महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-260
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कदाचन काम्यकवचवासिनः पाण्डवानुपागतेन व्यासेन युधिष्ठिरंप्रति दानप्रशंसनम् ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-260-1x |
वने निवसतां तेषां पाण्डवानां महात्मनाम्। वर्षाण्येकादशातीयुः कृच्छ्रेण भरतर्षभ ।। | 3-260-1a 3-260-1b |
फलमूलाशनास्ते हि सुखार्हा दुःखमुत्तमम्। प्राप्तकालमनुध्यान्तः सेहिरे वरपूरुषाः ।। | 3-260-2a 3-260-2b |
युधिष्ठिरस्तु राजर्षिरात्मकर्मापराधजम्। चिन्तयन्स महाबाहुर्भ्रातॄणां दुःखमुत्तमम् ।। | 3-260-3a 3-260-3b |
न सुष्वाप सुखं राजा हृदि शल्यैरिवार्पितैः। दौरात्म्यमनुपश्यंस्तत्काले द्यूतोद्भवस्य हि ।। | 3-260-4a 3-260-4b |
संस्मरन्परुषा वाचः सूतपुत्रस्य पाण्डवः। निःश्वासपरमो दीनो दध्रे कोपविषं महत् ।। | 3-260-5a 3-260-5b |
अर्जुनोयमजौ चोभौ द्रौपदी च यशस्विनी। स च भीमो महातेजाः सर्वेषामुत्तमो बले ।। | 3-260-6a 3-260-6b |
`चिरस्य जातं धर्मज्ञं सासूयमिव ते तदा'। युधिष्ठिरमुदीक्षन्तः सेहुर्दुखमनुत्तमम् ।। | 3-260-7a 3-260-7b |
अवशिष्टं त्वल्पकालं मन्वानाः पुरुषर्षभाः। वपुरन्यदिवाकार्पुरुत्साहामर्षचेष्टितैः ।। | 3-260-8a 3-260-8b |
कस्यचित्त्वथ कालस्य व्यासः सत्यवतीसुतः। आजगाम महायोगी पाण्डवानवलोककः ।। | 3-260-9a 3-260-9b |
तमागतमभिप्रेक्ष्यकुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। प्रत्युद्गम्य महात्मानं प्रत्यगृह्णाद्यथाविधि ।। | 3-260-10a 3-260-10b |
तमासीनमुपासीनः शुश्रूषुर्नियतेन्द्रियः। तोषयामास शौचेन व्यासं पाण्डवनन्दनः ।। | 3-260-11a 3-260-11b |
तानवेक्ष्यकृशान्पौत्रान्वने वन्येन जीवतः। महर्षिरनुकम्पार्थमब्रवीद्बाष्पगद्गदम् ।। | 3-260-12a 3-260-12b |
युधिष्ठिर महाबाहो शृणु धर्मभृतांवर। नातप्ततपसो लोके प्राप्नुवन्ति महत्सुखम्। सुखदुःखे हि पुरुषः पर्यायेणोपसेवते ।। | 3-260-13a 3-260-13b 3-260-13c |
नात्यन्तमसुखं कश्चित्प्राप्नोति पुरुषर्षभ। प्रज्ञावांस्त्वेव पुरुषः संयुक्तः परया धिया ।। | 3-260-14a 3-260-14b |
उदयास्तमयज्ञो हि न हृष्यति न शोचति। सुखमापतितं विन्दन्दुःखमापतितं सहन् ।। | 3-260-15a 3-260-15b |
कालप्राप्तमुपासीत सस्यानामिव कर्षकः। तपसो हि परं नास्ति तपसा विन्दते महत् ।। | 3-260-16a 3-260-16b |
नासाध्यं तपसः किंचिदिति बुध्यस् भारत। सत्यमार्जवमक्रोधः संविभागो दमः शमः ।। | 3-260-17a 3-260-17b |
अनसूयाऽविहिंसा च शौचमिन्द्रियसंयमः। साधनानि महाराज नराणां पुण्यकर्मणाम् ।। | 3-260-18a 3-260-18b |
अधर्मरुचयो मूढास्तिर्यग्गतिपरायणाः। कृच्छ्रां योनिमनुप्राप्ता न सुखं विन्दते अनाः ।। | 3-260-19a 3-260-19b |
इह यत्क्रियते कर्म तत्परत्रोपभुज्यते। `मूलसिक्तस्य वृक्षस्य फलं शाखासु दृश्यते'। तस्माच्छरीरं युञ्जीत तपसा नियमेन च ।। | 3-260-20a 3-260-20b 3-260-20c |
यथाशक्ति प्रयच्छेत संपूज्याभिप्रणम्य च। काले प्राप्ते च हृष्टात्मा राजन्विगतमत्सरः ।। | 3-260-21a 3-260-21b |
सत्यवादी लभेतायुरनायासमथार्जवम्। अक्रोधनोऽनसूयश्च निर्वृतिं लभते पराम् ।। | 3-260-22a 3-260-22b |
दान्तः शमपरः शश्वत्परिक्लेशं न विन्दति। न च तप्यति दान्तात्मा दृष्ट्वा परगतां श्रियम् ।। | 3-260-23a 3-260-23b |
संविभक्ता च दाता च भोगवान्सुखवान्नरः। भवत्यहिंसकश्चैव परमारोग्यमश्नुते ।। | 3-260-24a 3-260-24b |
मान्यं मानयिता जन्म कुले महति विन्दति। `विन्दते सुखमत्यर्थमिह लोके परत्र च'। व्यसनैर्न तुसंयोगं प्राप्नोति विजितेन्द्रियः ।। | 3-260-25a 3-260-25b 3-260-25c |
शुभानुशयबुद्धिर्हि संयुक्तः कालधर्मणा। प्रादुर्भवति तद्योगात्कल्याणमतिरेव सः ।। | 3-260-26a 3-260-26b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-260-27x |
भगवन्दानधर्माणआं तपसो वा महामुने। किंस्विद्बहुगुणं प्रेत्य किं वा दुष्करमुच्यते ।। | 3-260-27a 3-260-27b |
व्यास उवाच। | 3-260-28x |
दानान्न दुष्करं तात पृथिव्यामस्ति किंचन। अर्थे च महती तृष्णा स च दुःखेन लभ्यते ।। | 3-260-28a 3-260-28b |
`राजन्प्रत्यक्षमेवैतद्दृश्यते लोकसाक्षिकम्'। परित्यज्य प्रियान्प्राणान्प्रविशन्ति रणाजिरम्। तथैव प्रतिपद्यन्ते समुद्रमटवीं तथा ।। | 3-260-29a 3-260-29b 3-260-29c |
कृषिगोरक्ष्यमित्येके प्रतिपद्यन्ति मानवाः। पुरुषाः प्रेष्यतामेके निर्गच्छन्ति धनार्थिनः ।। | 3-260-30a 3-260-30b |
तस्माद्दुःखार्जितस्यैव परित्यागः सुदुष्करः। सुदुष्करतरं दानं तस्माद्दानं मतं मम ।। | 3-260-31a 3-260-31b |
विसेषस्त्वत्र विज्ञेयो न्यायेनोपार्जितं धनम्। पात्रे काले च देशे च प्रयतः प्रतिपादयेत् ।। | 3-260-32a 3-260-32b |
अन्यायात्समुपात्तेन दानधर्मौ धनन यः। कुरुते न स कर्तारं त्रायते महतो भयात् ।। | 3-260-33a 3-260-33b |
पात्रे दानं स्वल्पमपि काले दत्तं युधिष्ठिर। मनसा हि विशुद्धेन प्रेत्यानन्तफलं स्मृतम् ।। | 3-260-34a 3-260-34b |
`श्रद्धा धर्मानुगा देवी पावनी विश्वधारिणी।' सवित्री प्रसवित्री च संसारार्णवतारिणी ।। | 3-260-35a 3-260-35b |
श्रद्धया धार्यते धर्मो महद्भिर्नार्थदर्शिभिः। सधना अपिराजानो निःश्रद्धा नरकं गताः ।। | 3-260-36a 3-260-36b |
निष्किंचनाश्च मुनयः श्रद्धावन्तो दिवं गताः। देशे काले च पात्रे च मुद्गलः श्रद्धयाऽन्वितः। व्रीहिद्रोणं प्रदायाथ परं पदमवाप्तवान्' ।। | 3-260-37a 3-260-37b 3-260-37c |
अत्राप्युदाहरन्तीमतिहासं पुरातनम्। व्रीहिद्रोणपरित्यागाद्यत्फलं प्राप मुद्गलः ।। | 3-260-38a 3-260-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि व्रीहिद्रौणिकपर्वणि षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 260 ।। |
3-260-2 ध्यान्तः ध्यायन्तः ।। 3-260-4 द्यूतोद्भवस् द्यूतहेतोः शकुन्यादेः ।। 3-260-9 अवलोककोऽवलोकितुकामः ।। 3-260-14 नह्यनन्तं सुखं कश्चित् इति झ. पाठः ।। 3-260-16 तपसा ज्ञानेन। महद्ब्रह्म ।। 3-260-21 काले दानकाले ।। 3-260-22 अनायासं क्लेशपरिहारम्। निर्वृत्तिं सुखम्। परां मोक्षाख्याम् ।। 3-260-24 संविभक्ता अन्नादेर्विभागकर्ता। दाता धनादेः ।। 3-260-26 शुभमेवानुशेते शुभपक्षपातिनी बुद्धिर्यस्य। कालधर्मेण मरणेन ।। 3-260-27 दानजानां धर्माणाम्। तपसः कायक्लेशकृतस्य कृच्छादेः। एत रयोर्मध्ये प्रेत्य मृत्वा किं बहुगुणं किं परलोके श्रेष्ठमित्यर्थः ।। 3-260-31 दुःखार्जितस्य धनस्येति शेषः। मतं श्रेष्ठत्वेन ।। 3-260-38 द्रोणो मानविशेषस्तन्मिता व्रीहयस्तेषां दानात् ।।
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