सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-134

विकिस्रोतः तः
← आरण्यकपर्व-133 महाभारतम्
तृतीयपर्व
महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-134
वेदव्यासः
आरण्यकपर्व-135 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
  119. 119
  120. 120
  121. 121
  122. 122
  123. 123
  124. 124
  125. 125
  126. 126
  127. 127
  128. 128
  129. 129
  130. 130
  131. 131
  132. 132
  133. 133
  134. 134
  135. 135
  136. 136
  137. 137
  138. 138
  139. 139
  140. 140
  141. 141
  142. 142
  143. 143
  144. 144
  145. 145
  146. 146
  147. 147
  148. 148
  149. 149
  150. 150
  151. 151
  152. 152
  153. 153
  154. 154
  155. 155
  156. 156
  157. 157
  158. 158
  159. 159
  160. 160
  161. 161
  162. 162
  163. 163
  164. 164
  165. 165
  166. 166
  167. 167
  168. 168
  169. 169
  170. 170
  171. 171
  172. 172
  173. 173
  174. 174
  175. 175
  176. 176
  177. 177
  178. 178
  179. 179
  180. 180
  181. 181
  182. 182
  183. 183
  184. 184
  185. 185
  186. 186
  187. 187
  188. 188
  189. 189
  190. 190
  191. 191
  192. 192
  193. 193
  194. 194
  195. 195
  196. 196
  197. 197
  198. 198
  199. 199
  200. 200
  201. 201
  202. 202
  203. 203
  204. 204
  205. 205
  206. 206
  207. 207
  208. 208
  209. 209
  210. 210
  211. 211
  212. 212
  213. 213
  214. 214
  215. 215
  216. 216
  217. 217
  218. 218
  219. 219
  220. 220
  221. 221
  222. 222
  223. 223
  224. 224
  225. 225
  226. 226
  227. 227
  228. 228
  229. 229
  230. 230
  231. 231
  232. 232
  233. 233
  234. 234
  235. 235
  236. 236
  237. 237
  238. 238
  239. 239
  240. 240
  241. 241
  242. 242
  243. 243
  244. 244
  245. 245
  246. 246
  247. 247
  248. 248
  249. 249
  250. 250
  251. 251
  252. 252
  253. 253
  254. 254
  255. 255
  256. 256
  257. 257
  258. 258
  259. 259
  260. 260
  261. 261
  262. 262
  263. 263
  264. 264
  265. 265
  266. 266
  267. 267
  268. 268
  269. 269
  270. 270
  271. 271
  272. 272
  273. 273
  274. 274
  275. 275
  276. 276
  277. 277
  278. 278
  279. 279
  280. 280
  281. 281
  282. 282
  283. 283
  284. 284
  285. 285
  286. 286
  287. 287
  288. 288
  289. 289
  290. 290
  291. 291
  292. 292
  293. 293
  294. 294
  295. 295
  296. 296
  297. 297
  298. 298
  299. 299
  300. 300
  301. 301
  302. 302
  303. 303
  304. 304
  305. 305
  306. 306
  307. 307
  308. 308
  309. 309
  310. 310
  311. 311
  312. 312
  313. 313
  314. 314
  315. 315

लोमशेन श्वेतकेतोराश्रमंगतं द्युधिष्ठिरंप्रति अष्टावक्रोपाख्यानकथधनारम्भः ।। 1 ।। धनार्जनाय जनकपुरं गतस्य कहोळस्य वन्दिना वादे विजित्य जले विनिमज्जनम् ।। 2 ।। तद्विदितवता तत्पुत्रेणाष्टावक्रेण श्वेतकेतुनासह जनकनगरंप्रति गमनम् ।। 3 ।।

लोमश उवाच।।
यः कथ्यते मन्त्रविदग्र्यबुद्धिरौद्दालकिः श्वेतकेतुः पृथिव्याम् ।
तस्याश्रमं पश्य नरेन्द्र पुण्यं; सदाफलैरुपपन्नं महीजैः ।।१।।
साक्षादत्र श्वेतकेतुर्ददर्श; सरस्वतीं मानुषदेहरूपाम् ।
वेत्स्यामि वाणीमिति सम्प्रवृत्तां; सरस्वतीं श्वेतकेतुर्बभाषे ।।२।।
तस्मिन्काले ब्रह्मविदां वरिष्ठावास्तां तदा मातुलभागिनेयौ ।
अष्टावक्रश्चैव कहोडसूनुरौद्दालकिः श्वेतकेतुश्च राजन् ।।३।।
विदेहराजस्य महीपतेस्तौ; विप्रावुभौ मातुलभागिनेयौ ।
प्रविश्य यज्ञायतनं विवादे; बन्दिं निजग्राहतुरप्रमेयम् ।।४।।
युधिष्ठिर उवाच।।
कथम्प्रभावः स बभूव विप्रस्तथायुक्तं यो निजग्राह बन्दिम् ।
अष्टावक्रः केन चासौ बभूव; तत्सर्वं मे लोमश शंस तत्त्वम् ।।५।।
लोमश उवाच।।
उद्दालकस्य नियतः शिष्य एको नाम्ना कहोडेति बभूव राजन् ।
शुश्रूषुराचार्यवशानुवर्ती; दीर्घं कालं सोऽध्ययनं चकार ।।६।।
तं वै विप्राः पर्यभवंश्च शिष्यास्तं च ज्ञात्वा विप्रकारं गुरुः सः ।
तस्मै प्रादात्सद्य एव श्रुतं च भार्यां च वै दुहितरं स्वां सुजाताम् ।।७।।
तस्या गर्भः समभवदग्निकल्पः सोऽधीयानं पितरमथाभ्युवाच ।
सर्वां रात्रिमध्ययनं करोषि नेदं पितः सम्यगिवोपवर्तते ।।८।।
उपालब्धः शिष्यमध्ये महर्षिः स तं कोपादुदरस्थं शशाप ।
यस्मात्कुक्षौ वर्तमानो ब्रवीषि तस्माद्वक्रो भवितास्यष्टकृत्वः ।।९।।
स वै तथा वक्र एवाभ्यजायदष्टावक्रः प्रथितो वै महर्षिः ।
तस्यासीद्वै मातुलः श्वेतकेतुः स तेन तुल्यो वयसा बभूव ।।१०।।
सम्पीड्यमाना तु तदा सुजाता विवर्धमानेन सुतेन कुक्षौ ।
उवाच भर्तारमिदं रहोगता प्रसाद्य हीनं वसुना धनार्थिनी ।।११।।
कथं करिष्याम्यधना महर्षे मासश्चायं दशमो वर्तते मे ।
न चास्ति ते वसु किञ्चित्प्रजाता येनाहमेतामापदं निस्तरेयम् ।।१२।।
उक्तस्त्वेवं भार्यया वै कहोडो वित्तस्यार्थे जनकमथाभ्यगच्छत् ।
स वै तदा वादविदा निगृह्य; निमज्जितो बन्दिनेहाप्सु विप्रः ।।१३।।
उद्दालकस्तं तु तदा निशम्य सूतेन वादेऽप्सु तथा निमज्जितम् ।
उवाच तां तत्र ततः सुजातामष्टावक्रे गूहितव्योऽयमर्थः ।।१४।।
ररक्ष सा चाप्यति तं सुमन्त्रं जातोऽप्येवं न स शुश्राव विप्रः ।
उद्दालकं पितृवच्चापि मेने अष्टावक्रो भ्रातृवच्छ्वेतकेतुम् ।।१५।।
ततो वर्षे द्वादशे श्वेतकेतुरष्टावक्रं पितुरङ्के निसन्नम् ।
अपाकर्षद्गृह्य पाणौ रुदन्तं नायं तवाङ्कः पितुरित्युक्तवांश्च ।।१६।।
यत्तेनोक्तं दुरुक्तं तत्तदानीं हृदि स्थितं तस्य सुदुःखमासीत् ।
गृहं गत्वा मातरं रोदमानः पप्रच्छेदं क्व नु तातो ममेति ।।१७।।
ततः सुजाता परमार्तरूपा शापाद्भीता सर्वमेवाचचक्षे ।
तद्वै तत्त्वं सर्वमाज्ञाय मातुरित्यब्रवीच्छ्वेतकेतुं स विप्रः ।।१८।।
गच्छाव यज्ञं जनकस्य राज्ञो बह्वाश्चर्यः श्रूयते तस्य यज्ञः ।
श्रोष्यावोऽत्र ब्राह्मणानां विवादमन्नं चाग्र्यं तत्र भोक्ष्यावहे च ।।१९।।
विचक्षणत्वं च भविष्यते नौ शिवश्च सौम्यश्च हि ब्रह्मघोषः ।।१९।।
तौ जग्मतुर्मातुलभागिनेयौ यज्ञं समृद्धं जनकस्य राज्ञः ।
अष्टावक्रः पथि राज्ञा समेत्य उत्सार्यमाणो वाक्यमिदं जगाद ।।२०।। 3.132.23

लोमश उवाच। 3-134-1x
यः कथ्यते मन्त्रविदग्र्यबुद्धि-
रौद्दालकिः श्वेतकेतुः पृथिव्याम्।
तस्याश्रमं पश्यत पाण्डवेया
सदाफलैरुपपन्नं महीजैः ।।
3-134-1a
3-134-1b
3-134-1c
3-134-1d
साक्षादत्र श्वेतकेतुर्ददर्श
सरस्वतीं मानुषदेहरूपाम्।
वेत्स्यामि वाणीमिति संप्रवृत्तां
सरस्वतीं श्वेतकेतुर्बभाषे ।।
3-134-2a
3-134-2b
3-134-2c
3-134-2d
अस्मिन्युगे ब्रह्मकृतां वरिष्ठा-
वास्तां मुनी मातुलभागिनेयौ।
अष्टावक्रश्चैव कहोलसूनु-
रौद्दालकिः श्वेतकेतुः पृथिव्याम् ।।
3-134-3a
3-134-3b
3-134-3c
3-134-3d
विदेहराजस् समीपतस्तौ
घीरावुभौ मातुलभागिनेयौ।
प्रविश्य यज्ञायतनं विवादे
वन्दिं निजग्राहतुरप्रमेयौ ।।
3-134-4a
3-134-4b
3-134-4c
3-134-4d
वादे भङ्क्त्वा मज्जयामास नद्याम् ।। 3-134-5f
युधिष्ठिर उवाच। 3-134-6x
कथंप्रभावः स बभूव विप्र-
स्तथाभूतं यो निजग्राह वन्दिम्।
`किंचाधिकृत्याथ तयोर्विवादो
विदेहराजस् समीप आसीत्' ।।
3-134-6a
3-134-6b
3-134-6c
3-134-6d
अष्टावक्रः केन चासौ बभूव
तत्सर्वं मे लोमश शंस तत्त्वम् ।।
3-134-7a
3-134-7b
लोमश उवाच। 3-134-8x
उद्दालकस्य नियतः शिष्य एको
नाम्ना कहोळेति बभूव राजन्।
शुश्रूषुराचार्यवशानुवर्ती
दीर्घ कालं सोऽध्ययनं चकार ।।
3-134-8a
3-134-8b
3-134-8c
3-134-8d
तं वै विप्राः पर्यभवंस्तु शिखा-
स्तं च ज्ञात्वा विप्रकारं गुरुः सः।
तस्मै प्रादात्सद्य एव श्रुतं च
भार्यां च वै दुहितरं स्वां सुजाताम् ।।
3-134-9a
3-134-9b
3-134-9c
3-134-9d
तस्यां गर्भः समभवदग्निकल्पः
सोऽधीयानं पितरमथाभ्युवाच।
सर्वां रात्रिमध्ययनं करोषि
नेदं पितः सम्यगिवोपवर्तते ।।
3-134-10a
3-134-10b
3-134-10c
3-134-10d
उपालब्धः शिष्यमध्ये महर्षिः
स तं कोपादुदरस्थं शशाप।
यस्माद्वक्रं वर्तमानो ब्रवीषि
तस्माद्वक्रो भवितास्यष्टधैव ।।
3-134-11a
3-134-11b
3-134-11c
3-134-11d
स वै तथा वक्र एवाभ्यजाय-
दष्टावक्रः प्रथितो मानवेषु।
अस्यासीद्वै मातुलः श्वेतकेतुः
स तेन तुल्यो वयसा बभूव ।।
3-134-12a
3-134-12b
3-134-12c
3-134-12d
संपीड्यमाना तु तदा सुजाता
विवर्धमानेन सुतेन कुक्षौ।
उवाच भर्तारमिदं रहोगता
प्रसाद्य हीना वसुना धनार्थिनी ।।
3-134-13a
3-134-13b
3-134-13c
3-134-13d
कथं करिष्याम्यधुना महर्षे
मासश्चायं दशमो वर्तते मे।
नैवास्ति मे वसु किंचित्प्रदाता
येंनाहमेतामापदं निस्तरेयम् ।।
3-134-14a
3-134-14b
3-134-14c
3-134-14d
उक्तस्त्वेवं भार्यया वै कहोळो
वित्तस्यार्थे जनकमथाभ्यगच्छत्।
स वै तदा वादविदा निगृह्य
निमज्जितो वन्दिनेहाप्सु विप्रः ।।
3-134-15a
3-134-15b
3-134-15c
3-134-15d
उद्दालकस्तं तु तदा निशम्य
सूतेन वादेऽप्सु निमज्जितं तथा।
उवाच तां तत्रततः सुजात-
मष्टवक्रे गूहितव्योऽयमर्थः ।।
3-134-16a
3-134-16b
3-134-16c
3-134-16d
ररक्ष सा चापि तमस् मन्त्रं
जातोऽप्यसौ नैव शुश्राव विप्रः।
उद्दालकं पितरं सोऽभिमेने
तथाऽष्टावक्रो भ्रातरं श्वेतकेतुम् ।।
3-134-17a
3-134-17b
3-134-17c
3-134-17d
ततो वर्षे द्वादशे श्वेतकेतु-
रष्टावक्रं पितुरङ्के निषण्णम्।
अपाकर्षद्गृह्यपाणौ रुदन्तं
नायं तवाङ्कः पितुरित्युक्तवांश्च ।।
3-134-18a
3-134-18b
3-134-18c
3-134-18d
यत्तेनोकतं दुरुक्तं तत्तदानीं
हृदि स्थितं तस्य सुदुःखमासीत्।
गृहं गत्वा मातरं सोऽथ विग्रः
पप्रच्छेदं क्व नु तातो ममेति ।।
3-134-19a
3-134-19b
3-134-19c
3-134-19d
ततः सुजाता परमार्तरूपा
शापाद्भीता तत्त्वमस्याचचक्षे।
तद्वै तत्त्वंसर्वमाज्ञाय रात्रा-
वित्यब्रवीच्छ्वेतकेतुं स विप्रः ।।
3-134-20a
3-134-20b
3-134-20c
3-134-20d
गच्छाव यज्ञं जनकस्य राज्ञो
बह्वाश्चर्यः श्रूयते तस्य यज्ञः।
श्रोष्यावोऽत्र ब्राह्मणानां विवाद-
मन्नं चाग्र्यं तत्रभोक्ष्यावहे च ।।
3-134-21a
3-134-21b
3-134-21c
3-134-21d
विचक्षणत्वं च भविष्यते नौ
शिवश्च सौम्यश्च हि ब्रह्मघोषः ।।
3-134-22a
3-134-22b
तौ जग्मतुर्मातुलभागिनेयौ
यज्ञं समृद्धं जमकस्य राज्ञः।
अष्टावक्रः पथि राज्ञा समेत्य
प्रोत्सार्यमाणो वाक्यमिदं जगाद ।।
3-134-23a
3-134-23b
3-134-23c
3-134-23d
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि
तीर्तयात्रापर्वणि
चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 134 ।।

3-134-4 वन्दिं वन्दिनम्। निजग्राहतुः ।। 3-134-9 तं वै विप्रः पर्यचरत्सशिष्यस्तां च ज्ञात्वा परिचर्यां गुरुः सः। इति झ पाठः ।। 3-134-11 यस्मात्कुक्षौ वर्तमान इति झ. पाठः ।। 3-134-14 वसुकिंचित्प्रजातेति झ. पाठः। प्रजाता प्रसूता ।।

आरण्यकपर्व-133 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आरण्यकपर्व-135