महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-306
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कुन्तीपरिचर्यासंतुष्टेन दुर्वाससा तांप्रति अभीप्सितार्थवरणचोदना ।। 1 ।।
तथा किंचिदप्यवृण्वन्त्यै तस्यै स्वयमेव सकलदेववशीकरणदक्षस्य मन्त्रस्योपदेशः ।। 2 ।।
ततस्तेन कुन्तिभोजामन्त्रणपूर्वकमन्तर्धानम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-306-1x |
सा तु कन्या महाराज ब्राह्मणं संशितव्रतम्। तोषयामास शुद्धेन मनसा संशितव्रता ।। | 3-306-1a 3-306-1b |
प्रातरेष्याम्यथेत्युक्त्वा कदाचिद्द्विजसत्तमः। तत आयाति राजेन्द्र सायं रात्रावथो पुनः ।। | 3-306-2a 3-306-2b |
तं च सर्वासु वेलासु भक्ष्यभोज्यप्रतिश्रयैः। पूजयामास सा कन्या वर्धमानैस्तु सर्वदा ।। | 3-306-3a 3-306-3b |
अन्नादिसमुदाचारः शय्यासनकृतस्तथा। दिवसेदिवसे तस्य वर्धते न तु हीयते ।। | 3-306-4a 3-306-4b |
निर्भर्त्सनापवादैश्च तथैवाप्रियया गिरा। ब्राह्मणस्य पृथा राजन्न चकाराप्रियं तदा ।। | 3-306-5a 3-306-5b |
स्वप्नकाले पुनश्चैति न चैति बहुशो द्विजः। सुदुर्लभमपि ह्यन्नं दीयतामिति सोऽब्रवीत् ।। | 3-306-6a 3-306-6b |
कृतमेव च तत्सर्वं यथा तस्मै न्यवेदयत्। शिष्यवत्पुत्रवच्चैव स्वसृवच्च सुसंयता ।। | 3-306-7a 3-306-7b |
यथोपजोषं राजेन्द्र द्विजातिप्रवरस्य सा। प्रीतिमुत्पादयामास कन्यारत्नमनिन्दिता ।। | 3-306-8a 3-306-8b |
तस्यास्तु शीलवृत्तेन तुतोप द्विजसत्तमः। अवधानेन भूयोऽस्याः परं यत्नमथाकरोत् ।। | 3-306-9a 3-306-9b |
तां प्रभाते च सायं च पिता पप्रच्छ भारत। अपितुष्यतिते पुत्रि ब्राह्मणः परिचर्यया ।। | 3-306-10a 3-306-10b |
तं सा परममित्येवप्रत्युवाच यशस्विनी। ततः प्रीतिमवापाग्र्यां कुन्तिभोजो महामनाः ।। | 3-306-11a 3-306-11b |
ततः संवत्सरे पूर्णे यदाऽसौ जपतांवरः। नापश्यद्दुष्कृतंकिंचित्पृथायाः सौहृदे रतः ।। | 3-306-12a 3-306-12b |
ततः प्रीतमना भूत्वा स एनां ब्राह्मणोऽब्रवीत्। प्रीतोस्मि परमं भद्रे परिचारेण ते शुभे ।। | 3-306-13a 3-306-13b |
वरान्वृणीष्व क्रल्याणि दूरापान्मानुपैरिह। यैस्त्वं सीमन्तिनीः सर्वायशसाऽभिमविष्यसि ।। | 3-306-14a 3-306-14b |
कुन्त्युवाच। | 3-306-15x |
कृतानि मम सर्वाणि सस्या मे वेदवित्तम। त्वं प्रसन्नः पिता चैव कृतं विप्र वरैर्मम ।। | 3-306-15a 3-306-15b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-306-16x |
यदि नेच्छसि मत्तस्त्वं वरं भद्रे शुचिस्मिते। इमं मन्त्रं गृहाण त्वमाह्रानाय दिवौकसाम् ।। | 3-306-16a 3-306-16b |
यंयं देवं त्वमेतेन मन्त्रेणावाहयिष्यसि। तेनतेन वशे भद्रे स्थातव्यं ते भविष्यति ।। | 3-306-17a 3-306-17b |
अकामो वा सकामो वा स समेष्यति ते वशे। विबुधो मन्त्रसंभ्रान्तो वाक्यैर्भृत्य इवानतः ।। | 3-306-18a 3-306-18b |
वैशंपायन उवाच। | 3-306-19x |
न शशक द्वितीयं सा प्रत्याख्यातुमनिन्दिता। तं वै द्विजातिप्रवरं तदा शापभयान्नृप ।। | 3-306-19a 3-306-19b |
ततस्तामनवद्याङ्गीं ग्राहयामास स द्विजः। मन्त्रग्रामं तदा राजन्नथर्वशिरसि श्रुतम् ।। | 3-306-20a 3-306-20b |
तं प्रदाय तु राजेन्द्र कुन्तिभोजमुवाच ह। उपितोस्मि सुखं राजन्कन्यया परितोपितः ।। | 3-306-21a 3-306-21b |
तवगेहे सुविहितः सदा सुप्रतिपूजितः। साधयिष्यामहे तावदित्युक्त्वाऽन्तरधीयत ।। | 3-306-22a 3-306-22b |
स तु राजा द्विजं दृष्ट्वा तत्रैवान्तर्हितं तदा। बभूव विस्मयाविष्टः पृथां च समपूजयत् ।। | 3-306-23a 3-306-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि कुण्डलाहरणपर्वणि षडधिकविशततमोऽद्यायः ।। 306 ।। |
3-306-3 प्रतिश्रयैः आश्रयैः शयनासनाद्यैः ।। 3-306-4 अन्नादिना समुदाचारः समुपसर्पणम् ।। 3-306-8 यथोपजोपं प्रियमनतिक्रम्य ।। 3-306-9 शीलं शमादि। वृत्तं परिचर्या। अस्याः पृथायाः श्रोयोर्थं अवधानेन समाधिकाले यत्नमकरोत्। यत्नेन तस्याः कल्याणं चिन्तितवानित्यर्थः ।। 3-306-19 द्वितीयं द्वितीयवारम्। न शशाक द्विजातिं सा इति थ. ध. पाटः ।। 3-306-22 विहितः विशेषेण हितस्तृप्तः ।।
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