महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-234
← आरण्यकपर्व-233 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-234 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-235 → |
सत्यभामया पतिवशीकरणोपायं पृष्टया द्रौपद्यातदुत्तारदानव्याजेन पतिव्रताधर्मकथनम् ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-234-1x |
उपासीनेषु विप्रेषु पाण्डवेषु च भारत। द्रौपदी सत्यभामा च विविशाते तदा समम् ।। | 3-234-1a 3-234-1b |
`प्रविश्य चाश्रमं पुण्यमुभे ते परमस्त्रियौ'। जाहस्यमाने सुप्रीते सुखं तत्र निषीदतुः ।। | 3-234-2a 3-234-2b |
चिरस् दृष्ट्वा राजेन्द्र तेऽन्योन्यस्य प्रियंवदे। कथयामासतुश्चित्राः कथाः कुरुयदूचिताः ।। | 3-234-3a 3-234-3b |
अथाब्रवीत्सत्यभामा कृष्णस् महिषी प्रिया। सात्राजिती याज्ञसेनीं रहसीदं सुमध्यमा ।। | 3-234-4a 3-234-4b |
केन द्रौपदि वृत्तेन पाण्डवानधितिष्ठसि। लोकपालोपमान्वीरान्नूनं परमसंमतान् ।। | 3-234-5a 3-234-5b |
कथं च वशगस्तुभ्यं न कुप्यन्ति च ते शुभे। तव वश्या हि सतत पाण्डवाः प्रियदर्शने ।। | 3-234-6a 3-234-6b |
`न चान्योन्यमसूयन्ते कथं वा ते सुमध्यमे'। मुखप्रेक्षाश्च ते सर्वे तत्त्वमेतद्ब्रवीहि मे ।। | 3-234-7a 3-234-7b |
व्रतचर्या तपो वाऽपि स्नानमन्त्रौषधानि वा। विद्यावीर्यं मूलवीर्यंजपहोमागदास्तथा ।। | 3-234-8a 3-234-8b |
ममाद्याचक्ष्वपाञ्चालि यशस्यं भगवेतनम्। येन कृष्णे भवेन्नित्यं मम कृष्णो वशानुगः ।। | 3-234-9a 3-234-9b |
एवमुक्त्वासत्यभामा विरराम यशस्विनी। पतिव्रता महाभागा द्रौपदी प्रत्युवाच ताम् ।। | 3-234-10a 3-234-10b |
असत्स्त्रीणां समाचरं सत्ये मामनुपृच्छसि। असदाचरिते मार्गे कथं स्यादनुकीर्तनम् ।। | 3-234-11a 3-234-11b |
अनुप्रश्नः संशयो वा नैष त्वय्युपपद्यते। कथं ह्युपेता बुद्ध्या त्वंकृष्णस् महिषी प्रिया ।। | 3-234-12a 3-234-12b |
यदैव भर्ता जानीयानमन्त्रमूलपरां स्त्रियम्। उद्विजेत तदैवास्याः सर्पाद्वेश्मगतादिव ।। | 3-234-13a 3-234-13b |
उद्विग्नस्य कुतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्। न जातु वशगो भर्ता स्त्रियाः स्यान्मन्त्रकारणात् ।। | 3-234-14a 3-234-14b |
किमत्रप्रहिताश्चापि गदाः परमदारुणाः। मूलप्रवादैर्हि विषं प्रयच्छन्ति जिघांसवः बब | 3-234-15a 3-234-15b |
जिह्वया यानि पुरुषस्त्वचा वाप्युपसेवते। तत्र चूर्णानि दत्तानि हन्युः क्षिप्रमसंशयम् ।। | 3-234-16a 3-234-16b |
जलोदरसमायुक्ताः श्वित्रिणः पलितास्तथा। अपुमांसः कृताः स्त्रीभिर्जडान्धवधिरास्तथा ।। | 3-234-17a 3-234-17b |
पापानुगास्तु पापास्ताः पतीनुपसृजन्त्युत। न जातु विप्रियं भर्तुः स्त्रिया कार्यं कथंचन ।। | 3-234-18a 3-234-18b |
वर्ताम्यहं तु यां वृत्तिं पाण्डवेषु महात्मसु। तां सर्वां शृणु मे सत्यां सत्यभामे यशस्विनि ।। | 3-234-19a 3-234-19b |
अहंकारं विहायाहं कामक्रोधौ च सर्वदा। सदारान्पाण्डवान्नित्यं प्रयतोपचराम्यहम् ।। | 3-234-20a 3-234-20b |
प्रणयं प्रतिसंहृत्य निधायात्मानमात्मनि। शुश्रूषुर्निरभीमाना पतीनां चित्तरक्षिणी ।। | 3-234-21a 3-234-21b |
दुर्व्याहृताच्छङ्कमाना दुस्थिताद्दुरवेक्षितात्। दुरासिताद्दुर्व्रजितादिङ्गिताध्यासितादपि ।। | 3-234-22a 3-234-22b |
सूर्यवैश्वानरसमान्सोमकल्पान्महारथान्। सेवे चक्षुर्हणः पार्थानुग्रवीर्यप्रतापिनः ।। | 3-234-23a 3-234-23b |
देवो मनुष्यो गन्धर्वो युवा चापि स्वलंकृतः। द्रव्यवानभिरूपो वा न मेऽन्यः पुरुषो मतः ।। | 3-234-24a 3-234-24b |
न भुक्तवति न स्नाते नासंविष्टे च भर्तरि। न संविशामि नाश्नामि न स्नाये कर्म कुर्वती ।। | 3-234-25a 3-234-25b |
क्षेत्राद्वनाद्वा ग्रामाद्वा भर्तारं गुहमागतम्। अभ्युत्थायाभिनन्दामि आसनेनोदकेन च ।। | 3-234-26a 3-234-26b |
प्रसन्नभाण्डा मृष्टान्ना काले भोजनदायिनी। संयता गुप्तधान्या च सुसंमृष्टनिवेशना ।। | 3-234-27a 3-234-27b |
अतिरस्कृतसंभाषा दुःस्त्रियो नानुसेवती। अनुकूलवती नित्यं भवाम्यनलसा सदा ।। | 3-234-28a 3-234-28b |
अनर्म चापि हसितं द्वारि स्थानमभीक्ष्णशः। अवस्करे चिरस्थानं निष्कुटेषु च वर्जये ।। | 3-234-29a 3-234-29b |
`अत्यालापमसन्तोषं परव्यापारसंकथाः'। अतिहासातिरोषौ च क्रोधस्थानं च वर्जये ।। | 3-234-30a 3-234-30b |
निरताऽहं सदा सत्ये पापानां च विवर्जने। सर्वथा भर्तुरहितं न ममेष्टं कथंचन ।। | 3-234-31a 3-234-31b |
यदा प्रवसते भर्ता कुटुम्बार्थेन केनचित्। सुमनोवर्णकापेता भवामि व्रतचारिणी ।। | 3-234-32a 3-234-32b |
यच्च भर्ता न पिबति यच्च भर्ता न सेवते। यच्च नाश्नाति मे भर्ता सर्वं तद्वर्जयाम्यहम् ।। | 3-234-33a 3-234-33b |
यथोपदेशं नियता वर्तमाना वराङ्गने। स्वलंकृता सुप्रयता भर्तुः प्रियहिते रता ।। | 3-234-34a 3-234-34b |
ये च धर्माः कुटुम्बेषु श्वश्र्वामे कथिताः पुरा। `अनुतिष्ठामि तान्सत्ये नित्यकालमतन्द्रिता' ।। | 3-234-35a 3-234-35b |
भिक्षाबलिश्राद्धविधिस्थालीपाकाश्च पर्वसु। मान्यानां मानसत्कारा ये चान्ये विदिता मम ।। | 3-234-36a 3-234-36b |
तान्सर्वाननुवर्तामि दिवारात्रमतन्द्रिता। विनयाननियमांश्चैव सदा सर्वात्मना श्रिता ।। | 3-234-37a 3-234-37b |
मृदून्सतः सत्यशीलान्सत्यधर्मानुपालिनः। स देवः सा गतिर्नार्यास्तस्य का विप्रियं चरेत् ।। | 3-234-38a 3-234-38b |
पत्याश्रयो हि मे धर्मो मतः स्त्रीणां सनातनः। स देवः सा गतिर्नार्यास्तस्य काविप्रियं चरेत् ।। | 3-234-39a 3-234-39b |
अहं पतीन्नातिशये नात्यश्ने नातिभूषये। नापि श्वश्रूं परिवदे सर्वदा परियन्त्रिता ।। | 3-234-40a 3-234-40b |
अवधानेन सुभगे नित्योत्थिततयैव च। भर्तारो वशगा मह्यं गुरुशुश्रूषयैव च ।। | 3-234-41a 3-234-41b |
नित्यमार्यामहं कुन्तीं वीरसूं सत्यवादिनीम्। स्वयं परिचराम्यतां पानाच्छादनभोजनैः ।। | 3-234-42a 3-234-42b |
नैतामतिशये जातु वस्त्रभूषणभोजनैः। न वदे चाप्यतिवाचा तां पृथां पृथिवीसमाम् ।। | 3-234-43a 3-234-43b |
अष्टावग्रे ब्राह्मणानां सहस्राणि स्म नित्यदा। भुञ्जते रुक्मपात्रीषु युधिष्ठिरनिवेशने ।। | 3-234-44a 3-234-44b |
अष्टाशीतिसहस्राणि स्नातका गृहमेधिनः। त्रिंशद्दासीक एकैको यान्विभर्ति युधिष्ठिरः ।। | 3-234-45a 3-234-45b |
दशान्यानि सहस्राणि येषामन्नं सुसंस्कृतम्। ह्रियते रुक्मपात्रीभिर्यतीनामूर्ध्वरेतसाम् ।। | 3-234-46a 3-234-46b |
तान्सर्वानग्रहारेण ब्राह्मणान्वेदवादिनः। यथार्हं पूजयामि स्म पानाच्छादनभोजनैः ।। | 3-234-47a 3-234-47b |
शतं दासीसहस्राणि कौन्तेयस्य महात्मनः। कम्बुकेयूरधारिण्यो निष्ककण्ठ्यः स्वलंकृताः ।। | 3-234-48a 3-234-48b |
महार्हमाल्याभरणाः सुवर्णाश्चन्दनोक्षिताः। मणीन्हेम च विभ्रत्यो नृत्तगीतविशारदाः ।। | 3-234-49a 3-234-49b |
तासां नाम च रूपंच भोजनाच्छादनानि च। सर्वासामेव वेदाहं कर्म चैव कृताकृतम् ।। | 3-234-50a 3-234-50b |
शतं दासीसहस्राणि कुन्तीपुत्रस्य धीमतः। पात्रीपस्ता दिवारात्रमतिथीन्भोजयन्त्युत ।। | 3-234-51a 3-234-51b |
शतमश्वसहस्राणि दशनागायुतानि च। युधिष्ठिरस्यानुयात्रमिन्द्रप्रस्थनिवासिनः ।। | 3-234-52a 3-234-52b |
एतदासीत्तदा राज्ञो यन्महीं पर्यपालयत्। येषां सङ्ख्याविधिं चैव प्रदिशामि शृणोमि च ।। | 3-234-53a 3-234-53b |
अन्तःपूराणां सर्वेषां भृत्यानां चैव सर्वशः। आगोपालाविपालेभ्यः सर्वं वेद कृताकृतम् ।। | 3-234-54a 3-234-54b |
सर्वं राज्ञः समुदयमायं च व्ययमेव च। एकाऽहंवेद्मि कल्याणि पाण्डवानां यशस्विनि ।। | 3-234-55a 3-234-55b |
मयि सर्वं समासज्यकुटुम्बं भरतर्षभाः। उपासनरताः सर्वे घटयन्ति वरानने ।। | 3-234-56a 3-234-56b |
तमहं भारमासक्तमनाधृष्यं दुरात्मभिः। सुखं सर्वंपरित्यज्यरात्र्यहानि घटामि वै ।। | 3-234-57a 3-234-57b |
अधृष्यं वरुणस्येव निधिपूर्णमिवोदधिम्। एकाहं वेद्मि कोशं वै पतीनां धर्मचारिणाम् ।। | 3-234-58a 3-234-58b |
अनिशायां निशायां च विहाय क्षुत्पिपासयोः। आराधयन्त्याः कौरव्यांस्तुल्या रात्रिरहश्च मे ।। | 3-234-59a 3-234-59b |
प्रथमं प्रतिबुध्यामि चरमं संविशामि च। नित्यकालमहं सत्ये एतत्संवननं मम ।। | 3-234-60a 3-234-60b |
एतज्जानाम्यहं कर्तुं भर्तृसंवननं महत्। असत्स्त्रीणां समाचारं नाहं कुर्यां न कामये ।। | 3-234-61a 3-234-61b |
वैशंपायन उवाच। | 3-234-62x |
तच्छ्रुत्वा धर्मसहितं व्याहृतं कृष्णया तदा। उवाच सत्या सत्कृत्य पाञ्चालीं धर्मचारिणीं ।। | 3-234-62a 3-234-62b |
अभिपन्नाऽस्मि पाञ्चालि याज्ञसेनि क्षमस्व मे। कामकारः सखीनं हि सोपहासं प्रभाषितम् ।। | 3-234-63a 3-234-63b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि द्रौपदीसत्यभामासंवादपर्वणि चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 234 ।। |
3-234-1 सममेकत्र। विविशाते तदाश्रममिति ध.पाठः ।। 3-234-2 जाहस्यमाने परस्परमतिशयेन हसन्त्यौ ।। 3-234-8 मूलवीर्यं मूलं अप्रच्युतं तारुण्यादि तद्वीर्यम्। अगदोऽञ्जनादिरौषधम् ।। 3-234-9 भगदैवतमिति झ. पाठः। भगदैवत सौभाग्यवर्धकं सौरव्रतादिकम्। वशानुग इच्छानुसारी ।। 3-234-11 हे सत्ये अनुकीर्तनमुत्तरम् ।। 3-234-17 जलोदरः उदररोगः। श्वित्रिणः कुष्ठवन्तः ।। 3-234-18 उपसृजन्ति दोषैर्योजयन्ति ।। 3-234-21 प्रणयं ईर्ष्याम्। आत्मानं चित्तम्। आत्मनि स्वस्मिन्। निरभिमाना दर्पहीना ।। 3-234-22 इङ्गितं अभिप्रायः अध्यासितः क्षिप्तो यस्मिन् कटाक्षो तस्मात् इङ्गिताध्यासितात् ।। 3-234-23 चक्षुर्हणः दृष्ट्वैव रिपून् घ्नन्ति तादृशान्। सेवे शत्रुहणान्पार्थानिति क. ट. ध. पाठः ।। 3-234-24 अभिरूपः सुन्दरः ।। 3-234-28 अतिरस्कृतसंभाषा तिरस्कारशून्यवचना ।। 3-234-29 अनर्म परिहासहीनम्। हसितं हासः। स्थानं स्थितिम्। अवस्करे तिरस्करोमि। किरतेरिदं रूपम्। निष्कुटेषु गृहारामेषु ।। 3-234-32 सुमनोवर्णकापेता पुष्पैरनुलेपनैश्च वर्जिता ।। 3-234-36 मानः पूजा। सत्कार आदरः ।। 3-234-40 नातिशये नातिक्रमामि। न परिवदे न निन्दामि ।। 3-234-41 अवधानेन अप्रमादेन। मह्यं मम ।। 3-234-47 अग्रहारेण वैश्वदेवान्ते प्रथमदेयेनान्नेव ।। 3-234-52 अनुयात्रं स्वैरयात्रायामपि परिवारभूतम् ।। 3-234-54 वेदवेद्मि ।। 3-234-60 संवननं वशीकरणम् ।। 3-234-63 अभिपन्ना प्रार्थयाना ।।
आरण्यकपर्व-233 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-235 |