महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-115
दिखावट
← आरण्यकपर्व-114 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-115 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-116 → |
युधिष्ठिरेण गङ्गासागरसङ्गमादितीर्थगमनम् ।। 1 ।। लोमशेन युधिष्ठिरंप्रति तत्तत्तीर्थाश्रममहिमानुवर्णनम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-115-1x |
ततः प्रयातः कौशिक्याः पाण्डवो जनमेजय। आनुपूर्व्येण सर्वाणि जगामायतनान्यथ ।। | 3-115-1a 3-115-1b |
स सागरं समासाद्य गङ्गायाः संगमे नृप। नदीशतानां पञ्चानां मध्ये चक्रे समाप्लवम् ।। | 3-115-2a 3-115-2b |
ततः समुद्रतीरेण जगाम वसुधाधिपः। भ्रातृभिः सहितो वीरः कलिङ्गान्प्रति भारत ।। | 3-115-3a 3-115-3b |
लोमश उवाच। | 3-115-4x |
एते कलिङ्गाः कौन्तेय यत्र वैतरणी नदी। यत्रायजत धर्मोपि देवाञ्शरणमेत्य वै ।। | 3-115-4a 3-115-4b |
ऋषिभिः समुपायुक्तं यज्ञियं गिरिशोभितम्। उत्तरं तीरमेतद्धि सततं द्विजसेवितम् ।। | 3-115-5a 3-115-5b |
समेन देवयानेन पथा स्वर्गमुपेयुषः। अत्रवै ऋषयोऽन्येऽपि पुरा क्रतुभिरीजिरे ।। | 3-115-6a 3-115-6b |
अत्रैव रुद्रो राजेन्द्र पशुमादत्तवान्मखे। पशुमादाय राजेन्द्र भागोयमिति चाब्रवीत् ।। | 3-115-7a 3-115-7b |
हृते पशौ तदा देवास्तमूचुर्भरतर्षभ। मा परस्वमभिद्रोग्धा माधर्म्यान्नीनशः पथः ।। | 3-115-8a 3-115-8b |
`स्वयं यज्ञेश्वरो भूत्वा कर्मणां फलदायकः। यज्ञं विहन्तुं भगवान्नार्हसे जगदीश्वर' ।। | 3-115-9a 3-115-9b |
इतिकल्याणरूपाभिर्वाग्भिस्ते रुद्रमस्तुवन्। इष्ट्या चैनं तर्पयित्वा मानयांचक्रिरे तदा ।। | 3-115-10a 3-115-10b |
ततः स पशुमुत्सृज्य देवयानेन जग्मिवान्। तत्रानुवंशो रुद्रस्यतं निबोध युधिष्ठिर ।। | 3-115-11a 3-115-11b |
अयातयामं सर्वेभ्यो भागेभ्यो भागमुत्तमम्। देवाः संकल्पयामासुर्भयाद्रुद्रस्य शाश्वतम् ।। | 3-115-12a 3-115-12b |
इमां गाथामत्र गायन्नपः स्पृशति यो नरः। देवयानोऽस्य पन्थाश्च चक्षुषाऽभिप्रकाशते ।। | 3-115-13a 3-115-13b |
वैशंपायन उवाच। | 3-115-14x |
ततो वैतरणीं सर्वे पाण्डवा द्रौपदी तथा। अवतीर्य महाभागास्तर्पयांचक्रिरे पितृन् ।। | 3-115-14a 3-115-14b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-115-15x |
उपस्पृश्येह विधिवदस्यां नद्यां तपोबलात्। मानुषादस्मि विषयादपेतः पश्य लोमश ।। | 3-115-15a 3-115-15b |
सर्वाल्लोँकान्प्रपश्यामि प्रसादात्तव सुव्रत। वैखानसानां जपतामेष शब्दो महात्मनाम् ।। | 3-115-16a 3-115-16b |
लोमश उवाच। | 3-115-17x |
त्रिशतं वै सहस्राणि योजनानां युधिष्ठिर। यत्रध्वनिं शृणोष्येनं तूष्णीमास्स्व विशांपते ।। | 3-115-17a 3-115-17b |
एतत्स्वयंभुवो राजन्वनं दिव्यं प्रकाशते। यत्रायजत राजेन्द्र विश्वकर्मा प्रतापवान् ।। | 3-115-18a 3-115-18b |
यस्मिन्यज्ञे हि भूर्दत्ता कश्यपाय महात्मने। सपर्वतवनोद्देशा दक्षिणार्थे स्वयंभुवा ।। | 3-115-19a 3-115-19b |
अवासीदच्च कौन्तेय दत्तमात्रा मही तदा। उवाच चापि कुपिता लोकश्वरमिदं प्रभुम् ।। | 3-115-20a 3-115-20b |
न मां मर्त्याय भगवन्कस्मैचिद्दातुमर्हसि। प्रदानं मोघमेतत्ते यास्याम्येषा रसातलम् ।। | 3-115-21a 3-115-21b |
विषीदन्तीं तु तां दृष्ट्वा कश्यपो भगवानृषिः। प्रसादयांबभूवाथ ततो भूमिं विशांपते ।। | 3-115-22a 3-115-22b |
ततः प्रसन्ना पृथिवी तपसा तस्य पाण्डव। पुनरुन्नह्य सलिलाद्देदीरूपास्थिता बभौ ।। | 3-115-23a 3-115-23b |
सैषा प्रकाशते राजन्वेदीसंस्थानलक्षणा। आरुह्यात्र महाराज वीर्यवान्वै भविष्यसि ।। | 3-115-24a 3-115-24b |
सैषा सागरमास्राद्य राजन्वेदी समाश्रिता। एतामारुह्य भद्रं ते त्वमेकस्तर सागरम् ।। | 3-115-25a 3-115-25b |
अहं च ते स्वस्त्ययनं प्रयोक्ष्ये यथा त्वमेनामधिरोहसेऽद्य। स्पृष्टा हि मर्त्येन ततः समुद्र- मेषा वेदी प्रविशत्याजमीढ ।। | 3-115-26a 3-115-26b 3-115-26c 3-115-26d |
ओंनमो विश्वगुप्ताय नमो विश्वपराय ते। सान्निध्यं कुरु देवेश सागरे लवणाम्भसि ।। | 3-115-27a 3-115-27b |
अग्निर्मित्रो योनिरापोऽथ देव्यो विष्णो रेतस्त्वममृतस्य नाभिः। एवं ब्रुवन्पाण्डव सत्यवाक्यं वेदीमिमां त्वं तरसाऽधिरोह ।। | 3-115-28a 3-115-28b 3-115-28c 3-115-28d |
अग्निश्च ते योनिरिडा च देहो रेतोधा विष्णोरमृतस्य नाभिः। एवं ब्रुवन्पाण्डव सत्यवाक्यं ततोऽवगाहेत पतिं नदीनाम् ।। | 3-115-29a 3-115-29b 3-115-29c 3-115-29d |
अन्यथा हि कुरुश्रेष्ठ देवयोनिरपांपतिः। कुशाग्रेणापि कौन्तेय न स्प्रष्टव्यो महोदधिः ।। | 3-115-30a 3-115-30b |
वैशंपायन उवाच। | 3-115-31x |
ततः कृतस्वस्त्ययनो महात्मा युधिष्ठिरः सागरमभ्यगच्छत्। कृत्वा च तच्छासनमस्य सर्वं महेन्द्रमासाद्य निशामुवास ।। | 3-115-31a 3-115-31b 3-115-31c 3-115-31d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः ।। 115 ।। |
3-115-5 उत्तरंतीरं वैतरण्याः ।। 3-115-8 मा परस्वमभिद्रोग्धा परभागस्य नाशं मादुर्वित्यर्थः ।। 3-115-12 अयातयामं तात्कालिकम् ।। 3-115-27 समुद्रप्रार्थनामन्रमाह ओंनम इति। विश्वं गुप्तं लीनमस्मिन् प्रलये इति विश्वगुप्तः। विश्वस्मात्पराय श्रेष्ठाय विष्णवे इत्यर्थः। लवणाम्भसि क्षारोदके ।। 3-115-30 देवयोनिः देवस्तानम् ।। 3-115-31 युधिष्ठिरः सागरगामचच्छदिति क. ध. पाठः ।।
आरण्यकपर्व-114 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-116 |