महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-290
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इन्द्रजिच्छरजालबन्धेन मोहाधिगमपूर्वकं भूमौ पतितयो रामलक्ष्मणयोर्विभीषणेन प्रज्ञानास्त्रेण मोहापनोदनम् ।। 1 ।। तथा सुग्रीवेण महौषध्या तयोर्विशल्यीकरणम् ।। 2 ।। ततो रामादीनां नेत्रेषु कुबेरदूतानीतजलमार्जनेनातीन्द्रियवनस्तुदर्शनशक्त्युदयः ।। 3 ।। ततः पुनरुपागतस्येन्प्रजितो लक्ष्मणेन वधः ।। 4 ।। ततः पुत्रवधामर्षेण सीतावधोद्यतस्य रावणस्याविन्ध्याख्येन वृद्धामात्येन साम्ना ततो विनिवर्तनम् ।। 5 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-290-1x |
तावुभौ पतितौ दृष्ट्वा भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ। बबन्ध रावणिर्भूयः शरैर्दत्तवरैस्तदा ।। | 3-290-1a 3-290-1b |
तौ वीरौ शरजालेन बद्धाविन्द्रजिता रणे। रेजतुः पुरुषव्याघ्रौ शकुन्ताविव पञ्जरे ।। | 3-290-2a 3-290-2b |
दृष्ट्वा निपतितौ भूमौ सर्वाङ्गेषु शराचितौ। सुग्रीवः कपिभिः सार्धं परिवार्योपतस्तिवान् ।। | 3-290-3a 3-290-3b |
सुषेणमैन्दद्विविदैः कुमुदेनाङ्गदेन च। हनुमननीलतारैश्च नलेन च कपीश्वरः ।। | 3-290-4a 3-290-4b |
ततस्तं देशमागम्य कृतकर्मा विभीषणः। बोधयामास तौ वीरौ प्रज्ञास्त्रेण प्रमोहितौ ।। | 3-290-5a 3-290-5b |
विशल्यौ चापि सुग्रीवः क्षणेनैतौ चकार ह। विशल्यया महौषध्या दिव्यमन्त्रप्रयुक्तया ।। | 3-290-6a 3-290-6b |
तौ लब्धसंज्ञौ नृवरौ विशल्यावुदतिष्ठताम्। उभौ गतक्लमौ चास्तां णेनैतौ महारथौ ।। | 3-290-7a 3-290-7b |
ततो विभीषणः पार्थ राममिक्ष्वाकुनन्दनम्। उवाच विज्वरं दृष्ट्वा कृताञ्जलिरिदं वचः ।। | 3-290-8a 3-290-8b |
अयमम्भो गृहीत्वातु राजराजस् शासनात्। गुह्कोऽभ्यागतः श्लेतात्त्वत्सकाशमरिंदम ।। | 3-290-9a 3-290-9b |
इदमम्भः कुबेरस्ते महाराज प्रयच्छति। अन्तर्हितानां भूतानां दर्शनार्थं परंतप ।। | 3-290-10a 3-290-10b |
अनेन मृष्टनयनो भूतान्यन्तर्हितान्युत। भवान्द्रक्ष्यति यस्मै च भवानेतत्प्रदास्यति ।। | 3-290-11a 3-290-11b |
तथेति रामस्तद्वारि प्रतिगृह्याभिसंस्कृतम्। चकार नेत्रयोः शौचं लक्ष्मणश्च महामनाः ।। | 3-290-12a 3-290-12b |
सुग्रीवजाम्बवन्तौ चहनुमानङ्गदस्तथा। मैन्दद्विविदनीलाश्च प्रायः प्लवगसत्तमाः ।। | 3-290-13a 3-290-13b |
तथासमभवच्चापि यदुवाच विभीषणः। क्षणेनातीन्द्रियाण्येषां चक्षुंष्यासन्युधिष्ठिर ।। | 3-290-14a 3-290-14b |
इन्द्रजित्कृतकर्मा तु पित्रे कर्म तदाऽऽत्मनः। निवेद्य पुनरागच्छत्त्वरयाऽऽजिशिरःप्रति ।। | 3-290-15a 3-290-15b |
तमागतं तु संक्रुद्धं पुनरेव युयुत्सया। अभिदुद्राव सौमित्रिर्विभीषणमते स्थितः ।। | 3-290-16a 3-290-16b |
अकृताह्निकमेवैनं जिघांसुर्जितकाशिनम्। शरैर्जघान संक्रुद्धः कृतसंज्ञोऽथ लक्ष्मणः ।। | 3-290-17a 3-290-17b |
तयोः समभवद्युद्धं तदाऽन्योन्यं जीगीषतोः। अतीव चित्रमाश्चर्यं शक्रप्रह्लादयोरिव ।। | 3-290-18a 3-290-18b |
अविध्यदिन्द्रजित्तीक्ष्णैः सौमित्रिं मर्मभेदिभिः। सौमित्रिश्चानलस्पर्शैरविध्यद्रावणिं शरैः ।। | 3-290-19a 3-290-19b |
सौमित्रिशरसंस्पर्शाद्रावणिः क्रोधमूर्च्छितः। असृजल्लक्ष्मणायाष्टौ शरानाशीविषोपमान् ।। | 3-290-20a 3-290-20b |
तस्येषून्पावकस्पर्शैः सौमित्रिः पत्रिभिस्त्रिभिः। `वारयामास नाराचैः सौमित्रिर्मित्रनन्दनः ।। | 3-290-21a 3-290-21b |
असृजल्लक्ष्मणश्चाष्टौ राक्षसाय शरान्पुनः'। तथा तं न्यहनद्वीरस्तन्मे निगदतः शृणु ।। | 3-290-22a 3-290-22b |
एकेनास्य धनुष्मन्तं बाहुं देहादपातयत्। द्वितीयेन तु बाणेन भुजमन्यमपातयत् ।। | 3-290-23a 3-290-23b |
तृतीयेन तु बाणेन शितधारेण भास्वता। जहार सुनसं चापि शिरो ज्वलितकुण्डलम् ।। | 3-290-24a 3-290-24b |
विनिकृत्तभुजस्कन्धः कबन्धाकृतिदर्शनः। `पपात वसुधायां तु छिन्नमूल इवद्रुमः' ।। | 3-290-25a 3-290-25b |
तं हत्वासूतमप्यस्त्रैर्जघान बलिनंवरः। लङ्कां प्रवेशयामासुस्तं रथं वाजिनस्तदा ।। | 3-290-26a 3-290-26b |
ददर्श रावणस्तं च रथं पुत्रविनाकृतम्। स पुत्रं निहतं श्रुत्वा त्रासात्संभ्रान्तमानसः। | 3-290-27a 3-290-27b |
रावणः शोकमोहार्तो वैदेहीं हन्तुमुद्यतः ।। ङ्गमादाय दुष्टात्मा जवेनाभिपपात ह ।। | 3-290-28a 3-290-28b |
तं दृष्ट्वातस्य दुर्बुद्देरविन्ध्यः पापनिश्चयम्। शमयामास संक्रुद्धं श्रूयतां येन हेतुना ।। | 3-290-29a 3-290-29b |
महाराज्येस्थितो दीप्ते न स्त्रियं हन्तुमर्हसि। हतैवैषा यदा स्त्री च कबन्धनस्था च ते वशे ।। | 3-290-30a 3-290-30b |
न चैषा दहभेदेन हतास्यादिति मे मतिः। जहि भर्तारमेवास्या हते तस्मिन्हता भवेत् ।। | 3-290-31a 3-290-31b |
न हि ते विक्रमे तुल्यः साक्षादपि शतक्रतुः। असकृद्धि त्वया सन्द्रास्त्रासितास्त्रिदसा युधि ।। | 3-290-32a 3-290-32b |
एवं बहुविधैर्वाक्यैरविन्ध्यो रावणं तदा। क्रुद्धं संशमयामास जगृहे च स तद्वचः ।। | 3-290-33a 3-290-33b |
निर्याणे स मतिं कृत्वा नियन्तारं क्षपाचरः। आज्ञापयामास तदारथो मे कल्प्यतामिति ।। | 3-290-34a 3-290-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि रामोपाख्यानपर्वणि नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 290 ।। |
3-290-14 अतीन्द्रियाण्यतीन्द्रियार्थग्राहकाणि ।। 3-290-17 कृतसंज्ञ विभीषणेन संकेतितः ।। 3-290-34 निधायासिं क्षपाचर इति झ. पाठः। निधाय बद्ध्वा। असिं खङ्गम् ।।
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