-193b |
उदपानानि वाप्यश्च तीर्थान्यायतनानि च। निःसंशयममावास्यां समेष्यन्ति नराधिप ।। | 3-81-194a 3-81-194b |
मासिमासि नरव्याघ्र सन्निहत्यां न संशयः। तीर्थसन्निहनादेव सन्निहत्येति विश्रुता ।। | 3-81-195a 3-81-195b |
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च स्वर्गलोके महीयते। अमावास्यां तु तत्रैव राहुग्रस्ते रदिवाकरे ।। | 3-81-196a 3-81-196b |
यः श्राद्धं कुरुते मर्त्यस्तस्य पुण्यफंल शृणु। अश्वमेधसहस्रस्य सम्यगिष्टस्य यत्फलम् ।। | 3-81-197a 3-81-197b |
स्नात एव समाप्नोति कृत्वा श्राद्धं च मानवः। यत्किंचिद्दुष्कृतंकर्म स्त्रिया वा पुरुषेण वा ।। | 3-81-198a 3-81-198b |
स्नातमात्रस्य तत्सर्वं नश्यते नात्र संशयः। पद्मवर्णेन याने ब्रह्मलोकं प्रपद्यते ।। | 3-81-199a 3-81-199b |
अभिवाद्य ततो यक्षं द्वारपालं मचक्रुकम्। कोटितीर्थमुपस्पृश्य लभेद्बहुसुवर्णकम् ।। | 3-81-200a 3-81-200b |
गङ्गाह्रदश्च तत्रैव तीर्थं भरतसत्तम। तत्रस्नायीत धर्मज्ञ ब्रह्मचारी समाहितः ।। | 3-81-201a 3-81-201b |
राजसूयाश्वमेधाभ्यां फलं विन्दति मानवः। पृथिव्यां नैमिषं तीर्थमन्तरिक्षे च पुष्करम् ।। | 3-81-202a 3-81-202b |
त्रयाणामपि लोकानां कुरुक्षेत्रं विशिष्यते। पांसवोपि कुरुक्षेत्राद्वायुना समुदीरिताः ।। | 3-81-203a 3-81-203b |
अपि दुष्कृतकर्माणं नयन्ति परमां गतिम्। दक्षिणेन सरस्वत्या उत्तरेण दृषद्वतीम् ।। | 3-81-204a 3-81-204b |
ये वसन्ति कुरुक्षेत्रे तेवसन्ति त्रिविष्टपे। कुरुक्षेत्रं गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्यहम्। अप्येकां वाचमुत्सृज्य सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। | 3-81-205a 3-81-205b 3-81-205c |
ब्रह्मवेदी कुरुक्षेत्रं पुण्यं ब्रह्मर्षिसेवितम्। तस्मिन्वसन्ति ये मर्त्या न ते शोच्याः कथंचन ।। | 3-81-206a 3-81-206b |
तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं रामह्रदानां च मचक्रुकस्य च। एतत्कुरुक्षेत्रसमन्तपञ्चकं पितामहस्योत्तरवेदिरुच्यते ।। | 3-81-207a 3-81-207b 3-81-207c 3-81-207d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः ।। 81 ।। |
[सम्पाद्यताम्]
3-81-7 कुत्सितं रौतीति कुरु तस्य क्षेपणात्रायत इति कुरुक्षेत्र पापनिवर्तकम् ।। 3-81-9 ततश्च मन्तुकं राजन्निति ध. पाठः। ततो मचक्रुकं नामेति झ. पाठः ।। 3-81-63 प्राणायामैर्हरन्तीह श्वानलोमा द्विजोत्तमा इति ध. पाठः ।। 3-81-125 हिमसन्निभ अतिश्वेतमिक्षुविकारं खण्डशर्कराख्यम् ।। 3-81-192 सन्निहत्यां कुरुक्षेत्रे ।।
आरण्यकपर्व-080 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-082 |