महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-133
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शिबिपरी7णार्थं श्येनीभूतेनेन्द्रेणानुद्रुतस्य कपोतरूपधारिणोऽग्नेः शिविंप्रति शरणागतिः ।। 1 ।। कपोतरिरक्षिषया राज्ञा श्येनानुमत्या स्वशरीरोत्कृत्तमांसस्य कपोतेन सह तुलारोपणम् ।। 2 ।। मांसापेक्षया कपोतस्य गौरवातिरेके राज्ञा स्वयमेव तुलारोहणम् ।। 3 ।। ततस्तुष्टाभ्यामिन्द्राग्निभ्यां तत्प्रशंसनपूर्वकं स्वलोकगमनम् ।। 4 ।।
श्येन उवाच। | 3-133-1x |
धर्मात्मानं त्वाहुरेकं सर्वे राजन्महीक्षितः। स वै धर्मविरुद्धं त्वं कस्मात्कर्म चिकीर्षसि ।। | 3-133-1a 3-133-1b |
विहितं भक्षणं राजन्पीड्यमानस्य मे क्षुधा। माहिंसीर्धर्मलोभेन धर्ममुत्सृज्य मा नशः ।। | 3-133-2a 3-133-2b |
राजोवाच। | 3-133-3x |
संत्रस्तरूपस्त्राणार्थी त्वत्तो भीतो महाद्विज। मत्सकाशमनुप्रप्तः प्राणगृध्नुरयं द्विजः ।। | 3-133-3a 3-133-3b |
एवमभ्यागतस्येह कपोतस्याभयार्थिनः। अप्रदाने परो धर्मः किं त्वं श्येनेह पश्यसि ।। | 3-133-4a 3-133-4b |
प्रस्पन्दमानः संभ्रान्तः कपोतः श्येन लक्ष्यते। मत्सकाशं जीवितार्थी तस्य त्यागो विगर्हितः ।। | 3-133-5a 3-133-5b |
[यो हि कश्चिद्द्विजान्हन्याद्गां वा लोकस्य मातरम्। शरणागतं च त्यजते तुल्यं तेषां हि पातकम्] | 3-133-6a 3-133-6b |
श्येन उवाच। | 3-133-7x |
आहारत्सर्वभूतानि संभवन्ति महीपते। आहारेण विवर्धन्ते तेन जीवन्ति जन्तवः ।। | 3-133-7a 3-133-7b |
शक्यते दुस्त्यजेऽप्यर्थे चिररात्राय जीवितुम्। न तु भोजनमुत्सृज्य शक्यं वर्तयितुं चिरम् ।। | 3-133-8a 3-133-8b |
भक्ष्याद्विलोपितस्याद्य मम प्राणा विशांपते। विसृज्यकायमेष्यन्ति पन्थानमपुनर्भवम् ।। | 3-133-9a 3-133-9b |
प्रमृते मयि धर्मात्मन्पुत्रदारादि नङ्क्ष्यति। रक्षमाणः कपोतं त्वं बहून्प्राणान्न रक्षसि ।। | 3-133-10a 3-133-10b |
बहून्यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुवर्त्म तत्। अविरोधी तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम ।। | 3-133-11a 3-133-11b |
विरोधिषु महीपाल निश्चित्य गुरुलाघवम्। न बाधा विद्यते यत्र तं धर्मं समुपाचरेत् ।। | 3-133-12a 3-133-12b |
गुरुलाघवमाज्ञाय धर्माधर्मविनिश्चये। यतो भूयांस्ततो राजन्कुरु धर्मविनिश्चयम् ।। | 3-133-13a 3-133-13b |
राजोवाच। | 3-133-14x |
बहुकल्याणसंयुक्तं भाषसे विहगोत्तम। सुपर्णः पक्षिराट् किं त्वं धर्मं ज्ञात्वाऽभिभाषसे ।। | 3-133-14a 3-133-14b |
तथाहि धर्मसंयुक्तं बहुचित्रं च भाषसे। न तेऽस्त्यविदितं किंचिदिति त्वां लक्षयाम्यहम्। शरणैषिपरित्यागं कथं साध्विति मन्यसे ।। | 3-133-15a 3-133-15b 3-133-15c |
आहारार्थं समारम्भस्तव चायं विहंगम। शक्यश्चाप्यन्यथा कर्तुमाहारोऽप्यधिकस्त्वया ।। | 3-133-16a 3-133-16b |
गोवृषो वा वराहो वा मृगो वा महिषोपि वा। त्वदर्थमद्य क्रियतां यच्चान्यदिह काङ्क्षसि ।। | 3-133-17a 3-133-17b |
श्येन उवाच। | 3-133-18x |
न वराहं न चोक्षाणं न मृगान्विविधांस्तथा। भक्षयामि महाराज किं ममान्येन केचचित् ।। | 3-133-18a 3-133-18b |
यस्तु मे दैवविहितो भक्षः क्षत्रियपुङ्गव। तमुत्सृज महीपाल कपोतमिममेव मे ।। | 3-133-19a 3-133-19b |
श्येनाः कपोतान्स्वादन्ति श्रुतिरेषा सनातनी। मा राजन्सारमज्ञात्वा कदलीस्कन्धमासज ।। | 3-133-20a 3-133-20b |
राजोवाच। | 3-133-21x |
राष्ट्रं शिवीनामृद्धं वै शाधि पक्षिभिरर्चितः। कृत्स्नमेतन्मया दत्तं राजवद्विहगोत्तम ।। | 3-133-21a 3-133-21b |
यं वा कामयसे कामं श्येन सर्वं ददानि ते। विनेमं पक्षिणं श्यन शरणार्थिनमागतम् ।। | 3-133-22a 3-133-22b |
येनेमं स्थापयेथास्त्वं कर्मणा पक्षिसत्तम। तदाचक्ष्व करिष्यामि न हि दास्ये कपोतकम् ।। | 3-133-23a 3-133-23b |
श्येन उवाच। | 3-133-24x |
उशीनर कपोते ते यदि स्नेहो नराधिप। आत्मनो मांसमुत्कृत्य कपोततुलया धृतम् ।। | 3-133-24a 3-133-24b |
यदा समं कपोतेन तव मांसं नृपोत्तम। त्वया प्रदेयं तन्मह्यं सा मे तुष्टिर्भविष्यति ।। | 3-133-25a 3-133-25b |
राजोवाच। | 3-133-26x |
अनुग्रहमिमं मन्ये श्येन यन्माभियाचसे। तस्मात्तेऽद्य प्रदास्यामि स्वमांसं तुलया धृतम् ।। | 3-133-26a 3-133-26b |
लेमश उवाच। | 3-133-27x |
अथोत्कृत्य स्वमांसं तु राजा परमधर्मवित्। तुलयामास कौन्तेय कपोतेन समं विभो ।। | 3-133-27a 3-133-27b |
ध्रियमाणः कपोतस्तु मांसेनात्यतिरिच्यते। पुनश्चोत्कृत्यमांसानि राजा प्रादादुशीनरः ।। | 3-133-28a 3-133-28b |
न विद्यते यदा मांसं कपोतेन समं धृतम्। तत उत्कृत्तमांसोऽसावारुरोह स्वयं तुलाम् ।। | 3-133-29a 3-133-29b |
श्येन उवाच। | 3-133-30x |
इन्द्रोऽहमस्मि धर्मज्ञ कपोतो हव्यवाडयम्। जिज्ञासमानौ धर्म त्वां यज्ञवाटमुपागतौ ।। | 3-133-30a 3-133-30b |
यत्ते मांसानि गात्रेभ्य उक्तृत्तानि विशांपते। एषा ते शाश्वती कीर्तिर्लोकानभिभविष्यति ।। | 3-133-31a 3-133-31b |
यावल्लोके मनुष्यास्त्वां कथयिष्यन्ति पार्थिव। तावत्कीर्तिश्च लोकाश्च स्थास्यन्ति तव शाश्वताः ।। | 3-133-32a 3-133-32b |
इत्युक्त्वा भूमिपतये तस्मै दत्त्वा यथेप्सितम्। प्रशस्य जग्मतू राजन्निन्द्राग्री तुष्टमानसौ ।। | 3-133-33a 3-133-33b |
उशीनरोऽपिधर्मात्मा धर्मेणावृत्यरोदसी। विभ्राजमानो वपुषाऽप्यारुरोह त्रिविष्टपम् ।। | 3-133-34a 3-133-34b |
तदेतत्सदनं राजन्राज्ञस्तस्य महात्मनः। पश्यस्वैतन्मया सार्धं पुण्यं पापप्रमोचनम् ।। | 3-133-35a 3-133-35b |
तत्र वै सततं देवा मुनयश्च सनातनाः। दृश्यन्ते ब्राह्मणै राजन्पुण्यवद्भिर्महात्मभिः ।। | 3-133-36a 3-133-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 133 ।। |
3-133-2 मा रक्षीर्धर्मलोभेन धर्ममुत्सृष्टवानसि इति झ. पाठः ।। 3-133-20 कदलीस्कन्धमासजेति कदलीस्कन्धतुल्ये निःशारेऽस्मिन् धर्मे मा सज्जो भवेत्यर्थः ।।
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