महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-047
दिखावट
← आरण्यकपर्व-046 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-047 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-048 → |
वैशंपायनेन जनमेजयंप्रति पाण्डवानां वने भोज्यवस्तुकथनम् ।। 1 ।।
जनमेजय उवाच। | 3-47-1x |
यदिदं शोचितं राज्ञा धृतराष्ट्रेण वै मुने। प्रव्राज्यपाण्डवान्वीरान्सर्वमेतन्निर्रथकम् ।। | 3-47-1a 3-47-1b |
कथं च राजपुत्रं तमुपेक्षेताल्पचेतसम्। दुर्योधनं पाण्डुपुत्रान्कोपयानं महारथान् ।। | 3-47-2a 3-47-2b |
किमासीत्पाण्डुपुत्राणां वने भोजनमुच्यताम्। वन्यं वाऽप्यवा कृष्टमेतदाख्यातु नो भवान् ।। | 3-47-3a 3-47-3b |
वैंशंपायन उवाच। | 3-47-4x |
वानेयं च मृगांश्चैव शुद्धैर्बाणैर्निपातितान्। ब्राह्मणानां निवेद्याग्रमभुञ्जता महारथाः ।। | 3-47-4a 3-47-4b |
तांस्तु शूरान्महेष्वासांस्तदा निवसतो वने। अन्वयुर्ब्राह्मणा राजन्साग्नयोऽनग्नयस्तथा ।। | 3-47-5a 3-47-5b |
ब्राह्मणानां सहस्राणि स्नातकानां महात्मनाम्। दश मोक्षविदां तद्वद्यान्बिभर्ति युधिष्ठिरः ।। | 3-47-6a 3-47-6b |
रुरून्कृष्णमृगांश्चैव मेध्यांश्चान्यान्मनोरमान्। बाणैरुन्मथ्य विविधैर्ब्राह्मणेभ्यो न्यवेदयत् ।। | 3-47-7a 3-47-7b |
न तत्र कश्चिद्दुर्वर्णो व्याधितो वाऽपि दृश्यते। कृशो वा दुर्बलो वाऽपि दीनो भीतोपि वा पुनाः ।। | 3-47-8a 3-47-8b |
पुत्रानिव प्रियान्भ्रातॄन्ज्ञातीनिव सहोदरान्। पुरोष कौरवश्रेष्ठो धर्मेराजो युधिष्ठिरः। | 3-47-9a 3-47-9b |
पतीश्च द्रौपदी सर्वाञ्द्विजातीश्च यशस्विनी। मातेव भोजयित्वाऽग्रे शिष्टमाहारयत्तदा ।। | 3-47-10a 3-47-10b |
प्राचीं राजा दक्षिणां भीमसेनो यमौ प्रतीचीमथवाऽप्युदीचीम्। धनुर्धरा मांसहेतोर्मृगाणां क्षयं चक्रुर्नित्यमेवोपगम्य ।। | 3-47-11a 3-47-11b 3-47-11c 3-47-11d |
तथा तेषां कवसतां काम्यके वै विहीनानामर्जुनेनोत्सुकानाम्। पञ्चैव वर्षाणि तथा व्यतीयु- रथीयतां जपतां जुह्वतां च ।। | 3-47-12a 3-47-12b 3-47-12c 3-47-12d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि |
3-47-3 कृष्टं कर्षणजं ग्राम्यधान्यम् ।। 3-47-4 शुद्धैर्विषालिप्तैः। आनेयं वनभवम् ।। 3-47-5 अनग्नयः परिव्राजकाः ।। 3-47-10 आहारयत् आहारं कृतवती ।।
आरण्यकपर्व-046 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-048 |