महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-303
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कर्णएन सूर्यंप्रति सानुनयं शक्राय कवचकुण्डलदानेऽभ्यनुज्ञाप्रार्थना ।। 1 ।।
सूर्येण कर्णंप्रति शक्राच्छक्तिग्रहणचोदनापूर्वकं कुण्डलादिदानाभ्यनुज्ञानम् ।। 2 ।।
कर्ण उवाच। | 3-303-1x |
भगवन्तमहं भक्तो यथा मां वेत्थ गोपते। तथा परमतिग्मांशो नास्त्यदेयं कथंचन ।। | 3-303-1a 3-303-1b |
न मे दारा न मेपुत्रा न चात्मा सुहृदो न च। तथेष्टा वै सदा भक्त्या यथा त्वं गोपते मम ।। | 3-303-2a 3-303-2b |
इष्टानां च महात्मानो भक्तानां च न संशयः। कुर्वन्ति भक्तिमिष्टां च जानीषे त्वं च भास्कर ।। | 3-303-3a 3-303-3b |
इष्टो भक्तश्च मे कर्णो न चान्यद्दैवतं दिवि। जानीत इतिवै कृत्वा भगवानाह मद्धितम् ।। | 3-303-4a 3-303-4b |
भूयश्च शिरसा याचे प्रसाद्य च पुनःपुनः। इति ब्रवीमि तिग्मांशो त्वं तु मे क्षन्तुमर्हसि ।। | 3-303-5a 3-303-5b |
बिभेमि न तथा मृत्योर्यथा बिभ्येऽनृतादहम्। विशेषेण द्विजातीनां सर्वेषां सर्वदा सताम् ।। | 3-303-6a 3-303-6b |
प्रदाने जीवितस्यापि न मेऽत्रास्ति विचारणा। यच्च मामात्थ देव त्वं पाण्डवं फल्गुनं प्रति ।। | 3-303-7a 3-303-7b |
व्येतु संतापजं दुःखं तव भास्कर मानसम्। अर्जुनप्रतिमं चैव विजेष्यामि रणेऽर्जुनम् ।। | 3-303-8a 3-303-8b |
तवापि विदितं देव ममाप्यस्त्रबलं महत्। जामदग्न्यादुपात्तं यत्तथा द्रोणान्महात्मनः ।। | 3-303-9a 3-303-9b |
इदं त्वमनुजानीहि सुरश्रेष्ठ व्रतं मम। भिक्षते वज्रिणे दद्यामपि जीवितमात्मनः ।। | 3-303-10a 3-303-10b |
सूर्य उवाच। | 3-303-11x |
यदि तात ददास्येते वज्रिणे कुण्डले शुभे। त्वमप्येनमथो ब्रूया विजयार्थं महाबल ।। | 3-303-11a 3-303-11b |
नियमेन प्रदद्यास्त्वं कुण्डलेवै शतक्रतोः। अवध्यो ह्यसि भूतानां कुण्डलाभ्यां समन्वितः ।। | 3-303-12a 3-303-12b |
अर्जुनन विनाशं हि तव दानवसूदनः। प्रार्तयानो रणे वत्स कुण्डले ते जिहीर्षति ।। | 3-303-13a 3-303-13b |
स त्वमप्येनमाराध्य सूनृताभिः पुनः पुनः। अभ्यर्थयेथा देवेशममोघार्थं पुरंदरम् ।। | 3-303-14a 3-303-14b |
अमोघां देहि मे शक्तिममित्रविनिबर्हिणीम्। दास्यामि ते सहस्राक्ष कुण्डले वर्म चोत्तमम् ।। | 3-303-15a 3-303-15b |
इत्येव नियमेन त्वं दद्याः शक्राय कुण्डले। तया त्वं कर्ण संग्रामे हनिष्यसि रणे रिपून् ।। | 3-303-16a 3-303-16b |
नाहत्वा हि महाबाहो शत्रूनेति करं पुनः। सा शक्तिर्देवराजस्य शतशोऽथ सहस्रशः ।। | 3-303-17a 3-303-17b |
वैशंपायन उवाच। | 3-300-18x |
एवमुक्त्वा सहस्रांशुः सहसाऽन्तरधीयत। `कर्णस्तु बुबुधे राजन्स्वप्नान्ते प्रव्यथन्निव ।। | 3-303-18a 3-303-18b |
प्रतिबुद्धस्तु राधेयः स्वप्नं संचिन्त्य भारत। चकार निश्चयं राजञ्शक्त्यर्थं वदतांवर ।। | 3-303-19a 3-303-19b |
यदि मामिन्द्र आयाति कुण्डलार्थं परन्तप। शक्त्या तस्मै प्रदास्यामि कुण्डले वर्म चैव ह ।। | 3-303-20a 3-303-20b |
स कृत्वा प्रातरुत्थाय कार्याणि भरतर्षभ। ब्राह्मणान्वाचयित्वा च यथाकार्यमुपाक्रमत् ।। | 3-303-21a 3-303-21b |
विधिना राजशार्दूल मुहूर्तमजपत्तदा'। ततः सूर्याय जप्यान्ते कर्णः स्वप्नं न्यवेदयत् ।। | 3-303-22a 3-303-22b |
यथा दृष्टं यथातत्त्वं यथोक्तमुभयोर्निसि। तत्सर्वमानुपूर्व्येण शशंसास्मै वृषस्तदा ।। | 3-303-23a 3-303-23b |
तच्छ्रुत्वा भगवान्देवो भानुः स्वर्भानुसूदनः। उवाच तं तथेत्येव कर्णं सूर्यः स्मयन्निव ।। | 3-303-24a 3-303-24b |
ततस्तत्त्वमिति ज्ञात्वा राधेयः परवीरहा। शक्तिमेवाभिकाङ्क्षन्वै वासवं प्रत्यपालयत् ।। | 3-303-25a 3-303-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि कुण्डलाहरणपर्वणि त्र्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। 303 ।। |
3-303-23 अस्मै सूर्याय। वृषः क्रणः ।। 3-303-24 स्वर्भानुसूदनः राहुदमनः ।।
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