महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-148
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दाचन पाञ्चाल्या भीमसंनिधाने वाय्वानीताद्भुतसौगन्धिकपुष्पदर्शनम् ।। 1 ।। तया तादृशबहुपुष्पानयनं प्रार्थितेन भीमेन तदर्थं गमनम् ।। 2 ।। भीमस्य मध्येमार्ग स्वमार्गनिरोधकेन हनुमता सह संवादः ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-148-1x |
तत्र ते पुरुषव्याघ्राः परमं शौचमास्थिताः। षड्रात्रमवसन्वीरा धनंजयदिदृक्षया ।। | 3-148-1a 3-148-1b |
तस्मिन्विहरमाणाश्च रममाणाश्च पाण्डवाः। मनोज्ञे काननवरे सर्व भूतमनोरमे ।। | 3-148-2a 3-148-2b |
पादपैः पुष्पविकचैः फलभारावनामितैः। शोभितः पर्वतो रम्यः पुंस्कोकिलकुलाकुलैः। स्निग्धपत्रैरविरलैः शीतच्छायैर्मनोरमैः ।। | 3-148-3a 3-148-3b 3-148-3c |
सरांसि च विचित्राणि प्रसन्नसलिलानि च। कमलैः सोत्पलैस्तत्रभ्राजमानानि सर्वशः। पश्यन्तश्चारुरूपाणइ रेमिरे तत्र पाण्डवाः ।। | 3-148-4a 3-148-4b 3-148-4c |
पुण्यगन्धः सुखस्पर्शो ववौ तत्र समीरणः। ह्लादयन्पाण्डवान्सर्बान्सकृष्णान्सद्विजर्षभान् ।। | 3-148-5a 3-148-5b |
ततः पूर्वोत्तरे वायुः प्लवमानो यदृच्छया। सहस्रपत्रमर्काभं दिव्यं पद्ममुपाहरत् ।। | 3-148-6a 3-148-6b |
तदवैक्षत पाञ्चाली दिव्यगन्धं मनोरमम्। अनिलेनाहृतंभूमौ पतितं जलजं शुचि ।। | 3-148-7a 3-148-7b |
तच्छुभा शुभमासाद्य सौगन्धिकमनुत्तमम्। अतीव मुदिता राजन्भीमसेनमथाब्रवीत् ।। | 3-148-8a 3-148-8b |
पश्य दिव्यं सुरुचिरं भीम पुष्पमनुत्तमम्। गन्धसंस्थानसंपन्नं मनसो मम नन्दनम् ।। | 3-148-9a 3-148-9b |
इदं च धर्मराजाय प्रदास्यामि परंतप। `गृह्यापराणि पुष्पाणि बहूनि पुरुषर्षभ'। हरेरिदं मे कामाय काम्यके पुनराश्रमे ।। | 3-148-10a 3-148-10b 3-148-10c |
यदि तेऽहं प्रिया पार्थ बहूनीमान्युपाहर। तान्यहं नेतुमिच्छामि काम्यकं पुनराश्रमम् ।। | 3-148-11a 3-148-11b |
एवमुक्त्वा तु पाञ्चली भीमसेनमनिन्दिता। जगाम पुष्पमादाय धर्मराजाय तत्तदा ।। | 3-148-12a 3-148-12b |
अभिप्रायं तु विज्ञाय महिष्याः पुरुषर्षभः। प्रियायाः प्रियकामः स प्रायाद्भीमो महाबलः ।। | 3-148-13a 3-148-13b |
वातं तमेवाभिमुखो यतस्तत्पुष्पमागतम्। आजिहीर्षुर्जगामाशु सपुष्पाण्यपराण्यपि ।। | 3-148-14a 3-148-14b |
रुक्मपृष्ठं धनुर्गृह्य शरांश्चाशीविषोपमान्। मृगराडिव संक्रुद्धः प्रभिन्न इव कुञ्जरः। [ददृशुः सर्वभूतानि महाबाणधनुर्धरम् ।। | 3-148-15a 3-148-15b 3-148-15c |
न ग्लानिर्न च वैक्लब्यं न भयं न च संभ्रमः। कदाचिज्जुषते पार्थमात्मजं मातरिश्वनः ।।] | 3-148-16a 3-148-16b |
द्रौपद्याः प्रियमन्विच्छन्स बाहुबलमाश्रितः। व्यपेतभयसमोहः शैलमभ्यपतद्बली ।। | 3-148-17a 3-148-17b |
स तं द्रुमलतागुल्मच्छन्नं नीलशिलातलम्। गिरिं चचारारिहरः किन्नराचरितं शुभम् ।। | 3-148-18a 3-148-18b |
नानावर्णधरैश्चित्रं धातुद्रुममृगाण्डजैः। सर्वभूषणसंपूर्णं भूमेर्भुजमिवोच्छ्रितम् ।। | 3-148-19a 3-148-19b |
सर्वर्तुरमणीयेषु गन्धमादनसानुषु। सक्तचक्षुरभिप्रायान्हृदयेनानुचिन्तयन् ।। | 3-148-20a 3-148-20b |
पुंस्कोकिलनिनादेषु षट्पदाचरितेषु च। बद्धश्रोत्रमनश्चक्षुर्जगामामितविक्रमः ।। | 3-148-21a 3-148-21b |
आजिघ्रन्स महातेजाः सर्वर्तुकुसुमोद्भवम्। गन्धमुद्धतमुद्दामो वने मत्त इव द्विपः ।। | 3-148-22a 3-148-22b |
वीज्यमानः सुपुण्येन नानाकुसुमगन्धिना। पितुः संस्पर्शशीतेन गन्धमादनवायुना ।। | 3-148-23a 3-148-23b |
ह्रियमाणश्रमः पित्रा संप्रहृष्टतनूरुहः ।। | 3-148-24a |
स यक्षगन्धर्वसुरब्रह्मर्षिगणसेवितम्। विलोकयामास तदा पुष्पहेतोररिंदमः ।। | 3-148-25a 3-148-25b |
विषमच्छदैरचितैरनुलिप्त इवाङ्गुलैः। विमलैर्धातुविच्छेदैः काञ्चनाञ्जनराजतैः ।। | 3-148-26a 3-148-26b |
सपक्षमिव नृत्यन्तं पार्श्वलग्नैः पयोधरैः। मुक्ताहारैरिव चितं च्युतैः प्रस्रवणोदकैः ।। | 3-148-27a 3-148-27b |
अभिरामदरीकुञ्जनिर्झरोदककन्दरम्। अप्सरोनूपुररवैः प्रनृत्तवरबर्हिणम् ।। | 3-148-28a 3-148-28b |
दिग्वारणविषाणाग्रैर्घृष्टोपलशिलातलम्। स्रस्तांशुकमिवाश्रोभ्यैर्निम्नगानिःसृतैर्जलैः ।। | 3-148-29a 3-148-29b |
सशष्पकबलैः स्वस्थैरदूरपरिवर्तिभिः। भयानभिक्षज्ञैर्हरिणैः कौतूहलनिरीक्षितः ।। | 3-148-30a 3-148-30b |
चालयानः स्ववेगेन लताजालान्यनेकशः। आक्रीडमानः कौन्तेयः श्रीमान्वायुसुतो ययौ ।। | 3-148-31a 3-148-31b |
प्रियामनोरथं कर्तुमुद्यतश्चारुलोचनः। प्रांशुः कनकवर्णाभः सिंहसंहननो युवा ।। | 3-148-32a 3-148-32b |
मत्तवारणविक्रन्तो मत्तवारणवेगवान्। मत्तवारणताम्राक्षो मत्तवारणवारणः ।। | 3-148-33a 3-148-33b |
प्रियपार्श्वोपविष्टाभिर्वायवृत्ताभिर्विचेष्टितैः। यक्षगन्धर्वयोषाभिरदृश्याभिर्निरीक्षितः ।। | 3-148-34a 3-148-34b |
नवावतारं रूपस् विक्रीडन्निव पाण्डवः। चचार रमणीयेषु गन्धमादनसानुषु ।। | 3-148-35a 3-148-35b |
संस्मरन्विविधान्क्लेशान्दुर्योधनकृतान्बहून्। द्रौपद्या वनवासिन्याः प्रियं कर्तुं समुद्यतः ।। | 3-148-36a 3-148-36b |
सोऽचिन्तयत्तथा पार्थे मयि त्वतिविलम्बिते। पुष्पहेतोः कथं त्वार्यः करिष्यति युधिष्ठिरः ।। | 3-148-37a 3-148-37b |
स्नेहान्नरवरो नूनमविश्वासाद्बलस्य च। नकुलं सहदेवं च न मोक्ष्यति युधिष्ठिरः ।। | 3-148-38a 3-148-38b |
कथं नु कुसुमावाप्तिः स्याच्छीघ्रमिति चिन्तयन्। प्रतस्थे नरशार्दूलः पक्षिराडिव वेगितः ।। | 3-148-39a 3-148-39b |
[सज्जमानमनोदृष्टिः फुल्लेषु गिरिसानुषु। द्रौपदीवाक्यपाथेयो भीमः शीघ्रतरं ययौ ।।] | 3-148-40a 3-148-40b |
कम्पयन्मेदिनीं पद्भ्यां निर्घात इव पर्वसु। त्रासयन्गजयूथानि वातरंहा वृकोदरः ।। | 3-148-41a 3-148-41b |
सिंहव्याघ्रमृगांश्चैव मर्दयानो महाबलः। उन्मूलयन्महावृक्षान्पोथयंश्चोरसा बली ।। | 3-148-42a 3-148-42b |
लतावल्लीश्च वेगेन विकर्षन्पाण्डुनन्दनः। उपर्युपरि शैलाग्रमारुरुक्षुरिव द्विपः ।। | 3-148-43a 3-148-43b |
जलावलम्बोऽतिभृशं सविद्युदिव तोयदः। `व्यनदत्स महानादं भीमसेनो महाबलः ।। | 3-148-44a 3-148-44b |
तेन शब्देन महता भीमस्य प्रतिबोधिताः। गुहां संतत्यजुर्व्याघ्रा निलिल्युर्वनवासिनः ।। | 3-148-45a 3-148-45b |
समुत्पेतुः खगास्त्रस्ता मृगयूथानि दुद्रुवुः। ऋक्षाश्चोत्ससृजर्वृक्षांस्तत्यजुर्हरयो गुहाम्। व्यजृम्भन्त महासिंहा महिषाश्च वनेचराः ।। | 3-148-46a 3-148-46b 3-148-46c |
तेन वित्रासिता नागाः करेणुपरिवारिताः। तद्वनं संपरित्यज्य जग्मुरन्यन्महावनम् ।। | 3-148-47a 4-148-47b |
वराहमृगसङ्घाश्च महिषाश्च वनेचराः। व्याघ्रगोमायुसङ्घाश्च प्रणेदुर्गवयैः सह ।। | 3-148-48a 3-148-48b |
रथाङ्गसाह्वदात्यूहा हंसकारण्डवप्लवाः। शुकाः पारावताः कौञ्चा विसंज्ञा भेजिरे दिशः ।। | 3-148-49a 3-148-49b |
तथाऽन्ये दर्पिता नागाः करेणुशरपीडिताः। सिंहव्याघ्राश्च संक्रुद्धा भीमसेनमथाद्रवन् ।। | 3-148-50a 3-148-50b |
शकृन्मूत्रं च मुञ्चाना भयविभ्रान्तमानसाः। व्यादितास्या महारौद्र व्यनदन्भीषणान्रवान् ।। | 3-148-51a 3-148-51b |
ततो वायुसुतः क्रोधात्स्वबाहुबलमाश्रितः। गजेनान्यान्गजान्श्रीमान्सिंहं सिंहेन वा विभुः। तलप्रहारैरन्यांश्च व्यहनत्पाण्डवो बली ।। | 3-148-52a 3-148-52b 4-148-52c |
ते वध्यमाना भीमेन सिंहव्याघ्रतरक्षवः। भयाद्विससृजुर्भीमं शकृन्मूत्रं च सुस्रुवुः ।। | 3-148-53a 3-148-53b |
प्रविवेश ततः क्षिप्रं तानपास्य महाबलः। वनं पाण्डुसुतः श्रीमाञ्शब्देनापूरयन्दिशः ।। | 3-148-54a 3-148-54b |
अथापश्यन्महाबाहुर्गनधमादनसानुषु। सुरम्यं कदलीषणअडं बहुयोजनविस्तृतम् ।। | 3-148-55a 3-148-55b |
तमभ्यगच्छद्वेगेन क्षोभयिष्यन्महाबलः। महागज इवास्रावी प्रभञ्जन्विविधान्द्रुमान् ।। | 3-148-56a 3-148-56b |
उत्पाट्य कदलीस्तम्भान्बहुतालसमुच्छ्रयान्। चिक्षेप तरसा भीमः समन्ताद्बलिनां वरः। विमर्दन्सुमहातेजा नृसिंह इव दर्पितः ।। | 3-148-57a 3-148-57b 3-148-57c |
ततः संन्यपतंस्तत्रसुबहूनि महान्ति च। रुरुवारणयूथानि महिषाश्च जलाश्रयाः ।। | 3-148-58a 3-148-58b |
`प्रविवेश ततः क्षिप्रं तानपास्य महाबलः। वनं पाण्डुसुतः श्रीमान्नादेनापूरयन्दिशः' ।। | 3-148-59a 3-148-59b |
तेन शब्देन चैवाथ भीमसेनरवेण च। वनान्तरगताश्चापि वित्रेसुर्मृहपक्षिः ।। | 3-148-60a 3-148-60b |
तस्मिननथ प्रवृत्ते तु संक्षोभे मृगपक्षिणाम्। जलार्द्रपक्षा विहगाः समुत्पेतुः सहस्रशः ।। | 3-148-61a 3-148-61b |
तानौदकान्पक्षिगणान्निरीक्ष्य भरतर्षभः। तानेवानुसरन्रम्यं ददर्श सुमहत्सरः ।। | 3-148-62a 3-148-62b |
काञ्चनैः कदलीषण्डैर्मन्दमारुतकम्पितैः। वीज्यमानमिवाक्षोभ्यं तीरात्तीरविसर्पिभिः ।। | 3-148-63a 3-148-63b |
तत्सरोऽथावतीर्याशु प्रभूतनलिनोत्पलम्। महागज इवोद्दामश्चिक्रीड बलवद्बली ।। | 3-148-64a 3-148-64b |
विक्रीड्यतस्मिन्रुचिरमुत्ततारामितद्युतिः। `क्षोभयन्सलिलं भीमः प्रभिन्न इववारणः' ।। | 3-148-65a 3-148-65b |
ततो जगाहे वेगेन तद्वनं बहुपादपम्। दध्मौ च शङ्खं स्वनवत्सर्वप्राणेन पाण्डवः। [आस्फोटयच्च बलवान्भीमः संनादयन्दिशः ।।] | 3-148-66a 3-148-66b 3-148-66c |
तस्य शङ्खस्य शब्दन भीमसेनरवेण च। बाहुशब्दन चोग्रेण नदन्तीव गिरेर्गुहाः ।। | 3-148-67a 3-148-67b |
तं वज्रनिष्पेषसममास्फोटितमहारवम्। श्रुत्वा शैलगुहासुप्तैः सिंहैर्मुक्तो महास्वनः ।। | 3-148-68a 3-148-68b |
सिंहनादभयत्रस्तैः कुञ्जरैरपि भारत। मुक्तो विरावः सुमहान्पर्वतो येन पूरितः ।। | 3-148-69a 3-148-69b |
तं तु नादं ततः श्रुत्वा सुप्तो वानरपुङ्गवः। | 3-148-70a |
[भ्रातरं भीमसेनं तु विज्ञाय हनुमान्कपिः ।। | 3-148-70a |
दिवंगमं रुरोधाथ मार्गं भीमस्य कारणात्। अनेन हि पथा मा वै गच्छेदिति विचार्य सः ।। | 3-148-71a 3-148-71b |
आस्त एकायने मार्गे कदलीषण्डमण्डिते। भ्रातुर्भीमस्य रक्षार्थं तं मार्गमवरुध्य वै ।। | 3-148-72a 3-148-72b |
माऽत्र प्राप्स्यति शापं वा धर्षणां वेति पाण्डवः। कदलीषण्डमध्यस्थो ह्येवं संचिन्त्य वानरः ।। | 3-148-73a 3-148-73b |
प्राजृम्भत महाकायो हनूमान्नाम वानरः। कदलीषण्डमध्यस्थो निद्रावशगतस्तदा ।। | 3-148-74a 3-148-74b |
`तेन शब्देन महता व्यबुध्यत महाकपिः'। जृम्भमाणः सुविपुलं शक्रध्वजमिवोच्छ्रितम्। आस्फोटयच्चलाङ्गूलमिन्द्राशनिसमस्वनम् ।। | 3-148-75a 3-148-75b 3-148-75c |
तस्य लाङ्गूलनिनदं पर्वतः सुगुहामुखैः। उद्गारमिव गौर्नर्दन्नुत्ससर्ज समन्ततः ।। | 3-148-76a 3-148-76b |
लाङ्गूलास्फोटशब्दाच्च चलितः स महागिरिः। विघूर्णमानशिखरः समन्तात्पर्यशीर्यत ।। | 3-148-77a 3-148-77b |
स लाङ्गूलरवस्तस्य मत्तवारणनिस्वनम्। अन्तर्धायविचित्रेषु चचार गिरिसानुषु ।। | 3-148-78a 3-148-78b |
स भीमसेनस्तच्छ्रुत्वा संप्रहृष्टतनूरुहः। शब्दप्रभवमन्विच्छंश्चचार कदलीवनम् ।। | 3-148-79a 3-148-79b |
कदलीवनमध्यस्थमथ पीने शिलातले। ददर्श सुमहाबाहुर्वानराधिपतिं तदा ।। | 3-148-80a 3-148-80b |
विद्युत्संपातदुष्प्रेक्षं विद्युत्संपातपिङ्गलम्। विद्युत्संपातनिनदं विद्युत्संपातचञ्चलम् ।। | 3-148-81a 3-148-81b |
बाहुस्वस्तिकविन्यस्तपीनवृत्तशिरोधरम्। स्कन्धभूयिष्ठकायत्वात्तनुमध्यकटीतटम् ।। | 3-148-82a 3-148-82b |
किंचिच्चाभुग्नशीर्षेण दीर्घरोमाञ्चितेन च। लाङ्गूलेनोर्ध्वगतिना ध्वजेनेव विराजितम् ।। | 3-148-83a 3-148-83b |
ह्रस्वौष्ठं ताम्रजिह्वास्यं रक्तकर्णं चलद्धुवम्। अपश्यद्वदनं तस्य रश्मिवन्तमिवोडुपम् ।। | 3-148-84a 3-148-84b |
वदनाभ्यन्तरगतैः शुक्लैर्दन्तैरलंकृतम्। केसरोत्करसंमिश्रमशोकानामिवोत्करम् ।। | 3-148-85a 3-148-85b |
हिरण्मयीनां मध्यस्थं कदलीनां महाद्युतिम्। दीप्यमानेन वपुषा स्वर्चिष्मन्तमिवानलम्। निरीक्षन्तमपत्रस्तं लोचनैर्मधुपिङ्गलैः ।। | 3-148-86a 3-148-86b 3-148-86c |
तं वानरवरं धीमानतिकायं महाबलम्। स्वर्गपन्थानमावृत्य हिमवन्तमिव स्तितम् ।। | 3-148-87a 3-148-87b |
दृष्ट्वा चैनं महाबाहुरेकं तस्मिन्महावने। अथोपसृत्यतरसा भीमो भीमपराक्रमः ।। | 3-148-88a 3-148-88b |
सिंहनादं चकारोग्रं वज्राशनिसमं बली। तेन शब्देन भीमस्य वित्रेसुर्मृगपक्षिणः ।। | 3-148-89a 3-148-89b |
हनूमांश्च महासत्व ईषदुन्मील्य लोचने। दृष्ट्वा तमथ सावज्ञं लोचनैर्मधुपिङ्गलैः ।। | 3-148-90a 3-148-90b |
`ततः पवनजः श्रीमानन्तिकस्थं महौजसम्'। स्मितेन चैनमासाद्यहनूमानिदमब्रवीत् ।। | 3-148-91a 3-148-91b |
किमर्थं सरुजस्तेऽहं सुखसुप्तः प्रबोधितः। ननु नाम त्वया कार्या दया भूतेषु जानता ।। | 3-148-92a 3-148-92b |
वयं धर्मं न जानीमस्तिर्यग्योनिमुपाश्रिताः। नरास्तु बुद्धिसंपन्ना दयां कुर्वन्ति जन्तुषु ।। | 3-148-93a 3-148-93b |
क्रूरेषु कर्मसु कथं देहवाक्चित्तदूषिषु। धर्मघातिषु सज्जन्ते बुद्दिमन्तो भवद्विधाः ।। | 3-148-94a 3-148-94b |
न त्वं धर्मं विजानासि वृद्धा नोपासितास्त्वया। अल्पबुद्धितया बाल्यादुत्सादयसि यन्मृगान् ।। | 3-148-95a 3-148-95b |
ब्रूहि कस्त्वं किमर्थं वा किमिदं वनमागतः। वर्जितं मानुषैर्भावैस्तथैव पुरुषैरपि ।। | 3-148-96a 3-148-96b |
क्व च त्वयाऽद्यगन्तव्यं प्रब्रूहि पुरुषर्षभ। अतः परमगम्योऽयं पर्वतः सुदुरारुहः ।। | 3-148-97a 3-148-97b |
विना सिद्धगतिं वीर गतिरत्र न विद्यते। [देवलोकस्य मार्गोऽयमगम्यो मानुषैः सदा] ।। | 3-148-98a 3-148-98b |
कारुण्यात्त्वामहं वीर वारयामि निबोध मे। नातः परं त्वया शक्यं गन्तुमाश्वसिहि प्रभो ।। | 3-148-99a 3-148-99b |
स्वागतं सर्वथैवेह तवाद्य मनुजर्षभ। इमान्यमृतकल्पानि मूलानि च फलानि च ।। | 3-148-100a 3-148-100b |
भक्षयित्वा निवर्तस्व मा वृथा प्राप्स्यसे वधम्। ग्राह्यं यदि वचो मह्यं हितं मनुजपुङ्गव ।। | 3-148-101a 3-148-101b |
।। इति श्रीमन्महाभारेत अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 248 ।। |
3-148-3 पुष्पविकचैर्विकसितकुसुमैः ।। 3-148-6 पूर्वोत्तरे ऐशानकोणे ।। 3-148-8 सौगन्धिकं पद्मजातिभेदः ।। 3-148-9 संस्थानमाकारः ।। 3-148-10 हरेः आहर। इदमे तज्जातीयम् ।। 3-148-15 प्रभिन्नो मत्तः ।। 3-148-16 मातरिश्वनो वायोः ।। 3-148-23 पितुर्यथा पुत्रस्पर्शः शीतस्तादृक् स्पर्शवता वायुनेत्यर्थः ।। 3-148-24 पित्रा वायुना ।। 3-148-26 धातुविच्छेदैर्धातुभेदैः। अङ्गुलैरिव विषमच्छदैः सप्तपर्णादिभिर्नानाधातुरञ्जितपत्रैः। आञ्जनेति कृष्णधातुग्रहणम्। पीतकृष्णश्वेतधातुभिरित्यर्थः ।। 3-148-27 पयोधरैर्मेघैः ।। 3-148-28 दरी बिलगृहम्। कदरं महाप्रपातः ।। 3-148-29 विषाणाग्रैर्दन्ताग्रैः। शिलाः समपाषाणाः शयनासनयोग्याः। उपलास्तदन्ये ।। 3-148-30 शष्पं बालतृणम्। कबलो ग्रासस्तद्युक्तैः ।। 3-148-33 वारणानामपि वारणः निवारकः संग्रामादौ ।। 3-148-34 विचेष्टितैर्व्यावृत्ताभिः निश्चेष्टाभिरेकाग्राभिरित्यर्थः ।। 3-148-35 रूपस्य सौन्दर्यस्य ।। 3-148-41 निर्घात उत्पातः। पर्वसु उत्सवेषु ।। 3-148-42 पोथयन् मर्दयन् ।। 3-148-43 लता भूचरा। बल्ली वृक्षचरेति भेदः ।। 3-148-49 रथाङ्गसाह्वाः चक्रसमाननामानश्चक्रवाका इतियावत्। दात्यूहः मयूरश्चातको वा ।। 3-148-50 करेणुशरेण हस्तिनीकृतेवोत्तेजनेन पीजिताः। शरस्तूतेजने वाणे इतिभेदिनी ।। 3-148-56 आस्त्रावी मत्तः ।। 3-148-64 नलिनोत्पलं पद्मपुष्पम् ।। 3-148-68 आस्फोटितं बाहुधातः ।। 3-148-71 दिवंरामं मार्गं स्वर्गमार्गम् ।। 3-148-72 एकायने अतिसंकुचिते ।। 3-148-76 उद्गारं रप्रतिशब्दं गौरिव उत्ससर्ज ।। 3-148-82 बाहोः स्वस्तिकं चतुरश्रं मूलं अंस इति यावत् तत्र न्यस्तकधरमित्यर्थः। तत्र हेतुः स्कन्धेति। विपुलांसत्वादित्यर्थः ।। 3-148-84 उडुपं चन्द्रम् ।। 3-148-85 अशोकानामशोकपुष्पाणाम् ।। 3-148-92 सरुजः सपीडः। ते स्वया ।। 3-148-99 आश्वसिहि विश्वासं कुरु ।। 3-148-101 मह्यं मम ।।
आरण्यकपर्व-147 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-149 |