महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-065
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भीमराजेन नलदमयन्त्यन्वेषणाय नानादेशेषु ब्राह्मणानां प्रस्थापनम् ।। 1 ।।
सुदेवनाम्ना विप्रेण चेदिराजगृहे दमयन्तीदर्शनम् ।। 2 ।।
विप्रेण सह सबाष्पं भाषमाणां दमयन्तीं दृष्ट्वा राजमात्रा विप्रंप्रति दमयन्तीकुलशीलादिप्रश्नः ।। 3 ।।
बृहद्श्व उवाच। | 3-65-1x |
हृतराज्ये नले भीमः सभार्येऽदर्शनं गते। `चिन्तयामास बहुशः सहामात्यैर्नराधिपः ।। | 3-65-1a 3-65-1b |
समाहूय द्विजान्सर्वानिदं वचनमब्रवीत्। अग्रहारं च दास्यामिग्रामं नगरसंमितम् ।। | 3-65-2a 3-65-2b |
दमयन्तीं नलं चैव पर्यन्वेषति यो द्विजः। गवां शतसहस्राणि दाता तस्मै द्विजातये ।। | 3-65-3a 3-65-3b |
इत्युक्त्वा ब्राह्मणान्सर्वान्समाहूय द्विजोत्तमान्। प्रस्थापयामास तदा तयोर्दर्शनकाङ्क्षया' ।। | 3-65-4a 3-65-4b |
संदिदेश च तान्भीमो वसु दत्ता च पुष्कलम्। मृगयध्वं नलं चैव दमयन्तीं च मे सुताम् ।। | 3-65-5a 3-65-5b |
अस्मिन्कर्मणि निष्पन्ने विज्ञाते निषधाधिपे। गवां सहस्रं दास्यामि यो वस्तावानयिष्यति ।। | 3-65-6a 3-65-6b |
अग्रहारांश्च दास्यामि ग्रामं नगरसंमितम्। हिरण्यंच सुवर्णं च दासीदासं तथैव ।। | 3-65-7a 3-65-7b |
न चेच्छक्याविहानेतुं दमयन्ती नलोऽपि वा। ज्ञातमात्रेऽपि दास्यामि गवां दशशतं धनम् ।। | 3-65-8a 3-65-8b |
इत्युक्तास्ते ययुर्हृष्टा ब्राह्मणाः सर्वतो दिशम्। पुरराष्ट्राणि चिन्वन्तो नैषधं सह भार्यया। नैव क्वापि प्रपश्यन्ति नलं वा भीमपुत्रिकाम् ।। | 3-65-9a 3-65-9b 3-65-9c |
ततश्चेदिपुरीं रम्यां सुदेवो नाम वै द्विजः। विचिन्वानोऽथ वैदर्भीमपश्यद्राजवेश्मनि ।। | 3-65-10a 3-65-10b |
तयैव राजमाता च ब्राह्मणान्पर्यवेषयत्। भोजनार्थे सुदेवोऽपि तत्रैव प्रविवेश ह ।। | 3-65-11a 3-65-11b |
कृशां विवर्णां मलिनां भर्तृशोकपरायणाम्। पुण्याहवाचने राज्ञः सुनन्दासहितां स्थिताम् ।। | 3-65-12a 3-65-12b |
मन्दं प्रख्यायमानेन रूपेणाप्रतिमेन ताम्। निबद्धां धूमजालेन प्रभामिव विभावसोः ।। | 3-65-13a 3-65-13b |
तां समीक्ष्य विशालाक्षीमधिकं मलिनां कृशाम्। तर्कयामास भैमीति कारणैरुपपादयन् ।। | 3-65-14a 3-65-14b |
सुदेव उवाच। | 3-65-15x |
यथेयं मे पुरा दृष्टा तथारूपेयमङ्गना। कृतार्थोस्म्यद्य दृष्ट्वेमां लोककान्तामिव श्रियं ।। | 3-65-15a 3-65-15b |
पूर्णचन्द्राननां श्यामां चारुवृत्तपयोधराम्। कुर्वन्तीं प्रभया देवीं सर्वावितिमिरा दिशः ।। | 3-65-16a 3-65-16b |
चारुपद्मविशालाक्षीं मन्मथस्य रतीमिव। इष्टां समस्तलोकस्य पूर्णचन्द्रप्रभामिव ।। | 3-65-17a 3-65-17b |
विदर्भसरसस्तस्माद्दैवदोषादिवोद्धृताम्। मलपङ्कानुलिप्ताङ्गीं प्रम्लानां नलिनीमिव ।। | 3-65-18a 3-65-18b |
पौर्णमासीमिव निशां राहुग्रस्तनिशाकराम्। पतिशोकाकुलां दीनां कृशस्त्रोतां नदीमिव ।। | 3-65-19a 3-65-19b |
विध्वस्तपर्णकमलां वित्रासितविहंगमाम्। हस्तिहस्तपरिक्लिष्टां व्याकुलामिव पद्मिनीम् ।। | 3-65-20a 3-65-20b |
सुकुमारीं सुजाताङ्गीं रत्नगर्भगृहोचिताम्। दह्यमानामिवार्केण मृणालीमिव चोद्धृताम् ।। | 3-65-21a 3-65-21b |
रूपौदार्यगुणोपेतां मण्डनार्हाममण्डिताम्। चन्द्रलेखामिव नवांव्योम्नि नीलाभ्रसंवृताम् ।। | 3-65-22a 3-65-22b |
कामभोगैः प्रियैर्हीनां हीनां बन्धुजनेन च। देहं धारयतीं दीनं भर्तृदर्शनकाङ्क्षया ।। | 3-65-23a 3-65-23b |
भर्ता नाम परं नार्या भूषणं भूषणैर्विना। एषा हि रहिता तेन शोभमाना न शोभते ।। | 3-65-24a 3-65-24b |
दुष्करं कुरुतेऽत्यन्तं हीनो यदनया नलः। धारयत्यात्मनो देहं न शोकेनापि सीदति ।। | 3-65-25a 3-65-25b |
इमामसितकेशान्तां शतपत्रायतेक्षणाम्। सुखार्हां दुःखितां दृष्ट्वा ममापि व्यथते मनः ।। | 3-65-26a 3-65-26b |
कदा नु खलुः दुःखस्य पारं यास्यति वै शुभा। भर्तुः समागमात्साध्वीरोहिणी शशिनो यथा ।। | 3-65-27a 3-65-27b |
अस्या नूनं पुनर्लाभान्नैषधः प्रीतिमेष्यति। राजा राज्यपरिभ्रष्टः पुनर्लब्ध्वेव मेदिनीम् ।। | 3-65-28a 3-65-28b |
तुल्यशीलवयोयुक्तां तुल्याभिजनसंवृतम्। नैषधोऽर्हति वैदर्भीं तं चेयमसितेक्षणा ।। | 3-65-29a 3-65-29b |
युक्तं तस्याप्रमेयस्य वीर्यसत्ववतो मया। समाश्वासयितुं भार्यां पतिदर्शनलालसाम् ।। | 3-65-30a 3-65-30b |
अहमाश्वासयाम्येनां पूर्णचन्द्रनिभाननाम्। अदृष्टदुःखां दुःखार्तां ध्यानरोदनतत्पराम् ।। | 3-65-31a 3-65-31b |
बृहदश्व उवाच। | 3-65-32x |
एवं विमृश्य विविधैः कारणैर्लक्षणैश्च ताम्। उपगम्य ततो भैमीं सुदेवो ब्राह्मणोऽब्रवीत् ।। | 3-65-32a 3-65-32b |
अहं सुदेवो वैदर्भि भ्रातुस्ते दयितः सखा। भीमस्य वचनाद्राज्ञस्त्वामन्वेष्टुमिहागतः ।। | 3-65-33a 3-65-33b |
कुशली ते पिता राज्ञि जननी भ्रातरश्च ते। आयुष्मन्तौ कुशलिनौ तत्रस्थौ दारकौ च ते ।। | 3-65-34a 3-65-34b |
त्वत्कृतेबन्धुवर्गाश्च गतसत्वा इवासते। अन्वेष्टारो ब्राह्मणाश्च भ्रमन्ति शतशो महीम् ।। | 3-65-35a 3-65-35b |
बृहदश्व उवाच। | 3-65-36x |
अभिज्ञाय सुदेवं तं दमयन्ती युधिष्ठिर। पर्यपृच्छत तान्सर्वान्क्रमेण सुहृदः स्वकान् ।। | 3-65-36a 3-65-36b |
रुरोद च भृशं राजन्वैदर्भी शोककर्शिता। दृष्ट्वा सुदेवं सहसा भ्रातुरिष्टं द्विजोत्तमम् ।। | 3-65-37a 3-65-37b |
ततो रुदन्तीं तां दृष्ट्वा सुनन्दा शोककर्शिता। सुदेवेन सहैकान्ते कथयन्तीं च भारत ।। | 3-65-38a 3-65-38b |
जनित्र्याः प्रेषयामास सैरन्ध्री रुदते भृशम्। ब्राह्मणेन सहागम्य तांविद्धि यदि मन्यसे ।। | 3-65-39a 3-65-39b |
अथ चेदिपतेर्माता राज्ञश्चान्तःपुरात्तदा। जगाम यत्रसा बाला ब्राह्मणेन सहाभवत् ।। | 3-65-40a 3-65-40b |
ततः सुदेवमानाय्य राजमाता विशांपते। पप्रच्छ भार्या कस्येयं सुता वा कस्य भामिनी ।। | 3-65-41a 3-65-41b |
कथं च नष्टा ज्ञातिभ्यो भर्तुर्वा वामलोचना। त्वया च विदिता विप्र कथमेवंगता सती ।। | 3-65-42a 3-65-42b |
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं त्वत्तः सर्वमशेषतः। तत्त्वेन हि ममाचक्ष्व पृच्छन्त्यादेवरूपिणीम् ।। | 3-65-43a 3-65-43b |
एवमुक्तस्तया राजन्सुदेवो द्विजसत्तमः। सुखोपविष्ट आचष्ट दमयन्त्या यथातथम् ।। | 3-65-44a 3-65-44b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ।। 65 ।। |
3-65-7 अग्रं ब्राह्मणभोजनं तदर्थं ह्रियन्ते राजधनात्पृथकूक्रियन्ते तेऽग्रहाराः क्षेत्रादयः ।। 3-65-14 कारणैर्लिङ्गैः उपपादयन् इयमेव दमयन्तीति निश्चिन्वन् ।। 3-65-16 श्यामां सदा षोडशवार्षिकीम् ।। 3-65-20 पद्मिनीं सरसीम् ।।
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