महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-054
दिखावट
← आरण्यकपर्व-053 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-054 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-055 → |
स्वयंवरमण्डपे इन्द्राग्नियमवरुणैर्नलसारूप्येण तत्पार्श्वे समुपवेशनम् ।। 1 ।।
दमयन्त्या स्वगुणसंतुष्टेन्द्रादिप्रसादेव नलस्थैव वरणम् ।। 2 ।।
बृहदश्व उवाच। | 3-54-1x |
अथ काले शुभे प्राप्ते तथौ पुण्ये क्षणे तथा। आजुहाव महीपालान्भीमो राजा स्वयंवरे ।। | 3-54-1a 3-54-1b |
तच्छ्रुत्वा पृथिवीपालाः सर्वे हृच्छयपीडिताः। त्वरिताः समपाजग्मुर्दमयन्तीमभीप्सवः ।। | 3-54-2a 3-54-2b |
कनकस्तम्भरुचिरं तोरणेन विराजितम्। विविशुस्ते नृपा रङ्गं महासिंह इवाचलम् ।। | 3-54-3a 3-54-3b |
तत्रासनेषु विविधेष्वासीनाः पृथिवीक्षितः। सुरभिस्रग्धराः सर्वे प्रमृष्टमणिकुण्डलाः ।। | 3-54-4a 3-54-4b |
संपूर्णां पुरुषव्याघ्रैर्व्याघ्रैर्गिरिगुहामिव। `प्रविवेश नलो देवैः पुण्यश्लोको नराधिप' ।। | 3-54-5a 3-54-5b |
तत्र स्म पीना दृश्यन्ते बाहवः परिघोपमाः। आकारवर्णसुश्लक्ष्णाः पञ्चशीर्षा इवोरगाः ।। | 3-54-6a 3-54-6b |
सुकेशान्तानि चारूणि सुनासानि शुभानि च। मुखानि राज्ञां शोभन्ते नक्षत्राणि यथा दिवि ।। | 3-54-7a 3-54-7b |
दमयन्ती ततो रङ्गं प्रविवेश शुभानना। मुष्णन्ती प्रभया राज्ञां चक्षूषि च मनांसि च ।। | 3-54-8a 3-54-8b |
तस्या गात्रेषु पतिता तेषां दृष्टिर्महात्मनाम्। तत्रतत्रैव सक्ताऽभून्न चचाल च पश्यताम् ।। | 3-54-9a 3-54-9b |
ततः संकीर्त्यमानेषु राज्ञां नामसु भारत। ददर्श भैमी पुरुषान्पञ्च तुल्याकृतीनिह ।। | 3-54-10a 3-54-10b |
तान्समीक्ष्य ततः सर्वान्निर्विशेषाकृतीन्स्थितान्। संदेहादथ वेदर्भी नाभ्यजानान्नलं नृपम् ।। | 3-54-11a 3-54-11b |
`निर्विशेषवयोवेषरूपाणां तत्र सा शुभा।' यंयं हि ददृशे तेषां तंतं मेने नलं नृपम्। साचिन्तयन्ती बुद्ध्याऽथ तर्कयामास भामिनी ।। | 3-54-12a 3-54-12b 3-54-12c |
कथं नु देवाञ्जानीयां कथं विद्यां नलं नृपम्। एवं संचिन्तयन्ती सा वैदर्भी भृशदुःखिता ।। | 3-54-13a 3-54-13b |
श्रुतानि देवलिङ्गानि तर्कयामास भारत। देवानां यानि लिङ्गानि स्थविरेभ्यः श्रुतानि मे ।। | 3-54-14a 3-54-14b |
तानीह तिष्ठतां भूमावेकस्यापि न लक्षये। एवं विचिन्त्य बहुधा विचार्य च पुनः पुनः ।। | 3-54-15a 3-54-15b |
शरणं प्रति देवानां प्राप्तकालममन्यत। वाचा च मनसा चैव नमस्कारं प्रयुज्य सा ।। | 3-54-16a 3-54-16b |
देवेभ्यः प्राञ्जलिर्भूत्वा वेपमानेदमब्रवीत्। हंसानां वचनं श्रुत्वा यथा मे नैषधो वृतः। पतित्वे तेन सत्येन देवास्तं प्रदिशन्तु मे ।। | 3-54-17a 3-54-17b 3-54-17c |
मनसा वचसा चैव यथा नातिचराम्यहम्। तेन सत्येन विबुधास्तमेव प्रदिशन्तु मे ।। | 3-54-18a 3-54-18b |
यथा देवैः स मे भर्ता विहितो निषधाधिषः। तेन सत्येन मे देवास्तमेव प्रदिशन्तु मे ।। | 3-54-19a 3-54-19b |
यथेदं व्रतमारब्धं नलस्याराधने मया। तेन सत्येन मे देवास्तमेव प्रदिशन्तु मे ।। | 3-54-20a 3-54-20b |
स्वं चैव रूपं पुष्यन्तु लोकपाला महेश्वराः। यथाऽहमभिजानीयां पुण्यश्लोकं नराधिपम् ।। | 3-54-21a 3-54-21b |
निशम्य दमयन्त्यास्तत्करुणं प्रतिदेवितम्। निश्चयंपरमं तथ्यमनुरागं च नैषधे ।। | 3-54-22a 3-54-22b |
मनोविशुद्धिं बुद्धिं च भक्तिं रागं च नैषधे। यथोक्तं चक्रिरे देवाः सामर्थ्यं लिङ्गधारणे ।। | 3-54-23a 3-54-23b |
साऽपश्यद्विबुधान्सर्वानस्वेदान्स्तब्धलोचनान्। अम्लानस्रग्रजोहीनान्स्थितानस्पृशतः क्षितिम् ।। | 3-54-24a 3-54-24b |
छायाद्वितीयो म्लानस्रग्रजःस्वेदसमन्वितः। भूमिष्ठो नैषधश्चैव निमेषेण च सूचितः ।। | 3-54-25a 3-54-25b |
सा समीक्ष्य तु तान्देवान्पुण्यश्लोकं च भारत। नैषधं वरयामास भैमी धर्मेण पाण्डव ।। | 3-54-26a 3-54-26b |
विलज्जमाना वस्त्रान्तं जग्राहायतलोचना। स्कन्धदेशेऽसृजत्तस्य स्रजं परमशोभनाम् ।। | 3-54-27a 3-54-27b |
वरयामास चैवैनं पतित्वे वरवर्णिनी। ततो हाहेति सहसा मुक्तः शब्दो नराधिपैः ।। | 3-54-28a 3-54-28b |
देवैर्महर्षिभिस्तत्र साधुसाध्विति भारत। विस्मितैरीरितः शब्दः प्रशंसद्भिर्नलं नृपम् ।। | 3-54-29a 3-54-29b |
दमयन्तीं तु कौरव्य वीरसेनसुतो नृपः। आश्वासयद्वरारोहां प्रहृष्टेनान्तरात्मना ।। | 3-54-30a 3-54-30b |
यत्त्वं भजसि कल्याणि पुमांसं देवसन्निधौ। तस्मान्मां विद्धि भर्तारमेतत्ते वचने रतम् ।। | 3-54-31a 3-54-31b |
यावच्च मे धरिष्यन्ति प्राणा देहे शुचिस्मिते। तावत्त्वयि भविष्यामि सत्यमेतद्ब्रवीमि ते ।। | 3-54-32a 3-54-32b |
दमयन्ती तथा वाग्भिरभिनन्द्य कृताञ्जलिः ।। | 3-54-33a |
तौ परस्परतः प्रीतौ दृष्ट्वा त्वग्निपुरोगमान्। तानेव शरणं देवाञ्जग्मतुर्मनसा तदा ।। | 3-54-34a 3-54-34b |
वृते तु नैषधे भैम्या लोकपाला महौजसः। प्रहृष्टमनसः सर्वे नलायाष्टौ वरान्ददुः ।। | 3-54-35a 3-54-35b |
प्रत्यक्षदर्शनं यज्ञे गतिं चानुत्तमां शुभाम्। नैषधाय ददौ शक्रः प्रीयमाणः शचीपतिः ।। | 3-54-36a 3-54-36b |
अग्निरात्मभवं प्रादाद्यत्र वाञ्छति नैषधः। लोकानात्मप्रभांश्चैव ददौ तस्मै हुताशनः ।। | 3-54-37a 3-54-37b |
यमस्त्वन्नरसं प्रादाद्धर्मे च परमां स्थितिम्। अपांपतिरपां भावं यत्रवाञ्छति नैपधः ।। स्रजश्चोत्तमगन्धाढ्याः सर्वेच मिथुनं ददुः | 3-54-38a 3-54-38b 3-54-38c |
वरानेवं प्रदायास्य देवास्ते त्रिदिवं गताः। `एतत्सर्वं नलोऽपश्यद्दमयन्ती च भारत। यथा स्वप्नं महाराज तथैव ददृशुर्जनाः ।। | 3-54-39a 3-54-39b 3-54-39c |
ततः स्वयवरं चक्रे भीमो राजाऽतिमानुषम्। समागतेषु सर्वेषु भूपालेसु विशांपते ।। | 3-54-40a 3-54-40b |
दमयन्त्यपि तद्दृष्ट्वाराजमण्डलमृद्धिमत्। अन्वीक्ष्यनैषधं वव्रे भैमी धर्मेण भारत ।। | 3-54-41a 3-54-41b |
वृते च नैषधे भैम्या निवृत्ते च स्वयंवरे। सर्व एव महीपालाः प्रतिजग्मुर्यथागतम्' ।। | 3-54-42a 3-54-42b |
पार्थिवाश्चानुभूयास्य विवाहं विस्मयान्विताः। दमयन्त्याश्च मुदिताः प्रतिजग्मुर्यथागतम् ।। | 3-54-43a 3-54-43b |
गतेषु पार्थिवेन्द्रेषु भीमः प्रीतो महामनाः। विवाहं कारयामास दमयन्त्या नलस्य च ।। | 3-54-44a 3-54-44b |
उष्य तत्र तथाकामं नैषधो द्विपदांवरः। भीमेन समनुज्ञातो जगाम नगरं स्वकम्। अवाप्य नारीरत्नं तु पुण्यश्लोकोपि पार्थिवः ।। | 3-54-45a 3-54-45b 3-54-45c |
रेमे सह तया राजञ्छच्येव बलवृत्रहा। अतीव मुदितो राजा भ्राजमानोंशुमानिव ।। | 3-54-46a 3-54-46b |
अरञ्जयत्प्रजा वीरो धर्मेण परिपालयन्। ईजे चाप्यश्वमेधेन ययातिरिव नाहुषः। अन्यैश्च बहुभिर्धीमान्क्रतुभिश्चाप्तदक्षिणैः ।। | 3-54-47a 3-54-47b 3-54-47c |
पुगश्च रमणीयेषु वनेषूपवनेषु च। दमयन्त्या सह नलो विजहारामरोपमः ।। | 3-54-48a 3-54-48b |
जनयामास च ततो दमयन्त्यां महामनाः। इन्द्रसेनं सुतं चापि इन्द्रसेनां चकन्यकाम् ।। | 3-54-49a 3-54-49b |
एवं स यजमानश्च विहरंश्च नराधिपः। ररक्ष वसुसंपूर्णां वसुधां वसुधाधिपः ।। | 3-54-50a 3-54-50b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि चतुःपञ्चाशोऽध्यायः ।। 54 ।। |
3-54-7 सुनासाक्षिभ्रुवाणि श्वेति झ. पाठः ।। 3-54-8 मुष्णन्ती हरन्त ।। 3-54-21 लोकपालाः सहेश्वरा इति झ. पाठः ।। 3-54-24 अम्लानस्रजश्च ते रजोहीनाश्चेति विग्रहः। ठायाविहीनानम्लानस्रजोऽस्वेदसमन्वितानिति क. पाठः ।। 3-54-31 यद्यस्मान्मां भजसि तस्मात्ते तव वचने रतं इत्येतत् विद्धि ।। 3-54-37 आत्मभवं भात्मन आविर्भावम् ।। 3-54-38 अन्नरसं यादृशे तादृशेप्यन्ने विशिष्टरसवत्ताम्। भावं सत्ताम्। मुधुनं एकैकेन द्वयं द्वयमपीत्यर्थः ।। 3-54-43 अनुभूय दृष्ट्वा ।। 3-54-45 उष्य वासं कृत्वा ।।
आरण्यकपर्व-053 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-055 |